पर्यावरण संरक्षण : संवैधानिक दायित्व


भारत प्राचीन समय से ही पर्यावरण संरक्षण को लेकर सदैव सजग रहा, इसी कारण उसने संवैधानिक स्तर पर भी पर्यावरण संरक्षण की तरफ ध्यान दिया। हमारे देश में पर्यावरण के अनुकूल एक समृद्ध संस्कृति भी रही है यही कारण है कि देश में हर स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति ध्यान दिया गया और हमारे संविधान निर्माताओं ने इसका ध्यान रखते हुए संविधान में पर्यावरण की जगह सुनिश्चित की। पर्यावरण को संवैधानिक स्तर पर मान्यता देते हुए इसे सरकार और नागरिकों के संवैधानिक दायित्व से जोड़ा गया।

मानवीय जीवन के आरम्भ से ही मनुष्य एवं पर्यावरण में आपसी संबंध बना हुआ है। मनुष्य का जीवन प्रकृति पर निर्भर करता है। अत: उसके अस्तित्व के लिये प्राकृतिक परिवेश अनिवार्य है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति ‘पृथ्वी’ को माँ कहा गया है। ‘​माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या’1 अर्थात पृथ्वी हमारी माँ है और हम पृथ्वी के पुत्र हैं। चूँकि पृथ्वी माता रूप में संपूर्ण ब्रह्मांड के जीवों का पालन पोषण करती है। अत: इसका संरक्षण करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। भारतीय समाज आदिकाल से पर्यावरण संरक्षक की भूमिका निभाता रहा है। हमने प्रकृति प्रेम को सर्वोपरि रखा इसका कारण यह है कि हमारे वेदों, उपनिषदों, पुराणों एवं धार्मिक ग्रंथों में पेड़-पौधों एवं अन्य जीव-जंतुओं के सामाजिक महत्त्व को बताते हुए उनको पारिस्थितिकी से जोड़ा जाता है। प्राचीन युग में विभिन्न दार्शनिकों, शासकों और राजनेताओं ने प्रकृति के प्रति जागरूकता दिखाई है। प्राचीन युग के विद्वान कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में वन संरक्षण का उल्लेख किया है तथा पशुओं के शिकार के संबंध में अनेकों जटिल नियम प्रस्तुत किए हैं। अधुनातन परिभाषा के अनुसार चाणक्य भारत के प्रथम वन एवं वन्य जीव संरक्षक थे।2

इससे पूर्व पर्यावरण संरक्षण के लिये वैदिक युग में नदियों के देवत्व वाला स्वरूप उभरकर हमारे समक्ष उपस्थित हुआ था। नदी सूक्त में कहा गया है –

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।।3


हे गंगा, हे यमुना, आदि नदियों तुम मेरे स्रोत सुनो! गंगा के प्रति विशेष आदर अवश्य रहा, किंतु एक समय था, जब स्वयं गंगा नदी शब्द नदी मात्र का द्योतक था – सभी नदियाँ गंगा थी। नदी मात्र के प्रति जो आत्मीयता थी वह आज भी सुरक्षित है। यही कारण है कि आज वर्तमान सरकार ने गंगा नदी को माँ माना है और उसे प्रदूषण से रहित करने के लिये पूरे देश में राष्ट्रीय स्तर पर मुहिम चला रही है। अत: यही कहा जा सकता है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिये न केवल वर्तमान में बल्कि प्राचीन समय से जागरूकता विद्यमान थी। इस परिप्रेक्ष्य में हमें पर्यावरण के अर्थ को जानना होगा।

पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता


वर्तमान समय में मनुष्य प्रगति की ओर उन्मुख है। वह प्रतिदिन वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक क्षेत्र में उन्नति कर विकास की ओर बढ़ता जा रहा है वहीं दूसरी ओर विकास की गति हमारे लिये कष्टकारी सिद्ध होती जा रही है और इसी विकास के कारण हमारा पर्यावरण प्रभावित होकर प्रदूषित होता जा रहा है। वनों की कटाई, वनस्पतियों और जीवों के संबंधों में कमी, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में वृद्धि, विज्ञापन तथा तकनीकी का अप्रत्याशित प्रसार और जनसंख्या विस्फोट तथा परमाणु भट्टियों में पैदा होने वाली रेडियोधर्मी ईंधन की राख, रासायनिक प्रदूषक और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जनित प्रदूषक सामग्री के विस्तार से जो पारिस्थितिकी परिवर्तन प्रदूषण के रूप में सामने आ रहे हैं, उससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। प्रकृति दोहन के कारण जो स्थितियाँ पैदा हो रही हैं, उसमें प्रकृति कब तक मनुष्य का साथ दे पाएगी यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है। विकसित देश जिस आर्थिक विकास का लाभ उठा रहे हैं वह भूतकाल में मानवीय पर्यावरण के संरक्षण को ध्यान में रखे बिना प्राप्त किया गया था।4 आज से पचास वर्ष पहले से ही पर्यावरणविद मानव और प्रकृति के बिगड़ते संबंधों के बारे में सचेत किए जा रहे हैं, लेकिन उपभोग के नाम पर औद्योगीकरण दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।

किसी भी देश में प्रदूषण की रोकथाम तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये सबसे बेहतर उपाय है कि पर्यावरण संबंधी पारंपरिक कानूनों तथा आधुनिक कानूनों को सम्मिलित कर एक बेहतर कानून का निर्माण करके वहाँ के सीमित संसाधनों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय सुरक्षा के बेहतर उपाय किए जाएँ तथा इसके लिये सभी सकारात्मक एवं प्रासंगिक उपायों को अपनाया जाए। अत: पर्यावरण संरक्षण के लिये वैश्विक तथा राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए। वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संस्था द्वारा तथा राष्ट्रीय स्तर पर संविधान द्वारा तथा सरकारी प्रावधानों द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रयास किए जाने चाहिए।

पर्यावरण संरक्षण : मानवीय दृष्टिकोण


भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में प्रकृति से अनुराग केवल उपयोगितावादी दृष्टि से नहीं वरन पूजा श्रद्धा और आदर की भावना से किया जाता है। वेदों में भी कहा गया है ‘रक्षाये प्रकृति पातुं लोका’ अर्थात प्राणि मात्र के लिये प्रकृति की रक्षा कीजिए। यही पर्यावरणीय संरक्षण का भाव वर्तमान समय में स्टॉकहोम सम्मेलन में दिखाई देता है। सन 1972 में स्टॉक होम में पर्यावरण पर आयोजित प्रथम अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में एक मत से सभी ने पर्यावरण संरक्षण को मानवता की आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया। सौभाग्य से तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इसका प्रतिनिधित्व किया और इसे एक व्यावहारिक रूप देने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने जहाँ एक ओर पर्यावरण के संरक्षण को प्राथमिकिता देना बेहिचक स्वीकार किया, वहीं उन्होंने इस बात को जोरदार ढँग से सामने रखा कि इस मुद्दे का समाधान विकास की समस्या के साथ जोड़कर ढूँढ़ा जाना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने रेखांकित किया कि पर्यावरण का संकट वर्तमान में उत्पन्न हुआ है उसके लिये खुद औपनिवेशिक शक्तियाँ कम जिम्मेदार नहीं हैं। तेल हो या खनिज अपनी जरूरत के लिये इन संसाधनों का दोहन करते वक्त प्रकृति के स्वास्थ्य की कोई चिंता संपन्न पश्चिमी देशों ने कभी नहीं की थी।5

इस सम्मेलन में विकसित देशों के सामने यह विकल्प रखा गया कि पर्यावरण संरक्षण के लिये दोहन का त्याग करना चाहिए तथा न्यायोचित मुआवजा देने के लिये उन्हें व्यवस्था करनी चाहिए। इस सम्मेलन में जीवन को बचाने के लिये प्रगति की परिभाषा के पुनर्विलोकन तथा जनसंख्या नियंत्रण अधिनियम पारित किया गया तथा राज्यों द्वारा भी पर्यावरण विभाग स्थापित किए गए। वास्तव में यह सम्मेलन मानवता की स्पष्ट घोषणा थी कि पर्यावरण विनाश अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। अत: पर्यावरण को बचाने की संपूर्ण मानवता की नैतिक जिम्मेदारी बनती है। इस सम्मेलन में इस मंतव्य को स्वीकार किया गया कि मानवीय पर्यावरण का संरक्षण और सुधार एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, जिससे लोगों की खुशहाली और पूरे विश्व का आर्थिक विकास जुड़ा है। सभी सरकारों और संपूर्ण मानव जाति का यह दायित्व है कि वह मानवीय पर्यावरण के संरक्षण और सुधार के लिये मिल-जुल कर काम करें, ताकि संपूर्ण मानव जाति और उसकी भावी पीढ़ियों का हित हो सकें। यह घोषणा कारगार साबित हुई और इसको ध्यान में रखकर अनेक देशों ने पर्यावरण संरक्षण हेतु नियम-कायदों व कानूनों का निर्धारण किया और इन कानूनों के उल्लंघन की स्थिति में दंड की व्यवस्था की।

