पर्यावरण संरक्षण में चिपको आंदोलन की प्रासंगिकता

<i>फोटो:रेयर फैक्ट्स  </i>
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जैसे जैसे भारत आधुनिकता की और बढ़ रहा है वैसे-वैसे देश में जलवायु परिवर्तन को लेकर बहस का दायरा भी बढ़ गया है, लोग आज अपने पूर्वजों द्वारा किये संघर्ष को याद कर प्रकृति को बचाने के लिए हर वो प्रयास कर रहे जिससे आने वाली पीढ़ी भी प्रकृति के महत्व को समझ सके और बढ़ते जलवायु परिवर्तन को लेकर कड़े कदम उठा सके। इसलिए ये जरूरी है की वो चिपको आंदोलन जैसे आंदोलनों से प्रेणा ले। 

चिपको शब्द “चिपकने” अथवा “लिपटने” से बना है। पेड़ों से चिपककर या लिपटकर उन्हें काटे जाने का विरोध करने की विधि को “चिपको” नाम दिया गया, जिससे यह विधि वृक्ष रक्षा में लोकप्रिय हो सके। इसकी लोकप्रियता एवं प्रभावशीलता के कारण ही चिपको ने एक जन-आंदोलन का रूप लिया तथा यह “चिपको आंदोलन” के नाम से मशहूर आंदोलन बन गया। वृक्षों से चिपककर सर्वप्रथम अपने प्राणों की आहूति देने की घटना सितम्बर 1730 में राजस्थान के जोधपुर जिले के खेजड़ली (अब खेतड़ी) गांव में घटित हुई।संतुलित विकास प्रकृति और मानव की एकता को ध्यान में रखकर चलता है। ऐसी योजनाएं पर्यावरण संबंधी प्रश्नों के व्यापक मूल्यांकन के आधार पर ही बन सकती हैं। कई ऐसे मामले हैं जिनसे पर्यावरण संबंधी पहलुओं पर सही समय पर सही परामर्श से उनका बेहतर प्रारूप तैयार करने में मदद मिलती है। परिणामस्वरूप पर्यावरण पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को रोका जा सकता है। इसलिए अपनी योजनाओं और विकास के कार्यों में पर्यावरण का पक्ष सम्मिलित करना आवश्यक है। पर्यावरण की महत्ता इस बात से चरितार्थ होती है कि यह पृथ्वी पर जैविक विकास, संवर्धन और रक्षा के लिए ऐसी दशा का निर्माण करता है जिसके बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि पर्यावरण वह परिवृत्ति है जो मानव को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उसके जीवन और क्रियाओं पर प्रभाव डालती है। इस परिवृत्ति या परिस्थिति में मनुष्य से बाहर के तथ्य, वस्तुएं, दशाएं सम्मिलित होती हैं जिनकी क्रियाएं मनुष्य के जीवन विकास को प्रभावित करती हैं।


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पर्यावरण के प्रति जागरूकता भारतीय समाज में आदिकाल से रही है। पर्यावरण के तत्त्वों के प्रति हमारी संवेदनशीलता मानवोचित गुण के रूप में देखी जाती रही है। भारतीय मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व प्राकृतिक व्यवस्था को आत्मसात करने का मार्ग अपनाया, क्योंकि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ पूरे जीवमण्डल के लिए खतरा बन सकती थी। पर्यावरण के तत्त्वों—जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, वनस्पति आदि के प्रति वेदों में असीम श्रद्धा देखी जा सकती है। इसके अलावा पुराण, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत गीता, रामायण, महाभारत आदि में इस तथ्य के ज्वलंत प्रमाण मिलते हैं कि हमने सदैव प्रकृति की पूजा की है।

पर्यावरण पृथ्वी पर जैविक विकास, संवर्धन और रक्षा के लिए ऐसी दशा का निर्माण करता है जिसके बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि पर्यावरण वह परिवृत्ति है जो मानव को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उसके जीवन और क्रियाओं पर प्रभाव डालती है।पर्यावरण की अनुकूलता और प्रतिकूलता के साथ उसकी सुरक्षा का मूल्यांकन आज की आवश्यकता है। पृथ्वी पर मनुष्यों की बढ़ती जनसंख्या और उसके साथ तीव्र गति से बढ़ती आवश्यकता ने प्रकृति के सहयोग के स्थान पर संघर्ष के लिए उत्साहित किया है। हाल के दशकों में नगरीकरण और औद्योगिकीकरण के नाम पर बिना सोचे-समझे अंधाधुंध काटे गए वनों के कारण भूमि अपरदन, भूस्खलन तथा बाढ़ जैसी समस्याओं का प्रकोप बढ़ गया है। चिपको आंदोलन वनों के विनाश को बचाने की दिशा में एक कदम है जिसका अंत्तोगत्वा लक्ष्य पर्यावरण को संरक्षण देना है। अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि आज चिपको आंदोलन पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने में अहम भूमिका अदा कर रहा है।

