आर्थिक विकास एक ओर तो जीवनस्तर में वृद्धि, करने के लिये कटिबद्ध है वहीं दूसरी ओर पर्यावरण संरक्षण का भी मार्ग प्रशस्त करता है। दोनों आयाम-आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संरक्षण एक सिक्के के दो पहलू हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नगण्य है। संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्पूर्ण विकास एवं उचित योजनाओं के निर्धारण को ध्यान में रखते हुए एवं साथ ही भूमि संसाधन का उचित उपयोग निश्चित रूप से पर्यावरण संरक्षण एवं आर्थिक विकास में सहयोग कर सकता है, इसके लिये प्रेस महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।पूर्णतया सभी प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, हवा, जल, वन एवं जन्तु मानव मात्र के पूर्ण विकास एवं अस्तित्व के लिये आवश्यक हैं। हमारे चारों ओर व्याप्त संसाधन ही पर्यावरण है। विकास इन संसाधनों का परिपूर्ण पद्धति द्वारा अनुकूलतम उपयोग है। आर्थिक वृद्धि एवं पर्यावरण संरक्षण दोनों में परस्पर अन्तरसम्बन्ध है, परन्तु वर्तमान एवं भविष्य की गुणात्मक एवं मात्रात्मक आधारभूत मानव आवश्यकताएँ, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग, बिना पर्यावरण को क्षति पहुँचाए हुए पर निर्भर हैं। मानव अस्तित्व बनाम पर्यावरण संरक्षण में विवाद वस्तुतः अस्सी के शुरू में हुआ, जिसका मूलभूत कारण मानव का अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना था।
आर्थिक विकास के बिना पर्यावरण संरक्षण सम्भव नहीं है, विकासशील देशों में जैसे भारत इत्यादि, जहाँ विकास प्रक्रिया बहुत धीमी है, पर्यावरण संरक्षण आर्थिक विकास के लिये बाधक है, एक रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 1990 में भारत में कुल प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय उत्पाद 350 अमेरिकन डाॅलर था, जबकि जापान में 25,430 डाॅलर था, कुल मिलाकर विकसित देशों में जैसे जापान, विकासशील देशों की अपेक्षाकृत सात गुना प्रतिव्यक्ति कुल राष्ट्रीय उत्पाद अधिक है।
पर्यावरण संरक्षण एवं आर्थिक विकास को मद्देनजर रखते हुए एक सन्तुलित समाधान की आवश्यकता है, ताकि आर्थिक विकास के साथ महत्त्वपूर्ण संरक्षण सुलभ हो, इसके लिये अर्थशास्त्रियों एवं पर्यावरणविदों को परस्पर कार्य करने की आवश्यकता है।
पृथ्वी शिखर सम्मेलन
विश्व आज पर्यावरण की समस्या से ग्रसित है, जो कि पृथ्वी में निरन्तर ताप वृद्धि से लेकर वनों के कटाव तक है। झील, नदियाँ एवं सागर, सीवरेज एवं उद्योगों से निकलने वाले विषैले पदार्थों में परिवर्तित हो गए हैं। लाखों जीव-जन्तु खत्म होने की अवस्था में हैं। वायु प्रदूषण, ओजोन स्तर में छिद्र और पादप ग्रह प्रभाव से वर्तमान मानव अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। संसाधनों, का अत्यधिक शोषण तथा उद्योगों एवं वाहनों से निकलने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड गैस से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि की यही दर रही तो आने वाले पचास वर्षों में समुद्र तटीय क्षेत्रों में स्थित भू-भागों में लगभग तीन मीटर समुद्र का पानी भर जाएगा जिससे विश्व के बड़े-बड़े बन्दरगाह भी जल मग्न हो जाएँगे।
संयुक्त राज्य अमेरिका के नेशनल ओरोनोटिकल एवं स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सौ सालों में तापमान पर किये एक शोध कार्य द्वारा यह अनुमान लगाया गया कि 1888 से 1988 के बीच पृथ्वी के तापमान में 0.60 से 1.20 सेंटीग्रेड औसत तापमान की वृद्धि हुई। अन्तरराष्ट्रीय ऊर्जा संगोष्ठी (आई.ई.सी.) जो कि 1990 को दिल्ली में हुई, में वैज्ञानिकों ने यह घोषणा की कि पादप गृह प्रभाव से पृथ्वी के तापमान में भी वृद्धि हो रही है। प्रमुख वैज्ञानिक रिचर्ड हैटन (बूटस रिसर्च सेंटर, मेसाचुसैट, कनाडा, डब्ल्यू, आर.सी.एम.) लिखते हैं कि पृथ्वी की वनस्पतियों में लगभग बीस हजार अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस विद्यमान हैं। संयुक्त राज्य पर्यावरण कार्यक्रम एवं विश्व संसाधन की 1990-91 की संयुक्त रिपोर्ट ‘विश्व संसाधन’ में कहा गया है कि विश्व के तीन देश चीन, भारत एवं ब्राजील प्रमुख रूप से पादप ग्रह प्रभाव के लिये जिम्मेदार हैं।