भारतीय संविधान व पर्यावरण संरक्षण



आज के दौर में मानव विकास की दौड़ में इतना आगे बढ़ गया है कि उसे अपने पर्यावरण की ओर देखने का समय नहीं है। वह यह भूलता जा रहा है कि उसे पृथ्वी पर रहना है। विश्व में प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह बच्चा हो या वृद्ध अपने पर्यावरण के प्रति सजगता, जागरूकता, चेतना और पर्यावरण अनुकूलन को विकसित करने की आवश्यकता है और तभी इस गंभीर समस्या का समाधान किया जा सकता है।

भारत प्राचीन समय से ही पर्यावरण संरक्षण को लेकर सदैव सजग रहा, इसी कारण उसने संवैधानिक स्तर पर भी पर्यावरण संरक्षण की तरफ ध्यान दिया। हमारे देश में पर्यावरण के अनुकूल एक समृद्ध संस्कृति भी रही है यही कारण है कि देश में हर स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति ध्यान दिया गया और हमारे संविधान निर्माताओं ने इसका ध्यान रखते हुए संविधान में पर्यावरण की जगह सुनिश्चित की। पर्यावरण को संवैधानिक स्तर पर मान्यता देते हुए इसे सरकार और नागरिकों के संवैधानिक दायित्व से जोड़ा गया।

हमारे संविधान में पर्यावरण संरक्षण के लिये कुछ प्रावधान किए गए हैं। संविधान देश का सर्वोच्च तथा मौलिक कानून है तो समस्त व्यक्तियों, राज्यों पर बाध्यकारी रूप से लागू होता है। प्रारंभ में पर्यावरण संरक्षण के संबंध में प्रावधान नहीं था लेकिन अनुच्छेद 47 द्वारा स्वास्थ्य की उन्नति हेतु राज्य का कर्तव्य अधिरोपित कर पर्यावरण सुधार किया गया। संसद द्वारा 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिये अधिनियमों को पारित करके संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति निर्देशक एवं मूल कर्तव्यों में सम्मिलित किया गया है इसके अंतर्गत कहा गया है –

1. राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 48 में कहा गया है कि राज्य पर्यावरण सुधार एवं संरक्षण की व्यवस्था करेगा तथा वन्य जीवन को सुरक्षा प्रदान करेगा।6
2. संविधान के भाग 4क के अनुच्छेद 51 में मूल कर्तव्यों में प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी अन्य जीव भी हैं इनकी रक्षा करें और उनका संवर्धन करें तथा प्राणि मात्र के प्रति दया भाव रखें।7
3. भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को उन गतिविधियों से बचाया जाना चाहिए, जो उसके जीवन, स्वास्थ्य और शरीर को हानि पहुँचाती हो।
4. भारतीय संविधान के अनुच्छेदों 252 व 253 को काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि वे पर्यावरण को ध्यान में रखकर कानून बनाने के लिये अधिकृत करते हैं।

भारतीय संविधान में प्रदूषण मुक्त पर्यावरण हेतु अनेक प्रावधान व्यापक रूप से विद्यमान है। किसी भी कानून की वैधता के लिये यह अति आवश्यक हो जाता है कि केवल अधिनियम द्वारा संरक्षण न प्राप्त हो बल्कि संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों के अधीन बनाया गया हो।8 भारतीय संविधान में न सिर्फ पर्यावरण को बचाने की अवधारणा निहित है, बल्कि पर्यावरण असंतुलन से होने वाले दुष्प्रभावों से भी रक्षा की तरफ ध्यान दिया है।