भारत में पर्यावरण संरक्षण संबंधी “चिपको आंदोलन” का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

 

खेजड़ली गांव में चिपको आंदोलन


उस समय दिल्ली के मुगल सम्राट औरंगजेब का शासन था तथा राजस्थान में जोधपुर के राजा थे - अजीत सिंह। जोधपुर के राजा अजीत सिंह को आलीशान महल बनाने की इच्छा हुई किंतु जब महल में ईंटों की पकाई हेतु ईंधन की आवश्यकता हुई तो सभी चिंतित हो गए क्योंकि उस मरुभूमि क्षेत्र में वनों का अभाव था। इसी समय किसी ने राजा अजीत सिंह का खेजड़ली गांव के हरे-भरे वनों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया। तत्काल खेजड़ली के वनों को काटने के लिए राज्य कर्मचारी अपनी-अपनी कुल्हाड़ियां लेकर रवाना हो गए। वर्षा ऋतु का समय होने से गांव के लगभग सभी पुरुष खेतों में गए हुए थे। जब वे कर्मचारी पेड़ काटने की तैयारी में थे तभी श्रीमती अमृता देवी तथा उनकी तीन पुत्रियों — आसु बाई, रतनी बाई तथा भागु बाई ने पेड़ काटने आए कर्मचारियों से प्रार्थना की कि वे हरे पेड़ न काटे क्योंकि हरे पेड़ काटना धर्म के खिलाफ है। अमृता देवी ने कहा कि-

वाम लिया दाग लगे टुकड़ों देवो न दान
सर साठे रूख रहे तो भी सस्तो जान।


अर्थात् यदि सर कट जाए और पेड़ बच जाए तो यह सस्ता सौदा है। अमृता देवी अपने धर्म की रक्षा के लिए पेड़ से लिपट गई। कुल्हाड़ियों के प्रहार से उसका क्षत-विक्षत शरीर जमीन पर गिर पड़ा। अमृता देवी के पश्चात् उनकी तीन मासूम कन्याएं भी पेड़ से लिपट गई और उनके शीश भी धड़ से अलग कर दिए गए। यह दुःखद समाचार सुनकर ग्रामीण विश्नोई समाज एकत्रित हो गए। उन्होंने हरे वृक्षों के कटाव को रोकने के लिए तथा धर्म की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर करने की शपथ ली। हरे वृक्षों को बचाने के लिए इस स्थान पर कुल 363 व्यक्ति शहीद हुए। मरने वाले सभी विश्नोई जाति के थे। जब यह समाचार जोधपुर राजा ने सुना तो उन्होंने खुद खेजड़ली गांव आकर तत्काल पेड़ों को काटने का आदेश वापस लिया। साथ ही साथ यह भी आदेश दिया कि भविष्य में अब कोई हरा पेड़ नहीं काटा जाना चाहिए।

खेजड़ली के इस महान बलिदान के पीछे राजस्थान में 15वीं सदी में हुए विश्नोई पंथ के प्रवर्तक संत जंभोजी की प्रेरणा काम कर रही थी। जंभोजी ने सदाचार के 29 नियम बनाए जिसमें तीन पर्यावरण और प्रकृति संरक्षण संबंधी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जो निम्न हैं-

1. हरे वृक्ष को न काटे।
2. सभी जीवों के प्रति दया भाव रखें।
3. दुधारू पशुओं की उचित देखभाल करें।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि विश्नाई समाज हमारी सांस्कृतिक धरोहर, सामाजिक मूल्यों व परंपराओं का संवाहक है। पर्यावरण के प्रति इस समाज का योगदान एवं चेतना अनुकरणीय है।

 

