पर्यावरण संरक्षण आज की जरूरत

आज हम आधुनिक कृषि व्यवस्था में जिन तरीकों को अपना रहे हैं वे टिकाऊ नहीं है, जैसे कि अन्धाधुन्ध रासायनिक उर्वरकों का उपयोग, कीटनाशकों का उपयोग, जरूरत से ज्यादा मशीनीकरण, बाह्य जननद्रव्यों का उपयोग इत्यादि। वास्तव में ये सारे कारक जहाँ हरित क्रान्ति लाने के लिए जिम्मेदार हैं वहीं ये पर्यावरण पर विपरित प्रभाव डाल रहे हैं। इन सबके अलावा मृदा अपक्षरण, बड़े बैमाने पर वनों की कटाई और घटते जल स्तर ने हमारी समस्या को और भी जटिल बना दिया है। जरूरत से ज्यादा संश्लेषित कीटनाशक और रासायनिक खाद के इस्तेमाल से अधिकांश खेतों की उर्वरा शक्ति काफी कम हो गई है। आज हमें आधुनिक और तकनीकी विकास के उन तरीकों की आवश्यकता है, जिससे हमें दीर्घकालिक टिकाऊ कृषि उत्पादन प्राप्त कर सकें व पर्यावरण को बचा सके।

वर्तमान में हमारे देश में वनों का क्षेत्रफल 68.8 मिलियन हेक्टेयर है जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का मात्र 20.9 प्रतिशत ही है जबकि पर्यावरण का सही सन्तुलन रखने के लिए यह क्षेत्रफल 33 प्रतिशत होना चाहिए।भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 328.73 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें से कुल खेत योग्य क्षेत्रफल 143 मिलियन हेक्टेयर है। मृदा क्षरण भारत में एक प्रमुख समस्या है जिससे 130.5 मिलियन हेक्टेयर में ऊपरी सतह भूमि का क्षरण होता है। अनुमान है कि लगभग 5000 मिलियन टन मृदा (16.4 टन प्रति हेक्टेयर) का क्षरण प्रति वर्ष हमारे देश में हो जाता है जिसमें लगभग 29 प्रतिशत मृदा बहकर समुद्र में स्थाई रूप से चली जाती है। इसी कारण जलाशयों की भण्डारण क्षमता भी 1-2 प्रतिशत प्रति वर्ष घटती जा रही है। इसी प्रकार मृदा क्षरण मरुस्थलों तथा शुष्क क्षेत्रों में अधिक होता है। इससे प्रभावित क्षेत्र राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और पंजाब मुख्य हैं। हवा द्वारा क्षरण समुद्री किनारों के आसपास जहाँ रेतीली भूमि पाई जाती है, वहाँ पर भी होता है।

भारत की मृदाएँ साधारणतः कम उपजाऊ होती हैं। प्रायः इनमें जीवांश तत्व की कमी है। मृदा कम उपजाऊ होने के कारण कई वर्षों तक लगातार खेती करने से उनके पोषक तत्वों के भण्डारण में काफी कमी आई है।

वन संरक्षण


वर्तमान में हमारे देश में वनों का क्षेत्रफल 68.8 मिलियन हेक्टेयर है जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का मात्र 20.9 प्रतिशत ही है जबकि पर्यावरण का सही सन्तुलन रखने के लिए यह क्षेत्रफल 33 प्रतिशत होना चाहिए। अन्य आँकड़ों के अनुसार हमारे देश में वनों का क्षेत्रफल प्रति व्यक्ति 0.07 हेक्टेयर के आसपास है जबकि समूचे विश्व की औसत दर 1.9 हेक्टेयर है। इसका मुख्य कारण रहा है कि सन् 1975 से 1982 के मध्य लगभग 2.5 हेक्टेयर वनों का ह्रास प्रति मिनट हुआ है। विश्व में वनों का ह्रास एक हेक्टेयर प्रति सेकण्ड हुआ है अर्थात पिछले 200 वर्षों में 60 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र वनों का हनन हुआ है।

वनों का विस्तार तथा उनका संरक्षण केवल कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल से लेने के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि जैविक सन्तुलन को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।अनुमान है कि इस शताब्दी के अन्त तक देश में ईन्धन लकड़ी की आवश्यकता 340 मिलियन टन प्रति वर्ष होगी तथा इमारती लकड़ी की आवश्यकता 60 मिलियन घन मीटर प्रति वर्ष होगी। वर्तमान में ईन्धन लकड़ी का उत्पादन केवल 200 मिलियन टन ही है। उष्ण कटिबन्ध क्षेत्रों के एक हेक्टेयर वन से पर्यावरण की दृष्टि से एक करोड़ 41 लाख रुपए का लाभ मिलता है। लगभग 50 वर्षों में एक वृक्ष 15 लाख रुपए मूल्य का लाभ देता है। इसमें कई कारक शामिल हैं। वनों का विस्तार तथा उनका संरक्षण केवल कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल से लेने के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि जैविक सन्तुलन को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।