पर्यावरण संरक्षण : सरकारी प्रयास


संसद द्वारा भी पर्यावरण संरक्षण के लिये अनेक अधिनियम पारित किए गए हैं यथा –

- वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम (1972)
- जल प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम (1974)
- वायुप्रदूषण नियंत्रण अधिनियम (1981)
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986)
- खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन एवं निष्पादन अधिनियम (1989)
- ध्वनि प्रदूषण नियमन एवं नियंत्रण अधिनियम (2000)
- भारतीय दंड संहिता (1860)
- इकोवार्म स्कीम

संसद ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम पारित करके सराहनीय प्रयत्न किए हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भी पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण अतुलनीय योगदान दिया है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के इन ध्येयों में वनस्पतियों, वन रोपड़, जीव जंतुओं और वन्य जीवों का संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण, पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करना शामिल है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सरकारी प्रयास किए जा रहे हैं।

1. केंद्र सरकार द्वारा गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्था की स्थापना 1988 ई. में की गई।
2. भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड की स्थापना 1985 में की गई।
3. केंद्र ने 1988 ई. में राष्ट्रीय वन तथा वन्य जीव संबंधी नीति का निर्माण किया गया।
4. केंद्र सरकार ने कुछ वन्य क्षेत्रों को संरक्षित कर दिया है।
5. केंद्र सरकार द्वारा 1985 ई. में गंगा को स्वच्छ रखने के उद्देश्य से गंगा सत्ता की स्थापना की गई।
6. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) के अंतर्गत केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण बोर्ड की स्थापना की गई।
7. केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय पर्यावरण फेलोशिप की स्थापना 1995 ई. में की गई।

इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय पर्यावरण नीति (2006) विकसित की गई इसके साथ-साथ जन जागरण, सचल पर्यावरणीय प्रयोगशाला, पर्यावरण संबंधी आंदोलन, जिसमें चिपको आंदोलन 1970 के दशक में चलाया गया जिसका उद्देश्य हिमालय क्षेत्र के वन एवं जैव विविधता को बनाया था। शांत घाटी आंदोलन तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन इन सभी का उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा करना था।

संसद के साथ-साथ न्यायपालिका ने संवैधानिक प्रावधान का पर्यावरणीय संदर्भ में निर्वाचन करके पर्यावरण संरक्षण एवं सुधार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। न्यायालय ने अनुच्छेद 14 और 21 के निर्वाचन द्वारा मानव स्तर और इस पर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों को नए आयाम दिए हैं।

पर्यावरण संरक्षण एवं न्यायपालिका


सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरण मामले में जो दूसरा दृष्टिकोण अपनाया गया वह जनहित याचिका पर आधारित है। पिछले दो दशकों में भारत की न्यायपालिका ने अपने अनुदारवादी दृष्टिकोण को परिवर्तित करके प्रगतिशील तथा उदारवादी न्यायपालिका का रूप धारण किया है। प्रदूषण के बचाव से संबंधित अनेक मामले जनहित वादों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के सामने लाए गए इनमें वन नाशन, नदियों में प्रदूषण, पर्यावरण संतुलन का विनाश से संबंधित बहुत से महत्त्वपूर्ण मामले उठाये गए न्यायपालिका ने पर्यावरण तक जनहित वादों का क्षेत्राधिकार विस्तृत करने में मूल अधिकारों (अनुच्छेद 21, 22) तथा नीति-निर्देशक सिद्धांतों को आधार बनाया। इसने प्रदूषणों को रोकने के लिये जनहित याचिकाओं के माध्यम से कई ऐतिहासिक फैसले दिए हैं।

पर्यावरण संरक्षण : न्यायपालिका के कुछ महत्त्वपूर्ण फैसले


पर्यावरण संबंधी मामलों की सुनवाई के लिये समाचार माध्यमों ने जजों की विशेष बेंच को हरित बेंच की उपमा तथा माननीय न्यायाधीश कुलदीप सिंह को पर्यावरण संबंधी मामलों में अपने प्रसिद्ध फैसले के कारण हरित जज की संज्ञा दी है। समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरण संबंधी जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से महत्त्वपूर्ण निर्देश जारी किए।