रैणी गांव में चिपको आंदोलन


चिपको आंदोलन में तहलका मचाने वाली घटना मार्च 1974 में सीमांत जिला चमोली (उत्तराखण्ड) के रैणी गांव में हुई जिसमें पुरुषों की अनुपस्थिति में श्रीमती गौरा देवी के नेतृत्व में चिपको पद्धति को अपनाकर महिलाओं ने रैणी गांव में वनों को भारी विनाश से बचाया।

मार्च 1974 में रैणी गांव के वनों में बहुत बड़ी संख्या में सरकार ने पेड़ों को काटने के लिए छापा मारा। इस कटान की योजना के विरुद्ध श्री चण्डी प्रसाद भट्ट, श्री गोविन्द सिंह रावत व श्रीमती गौरा देवी के नेतृत्व में क्षेत्र के विभिन्न गांवों के महिला मंगल दलों, छात्रों एवं कार्यकर्ताओं ने एकजुटता से वन विनाशकारी कटाव को रोकने का बीड़ा उठाया।

26 मार्च, 1974 के दिन भूमि के मुआवजे के संदर्भ में रैणी गांव के समस्त पुरुष चमोली गए हुए थे। गांव में केवल महिलाएं और बच्चे थे। उसी दिन वन विभाग के कर्मचारियों ने पेड़ काटने वालों के साथ रैणी गांव पर धावा बोल दिया। ऐसा एक सुनियोजित योजना के तहत किया गया। सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद सरकार ने सैनिक उद्देश्यों के लिए रैणी क्षेत्र की भूमि का अधिग्रहण किया था जिसमें सड़कों के लिए अधिगृहित भूमि भी सम्मिलित थी परंतु इस भूमि का ग्रामीणों को मुआवजा नहीं दिया गया था। रैणी के वनों के पेड़ों के कटान के लिए नीलामी हो जाने के बाद श्री चण्डी प्रसाद भट्ट ने तकाल ही स्पष्ट कर दिया था कि पेड़ काटने वालों को चिपको आंदोलन का सामना करना पड़ेगा।

एक सप्ताह बाद सरकार की ओर से घोषणा की गई कि 1962 की लड़ाई के दौरान अन्य उपयोग के लिए जो भूमि सरकार ने अधिगृहित की है, उसका मुआवजा चमोली में लोगों को दिया जाएगा। इस घोषणा को सुनकर रैणी गांव के पुरुष चमोली के लिए रवाना होने लगे। महिलाओं को पहले ही शक था कि पुरुषों की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर वन विभाग वाले ठेका पाने वाले कंपनी के मजदूरों के साथ पेड़ काटने आ सकते हैं इसलिए वे सतर्क थी कि लोग पेड़ काट सकते हैं।

जैसे ही मजदूर वन विभाग के कर्मचारियों के साथ रैणी गांव की ओर बढ़ रहे थे एक छोटी लड़की ने उन्हें पहचान लिया कि ये पेड़ काटने वाले हैं। वह लड़की भागती हुई गौरा देवी के पास पहुंची और पेड़ काटने वालों की सूचना दी। गौरा देवी ने तुरंत ही 27 महिलाओं के साथ वनों की ओर प्रस्थान किया।

गौरा देवी सहित सभी महिलाओं ने वन विभाग के कर्मचारियों को पेड़ न काटने और वापस जाने की सलाह दी। गौरा देवी ने कहा, “जंगल हमारा मायका है और पेड़ ऋषि हैं। यदि जंगल कटेगा तो हमारे खेत, मकान के साथ मैदान भी नहीं रहेंगे। जंगल बचेगा तो हम बचेंगे। जंगल हमारा रोजगार है।” इतना कहने के बाद भी वन कर्मचारियों पर कोई असर नहीं हुआ। एक वन कर्मचारी बन्दूक तानकर खड़ा हो गया तब गौरा देवी ने कहा कि जंगल काटने से पहले मुझे गोली मारनी होगी। इस आंदोलन में महिलाओं को काफी संघर्ष करना पड़ा तथा गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं। फलतः ठेकेदार के एजेंट को अपने मजदूरों सहित वापस लौटना पड़ा।

रैणी की चिपको की घटना अपने आप में विशेष तरह की थी, क्योंकि इसमें पुरुषों की अनुपस्थिति में महिलाओं ने बड़ी सूझ-बूझ व हिम्मत से कार्य किया और अपनी जान की परवाह किए बगैर पेड़ों से चिपक गईं। इस तरह से रैणी वन के 2451 पेड़ों को काटने से बचाने में वे सफल हो गई।