यदि खेत विशेष की मिट्टी की जाँच के फलस्वरूप प्राप्त मृदा उर्वरकता सम्बन्धी जानकारी को ध्यान में रखते हुए पूर्व निर्धारित उपज-लक्ष्य की प्राप्ति हेतु फसल की खुराक पूरी की जाए तो इससे न केवल गुणवत्तायुक्त अधिकतम उपज प्राप्त होती है बल्कि किसान भाइयों को अधिकतम लाभ भी प्राप्त होता है। जब मिट्टी की जाँच के फलस्वरूप पोषक तत्वों की कमी का अनुमान लग जाए तब जिन भी तत्वों की मिट्टी में कमी हो उन सभी तत्वों जिनमें प्रमुख तत्वों (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम) के साथ गौण (उदाहरण के लिए गन्धक, मैग्नीशियम आदि) और सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे जिंक, बोरॉन आदि) की यथोचित पूर्ति उर्वरक और खाद के माध्यम से अवश्य की जानी चाहिए।

जल संरक्षण


हमारे देश में प्रति वर्ष औसतन 1250 मि.मी. वर्षा होती है जो करीब 400 मिलियन हेक्टेयर मीटर के बराबर है। इस कुल पानी में से 165 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी का भूमि में नमी के रूप में संग्रह होता है, 187 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बह जाता है और 43 मिलियन हेक्टेयर मीटर भू-जल के रूप में जमीन में रहता है। इस वर्षा के पानी का अगर सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो बारानी परिस्थितियों में कृषि उत्पादन 50-100 प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। भू-जल में से सिंचाई के लिए 46.5 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी ही काम में लिया जाता है जो हमारे देश की कुल क्षमता का 40 प्रतिशत है। इसके लिए आवश्यक है वर्षा के पानी को भूमि में संचित करना व भूमि पर बहने वाले पानी को सही तरीके के काम में लेना।

पर्यावरण संरक्षण आज की जरूरत 2
पर्यावरण संरक्षण के लिए सही जल प्रबन्धन की जरूरत

हमारे देश में प्रति वर्ष औसतन 1250 मि.मी. वर्षा होती है जो करीब 400 मिलियन हेक्टेयर मीटर के बराबर है। इस कुल पानी में से 165 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी का भूमि में नमी के रूप में संग्रह होता है, 187 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बह जाता है और 43 मिलियन हेक्टेयर मीटर भू-जल के रूप में जमीन में रहता है।वर्षा के पानी को पत्थर की दीवार, चक डेम, जल ग्रहण तालाब इत्यादि बनाकर संग्रह किया जा सकता है। इनसे भू-जल स्तर में वृद्धि होगी व सिंचाई के लिए भी इस पानी को काम में लिया जा सकता है। हमारे देश में कुल वर्षा का 187 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी बहता है उसमें से 18 मिलियन हेक्टेयर मीटर ही जल तालाबों में इकट्ठा किया जाता है। देश में चल रही योजनाओं के पूर्ण हो जाने पर भी मात्र 38 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी को ही संग्रहण किया जा सकेगा जो कि बहकर जाने वाले पानी की तुलना में बहुत ही कम है। यह हो जाने के बाद भी हमारे देश में करीब 10 से 20 हेक्टेयर भूमि पर 0.5 हेक्टेयर के छोटे-छोटे तालाब (फार्म पोण्ड) बनाए जाएँ। इसी तरह इमारतों की छत के पानी को गड्ढों में इकट्ठा करके डाला जा सकता है। फिर भी सबसे ज्यादा पानी जो सिंचाई के लिए उपलब्ध हो सकता है उसके लिए हमारे देश में उपलब्ध नदियों को जोड़ना होगा।

प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्ध


कृषि और पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं। 25 वर्षों में कृषि में जो उन्नत तकनीकी का प्रयोग किया उससे संसाधन और पर्यावरण को गैर-जिम्मेदाराना ढंग से अन्धाधुन्ध उपयोग के नतीजे साफ नजर आने लगे हैं। जैसे वर्षा के पानी का इकट्ठा न होने से पीने के पानी के स्रोत का सूखते जाना, वन वनस्पति और प्राणी सम्पदा का विलोप, सूखा और बाढ़ की समस्या में तेजी आना और चारागाहों का घटते जाना तथा भूमि की उपजाऊ मिट्टी का बिगड़ना, हवा और पानी की गुणवत्ता में गिरावट मुख्य है।

