पर्यावरण संरक्षण के लिये वन्य जीव संरक्षण आवश्यक


विकास की दौड़ में इंसान इतनी तेजी से आगे निकल चुका है, कि कई अहम चीजों को नजरअंदाज कर चुका है, वो ये भूल चुका है कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिये, उसको उन सभी का संतुलन बनाए रखना होगा, जो उसे प्राकृतिक रूप से मिलता है, जिसे हम पारिस्थितिकी तंत्र या इकोसिस्टम कहते हैं। आज मानवजाति का अस्तित्व इसीलिये भी खतरे में है क्योंकि इंसान ने पारिस्थितिकी तंत्र को ही बिगाड़ दिया है। बढ़ती आबादी और जंगलों में होते शहरीकरण ने मानव जाति को पतन की ओर धकेल दिया है। इंसान स्वार्थी बन खुद से इतना प्रेम करने लगा है कि वह उन साधनों के स्रोत को ही भूल चुका है, जिसके बिना उसका जीवन असम्भव है। जंगलों को काटना शुरू किया, तो वन्य जीवों को भूल गया। मानव-जाति की ये दखल अंदाजी वन्य जीवों को बेघर करती चली गई।

अतिक्रमण से परेशान वन्य जीव आबादी वाले इलाके में जाने लगे, वन्य जीवों का भटकना भी इंसान को नापसंद आया और धीरे-धीरे हालात इतने खराब हो गए कि वन्य जीवों की कुछ जातियाँ तो हमारा शिकार हुईं, कुछ प्राकृतिक आवास पर अतिक्रमण की वजह से लुप्त हो गईं, तो कई पारिस्थितिकी तंत्र में आए बदलाव की वजह से विलुप्त हो गईं, तो कुछ लुप्त होने की कगार पर हैं। वन्य जीवों के लुप्त होने के दो कारण हैं एक प्राकृतिक और दूसरा मानवीय फिर भी प्राकृतिक कारण, मानवीय कारणों की तुलना में कम हानिकारक सिद्ध हुए। वो इसलिये क्योंकि प्राकृतिक कारक एक धीमी प्रक्रिया है। जैसे डायनासोर का लुप्त होना, ये करीब 7 करोड़ वर्ष पहले हुआ और सत्रहवीं शताब्दी से आज तक 120 पक्षी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। इसीलिए वन्य जीवन को ज्यादा नुकसान पहुँचाने वाले हम इंसान ही हैं। वन्यजीवों की असंख्य प्रजाति या तो लुप्त हो चुकी है या लुप्त होने की कगार पर है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में जीवों की लगभग 130 लाख प्रजातियों में से अब तक लगभग 10,000 प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। जो इस बात का इशारा भर है कि जल्द ही इंसान भी अपना वजूद खो देगा। इंसान हर उस चीज को लालच और विकास की होड़ में बर्बाद कर रहा है जो लम्बे वक्त से, बिना किसी मेहनत के प्रकृति से उसे उपहार स्वरूप मिल रहा है।

सोने की चिड़िया कहे जाने वाला भारत, ऐसे ही सोने की चिड़िया नहीं कहलाया। वन्य जीव जन्तुओं की प्रजातियों के लिये भी भारत विशाल है, दुनिया में पायी जाने वाली लगभग 130 लाख वन्य प्रजातियों में से लगभग 76,000 प्रजातियाँ अकेले हमारे देश में पायी जाती हैं जोकि एक बड़ी बात है और संकेत है कि हमें अपनी इस अमूल्य विरासत को बचाना होगा। हिमालय और पश्चिमी तटीय क्षेत्र में सर्वाधिक जैव विविधता पाई जाती है। हाल ही के सालों में इन दोनों ही क्षेत्रों में जीव जन्तुओं की कुछ नई प्रजातियाँ भी पाई गई हैं जोकि एक अच्छा संकेत है। लेकिन जो जैव विविधता पहले से हमारे पास मौजूद है, उसे संरक्षित करने के लिये सरकार द्वारा किये गये प्रयास कारगर साबित नहीं हो रहे, मानव लगातार प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता जा रहा है, कुछ साल पहले उत्तराखण्ड के केदारनाथ में हुई त्रासदी इसी का नतीजा है, बावजूद इसके लोग अभी भी प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, अगर समय रहते इंसान ने पारिस्थितिक संतुलन की महत्ता को नहीं समझा, तो और भी भयानक परिणाम भुगतने होंगे।