1. सभी सिनेमाहॉल, चल सिनेमा तथा विडियो पार्लर अनिवार्य रूप से कम से कम दो पर्यावरण संबंधी फिल्म का संदेश अनिवार्य रूप से प्रत्येक शो में नि:शुल्क दिखाएँगे। यह उनके लिये लाइसेंस जारी करते समय पूर्व शर्त होगी।
2. सिनेमा हॉलों द्वारा लघु अवधि को पर्यावरण तथा प्रदूषण संबंधी सूचनाप्रद फिल्म दिखाना।
3. पर्यावरण तथा प्रदूषण संबंधी रुचिकर कार्यक्रम का प्रसारण प्रतिदिन 5 से 7 मिनट अवधि के लिये तथा सप्ताह में एक बार लंबी अवधि के लिये दूरदर्शन तथा रेडियो द्वारा प्रसारित किया जाए।
4. छात्रों में सामान्य जागृति लाने के लिये पर्यावरण को विद्यालयों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में एक अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए।
5. सन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने संघीय सरकार तथा स्थानीय प्राधिकरणों को दिल्ली के ऐतिहासिक नगर को प्रतिदिन साफ करने, सघन वानिकी अभियान को चलाने तथा आरक्षित वन कानून लागू करने के आदेश दिए।
6. उच्चतम न्यायालय ने जन समस्या तथा आगरा-ताजमहल की विश्व धरोहर को बचाने के लिये 292 कोयला आधारित उद्योगों को बंद करने या अन्यत्र ले जाने या गैस ईंधन आधारित बनाने के उद्देश्य से आदेश पारित किए। न्यायालय ने (1999 में) सचिव, पर्यावरण वन मंत्रालय तथा सचिव पर्यटन मंत्रालय को निर्देश दिया कि पर्यटकों से एकत्र किया गया कोष (लगभग 20 करोड़) स्मारक के संरक्षण तथा नगर के सौंदर्यीकरण व्यय किया जाएगा।
7. उच्चतम न्यायालय ने वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिये विभिन्न निर्देश जारी किए हैं।
8. सन 2000 से चार महानगरों, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई में सीसा रहित पेट्रोल का प्रयोग किया जाए।
9. दिल्ली में अप्रैल सन 2001 में टैक्सियों, ऑटोरिक्शा तथा बसों में सीएनजी का प्रयोग हुआ।
10. सभी सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषेध किया जाए।

निष्कर्ष
आज के दौर में मानव विकास की दौड़ में इतना आगे बढ़ गया है कि उसे अपने पर्यावरण की ओर देखने का समय नहीं है। वह यह भूलता जा रहा है कि उसे पृथ्वी पर रहना है। विश्व में प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह बच्चा हो या वृद्ध अपने पर्यावरण के प्रति सजगता, जागरूकता, चेतना और पर्यावरण अनुकूलन को विकसित करने की आवश्यकता है और तभी इस गंभीर समस्या का समाधान किया जा सकता है। वर्तमान समय में आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्यों द्वारा पर्यावरण के साथ समन्वयात्मक, सहयोगात्मकता और सामंजस्य पूर्ण संबंध को अपनाया जाए। साथ ही साथ हम अपने शास्त्र और प्राचीन संस्कृति को अपनाएँ और अपने संविधान में पर्यावरण संरक्षण के प्रावधानों का पालन करें।

संदर्भ
अथर्ववेद 12/1/12
डॉ. भार्गव रणजीत, ‘भारतीय पर्यावरण इतिहास’ के झरोखे से, पृ. 8
ऋग्वेद के नदी सूक्त 10/75/5
ए. मापाजी सिनजेला, “डेवलपिंग कंट्रीज पर्सेप्शन्स ऑफ इन्वायर्नमेंटल प्रोटेक्शन एंड इकॉनामिक डेवलपमेंट”, आईजेआईएल वाल्यूम 24 (1984) पृ. 489
पुष्पेश पंत “21वीं शताब्दी में अन्तरराष्ट्रीय संबंध” मैकग्रा हिल एजुकेशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. VIII-47
आरसी अग्रवाल, “भारतीय संविधान का विकास तथा राष्ट्रीय आंदोलन”, एस. चंद एंड कंपनी लिमिटेड, नई दिल्ली, 2000, पृ.55
वही पृ. 50
प्रद्युम्न कुमार त्रिपाठी, “भारतीय संविधान के प्रमुख तत्व”, प्रथम संस्करण, 1981, पृ.35

लेखिका महारानी बनारस महिला महाविद्यालय, रामनगर, वाराणसी में राजनीतिशास्त्र की प्रवक्ता हैं।
ईमेल : sandhyatripathi11@gmail.com


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