विश्व के विकसित, विकासशील एवं अविकसित देशों में वनों का निरन्तर कटाव, भूमि पर मानव के बढ़ते हुए दबाव एवं औद्योगिकरण के विस्तार के कारण हो रहा है। विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 0.6 अरब हेक्टेयर वन भूमि का कटाव हो रहा है एवं अकेले भारत में लगभग 1.6 करोड़ वन भूमि या तो अधिवासों के रूप में या कृषि उपायोग हेतु उपयोग में लाई जा रही है। परिणामस्वरूप भारत में 15 हजार वनस्पति-जातियाँ एवं लगभग 75 हजार जन्तु-जातियाँ, सामान्यतः खत्म ही हो गई हैं। जनसंख्या के विस्फोट से मानव अस्तित्व के साथ-साथ जन्तुओं, वनस्पतियों एवं संसाधनों के अस्तित्व को भी भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है।
एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ भारत 4.76 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड एवं 52 लाख टन मिथेन गैस उत्पन्न करने में सहायक रहा है। शुद्ध जल संस्थान मानीटोवा कनाडा में उत्तर-पश्चिमी ओन्टोरियों की एक झील पर एसिड घोल की मात्रा बढ़ रही है, जो कि मत्स्य पारिस्थितिकी को असन्तुलित कर रही है। डब्ल्यू.आर.सी.एम. की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रतिवर्ष में लगभग एक खरब टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस मिश्रित हो रही है। उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान समय में पादप गृह प्रभाव जैसे संकट से मानव अस्तित्व को भी भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है।
जून 1992 में रियो डि जेनेरो (ब्राजील) में आयोजित ‘पृथ्वी सम्मेलन’ ने पर्यावरणविदों को एक नई दिशा दी, पहला विश्व स्तर का सम्मेलन 1972 में स्टाकहोम में आयोजित किया गया था। यूनाईटेड नेशन्स कान्फ्रेंस आॅन इन्वायरनमेन्ट एंड डवलपमेंट ने भविष्य के लिये एक पर्यावरण एजेंडा बनाया है। इस एजेंडा में ‘अर्थ चार्टर’ बनाया गया है, जो कि पर्यावरण के सम्पूर्ण विकास से सम्बन्धित है इसी से सम्बन्धित ‘एजेंडा-21’ इस ग्रह की व्यवस्था के लिये तैयार किया गया है।
इन शिखर सम्मेलनों में विश्व में बढ़ती पर्यावरणीय असमानताओं से उत्पन्न संकटों पर विचार-विमर्श किया गया, पर्यावरण से उत्पन्न विवाद ने उत्तरी औद्येगिक देशों (यूरोप, उत्तरी अमरीका एवं जापान) तथा दक्षिणी विकासशील देशों (एशिया, अफ्रीका एवं दक्षिण अमरीका), के बीच नए आयाम शुरू किये। विकसशील देशों ने अपने उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से संसाधनों का अत्यधिक उपभोग कर पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ाया है, पर्यावरणीय विनाश प्रत्यक्ष रूप से उपभोग के अनुपात पर निर्भर करता है, विकासशील देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भी इन संसाधनों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसलिये वे देश गरीबी और आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। उत्तरी औद्योगिक देशों और दक्षिण विकासशील देशों के बीच पर्यावरण से सम्बन्धित तीन समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए हैं।
(अ) द मान्ट्रियाल प्रोटोकोल
(ब) बायोडाइबर सिटी कन्वेन्शन
(स) क्लाइमेट चेंज कन्वेंशन