 

अप्पिको आंदोलन


कन्नड़ भाषा में चिपको का अर्थ अप्पिको होता है। इस प्रकार अप्पिको आंदोलन चिपको आंदोलन की तर्ज पर ही कर्नाटक के पाण्डुरंग हेगड़े के नेतृत्व में अगस्त, 1993 में शुरू हुआ। इस आंदोलन में भी लोगों ने पेड़ से चिपक कर पेड़ों की रक्षा की है। अतः अप्पिको आंदोलन का मूल उद्देश्य वनारोपण विकास एवं संरक्षण है।

 

चिपको आंदोलन की प्रासंगिकता


सामाजिक आंदोलन की अवधारणा सामाजिक विकास और प्रगति की अवधारणा से भिन्न है। सामाजिक आंदोलन सामूहिक व्यवहार का स्वरूप है। इसका संचालन समाज एवं संस्कृति में नवीन परिवर्तन लाने के लिए होता है। सामाजिक आंदोलनों का उद्देश्य सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रों में आंशिक या अमूल-चूल परिवर्तन लाना हो सकता है। स्वतंत्रता से पहले और पश्चात् अनेक सामाजिक आंदोलनों का जन्म हुआ जिनमें चिपको आंदोलन को भी विशेष स्थान प्राप्त है। इसके पीछे मूल कारण यह है कि इस आंदोलन ने सामाजिक जनचेतना जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।

चिपको आंदोलन की मान्यता है कि वनों का संरक्षण और संवर्धन केवल कानून बनाकर या प्रतिबंधात्मक आदेशों के द्वारा नहीं किया जा सकता है। वनों के पतन के लिए वन प्रबंधन संबंधी नीतियां ही दोषपूर्ण हैं। गांव की जनता की आवश्यकताओं की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। एक ओर सरकारी संरक्षण में वन पदार्थों को ऊंची कीमत पर बेचा जाता रहा है तो दूसरी तरफ वनों के बीच में रहने वाले लोगों की जलाऊ लकड़ी, इमारती लकड़ी, चारा पत्ती जैसी आवश्यकताएं जो कानून से प्राप्त है, आज की सरकारी नीतियों द्वारा छीन ली गई हैं।

पर्यावरण संरक्षण से जुड़े आंदोलन में भी महिलाओं ने अपनी महत्ती भूमिका का निर्वहन किया है। इतिहास साक्षी है कि प्राचीन समय में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित प्रयास महिलाओं की पहल से ही प्रारंभ हुए हें। 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में जोधपुर नरेश के कर्मचारियों द्वारा खेजड़ली गांव में पेड़ों की कटाई प्रारंभ की गई। श्रीमती अनिता देवी ने अपना बलिदान देकर वृक्षों की रक्षा की, जो अपने आप में प्रेरणास्रोत है।

सन् 1974 में उत्तराखण्ड में रैणी गांव में पुरुषों की अनुपस्थिति में श्रीमती गौरा देवी ने वृक्षों को बचाने के लिए घर-घर जाकर महिलाओं को एकत्रित किया और चिपको तकनीक से वृक्षों को बचाया।

इस प्रकार चिपको आंदोलन ने ग्रामीण महिलाओं में न केवल पर्यावरण संरक्षण की चेतना विकसित की है बल्कि व्यवस्था में भागीदारी के लिए नेतृत्व का विकास भी किया है। अब वन पंचायतों पर महिलाओं का भी कब्जा होने लगा है। आज के वनों के संरक्षण में सबसे अगली कतार में स्वयं स्फूर्त इच्छा से खड़ी हैं। इतना ही नहीं महिलाएं राजनीतिक कार्यों एवं पदों पर भी बराबर नजर रखती हैं। विकास क्षेत्रों में भी वे उच्च राजनीतिक पदों पर विराजमान हैं।

वनों के महत्व को ध्यान में रखते हुए चिपको आंदोलन के मुख्य उद्देश्य रहे हैं-

1. आर्थिक स्वावलम्बन के लिए वनों का व्यापारिक दोहन बंद किया जाए।
2. प्राकृतिक संतुलन के लिए वृक्षारोपण के कार्यों को गति दी जाए।
3. चिपको आंदोलन की स्थापना के पश्चात् चिपको आंदोलनकारियों द्वारा एक नारा दिया गया-

