इस समय देश या फिर विश्व स्तर पर पर्यावरणीय विपर्याय की घटनाओं का विश्लेषण आवश्यक है। अभी अरब सागर के किनारे स्थित पश्चिमी घाट में आये ताक्ते (Tauktae) तूफान से उत्पन्न त्रासदी थमी नहीं थी कि पूर्वी घाट में आये 'यास' (YAAS) तूफान से ओडिशा, पश्चिम बंगाल एवं झारखण्ड में भयानक तबाही मची। मार्च 2022 में आए असनी (Asani) चक्रवात ने भी अंडमान-निकोबार में अपना तांडव मचाया है। इतने कम अन्तराल पर जाने वाले तूफान वैश्विक ताप वृद्धि के कारण समुद्री पानी के गर्म होते जाने के परिणाम माने जा रहे हैं। हमें इस परिस्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा।
अभी विश्व के विभिन्न भागों में जंगल में भी दावानल फल रहा है। आमेजन के जंगलों में लगी आग से पर्यावरण को भारी क्षति पहुंची है। अभी हाल में राजधानी दिल्ली से चार गुना बड़ा हिमखण्ड (5800 वर्ग किलोमीटर की आकृति का) अंटार्कटिका से टूटकर अलग हुआ है, जिसके घातक परिणाम होंगे। समुद्री जहाजों से होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मार्ग अवरुद्ध हुए हैं। वायु, जल, ध्वनि एवं मृदा प्रदूषणों के कारण आम लोगों का जीवन कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त हो रहा है। देश का एक बड़ा हिस्सा गर्मी के समय में पेयजल की समस्या को झेलता है। यह स्थिति केवल मैदानी भागों में ही नहीं अपितु पानी के स्रोत माने जाने वाले पहाड़ों में भी देखने को मिल रही है। एक तरफ हम भौतिक प्रगति करते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ हमारा पर्यावरण दिन-ब-दिन ऐसी स्थिति में पहुंचता जा रहा है जो हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न उपस्थित कर रहा है। स्थिति 'मरता क्या न करता' तक पहुंच चुकी हैं।
वैश्विक तापवृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन
वैश्विक तापवृद्धि को रोकने की दिशा में आज पूरे विश्व में वैज्ञानिक और राजनेता लगे हुए हैं। इस हेतु सबसे आवश्यक है ग्रीन हाउस गैसों के मूल में स्थित जीवाश्मीय ईंधन के प्रयोग को कम कर नये एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना। कोयला पर आधारित बिजली घर क्रमशः बंद किए जा रहे हैं। विकसित देशों में कम CO2, उत्सर्जन करने वाली जो तकनीकी विकसित की जाती है, उसे कम विकसित देशों को स्थानान्तरित की जानी चाहिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है
यह एक स्वागत योग्य कदम है कि विश्व का सबसे विकसित देश अमेरिका फिर से पेरिस समझौता में लौट आया है। इस समझौते के अंतर्गत विश्व की औसत तापवृद्धि को औद्योगिक क्रांति के प्रारंभ के समय से अधिकतम 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि की सीमा में रखना है।
राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के अन्तर्गत सभी राष्ट्र अपनी-अपनी प्रतिवद्धता के अन्तर्गत इस साक्ष्य को प्राप्त करने में लगे हैं। आज संयुक्त राष्ट्रसंघ के पर्यावरणीय कार्यक्रमों के अन्तर्गत विश्व के विकसित एवं विकासशील देशों के समक्ष शून्य कार्बन उत्सर्जन (Zero carbon emission) के लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रतिबद्धता व्यक्त करने हेतु आह्वान किया जा रहा है। इस दिशा में अन्तराष्ट्रीय सौर परिसंघ (International Solar Alliance) ने सभी प्रकार की ऊर्जा के मूल में स्थित सौर ऊर्जा प्रक्रम को विकसित करने का अभियान चलाया है। यह आशा की जानी चाहिए कि आगामी दशकों में कोयला-डीजल-पेट्रोल- गैस पर आधारित ऊर्जा व्यवस्था धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चली जायेगी। नयी एवं नवीकरणीय ऊर्जा के प्रक्रम उनकी जगह लेंगे।
