पर्यावरण संरक्षण बनाम विकास


आज आवश्यकता इस बात की है कि मानव के सोच में इस प्रकार का बदलाव आए कि वह व्यक्तिगत हित की बजाय सामूहिक हित को सर्वोच्च समझे। विकास और पर्यावरण संरक्षण एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए विकास के नाम पर्यावरण की हत्या करना मानव जाति के लिये निश्चित रूप से आत्मघाती कदम होगा।

वर्तमान में पर्यावरणीय समस्या समूचे विश्व में विकराल रूप में आसन्न हो गई है यह तथ्य रेखांकित करता है कि अब इस समस्या की कोई परिधि नहीं रह गई है। इस समस्या ने हमारे समक्ष प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है कि पर्यावरण असंतुलन क्यों और कैसे उत्पन्न हुआ? प्रकृति ने सुख, समृद्धि एवं कल्याण हेतु ढ़ेर से निःशुल्क उपहार (यथा जल, वायु, प्रकाश, पहाड़, खनिज, वन संसाधन आदि) प्रदान किए। किन्तु प्रकृति रूपी माँ ने मानव को एक नैतिक जवाबदेही भी सौंपी कि वह अपने हित पूर्ति हेतु उसके परिवेश से सम्बद्ध सभी जीवों, वनस्पतियों तथा जड़ पदार्थों के जीवन की रक्षा करेगा। किन्तु मानव ने आत्महित अभिष्ट मान लिया और अन्य प्रतिबद्धताएं उसके लिये द्वितीयक हो गई। उसने अपने सुख, एशोआराम के लिये प्रकृति का न केवल विदोहन अपितु उसे चुसना शुरू कर दिया। परिणामतः वन्य प्राणियों एवं वनस्पतियों के जीवन के अस्तित्व को खतरा उपस्थित हो गया। इसके अतिरिक्त जड़ वस्तुओं (जैसे प्राचीन इमारतें, शिलालेख आदि) ने अपनी अनुपम पहचान खोनी प्रारम्भ कर दी है। यहाँ तक कि आज स्वयं मानव जाति पर खतरे के बादल मँडराने लगे हैं।

भौतिक संसाधनों का अधिकाधिक संकेन्द्रण तथा अनंत लालसाओं ने समूचे मानवीय जगत में विकास का जो मार्ग प्रशस्त किया उसने सतत रूप से बढ़ती हुई आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिये वन्य भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया और जंगलों को काटकर लकड़ी का प्रयोग ईंधन तथा साज-सज्जा हेतु किया वन्य प्राणियों को अपनी हवस का शिकार बनाया गया और मृत-अंगों का प्रयोग ड्रॉइंग-रूम की सुन्दरता को निखारने हेतु किया गया। उद्योगों द्वारा उत्सर्जित अवशिष्ट पदार्थों को नदियों में बहाकर जलीय जीवों का खात्मा किया गया और आम आदमी को पीने योग्य पानी का संकट पैदा कर दिया। यातायात व परिवहन के साधनों तथा उद्योगों की चिमनियों के उत्सर्जित धुएँ ने शुद्ध वायु का अभाव उत्पन्न कर दिया तथा जैट विमानों तथा मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने लाइलाज बहरेपन को जन्म दिया।

पर्यावरण असंतुलन के लिये प्रमुखतः दो घटक उत्तरदायी हैं। एक तो, आबादी का निरंतर बढ़ना और दूसरा विकास हेतु आर्थिक सोच। जनसंख्या नियंत्रण हेतु अनेक कदम उठाये गए हैं जिसके सकारात्मक प्रभाव सामने आ रहे हैं लेकिन इस समस्या का पूर्णरूपेण निराकरण तभी संभव है, जबकि जन सामान्य की मानसिकता में स्वयं का बदलाव आये। पर्यावरण असंतुलन की समस्या हेतु बनाये गये कानूनों का का व्यावसायिक एवं औद्योगिक वर्ग द्वारा पालन नहीं किया जाता है जिसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो, इस वर्ग को मालूम है कि प्रदूषण से उतना खतरा उसे नहीं है जितना कि असहाय एवं निरीह वर्ग के लिये दूसरे पर्यावरण संरक्षण हेतु किए गए व्ययों से उनकी लागत बढ़ जाएगी फलतः लाभ की सीमा सिमट जायेगी। जैसे कि जहजरानी कानून के तहत समुद्र में जहाजों को धोना तथा तेल व अवशिष्ट पदार्थों को गिराना प्रतिबंधित है किन्तु इस कानून का पूर्णतः उल्लंघन हो रहा है।

