पर्यावरण संकट और भारतीय चित्त

जैन समाज में लंबी तपस्याएं (निराहार) करने की परंपरा रही है। ‘उणोदरी-तप’ को एक श्रेष्ठ तप माना जाता है इसमें अपेक्षा या आवश्यकता से एक चौथाई कम खाने की परंपरा है। जीवन में खाद्य वस्तुओं का सेवन कम करने, वस्त्रों का सेवन कम करने और भौतिक संसाधनों का सेवन कम करने उणोदरी-तप की मुख्य साधना है। भारतीय चित्त और मानस प्रकृति के साथ सामंजस्य से चलता है बता रहे हैं शुभू पटवा।

हम देखते हैं कि समूचे विश्व के शासकों ने इस सचाई को तो स्वीकार किया है कि पारिस्थितिकी में गंभीर असंतुलन पैदा हो गया है और इसे रोकना आवश्यक है। लेकिन इस स्वीकार के बावजूद किसी प्रकार का निर्णायक कदम नहीं उठाया जा सका है। इसका एकमात्र कारण यह है कि ‘बाजार की शक्तियां’ शासकों पर हावी हैं। अपने हित साधने के सिवा चूंकि ‘बाजार’ का कोई अन्य उद्देश्य कभी रहा ही नहीं है, इसलिए जरूरी है कि बाजार की शक्तियों पर अंकुश लगा कर उसकी निरंकुशता को नियंत्रित किया जाए।

इसके दो तरीके हो सकते हैं। पहला तो शासन के ही हाथ में है कि वह उस बाजार को ध्वस्त करे जो विलासिता को बढ़ाने, आदमी की श्रमशीलता को कुंठित करने में लगा है। इस बाजार से गैर-बराबरी, हिंसा और विषमता पैदा होती है और परस्परता, प्रेम और सहभागिता-सहजीविता नष्ट होती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी से आम आदमी की बेहतरी कैसे हो सकती है, उस दिशा में बाजार को अग्रसर किया जाए। दूसरा उपाय वैयक्तिक भी है और सामुदायिक भी, जिसमें शासन का नैतिक और संसाधनिक संबल होना जरूरी है। विज्ञान और दर्शन की समन्विति का निहितार्थ भी यही है। यह उपाय है वह जीवन-व्यवहार, जो अध्यात्म की वेदी पर ही अवलंबित है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास और विस्तार के लिए शासन की ओर से जितने संसाधन जुटाए जाते रहे हैं, अब विज्ञान और दर्शन की समन्विति यानी अध्यात्म के लिए भी आवश्यकतानुसार संसाधन उपलब्ध कराने की वचनबद्धता शासन की ओर से होनी चाहिए।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारतीय मन मूलत: परस्परता और सौहार्द्र में विश्वास रखता है। अहिंसा, प्रेम और सहिष्णुता अब भी भारतीय मन की अकाट््य पहचान है। भौतिकता के दुर्द्धर्ष दबाव के उपरांत भी शांतिपूर्ण जीवन के लिए, मन की शांति के लिए- संयम, श्रद्धा और सत्यनिष्ठा के प्रति लोगों की आस्था घटी नहीं है। अध्यात्म भी तो यही है और जिन अर्थों में अब अध्यात्म को परिभाषित किया जाने लगा है, आम जीवन में उसका समावेश भी अब सहज-सरल हो सकता है। यह होने से ही समस्याओं से मुक्ति और जीवन की सहजता हासिल हो सकती है। अध्यात्म का तात्पर्य अब उन सभी बातों को प्रायोगिक रूप देने में है जो क्रि याकांडों से मनुष्य को बचाते हुए कथनी और करनी के भेद को समाप्त करती हैं। आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता को निकट लाकर देखने की अवधारणा की जमीन बनाने की शुरुआत करने की अब जरूरत है।