अब तो एक राष्ट्र-एक ग्रिड की तर्ज पर एक सूर्य-एक विश्व-एक ग्रिड की परिकल्पना रूप लेने वाली है। विश्व के 140 देशों में यह सहमति बनी है। भारत ने 2022 तक कुल 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता विकसित करने का निर्णय किया है जिसमें 100 गीगावाट सौर, 60 गीगावाट पवन, 10 गीगावाट जैव एवं 5 गीगावाट लघु पनबिजली ऊर्जा सम्मिलित हैं।
कोविड का प्रकोप
सदी की महामारी कोविड-19 का वर्तमान प्रकोप भी कहीं-न-कहीं वन्यजीवों के पर्यावास के क्षरण से जुड़ा हुआ है। मनुष्य की जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि ने पूरे विश्व में बन्दर पेंगोलिन, चमगादर जैसे वन्य जीवों (जो कभी सुदूर जंगलों के भीतर रहते थे) को मनुष्यों के वासस्थलों के नजदीक ला दिया है। आज लोग इन रोगवाहकों के निकट सम्पर्क में आकर सास और मसं सदृश रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं।
कोविड की दूसरी लहर के दौरान अस्पतालों में प्राणवायु ऑक्सीजन की कमी को लेकर देश की एक बड़ी जनसंख्या भारी संकट में फंसी लाखों लोगों को इस कारण पूरे देश में प्राण गंवाने पड़े। कोरोना ने लोगों को इस तथ्य का एहसास कराया कि वृक्षों द्वारा प्राकृतिक रूप से निःसृत प्राणवायु ऑक्सीजन हमें जीवन देते हैं इसलिए एक बार फिर लोगों में पेड़ों को लगाने की चेतना बढ़ी है।
पीपल, बरगद, पाकड़, गूलर, नीम सदृश देसी वृक्ष हमें भरपूर ऑक्सीजन देने के साथ प्रदूषकों का भी अवशोषण करते हैं। पीपल मोरेसी कुल के वृक्ष अपने असंख्य छोटे बीजों से अनेक पक्षी और अन्य जानवरों का सम्पोषण करते हैं। इसी कारण पारिस्थितिकी की भाषा में इन्हें कीस्टोन प्रजातियां कहा जाता है। इस भयानक बीमारी का एकमात्र संदेश है कि हम एक बार फिर प्रकृति की ओर लौटें और इस बात को मानें कि इस पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों को यहां रहने का उतना ही अधिकार है जितना मनुष्यों का।
नदियों पर संकट
नदियां किसी भी देश के लिए जीवन रेखा के समान काम करती हैं। ऐसे में अगर नदियों के संरक्षण की दिशा में प्रयास नहीं किया गया तो आने वाले पीढ़ी नदियों की कहानी ही पढ़ कर संतोष करेगी। हिमालय के साथ ही भारतीय संस्कृति को सम्बल प्रदान करने वाली गंगा की दशा शोचनीय है। भारतीय जनमानस में यह आशंका बलवती हो चुका है कि आने वाले वर्षों में यह अन्य नदियों की भांति मात्र एक बरसाती नदी बनकर न रह जाये। आज तो साल के एक खास भाग में अपने विस्तृत पाट में गंगा की धारा एक कोने में सिमटी दिखती है।
संतोषप्रद बात यह है कि नदियों के संरक्षण के लिए भारत सहित विश्व के कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में अपनी चिंता व्यक्त की है। इस कड़ी में भारत में गंगा नदी के संरक्षण के लिए 'नमामि गंगे कार्यक्रम चलाया जा रहा है जिसके अन्तर्गत नदी जल को स्वच्छ बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। इस कड़ी में नदी के किनारे फैले फैक्ट्रियों के ठोस व तरल कचरों को उपचारित करने के बाद ही जल में छोड़ने का निर्देश दिया है। इतना ही नहीं उद्योगों को नदियों के किनारे स्थापित न करने पर जोर दिया जा रहा है।