विश्व पर्यावरण और विकास आयोग तथा उसकी खाद्य वानिकी और पर्यावरण सलाहकार समिति की रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया गया है कि आर्थिक विकास और नई तकनीकी को पर्यावरण समस्याओं के साथ जोड़ना होगा। इसलिए पर्यावरण की सुरक्षा और टिकाऊ खेती के लिए ऐसी कृषि प्रणालियों के विकास पर बल दिया जाना जाहिए ताकि हवा, पानी और मिट्टी को बिगाड़े बिना खेती की उत्पादकता को बनाए रख सके।

कृषि के अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ भूमि की उत्पादकता कोई दीर्घकालीन हानि पहुँचाए बगैर फसलों, पशुओं, मछलियों और वन वृक्षों की उत्पादकता लगातार बढ़ाई जा सकती है। लेकिन इसके लिए हमें मिट्टी के स्वास्थ्य की बराबर देखभाल करनी होगी और जल प्रबन्धन की बेहतर तकनीकी अपनानी होंगी।

भूमि के कटाव को रोकने व उर्वरा शक्ति को सन्तुलित रखने के लिए ऐसी फसलों और फसल चक्रों को अपनाना चाहिए जिसमें ज्यादा समय तक भूमि में कोई न कोई फसल खड़ी रहे तथा भूमि को अच्छी तरह बाँधकर रखती हो जैसे रिजका, बरसीम, लोबिया इत्यादि।

फसल चक्र में दलहनी फसलों को सम्मिलित करना भी आवश्यक है क्योंकि दलहनें पलवार का कार्य करती हैं व मृदा क्षरण कम कराने में सक्षम हैं तथा वायुमण्डल में से नाइट्रोजन लेकर भूमि में स्थिरीकरण करती है।

पट्टीदार खेती


इसमें फसलों को अधिकतर कतारों में बोया जाता है। जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास, आदि। इस तरह कटाव को रोकने वाली फसलें जो कि घनी बोई जाती है, जैसे बरसीम, मूंग, सोयाबीन आदि को समोच्च रेखाओं पट्टियों में क्रमानुसार एक के बाद एक बोया जाता है। इस विधि से जल प्रवाह कम होता है व कटी हुई मिट्टी रोधी फसलों की पट्टियों में इकट्ठी हो जाती है। इस तरह इस विधि से भूमि और जल दोनों को क्षरण से बचाया जा सकता है।

पौधों के अवशेष जैसे पत्तियों, पुआल, कूड़ा-करकट आदि का प्रयोग मिट्टी ढकने के लिए किया जाता है। इससे भूमि वर्षा की बून्दों के सीधे प्रहार व तेज हवा के कटाव से बचती है। यह भूमि के सतह से वाष्पीकरण को कम करती है जिससे भूमि में नमी बनी रहती है। फसल ठूँठ काट दिया जाता हैं तथा ठूँठ खेत में ही छोड़ दिए जाते हैं जो मिट्टी को बाँधे रखते हैं तथा हवा के वेग को कम कर मिट्टी को उजड़ने से बचाते हैं। यदि भूमि का ढाल बहुत कम हो तो भूमि को कटाव से रोकने के लिए भूमि की जुताई ढाल के विपरित दिशा में करनी चाहिए। इसमें कूड़ जो बनेंगे वे मिट्टी का कटाव रोकेंगे। इससे वर्षा के पानी का भी भूमि में संचय होगा।

कृषि वानिकी


हाल के वर्षों में वनों की निरन्तर कटाई से पर्यावरण को काफी नुकसान हुआ है जिनमें भूरक्षण, तापमान में निरन्तर बढ़ोत्तरी, मानसून की असामान्यता, वन प्रजातियों का लुप्त होना व पारिस्थितिकी सन्तुलन का बिगड़ना मुख्य हैं। पर्यावरण के इस ह्रास को रोकने के लिए कृषि वानिकी एक कारगर साधन हैं। यह एक श्रम प्रधान कार्य है जिससे ग्रमीणों को एक ओर जहाँ रोजगार मिलता है वहीं आर्थिक रूप से वन उपज, पंचायतों, भवनों, सहकारी संस्थाओं आदि के आसपास वृक्षारोपण सामूहिक आधार पर किया जाता है। इससे पर्यावरण सुधार के साथ-साथ भरपूर चारा तथा जलाऊ लकड़ी प्राप्त होती है। सामाजिक वानिकी का कार्यक्रम सहकारिता के आधार पर गाँव में स्वयंसेवी संस्था बनाकर करना चाहिए, ताकि पौधों की देखभाल उचित ढंग से हो सके।

[लेखक भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान (पूसा), नई दिल्ली में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं]
ई-मेल : lkidnani@yahoo.com

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