इसी के साथ हमें अपनी पारंपरिक जीवन शैली को भी फिर से देखना चाहिए। हम अपनी जीवनचर्या, खान-पान और रहन-सहन पर गौर करें, तो पाएंगे कि अगर पूरी तरह उसे अंगीकार कर लिया जाए तो पर्यावरण परिपुष्ट हो जाएगा। हमारी उस जीवन-चर्या में आहार-शुद्धि और व्यसन-मुक्ति प्रमुखत: रहे हैं। ये हमें केवल शारीरिक विकारों से मुक्त नहीं रखते, हमारे मानसिक-स्नायविक तंत्र को भी सकारात्मक क्षमता प्रदान करते हैं। इसके विपरीत जो जीवन-चर्या है, वह सर्वथा अप्राकृतिक है। हम जानते हैं कि प्रकृति के विरुद्ध जाने का अर्थ है- उसका कोप-भाजन बनना। प्रकृति का अपना दंड-विधान है, वह किसी को माफ नहीं करती।

दरअसल, हम प्रवंचनापूर्ण जीवन के अभ्यस्त हो गए हैं और इसकी पुष्टि में हमें थोड़ा पीछे चलना होगा। जून, 1972 में स्टॉकहोम में जो विश्व पर्यावरण सम्मेलन हुआ था, उसमें पर्यावरण आधारित विकास की बात कही गई थी। पर्यावरण आधारित विकास यानी परस्परता औरसमरसता की दृष्टि से होने वाला विकास।

जीवन जीने की आधार-भूमि क्षत-विक्षत हो गई है, क्योंकि प्रकृति से हमारे रिश्ते लालच से भरे हो गए हैं। हम यह मान बैठे हैं कि जो कुछ प्रकृति में है वह सब हमारे लिए ही है। प्रकृति को खुरच लेने के सिवा हमने कोई रिश्ता उससे जोड़ा नहीं है। इसलिए हम देख रहे हैं कि दुनिया भर में प्रकृति का प्रकोप और आपदाएं बढ़ रही हैं।

सन 1972 के इस स्टॉकहोम सम्मेलन के बाद पर्यावरण और जीवन में आए बदलावों पर संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट तैयार करवाई थी। कोई ग्यारह सौ वैज्ञानिकों की ओर से तैयार इस रिपोर्ट में बीते तीस सालों में आई गिरावट दर्ज है, वहीं आने वाले तीस सालों में हमारे जीवन और पर्यावरण की क्या स्थिति होने वाली है उसका एक पूर्वानुमान भी लगाया गया है। ‘द ग्लोबल एनवायर्नमेंट आउटलुक’ नामक इस रिपोर्ट का ब्योरा चौंकाने वाला है। इसमें कहा गया है कि दुनिया की आधी आबादी पानी के लिए त्राहि-त्राहि करेगी। खाने को पेट भर अनाज नहीं मिलेगा। कई प्रजातियां सदा के लिए लुप्त हो जाएंगी। वन्यजीवों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इन जीवों की प्रजनन प्रक्रिया और जीवन शैली में काफी परिवर्तन होगा। जहरीले वातावरण के कारण बीमारियों की चपेट में आने वालों की संख्या करोड़ों तक पहुंच जाएगी। रिपोर्ट में और भी बहुत-कुछ है, जो बताता है कि जीवन और पर्यावरण की अनदेखी के नतीजे क्या हो सकते हैं।

बदली हुई इस जीवन शैली या जीवन व्यवहार ने जहां शारीरिक व्याधियों और विकारों को बढ़ाया है वहीं मनोकायिक बीमारियां भी बढ़ी हैं। हमारा मन, हमारा शरीर और हमारा दैनंदिन- उन सबके मध्य जो लयात्मकता और तारतम्य कभी रहता आया था, वह अब टूट गया है। वैसा तारतम्य फिर कैसे जुड़े यह विचारणीय पहलू है। इसलिए यह देखना ही होगा कि संपूर्ण प्राणी जगत- जीव और वनस्पति- की अब उपेक्षा नहीं की जा सकती।

हम पहले सामाजिक और सांस्कृतिक आधार को लें। मनुष्य की विलासिता और भोगवादी प्रवृत्ति ने हमारे पुख्ता सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों को नष्ट किया है। इसके विस्तृत ब्योरे में जाने की यहां आवश्यकता नहीं है। यह समझना पर्याप्त होगा कि बाजारवाद के शिकंजे ने हमारी नैसर्गिक जीवन-चर्या को नष्ट किया है और उसके दुष्परिणाम कई रूपों में हमारे सामने हैं। शिक्षा का स्वरूप भी हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ़ नहीं कर रहा।