सरकारी प्रयास के अलावा जब तक आमजन की भागीदारी जल संग्रहण की दिशा में नहीं होगी, तब तक जल स्रोतों पर संकट के बादल मंडराते ही रहेंगे। इसलिए सामुदायिक जिम्मेवारी के साथ समाज के सभी लोगों को जल के विवेकपूर्ण उपयोग पर बल देना चाहिए। वर्षा जल का संग्रहण करना, और नदियों के जल को दूषित होने से बचाना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। नदियां संस्कृति का वाहक होती हैं। अतः हमें जागरूक होकर नदियों के संरक्षण की ओर ध्यान देना होगा, तभी जाने वाली पीढ़ी को हम एक स्वच्छ और परिपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र सौंप सकेंगे।
हरित पट्टी का विकास
आज यह समय की मांग है कि हम व्यापक स्तर पर वृक्षारोपण कर हरित पट्टी को बढ़ायें झारखण्ड अलग होने के बाद शेष बिहार में प्राकृतिक जंगल मात्र 7 प्रतिशत के आस-पास बच गया। बाग-बगीचों को भी शामिल करने पर राज्य में कुल हरित पट्टी मात्र 10 प्रतिशत के आस-पास बची है। ज्ञातव्य है कि स्वस्थ्य पर्यावरण हेतु किसी भी भूभाग के कम से कम एक तिहाई क्षेत्र में जंगल होना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर यह अनुपात 21.67 प्रतिशत पर पहुंचा है। सरकारी एवं सार्वजनिक परिसरों में एक अभियान के तहत वृक्ष लगाये गये हैं। वन विभाग ने निजी जमीन पर भी पेड़ लागए हैं जो एक निश्चित समय सीमा के बाद भूधारियों के स्वामित्व में होंगे। बिहार के वाल्मीकि नगर में प्रोजेक्ट टाइगर' अभियान के अन्तर्गत बाघों की संख्या 40 से ऊपर पहुंच चुकी है जो एक संतोषप्रद स्थिति है 'वन व्याघ्रन्याय' नामक लौकिक न्याय का प्राचीन सूत्र हमें बताता है कि वन वहीं है, जहां बाघ निःशंक विचरण करते हों। तात्पर्य यह कि बाघ वहीं होंगे, जहां चारों ओर घने बन हों और पारिस्थितिकी की भाषा में उनकी पूरी खाद्य श्रृंखला मौजूद हो।
आगे की राह
पर्यावरण रक्षा हेतु किए जा रहे उपायों में प्लास्टिक का विकल्प खोजा जाना प्रमुख है। आज क्या जमीन या क्या समुद्र, क्या हवा या क्या जीवों का शरीर, सभी जगहों पर मैक्रो या फिर माइक्रो प्लास्टिक किसी न किसी रूप में मौजूद है। प्लास्टिक, बीसवीं सदी की इस पृथ्वी को एक ऐसी देन है जो न निगलते बनती है और न उगलते जब अपघटनशील होने के कारण यह लम्बे समय तक वातावरण में बना रहता है। बड़े आकार के प्लास्टिक के सामानों का तो पुनर्चक्रण होता है, कूड़ा एकत्र करने वाले इसे चुनकर इसे पुनर्चक्रण के लिए ले जाते हैं, परन्तु सूक्ष्म जाकृति (50 माइक्रॉन) के प्लास्टिक का पुनर्चक्रण संभव नहीं होता।
अभी-अभी आये समुद्री तूफान के दौरान समुद्री लहर के साथ पॉलीथीन को तट पर वापस फेंकते देखना एक विस्मयकारी दृश्य था जिसे टेलीविजन के पर्दे पर देखा गया। सिंगल यूज पॉलीथीन पर यूं तो रोक लगी हुई है लेकिन व्यवहार में उसे लाने के प्रति उतनी गंभीरता नहीं है। यह अकारण नहीं कि भूगर्भशास्त्रियों ने पृथ्वी पर प्लास्टिक के बढ़ते जमाव के कारण 1950 से ऐन्थ्रोपोसीन युग की शुरूआत माने जाने का प्रस्ताव दिया है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि अब फैक्ट्रियों में रासायनिक क्रिया से संश्लेपित प्लास्टिक के स्थान पर व्यापक रूप से जब प्लास्टिक का उत्पादन हो जो जूट के बोरे की तरह प्राकृतिक वातवरण में सड़-गल कर नष्ट हो जाय ऐसा होना प्रारंभ भी हो गया है और यह आशा की जानी चाहिए कि आगामी वर्षों में जैब प्लास्टिक रोजमर्रा के उपयोग में आ जाय।