इसी प्रकार कारखाना अधिनियम के अनुसार कारखाने के अवशिष्ट पदार्थों को पानी में डालने पर प्रतिबंध है और ध्वनि प्रदुषण को रोकने हेतु ध्वनि प्रतिरोधक उपकरण प्रत्येक कारखाने में स्थापित करना अपरिहार्य है किन्तु फिर भी कारखाने के अवशिष्ट पदार्थों को पानी में बहाया जाता है और प्रतिरोधक उपकरण नहीं लगाये जाते हैं ऐसा संभवतः इसलिए क्योंकि उद्योगपति वर्ग इस बात को भली भाँति समझता है कि प्रदूषित पानी का संकट आम असहाय व्यक्ति को होगा और इसी प्रकार ध्वनि प्रदूषण के शिकार वे ही श्रमिक होंगे जो मशीनों एवं संयंत्रों पर कार्यरत हैं। इसी प्रकार ठेकेदार द्वारा जंगल की लकड़ी को काटकर बाजार में बेचा जाता है तो इससे ठेकेदार का लाभ उत्तरोत्तर बढ़ेगा उसे इस बात से क्या लेना कि जंगल का सफाया होने से इस क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति की आजीविका खत्म हो जाएगी।

विकासवादियों का यह तर्क है कि विकास तभी सम्भव है जबकि वह वृहदस्तरीय हो अर्थात उद्योग बाँध तथा अन्य सभी प्रकार का विकास क्षेत्र विशेष में बड़े आकार में हो। इसके दो दुष्परिणाम आसन्न हो सकते हैं एक तो क्षेत्रीय असंतुलन को बढ़ावा मिलेगा और दूसरे इनके विनाश का कुप्रभाव भी वृहद होगा, 1984 में भोपाल गैस त्रासदी इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसके विपरीत यदि विकास हेतु गाँधीवादी सोच को अपनाया जाए जिसके अनुसार लघुस्तरीय तथा विकेंन्द्रित विकास का मार्ग चुना जाए जैसे स्थानीयकरण की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण अंचलों में छोटे-छोटे ग्राम्य एवं कुटीर श्रम-परक उद्योगों की स्थापना की जाए इससे न केवल क्षेत्रीय असंतुलन को रोका जा सकेगा बल्कि कच्चे माल की खपत और रोजगार की सम्भावनाएँ बढ़ सकेगी साथ ही साथ स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकेगी। इसी प्रकार बड़े आकार के बाँधों के स्थान पर छोटे व मध्यम आकार के बाँधों को बनाया जाए तो न तो डूब का क्षेत्र अधिक होगा और न ही पुनर्वास की समस्या जन्म लेगी और विनाश की आशंकायें न्यून होगी। इस प्रकार विकास का प्रत्येक कदम वृहदस्तरीय हित को दृष्टिगत रखते हुए रखा जाए।

आज आवश्यकता इस बात की है कि मानव के सोच में इस प्रकार का बदलाव आए कि वह व्यक्तिगत हित की बजाय सामूहिक हित को सर्वोच्च समझे। विकास और पर्यावरण संरक्षण एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए विकास के नाम पर्यावरण की हत्या करना मानव जाति के लिये निश्चित रूप से आत्मघाती कदम होगा।

सहायक प्राध्यापक वाणिज्य, शास.महा.वि.बण्डासागर, (म.प्र.)

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