पहला समझौता ओजोन परत के निरन्तर नष्ट होने से सम्बन्धित था, दूसरा पृथ्वी के संसाधनों के सम्पूर्ण उपयोग से सम्बन्धित था, जबकि तीसरा विकासशील देशों द्वारा विकसित देशों पर संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग से सम्बन्धित था, जो कि पृथ्वी पर निरन्तर बढ़ते तापमान का कारण है। भारत में पर्यावरण संरक्षण हेतु उठाए गए कदम निम्न हैं जो कि मील का पत्थर साबित हुए हैं:-
1. चिपको आन्दोलन जो कि अंधाधुंध पेड़ों के कटाव को रोकने से सम्बन्धित है।
2. गुजरात व केरल के लोगों का न्यूक्लियर पावर प्लांट के विरुद्ध आन्दोलन।
3. भोपाल गैस पीड़ितों द्वारा बढ़ते औद्योगिक प्रदूषण के विरुद्ध कठोर कदम।
4. उड़ीसा के लोगों का बाल्को परियोजना का विरोध करना।
5. चिल्का झील में प्रोन फारमिंग।
6. मेधा पाटेकर एवं सुन्दरलाल बहुगुणा द्वारा सरदार सरोवर एवं टिहरी बाँध का विरोध।
आर्थिक विकास
आर्थिक विकास के आधार पर विश्व के देशों को क्रमशः तीन वर्गों में रखा गया है, विकसित, विकासशील व अविकसित। यद्यपि पर्यावरण की समस्या विश्व समस्या है और विश्व के सारे देश इससे ग्रसित हैं, तथापि इसका सबसे बड़ा प्रभाव विकासशील एवं अविकासशील देशों पर पड़ा है, इन देशों का आर्थिक विकास प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से पर्यावरण योजनाओं द्वारा थम सा गया है। जब कभी ये देश आर्थिक योजना को लागू करते हैं, आर्थिक सन्तुलन को बनाए रखने के लिये तब विकसित देश इन योजनाओं में अवरोध उत्पन्न करते हैं, विकसित देशों की नीति तृतीय विश्व के देशों की उन्नति में बाधक है। यह सार्वभौमिक तथ्य है कि चाहे विकसित देश हो या विकासशील देश बिना आर्थिक प्रगति के पर्यावरण संरक्षण असम्भव है। जैसे तृतीय विश्व के देशों को ईंधन की लकड़ी के लिये वनों पर निर्भर रहना पड़ता है और हर साल करोड़ों टन लकड़ी ईंधन के लिये उपयोग में लाई जाती है। यदि सभी लोगों के ईंधन की पूर्ति के लिये मिट्टी का तेल या गैस उपलब्ध करा दिया जाये तो निश्चित रूप से वनों के कटाव में कमी आएगी। एक जो आत्मनिर्भर है तथा अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है। यह पर्यावरणवादी अधिक हो सकता है। पर्यावरण संरक्षण तो अपने आप हो जाएगा जब प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक रूप से सुुदृढ़ हो जाएगा। इन दोनों आयामों के बीच उत्पन्न संकट को तभी दूर किया जा सकता है जबकि आर्थिक विकास हो।
सारणी-1 विश्व के देशों की आर्थिक उन्नति की वास्तविक व्यवस्था करती है:-
सारणी-1 जीवन स्तर सूचक
देश | प्रति व्यक्ति कुल राष्ट्रीय उत्पाद 1990 (यू.एस.) | प्रति व्यक्ति डेली इनटेक | ||
फैट्सग्राम | प्रोटीग्राम | कैलोरी | ||
भारत | 350 | 39 | 53 | 2229 |
बांग्लादेश | 210 | 18 | 43 | 2,021 |
कनाडा | 20,070 | 152 | 100 | 3482 |
चीन | 370 | 46 | 63 | 2639 |
फ्रांस | 19490 | 159 | 112 | 4365 |
जर्मनी | 22,320 | 148 | 100 | 3,443 |
जापान | 25,430 | 79 | 94 | 2956 |
कीनिया | 370 | 43 | 59 | 2163 |
पाकिस्तान | 380 | 51 | 60 | 2219 |
फिलीपाइन्स | 730 | 36 | 53 | 2375 |
ब्रिटेन | 10,100 | 144 | 90 | 3149 |
यू.एस.ए. | 21.790 | 167 | 110 | 3671 |
उपर्युक्त तालिका में विश्व के अनेक देशों का जीवन स्तर प्रदर्शित किया गया है तालिका चार वर्गों में विभाजित है। प्रथम वर्ग में प्रति व्यक्ति कुल राष्ट्रीय उत्पाद, द्वितीय के अन्तर्गत प्रतिव्यक्ति डेली इन्टेक, तृतीय वर्ग में फैट्स, प्रोटीन तथा चतुर्थ वर्ग में कैलोरी हैं।
विकासशील देश जैसे भारत में प्रति व्यक्ति जी.एच.पी. 350 अमेरिकन डाॅलर है, जबकि विकसित देश जैसे जापान में 25,430 अमेरिकन डालर है। इसी तरह एनर्जी इन्टेक में विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में नगण्य हैं। इतने विशाल स्तर पर विभिन्नता तृतीय देशों को उनके आर्थिक विकास के लिये मजबूर करती है परन्तु विकसित देश उन्हें यह करने से रोकते हैं।