पर्यावरण संरक्षण का एक प्रमुख अवयव है अपशिष्टों का समय पर निपटान चाहे वह कृषि अपशिष्ट हो या फिर औद्योगिक अपशिष्ट हाल ही में स्मार्ट शहर के रूप में चयनित किया गए शहरों में सभी प्रकार के अपशिष्टों के समुचित निपटारे की व्यवस्था विकसित की जा रही है जिसमें आमजन की भागीदारी अपेक्षित है। शहरों में मेडिकल अपशिष्टों की अपशिष्ट से ऊर्जा पद्धति से निष्पादन की व्यवस्था करना आवश्यक है।
कृषि अपशिष्टों का प्रबंधन
कृषि अपशिष्टों का समुचित निस्तारण की चर्चा करते समय पराली जलाने की समस्या सबसे पहले सामने आती है। मूलतः कृषि क्रांति वाले राज्यों की यह समस्या अब बिहार जैसे प्रान्तों में भी पैर पसार रही है। फसल कटने के बाद खेत में बची पराली (जिसे इस क्षेत्र में 'नार' कहा जाता है) से बाद में जैब ईंट (Biomas brick) के रूप में प्रयोग में लाने की तरकीब विकसित करने में वैज्ञानिक लगे हैं। कृषि वैज्ञानिकों ने सूक्ष्मजैविकीय विधि विकसित की है जिससे इनका त्वरित विखण्डन संभव हुआ है।
इसी कड़ी में आता है मशरूम उत्पादन जिसमें मुख्यतः इसी तरह के कृषि अपशिष्टों का प्रयोग होता है। प्रोटीन से भरे मशरूम के उत्पादन का प्रशिक्षण राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के वैज्ञानिकों द्वारा बहुत ही उत्साहपूर्वक दिया जा रहा है। उल्लेखनीय तथ्य है कि कई राज्यों ने जैविक कृषि के क्षेत्र में अपनी पहचान बनायी हैं जिसमें संश्लेषित कृषि रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता है। गंगा नदी अथवा अन्य नदियों के किनारे बसे क्षेत्रों में प्रचलित इस पद्धति से नदी में रासायनिक प्रदूषण की समस्या भी कम होगी।
पर्यावरण अनुकूल खेती पर बल
पर्यावरण संरक्षण का एक प्रमुख आयाम है स्थानीय जैवविविधता का संरक्षण और उसके संधारणीय उपयोग की समुचित व्यवस्था करना। इस कड़ी में मखाना उत्पादन एक प्रमुख उदाहरण है। जहां तक उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की जैवविविधता का सवाल है, यह क्षेत्र अपने जलीय उत्पाद मखाना हेतु विशेष रूप से जाना जाता है। कोविड-19 के प्रकोप के बाद रोग प्रतिरोधी गुणों वाले उत्पादों की विशेष खोज चल रही है। शरीर की रोगप्रतिरोधकता बढ़ाने में इसकी गुणवत्ता को देखते हुए इसका उत्पादन बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्तर के मखाना अनुसंधान केन्द्र, दरभंगा एवं बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सवीर (भागलपुर) के अन्तर्गत पूर्णिया स्थित भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय में शोध कार्य चल रहा है। इस क्षेत्र की मिट्टी की गुणवत्ता मखाना हेतु अधिक अनुकूल है। देश के अन्य जलाक्रान्त क्षेत्रों में भी मखाना की खेती के प्रसार हेतु अभियान चलाये जा रहे हैं।
जल संरक्षण समय की मांग