भारतवर्ष में वन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के लिये पहला कानून 1872 में “वाइल्ड एलीकेंट प्रोटेक्शन एक्ट” बनाया गया। इसके बाद वर्ष 1927 में “भारतीय वन अधिनियम” बनाया गया। जिसमें वन्य जीवों के शिकार और वनों की अवैध कटाई को अपराध माना गया और इसमें सजा का भी प्रावधान रखा गया। वहीं आजादी के बाद भारत सरकार ने ‘इंडियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ’ बनाया। फिर 1956 में एक बार फिर ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित हुआ, 1972 में “वन्यजीव संरक्षण अधिनियम” पारित हुआ, जिसमें विलुप्त होते वन्य जीवों और दूसरे लुप्त होते प्राणियों के संरक्षण का प्रावधान है। हमारे संविधान में 42वें संशोधन (1976) अधिनियम के द्वारा दो नए अनुच्छेद 48 और 51 को जोड़कर वन्य जीवों से सम्बन्धित विषय को सूची में शामिल किया गया। वन्य जीवों की बिगड़ते हालात के सुधार और संरक्षण के लिये “राष्ट्रीय वन्य जीव योजना” 1983 में शुरू की गई। इन अधिनियम और कानूनों के अलावा जरूरत थी ऐसी जगह की, जहाँ वन्यजीव सुरक्षित रहें और इंसानी अतिक्रमण न हो। इसलिये नेशनल पार्क और वन्य प्राणी अभयारण्य बनाए गये। देश का सबसे पहला नेशनल पार्क 1905 में असम में बनाया गया, जिसे काजीरंगा नेशनल पार्क कहा जाता है और जो खास लुप्त होते, एक सींग वाले राइनोसोर यानि गैंडे के लिये बनाया गया। 90 के दशक में भारत और नेपाल में इनकी तादाद कुल मिलाकर 1,870 और 1,895 के बीच थी। लेकिन 2015 के ताजे आँकड़ों के अनुसार इनकी तादाद बढ़कर 3,555 हो चुकी है।

दूसरा नेशनल पार्क 1936 में उत्तराखण्ड में बना, जिम कार्बेट नेशनल पार्क, जो लुप्त होते बंगाल टाइगर के लिये बनाया गया। इसी तरह वन्यजीव संरक्षण के लिये वन्यजीव अभयारण्य भी बनाए गए। अब तक भारत में लगभग 103 नेशनल पार्क और लगभग 530 वन्य जीव अभयारण्य हैं। इनके अलावा लगभग 65 कंजर्वेशन रिजर्व, 4 कम्युनिटी रिजर्व और 702 संरक्षित क्षेत्र हैं, जो वन्यजीवों के संरक्षण का काम कर रहे हैं। भारत में नेशनल पार्क और वन्यजीव अभयारण्यों की तादाद पिछले दो दशक में काफी तेजी से बढ़ी है, हमारी सरकार वन्यजीव संरक्षण की दिशा में तेजी से काम भी कर रही है। 1935 में, हमारे देश में सिर्फ एक नेशनल पार्क था, जबकि आज सबसे ज्यादा नेशनल पार्क मध्य प्रदेश में है। वन्यजीव और पर्यावरण संरक्षण के लिये कई आंदोलन भी चलाए गए जैसे ‘चिपको आंदोलन’ और दक्षिण भारत में ‘एठिपको आंदोलन’। वन्यजीव संरक्षण के काम में मिलने वाली कामयाबी के पीछे, इन आंदोलनों के साथ-साथ कई परियोजनाओं का भी हाथ रहा। इनमें बाँधा परियोजना, कस्तूरी मृग परियोजना, हंगुल परियोजना, थामिन परियोजना, हाथी परियोजना, गिर सिंह अभयारण्य परियोजना शामिल हैं।

