अधिगम उद्देश्य
भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें। कक्षा नवीं में ‘पर्यावरण संरक्षण’ विषय के अन्तर्गत इस मुक्त पाठ्य सामग्री में पर्यावरण विघटन की गम्भीर समस्या पर चर्चा करते हुए, पर्यावरण संरक्षण पर तथ्यात्मक जानकारी प्रस्तुत की गई है। इससे शिक्षार्थी इस विषय पर ज्ञानार्जन करके पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सकेंगे और समाज में जागरुकता लाने में सहायक सिद्ध हो सकेंगे।
मानव जीवन प्रकृति पर आश्रित है। प्रकृति एक विराट शरीर की तरह है। जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पहाड़ आदि उसके अंग-प्रत्यंग हैं। इनके परस्पर सहयोग से यह वृहद शरीर स्वस्थ और सन्तुलित है। जिस प्रकार मानव शरीर के किसी एक अंग में खराबी आ जाने से पूरे शरीर के कार्य में बाधा पड़ती है, उसी प्रकार प्रकृति के घटकों से छेड़छाड़ करने पर प्रकृति की व्यवस्था भी गड़बड़ा जाती है।
प्रकृति के साथ दुश्मन की तरह नहीं, वरन दोस्त की तरह काम करना चाहिए। हम दिनों दिन पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं, जिसके परिणाम भविष्य में घातक हो सकते हैं। पर्यावरण संरक्षण पर तथ्यात्मक जानकारी हासिल कर आप स्वयं पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को जान समझ सकते हैं तथा इस अभियान में अपने स्तर पर सतत प्रयासरत रह सकते हैं।
पर्यावरण संरक्षण
भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण को बहुत महत्त्व दिया गया है। यहाँ मानव जीवन को हमेशा मूर्त या अमूर्त रूप में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी, वृक्ष एवं पशु-पक्षी आदि के साहचर्य में ही देखा गया है। पर्यावरण शब्द का अर्थ है हमारे चारों ओर का वातावरण। पर्यावरण संरक्षण का तात्पर्य है कि हम अपने चारों ओर के वातावरण को संरक्षित करें तथा उसे जीवन के अनुकूल बनाए रखें। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिन्तन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है।
भारतीय संस्कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहाँ पर्यावरण संरक्षण का भाव अति पुरातनकाल में भी मौजूद था पर उसका स्वरूप भिन्न था। उस काल में कोई राष्ट्रीय वन नीति या पर्यावरण पर काम करने वाली संस्थाएँ नहीं थीं। पर्यावरण का संरक्षण हमारे नियमित क्रियाकलापों से ही जुड़ा हुआ था। इसी वजह से वेदों से लेकर कालीदास, दाण्डी, पंत, प्रसाद आदि तक सभी के काव्य में इसका व्यापक वर्णन किया गया है।
भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें।
जिस प्रकार राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार सन्तुलन बनाए रखने हेतु 33 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिये समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भाँति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का सन्तुलन बना रहे।
सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राज-चिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएँ खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मँगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।
वैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियाँ हमारे लिये शान्तिप्रद हों। ये शान्तिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है। पर्यावरण संरक्षण का समस्त प्राणियों के जीवन तथा इस धरती के समस्त प्राकृतिक परिवेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अन्त दिखाई दे रहा है।
प्रकृति के साथ अनेक वर्षों से की जा रही छेड़छाड़ से पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिये अब दूर जाने की जरूरत नहीं है। विश्व में बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त होते पेड़-पौधों और जीव जन्तु, प्रदूषणों से दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहराती गन्दी हवा और हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हमने अपने धरती और अपने पर्यावरण की ठीक-ठीक देखभाल नहीं की।
अब इससे होने वाले संकटों का प्रभाव बिना किसी भेदभाव के समस्त विश्व, वनस्पति जगत और प्राणी मात्र पर समान रूप से पड़ रहा है। आज पूरे विश्व में लोग अधिक सुखमय जीवन की परिकल्पना करते हैं। सुख की इसी असीम चाह का भार प्रकृति पर पड़ता है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या, विकसित होने वाली नई तकनीकों तथा आर्थिक विकास ने प्रकृति के शोषण को निरन्तर बढ़ावा दिया है। पर्यावरण विघटन की समस्या आज समूचे विश्व के सामने प्रमुख चुनौती है जिसका सामना सरकारों तथा जागरूक जनमत द्वारा किया जाना है।
हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार वायु, जल एवं मृदा आज खतरे में हैं। सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों का संकट बढ़ता जा रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दूभर हो गया है, क्योंकि धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे हैं। वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है। बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि लोगों को श्वास सम्बन्धी बीमारियाँ आम बात हो गई है।
वायु प्रदूषण के लिये वाहन भी कम उत्तरदाई नहीं हैं। बसों, कारों, ट्रकों, मोटर-साइकिलों, स्कूटर, रेलों आदि सभी में पेट्रोल अथवा डीजल ईंधन के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। इनसे भारी मात्रा में दम घोंटने वाला काला धुआँ निकलता है, जो वायु को प्रदूषित करता है। डीजल वाहनों से जो धुआँ निकलता है उनमें हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन एवं सल्फर के ऑक्साइड तथा सूक्ष्म कार्बन-युक्त कणिकाएँ मौजूद रहती हैं। पेट्रोल चलित वाहनों के धुएँ में कार्बन मोनो-ऑक्साइड व लेड मौजूद होते हैं। लेड एक वायु प्रदूषक पदार्थ है। डीजल एवं पेट्रोल चालित वाहनों में होने वाले दहन से नाइट्रोजन ऑक्साइड एवं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड भी उत्पन्न होती है जो सूर्य के प्रकाश में हाइड्रोकार्बन से मिलकर रासायनिक धूम कुहरे को जन्म देते हैं।
यह रासायनिक धूम कोहरा मानव के लिये बहुत खतरनाक है। हमारे लिये हवा के बाद जरूरी है जल। इन दिनों जलसंकट बहु-आयामी है, इसके साथ ही इसकी शुद्धता और उपलब्धता दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि हमारे देश में सतह के जल का 80 प्रतिशत भाग बुरी तरह से प्रदूषित है और भूजल का स्तर निरन्तर नीचे जा रहा है। शहरीकरण और औद्योगीकरण ने हमारी बारहमासी नदियों के जीवन में जहर घोल दिया है। हालत यह हो गई है कि मुक्तिदायिनी गंगा की मुक्ति के लिये अभियान चलाना पड़ रहा है। गंगा ही क्यों किसी भी नदी की हालत आज ठीक नहीं कही जा सकती है।
भारत के प्रमुख शहरों में मोटर वाहनों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषक (टन प्रतिदिन) | ||||
शहर | सूक्ष्म कण | सल्फर डाइऑक्साइड | नाइट्रोजन ऑक्साइड | कार्बन मोनोक्साइड |
दिल्ली | 8.58 | 7.4 | 105.38 | 452.51 |
मुम्बई | 4.66 | 3.36 | 59.02 | 391.6 |
बंगलुरु | 12.18 | 1.47 | 21.85 | 162.8 |
कोलकाता | 2.71 | 3.04 | 45.58 | 156.87 |
चेन्नई | 1.95 | 1.68 | 23.91 | 119.35 |
भारत (अनुमानित औसत) | 60 | 630 | 270 | 2040 |
आज दुनिया भर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराया जाये, ताकि उसके अस्तित्व को संकट में डालने वाले तथ्यों की उसे समय रहते जानकारी हो जाये और स्थिति को सुधारने के उपाय भी गम्भीरता से किये जा सकें। इसमें लोक चेतना में मीडिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
दुनिया में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मीडिया में पर्यावरण के मुद्दों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। भारतीय परिदृश्य में देखें तो छठे-सातवें दशक में पर्यावरण से जुड़ी खबरें यदाकदा ही स्थान पाती थी। उत्तराखण्ड के चिपको आन्दोलन और 1972 के स्टाकहोम पर्यावरण सम्मेलन के बाद इन खबरों का प्रतिशत थोड़ा बढ़ा। देश के अनेक हिस्सों में पर्यावरण के सवालों को लेकर जन जागृतिपरक समाचारों का लगातार आना प्रारम्भ हुआ। वर्ष 1984 में शताब्दी की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना, भोपाल गैस त्रासदी के बाद तो समाचार पत्रों में पर्यावरणीय खबरों का प्रतिशत यकायक बढ़ गया। यह त्रासदी इतनी भयानक थी कि इसका असर इतने वर्षों बाद भी देखा जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिये आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है जब हम अपनी नदियाँ, पर्वत, पेड़, पशु-पक्षी, प्राणवायु और हमारी धरती को बचा सकें। इसके लिये सामान्य जन को अपने आस-पास हवा-पानी, वनस्पति जगत और प्रकृति उन्मुख जीवन के क्रिया-कलापों जैसे पर्यावरणीय मुद्दों से परिचित कराया जाये। युवा पीढ़ी में पर्यावरण की बेहतर समझ के लिये स्कूली शिक्षा में जरूरी परिवर्तन करने होंगे। पर्यावरण मित्र माध्यम से सभी विषय पढ़ाने होंगे, जिससे प्रत्येक विद्यार्थी अपने परिवेश को बेहतर ढंग से समझ सके। विकास की नीतियों को लागू करते समय पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव पर भी समुचित ध्यान देना होगा।