पानी की हर बूंद बहुमूल्य होती है। हमें पानी के संरक्षण से पहले इसके महत्व को समझना जरूरी है। भारत की संस्कृति और परंपराओं में पानी के संरक्षण का मूलभाव समाहित रहा है। कुएं, पोखरे, तालाब, बावड़ी, कुंड ये सभी हमारे पारंपरिक जल स्रोत हुआ करते थे जो कि आधुनिकता के दबाव में तेजी से नष्ट होते चले गए। आज कोविड के समय मनरेगा के अन्तर्गत शहरों से वापस लौटे लोगों को रोजगार देने के लिए अतिरिक्त श्रम दिवसों का सृजन किया जा रहा है। पुराने जलाशयों का जीर्णोद्धार एवं नये जलाशयों का निर्माण इस कार्यक्रम में प्रमुखता से शामिल है। परन्तु सैकड़ों वर्ष पूर्व अनावृष्टि काल में सतही जल का भले ही अभाव हो, भूमिगत जल की कमी नहीं होती थी। आज तो सतही जल के साथ भूगर्भीय जल का भी संकट हो गया है आज पंजाब-हरियाणा- पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो कृषि रसायनों के बढ़ते उपयोग से भूमिगत जल भी प्रदूषित हो गया है और कैंसर सदृश रोगों में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
हमें वर्तमान परिवेश और परिस्थिति में जल संरक्षण की विधियों को अपनाने की जरूरत है। अपने व्यवहार में बदलाव लाकर सर्वप्रथम हमें वर्तमान समय में उपलब्ध पानी को सहेजना है। इसे हमें विवशता नहीं बल्कि जिम्मेदारी समझना है।
पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता
पर्यावरण संकट व समस्याओं की व्यापकता व विस्तार से ग्रस्त व भयभीत सम्पूर्ण मानवता को बचाने, उसकी रक्षा करने और भविष्य को खुशहाल बनाने हेतु पर्यावरण शिक्षा आज की प्राथमिक आवश्यकता है। यदि इस शिक्षा की उपेक्षा कर दी गई तो जन-जन में पर्यावरण बोध व गुणवत्ता बनाये रखने की चेतना जागृत नहीं होगी और पर्यावरण व पारिस्थितिकीय असन्तुलन निरन्तर बढ़ता जायेगा।
मानव, तकनीकी विकास एवं पर्यावरण के अंर्तसंबंधों से जो पारिस्थितिकी चक्र बनता है, उसी से संपूर्ण क्रिया-कलाप और विकास नियंत्रित होता है। यदि इनमें संतुलन रहता है तो सब कुछ सामान्य गति से चलता रहता है, किंतु किसी कारण से यदि इनमें व्यतिक्रम आता है तो पर्यावरण का स्वरूप विकृत होने लगता है और उसका हानिकारक प्रभाव न केवल जीव जगत अपितु पर्यावरण के घटकों पर भी होता है।
पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप पर्यावरण नीति के विकास में सहायक तथा मानव के प्राकृतिक वातावरण के प्रति संबंधों का सूचक होना चाहिए। इसके अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति में यह भावना विकसित होनी चाहिए कि वह भी पर्यावरण का अभिन्न अंग है।
प्रत्येक मनुष्य को यह बात अच्छी प्रकार से समझना होगा कि उसके द्वारा किये गये कार्यों से ही पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। हमारी पृथ्वी जो कि प्राकृतिक संसाधनों का भंडार है, रिक्त होती जा रही है। भविष्य की बात तो छोड़ दें, वर्तमान जीवन भी कठिन हो गया है। इसलिए यह अत्यधिक जरूरी है कि हम सभी पर्यावरण को सहेजने के लिए हर संभव यत्न करें और यह कार्य हमें जिम्मेदारी मानकर करना होगा, मजबूरी समझकर नहीं।
संपर्क - डॉ. विधानाथ झा
पूर्व प्रधानाचार्य, ला.ना.मि. विश्वविद्यालय सेवा, दरभंगा (बिहार)
ई-मेल : vidyanathjha@gmail.com]
• श्री रवि रौशन कुमार
शिक्षक, रा. उ. मा. विद्यालय, माधोपट्टी, दरभंगा (बिहार) ई-मेल: info.raviranshan@gmail.com]
/articles/parayaavarana-sanrakasana-kaa-udadaesaya-saraokaara-aura-umamaidaen-0