वन्यजीव संरक्षण के लिये अपनाए गए ये उपाय काफी कारगर साबित हुए, कुछ लुप्त होते जीवों को बचाया गया और कुछ की घटती आबादी वाले जीवों को बढ़ाया गया।


कई बार वन्य प्राणी भोजन की तलाश में रिहायशी इलाके में घुस आते, कई बार आहार की तलाश में खेतों को भी बर्बाद कर देते हैं, ऐसे में खेत के मालिक जानवरों पर हमला बोल देते हैं, अगर सरकार वन्यजीवों द्वारा बर्बाद हुई फसल का मुआवजा उस खेत मालिक को दे दे, तो शायद इंसान और वन्यजीव के बीच ये शत्रुता कम हो जाए। इसके अलावा हमें कुछ जंगलों को भी आपस में जोड़ना होगा, कोई पुल या ऐसा रास्ता बनाना होगा, जिसे ये वन्य प्राणी आराम से पार कर सके, क्योंकि कई बार ये वन्य प्राणी सड़क पार करते वक्त दुर्घटना का भी शिकार हो जाते हैं। वहीं तस्कर और शिकारी इसलिये भी कामयाब हो जाते हैं क्योंकि वन सैनिकों के पास रक्षा करने के लिये प्रशिक्षण, आधुनिक हथियार और शारीरिक अनुरूपता की कमी है।

1994 से 2010 तक हमने 923 बाघ खो दिये, देश में लगभग 100 साल पहले बाघों की संख्या करीब 40 हजार थी, जो अब मुट्ठी भर रह गई है। बाघों की संख्या में कमी की कहानी पूरी दुनिया में एक जैसी ही है। विश्व में बाघों की संख्या कोई 5,241 के आस-पास है। इनमें से आधे अकेले भारत में हैं। बावजूद इसके कि बाघ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत सुरक्षित हैं, फिर भी इनका शिकार किया जाता है। हजारों साल से बाघों के शिकार को हैसियत से जोड़कर देखा जाता है। इसलिये कुछ तो इनका शिकार शौकिया तौर पर करते हैं और कुछ व्यापार के लिये। बाघ के अंग एशिया की परम्परागत दवाइयों को बनाने में इस्तेमाल होते हैं, खासकर उसकी खाल गैर-कानूनी तरीके से अन्तरराष्ट्रीय बाजार में बेची जाती है। बाघ ही नहीं चीते भी कम खतरे में नहीं। उनके रहने का क्षेत्र सिमट कर दस प्रतिशत रह गया है और लगभग 75 लाख एकड़ हो गया है।

लेकिन सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि आखिरकार वन्य प्राणियों और इंसान के बीच संघर्ष होता क्यों है, एक जीव कभी भी अपने घर में किसी दूसरे जीव का अतिक्रमण सहन नहीं कर सकता और यही कारण है कि अक्सर जंगली जानवर इंसानों पर हमला कर देते हैं। कई बार वन्य प्राणी भोजन की तलाश में रिहायशी इलाके में घुस आते, कई बार आहार की तलाश में खेतों को भी बर्बाद कर देते हैं, ऐसे में खेत के मालिक जानवरों पर हमला बोल देते हैं, अगर सरकार वन्यजीवों द्वारा बर्बाद हुई फसल का मुआवजा उस खेत मालिक को दे दे, तो शायद इंसान और वन्यजीव के बीच ये शत्रुता कम हो जाए। इसके अलावा हमें कुछ जंगलों को भी आपस में जोड़ना होगा, कोई पुल या ऐसा रास्ता बनाना होगा, जिसे ये वन्य प्राणी आराम से पार कर सके, क्योंकि कई बार ये वन्य प्राणी सड़क पार करते वक्त दुर्घटना का भी शिकार हो जाते हैं। वहीं तस्कर और शिकारी इसलिये भी कामयाब हो जाते हैं क्योंकि वन सैनिकों के पास रक्षा करने के लिये प्रशिक्षण, आधुनिक हथियार और शारीरिक अनुरूपता की कमी है।