क्या है जंगल के उपचार मिट्टी, पानी और बयार,
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।


चिपको आंदोलन प्रारंभ में त्वरित आर्थिक लाभ का विरोध करने का एक सामान्य आंदोलन था किंतु बाद में इसे पर्यावरण सुरक्षा का तथा स्थाई अर्थव्यवस्था का एक अभिनव आंदोलन बना दिया। चिपको आंदोलन से पूर्व वनों का महत्व मुख्य रूप से वाणिज्यिक था। व्यापारिक दृष्टि से ही वनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जाता था। चिपको आंदोलनकारियों द्वारा वनों के पर्यावरणीय महत्व की जानकारी सामान्य जन तक पहुंचाई जाने लगी। इस आंदोलन की धारणा के अनुसार वनों की पर्यावरणीय उपज है — ईंधन, चारा, खाद, फल और रेशा। इसके अतिरिक्त मिट्टी तथा जल वनों की दो प्रमुख पर्यावरणीय उपज हैं और यही मनुष्य के जिन्दा रहने का आधार हैं।

चिपको आंदोलन की मान्यता है कि वनों के संरक्षण के लिए लोकशिक्षण को आधार बनाया जाए जिससे और अधिक व्यापक स्तर पर जनमानस को जागरूक किया जा सके। योजना की सफलता के लिए यह तथ्य भुलाया नहीं जा सकता है कि लोगों को जोड़े बिना वन संरक्षण की कल्पना ही व्यर्थ है। इस प्रकार, चिपको आंदोलन में पेड़ों की रक्षा के लिए सुदृढ़ आधार, वन संसाधनों का वैज्ञानिक तरीके से उपयोग, समुचित संरक्षण और वृक्षारोपण आदि के लिए कार्य किए गए। यह आंदोलन अब केवल पेड़ों से चिपकने तथा उनको बचाने का आंदोलन ही नहीं रह गया है बल्कि यह एक ऐसा आंदोलन बन गया है जो वनों की स्थिति के प्रति जागृति पैदा करने, संपूर्ण वन प्रबंध को एक स्वरूप प्रदान करने और जंगलों एवं वनवासियों की समृद्धि के साथ ही धरती की समृद्धि वाला आंदोलन बन गया है।

 

निष्कर्ष


पर्यावरण संरक्षण में चिपको आंदोलन द्वारा किए गए कार्यों का कभी भी विस्मय नहीं किया जा सकता है। पेड़ न काटने देने से एक छोटी-सी सोच से शुरू हुई चिपको की यात्रा वनों की उपयोगिता, युक्तियुक्त उपयोग, वन और जन का अंतर्संबंध, वन व्यवस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी, परिस्थितिकी और पर्यावरण के वृहत्तर संदर्भों के छोर छूने में सफल रही हैं और पेड़ बचाने का छोटा-सा दिखने वाला उपक्रम पर्यावरण संरक्षण का व्यापक अभियान बन गया है। साथ ही साथ यह भी कहना होगा कि अब यह आंदोलन कम अभियाननुमा कार्यक्रम अधिक हो गया है और लड़ने की नहीं बल्कि करने की सीख देने लगा है।

चिपको आंदोलन यह संदेश देता है कि वनों से हमारा गहरा रिश्ता है। वन हमारे वर्तमान और भविष्य के संरक्षक हैं। यदि वनों का अस्तित्व नहीं होगा तो हमारा अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। मनुष्य का यह अधिकार है कि वह अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक साधनों का भरपूर उपयोग करें लेकिन इस निर्ममता के साथ नहीं कि प्राकृतिक संतुलन ही बिगड़ जाए। चिपको आंदोलन के निरंतर प्रयास के कारण संपूर्ण देश में अब लोग यह समझने और स्वीकार करने लगे हैं कि अगर उन्हें अपनी खोई हुई खुशहाली को फिर से लौटाना है तो उसके लिए उन्हें वनरहित भूमि को पुनः हरी परत से ढकना होगा। अतः यह आंदोलन आज देश के सीमा पार अनेक देशों के लिए जनजागरण का सूत्र बना हुआ है।

(लेखक श्री अप्रब राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग (उत्तराखण्ड) के राजनीति विज्ञान विभाग में प्रवक्ता हैं।)

 

 

 

 

 

 

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