सारणी-2, उत्पादन की संरचना (1990) कुल घरेलू उत्पाद का वितरण (प्रतिशत में)
देश | कृषि | उद्योग | सेवाएँ |
भारत | 31 | 29 | 40 |
बांग्लादेश | 38 | 15 | 46 |
चीन | 27 | 42 | 31 |
पाकिस्तान | 26 | 25 | 49 |
श्रीलंका | 26 | 26 | 48 |
जापान | 3 | 42 | 56 |
यू.के. | 2 | 37 | 62 |
यू.एस.ए. | 2 | 29 | 69 |
सारणी-2 उत्पादन की संरचना (1990) को प्रदर्शित कर रही है जिससे कुल घरेलू उत्पाद का वितरण प्रतिशत में बताया गया है। उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि विकसित देशों का कुल घरेलू उत्पाद उद्योगों से अधिक है जबकि विकासशील देशों को अधिक उत्पादन कृषि क्षेत्र से प्राप्त होता है। विकासशील एवं अविकासशील देशों का परम्परागत समाज प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित किये हुए है, यदि उत्तरी देशों का यह फिजूल संसाधन उपयोग जारी रहा तो यह निश्चित रूप से फ्रेजाइल इको-सिस्टम को नष्ट कर देगा। बढ़ता हुआ ऋण, गिरता व्यापार एवं तकनीक विकास में कमी जैसे तत्व तृतीय विश्व के देशों में प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन करने के लिये दबाव डाल रहे हैं, जिससे पर्यावरण संकट उत्पन्न हुआ है, गरीबी एवं पर्यावरण संरक्षण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता है।
भारत में विश्व की 16 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है तथा यह 3 प्रतिशत विश्व ऊर्जा का उपयोग करती है। साथ-ही-साथ एक प्रतिशत विश्व का कुल राष्ट्रीय उत्पाद ग्रहण करती है। भारत की वर्तमान समस्याओं में जनसंख्या विस्फोट, निरक्षरता, गरीबी, महिलाओं का निम्न स्तर, भुखमरी, सूखा एवं प्राकृतिक आपदाएँ हैं।
पर्यावरण एवं विकास: एक सिक्के के दो पहलू
वर्तमान समय में सामाजिक-आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संरक्षण दो केन्द्रीय मुद्दे हैं, इन दोनों आयामों में पारस्परिक सहयोग न होने के कारण नीतियों के निर्धारण में अवरोध उत्पन्न हुआ है। सम्पूर्ण विकास एवं अच्छे पर्यावरण को प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएँ एक साथ मिल-जुलकर काम करें।
पर्यावरणविदों एवं अर्थशास्त्रियों में पूर्व में जो विवाद था उसने वर्तमान में लड़ाई का रूप ले लिया है। ये विवाद जिनके बीच है; वे हैं:
(अ) वे जो पर्यावरण का शोषण अपने व्यक्तिवादी दृष्टिकोणों के लिये कर रहे हैं।
(ब) वे जो बिना आर्थिक विकास के पूर्ण रूपेण पर्यावरण का संरक्षण करना चाहते हैं।
आर्थिक विकास एक ओर तो जीवनस्तर में वृद्धि, करने के लिये कटिबद्ध है वहीं दूसरी ओर पर्यावरण संरक्षण का भी मार्ग प्रशस्त करता है। दोनों आयाम-आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संरक्षण एक सिक्के के दो पहलू हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नगण्य है। संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्पूर्ण विकास एवं उचित योजनाओं के निर्धारण को ध्यान में रखते हुए एवं साथ ही भूमि संसाधन का उचित उपयोग निश्चित रूप से पर्यावरण संरक्षण एवं आर्थिक विकास में सहयोग कर सकता है, इसके लिये प्रेस महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। निम्नलिखित तथ्य इन आयामों के संरक्षण के लिये आवश्यक हैं।
(1) सौर आधारित ऊर्जा का उपयोग जो कि जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम कर सके।
(2) नया परिवहन नेटवर्क एवं नगरों को नई योजनाओं द्वारा बसाना।
(3) भूमि एवं पूंजी का पुनःवितरण।
(4) छोटे परिवार की अवधारणा का अनुसरण करना।
सहायक प्रोफेसर, भूगोल विभाग शासकीय महाविद्यालय खिलचीपुर, राजगढ़, म.प्र.
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