जिस तरह भारतीय सैन्य बल को दूसरे देशों के साथ सैन्य अभ्यास कराया जाता है, ठीक उसी तरह दूसरे देशों के वन रक्षक के साथ भारतीय वन रक्षक का द्विपक्षीय अभ्यास कराना जरूरी है जिससे कि वो विदेशी प्रशिक्षण, अभ्यास और प्रणाली को समझ सकें और दूसरी तरफ इंटरनेट की क्रांति को देखते हुए वन रक्षा में भी इसका बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। जिस स्थान से शिकारी और तस्करों की घुसपैठ की आशंका है उन सुदूर क्षेत्रों में सीसीटीवी कैमरा लगाकर आसानी से निगरानी कर सकते हैं।

अगर सरकार इन छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान दें तो काफी हद तक वन्य प्राणी को सुरक्षित किया जा सकता है। सरकार ने सन 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित करके बाघों के शिकार पर रोक तो लगाई, लेकिन हालात अभी भी वैसे ही बने हुए हैं, अगर कुछ बुनियादी बातों पर गौर किया जाए तो परिणाम बदल सकते हैं। बाघों के अवैध शिकार पर कड़ी नजर, लोगों में इस बात की जागरुकता पैदा करना कि बाघों का संरक्षण मानव जाति के ही हित में है, क्योंकि इको सिस्टम में संतुलन और वनों के पास रहने वाले लोगों की रोजमर्रा की जरूरत को देखते हुए बाघों का होना भी जरूरी है। 70 के दशक में जहाँ ये संख्या 1200 पहुँच गई थी वो 90 के दशक में 3500 हो गई। लेकिन इसके बाद कैसे वन्य जीव संरक्षण के नियम और कानून को नजर अंदाज किया गया, इसका अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि 1994 से 2010 तक हमने 923 बाघ खो दिए हैं।

फिर 2008 में प्रस्तुत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 2001-02 में बाघों की संख्या 3642 थी जो 2008 आते-आते घटकर 1411 हो गई। वन्य जीव संरक्षण के लिये उठाए गए कदम कुछ हद तक कारगर साबित हुए, भारत में पिछले एक दशक के दौरान पहली बार बाघों की संख्या बढ़ी है और 2,226 तक पहुँच गई, जो काफी खुशी की बात है। दुनियाभर में 5241 बाघ हैं जिसमें अकेले भारत में 2,226 बाघ हैं। लेकिन अब भी बाघ इंसानों का शिकार बने हुए हैं, शिकार के आँकड़ों में कमी तो आई है लेकिन शिकार होना या बाघों का मारा जाना बंद नहीं हुआ। जहाँ 1994 में 121 बाघ शिकार हुए, वहीं 2015 में इतनी जागरूकता और अधिनियमों की सख्ती के बाद भी 25 बाघ मारे गए। वन्य जीवों का अगर संरक्षण न हो रहा होता, तो शायद कुदरत का बनाया इतना खूबसूरत और शानदार जानवर अब तक लुप्त हो चुका होता।

बात सिर्फ बाघ के संरक्षण की नहीं, बल्कि कई और दुर्लभ जीवों के संरक्षण की भी है, अलग-अलग नेशनल पार्क और वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरीज अलग-अलग प्रजाति का संरक्षण कर रही हैं। इंसान को समझना होगा कि मानव जीवन तभी तक बच सकता है जब तक जल, जंगल और जानवर बचेंगे। प्रकृति से छेड़-छाड़ मानव को विनाश की ओर ले जा रहा है। इसलिये प्रकृति से छेड़-छाड़ करना बंद करना होगा और पर्यावरण प्रेमी बनकर उसका संरक्षण करना होगा। इंसान जानवर को महज जानवर न समझे, बल्कि अपना वजूद बनाए रखने का सहारा समझे।

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