प्रकृति के प्रति प्रेम व आदर की भावना, सादगीपूर्ण जीवन पद्धति और वानिकी के प्रति नई चेतना जागृत करनी होगी। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों में जीवन के लिये एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण को भी शामिल किया जाये। इसके लिये सघन एवं प्रेरणादायक लोक-जागरण अभियान भी शुरू करने होंगे। आज हमें यह स्वीकारना होगा कि हरा-भरा पर्यावरण, मानव जीवन की प्रतीकात्मक शक्ति है और इसमें समय के साथ-साथ हो रही कमी से हमारी वास्तविक ऊर्जा में भी कमी आई है। वैज्ञानिकों का मत है कि पूरे विश्व में पर्यावरण रक्षा की सार्थक पहल ही पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने की दिशा में किये जाने वाले प्रयासों में गति ला सकती है।
पर्यावरण-संरक्षण के कुछ उपाय
घर-परिवार ही सही अर्थों में शिक्षण की प्रथम पाठशाला है और यह बात पर्यावरण शिक्षण पर भी लागू होती है। परिवार के बड़े सदस्य अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से ये सीख बच्चों को दे सकते हैं, जैसे कि-
1. ‘यूज एंड थ्रो’ की दुनिया को छोड़ ‘पुनः सहेजने’ वाली सभ्यता को अपनाया जाये।
2. अपने भवन में चाहे व्यक्तिगत हो या सरकारी कार्यालय हो, वर्षा जल-संचयन प्रणाली प्रयोग में लाएँ।
3. जैविक-खाद्य अपनाएँ।
4. पेड़-पौधे लगाएँ- अपने घर, फ्लैट या सोसाइटी में हर साल एक पौधा अवश्य लगाएँ और उसकी देखभाल करके उसे एक पूर्ण वृक्ष बनाएँ ताकि वह विषैली गैसों को सोखने में मदद कर सके।
5. अपने आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखें। सड़क पर कूड़ा मत फेंके।
6. नदी, तालाब जैसे जलस्रोतों के पास कूड़ा मत डालें। यह कूड़ा नदी में जाकर पानी को गन्दा करता है।
7. कपड़े के थैले इस्तेमाल करें, पॉलिथिन व प्लास्टिक को ‘ना’ कहें।
8. छात्र उत्तरपुस्तिका, रजिस्टर या कॉपी के खाली पन्नों को व्यर्थ न फेंके बल्कि उन्हें कच्चे कार्य में उपयोग करें। पेपर दोनों तरफ इस्तेमाल करें।
9. जितना खाएँ, उतना ही लें।
10. दिन में सूरज की रोशनी से काम चलाएँ।
11. काम नहीं लिये जाने की स्थिति में बिजली से चलने वाले उपकरणों के स्विच बन्द रखें, सी.एफ.एल. का उपयोग कर ऊर्जा बचाएँ।
12. वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा कम करने के लिये सौर-ऊर्जा का अधिकाधिक इस्तेमाल करें, सोलर-कुकर का इस्तेमाल बढ़ाएँ तथा स्वच्छ ईंधन का प्रयोग करें।
13. पानी का प्रयोग करने के बाद नल को तुरन्त बन्द कर दें। ब्रश एवं शेव करते समय नल खुला न छोड़ें, कपड़े धोने के बाद साबुन वाले पानी से फर्श की सफाई करें।
14. फोन, मोबाइल, लैपटॉप आदि का इस्तेमाल ‘पॉवर सेविंग मोड’ पर करें।
15. जितना हो सके ठंडे पानी से कपड़े धोएँ, ‘ड्रायर का प्रयोग न करें।’
16. जितना हो सके पैदल चलें- कम दूरी तय करने के लिये पैदल चलें या साइकिल का प्रयोग करें। कार पूल करें या सार्वजनिक वाहन प्रणाली का प्रयोग करें।
17. पैकिंग वाली चीजों को कम-से-कम काम में लें- औद्योगिक कचरे में एक तिहाई अंश इन्हीं का होता है।
18. घर में चीजों का भण्डारण दुरुस्त तरीके से हो ताकि उन्हें व्यर्थ होने से बचाया जा सके।
19. डिस्पोजेबल वस्तुओं जैसे प्लास्टिक के गिलास, पानी की छोटी-छोटी बोतल और प्लेट के प्रयोग से परहेज करें।
20. विशिष्ट अवसरों पर एक पौधा अनिवार्यतः उपहार स्वरूप दें।
21. कूड़ा करकट, सूखे पत्ते, फसलों के अवशेष और अपशिष्ट न जलाएँ। इससे पृथ्वी के अन्दर रहने वाले जीव मर जाते हैं और वायु प्रदूषण स्तर में वृद्धि होती है।
22. तीन आर- रिसाइकिल, रिड्यूस और रियूज का हमेशा ध्यान रखें।
पर्यावरण प्रदूषण पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन
पर्यावरण प्रदूषण के सम्बन्ध में अन्तरराष्ट्रीय चिन्ता 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बढ़ गई थी। 30 जुलाई, 1968 को मानव पर्यावरण की समस्या पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक तथा सामाजिक परिषद ने प्रस्ताव संख्या 1946 के तहत एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया कि आधुनिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास के परिप्रेक्ष्य में मानव तथा उसके पर्यावरण के मध्य सम्बन्धों में महती परिवर्तन हुआ है। सामान्य सभा ने इस बात पर संज्ञानता प्रकट की। वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास ने मानव को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पर्यावरण को आकार देने के उद्देश्य से अप्रत्याशित अवसरों को जन्म दिया है। यदि इन अवसरों को नियंत्रित ढंग से उपयोग नहीं किया गया तो अनेक गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न होंगी। सामान्य सभा ने जल प्रदूषण, क्षरण तथा भूमि के विनिष्टीकरण के अन्य प्रारूप, ध्वनि, कूड़ा-करकट तथा कीटनाशकों के गौण प्रभावों पर भी विचार किया। मानव पर्यावरण की कुछ समस्याओं पर संयुक्त राष्ट्र संघ तथा उसकी अन्य एजेंसियाँ यथा – अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन, खाद्य एवं कृषि संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, अन्तरराष्ट्रीय परमाणु अभिकरण आदि कार्य कर रहे हैं।
मानव पर्यावरण स्टॉकहोम सम्मेलन
इस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मानवीय पर्यावरण के संरक्षण तथा सुधार की विश्वव्यापी समस्या का निदान करना था। पर्यावरण के संरक्षण के सम्बन्ध में अन्तरराष्ट्रीय स्तर का यह पहला प्रयास था। इस सम्मेलन में 119 देशों ने पहली बार ‘एक ही पृथ्वी’ का सिद्धान्त स्वीकार किया। इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) का जन्म हुआ। सम्मेलन में मानवीय पर्यावरण का संरक्षण करने तथा उसमें सुधार करने के लिये राज्यों तथा अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं को दिशा-निर्देश दिये गए। प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की घोषणा इसी सम्मेलन में की गई।
सन 1992 में ब्राजील में विश्व के 174 देशों का ‘पृथ्वी सम्मेलन’ आयोजित किया गया। इसके पश्चात सन 2002 में जोहान्सबर्ग में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित कर विश्व के सभी देशों को पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देने के लिये अनेक उपाय सुझाये गए। वस्तुतः पर्यावरण के संरक्षण से ही धरती पर जीवन का संरक्षण हो सकता है, अन्यथा मंगल आदि ग्रहों की तरह धरती का जीवन-चक्र भी एक दिन समाप्त हो जाएगा।
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम
19 नवम्बर, 1986 से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। तदनुसार जल, वायु, भूमि – इन तीनों से सम्बन्धित कारक तथा मानव, पौधों, सूक्ष्म-जीव, अन्य जीवित पदार्थ आदि पर्यावरण के अन्तर्गत आते हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के कई महत्त्वपूर्ण बिन्दु हैं, जैसे-
1. पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण हेतु सभी आवश्यक कदम उठाना।
2. पर्यावरण प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण और उपशमन हेतु राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना।
3. पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित करना।
4. पर्यावरण सुरक्षा से सम्बन्धित अधिनियमों के अन्तर्गत राज्य-सरकारों, अधिकारियों और सम्बन्धितों के काम में समन्वय स्थापित करना।
5. ऐसे क्षेत्रों का परिसीमन करना, जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित न की जा सकें। उक्त-अधिनियम का उल्लंघन करने वालों के लिये कठोर दंड का प्रावधान है।
इस बार 2015 का विश्व पर्यावरण दिवस बड़ी चेतावनी दे रहा है। अगर दुनिया भर में प्राकृतिक संसाधनों का सोच-समझकर और सम्भलकर उपयोग नहीं किया गया, तो धरती लोगों की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाएगी। संयुक्त राष्ट्र ने इस बार विश्व पर्यावरण दिवस पर इस वर्ष के लिये विषय ही प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्धन और सम्भलकर इनका इस्तेमाल करने को बनाया है। देश, धर्म और जाति की दीवारों से परे यह ऐसा मुद्दा है जिस पर पूरी दुनिया के लोगों को एक होना होगा। पर्यावरण संरक्षण सिर्फ भाषणों, फिल्मों, किताबों और लेखों से ही नहीं हो सकता, बल्कि हर इंसान को धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, तभी कुछ ठोस प्रभाव नजर आ सकेगा।
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Post By: Editorial Team