इसी तरह जब हम कथित आर्थिक सुधारों पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि हम एक कृत्रिम जीवन जी रहे हैं। जीवन जीने की आधार-भूमि क्षत-विक्षत हो गई है, क्योंकि प्रकृति से हमारे रिश्ते लालच से भरे हो गए हैं। हम यह मान बैठे हैं कि जो कुछ प्रकृति में है वह सब हमारे लिए ही है। प्रकृति को खुरच लेने के सिवा हमने कोई रिश्ता उससे जोड़ा नहीं है। इसलिए हम देख रहे हैं कि दुनिया भर में प्रकृति का प्रकोप और आपदाएं बढ़ रही हैं। 2011 की जापान त्रासदी हमारे सामने है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास से जो विषमताएं पैदा हुई हैं उनसे विमुख होना भी इस जीवन शैली के रहते संभव नहीं है।

हां, इस विकट और विपन्न अवस्था में भी जीवन और पर्यावरण के प्रति एक चिंता अवश्य नजर आ रही है। इस चिंता को हमें अंधेरे में एक दीये से होने वाली रोशनी जितना असरदार तो मानना ही चाहिए। अंधेरे को चीर कर मार्गदर्शक बनने का साहस भी कई स्तरों पर हमारे यहां हो रहा है। उस साहस को समन्वित-संयोजित करने की जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता दीये की लौ को कायम रखने की भी है। उस लौ को कायम रखने के लिए अध्यात्म और पर्यावरण को एक साथ जोड़ कर देखना होगा।

अध्यात्म और पर्यावरण, इन दो शब्दों से जो आशय ध्वनित होता है वह क्या एक ही नहीं है? बहुत अंशों तक यह एक ही प्रतीत होता है। तभी तो यह कहा भी जा रहा है कि जो कुछ हमारी आत्मा के लिए अभीष्ट है, वही अध्यात्म है। और, पर्यावरण का तात्पर्य भी यही है। प्रकृति के प्रतिकूल जो न हो, वही पर्यावरण है। इसलिए आत्मा और प्रकृति समानार्थी माने जा सकते हैं।

आत्मा को या कि अध्यात्म को पृष्ठभूमि में रख कर हम पर्यावरण संरक्षण नहीं कर सकते। यह समय की आवश्यकता है कि विश्व पर्यावरण दिवस जैसे अवसरों पर पर्यावरण के विनाश की, उसमें आए असंतुलन की बात करते हुए हम उस अध्यात्म की बात भी करें जिसके अभाव में हम पटरी पर नहीं आ सकते।

हम जानते हैं कि भारतीय परंपरा, भारतीय चित्त और स्वभाव मूलत: प्रकृति के करीब रहे हैं। यह भी कह सकते हैं कि वे आत्मा के भी निकट रहे हैं, अध्यात्मिक रहे हैं। अपने दैनंदिन जीवन में सीमित वस्तुओं का उपयोग और सादा रहन-सहन उनके जीवन का अंग है। अक्सर हमारी चर्चाएं जिन मुद्दों पर केंद्रित रही हैं उनमें ये बातें कभी आती ही नहीं हैं, जो वर्तमान विषमताओं के लिए समाधान-परक हो सकती हैं। इसके लिए किसी कानून या दबाव की आवश्यकता नहीं है, उनकी विशिष्टताओं को मात्र अंगीकार करने और जो ऐसा कर रहे हैं उनके प्रति समादर का दृष्टिकोण रखने की जरूरत है। भारत का बुनियादी स्वभाव संयम और त्यागमय जीवन का ही रहा है। त्याग और संयम हर समाज में व्यक्ति की साधना का सहज हिस्सा रहे हैं।

इस बात के लिए एक उदाहरण देखें। आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ की स्मृति में भारत में ‘वर्षीतप’ चलता है। इस तप में लाखों जन एक दिन भोजन और एक दिन उपवास करते हैं। अनादिकाल से आज तक यह क्रम चला आ रहा है। अनेक प्रकार के दूसरे व्रत और उपवास भी सदा से चलते आ रहे हैं। जैन समाज में लंबी तपस्याएं (निराहार) करने की परंपरा रही है। इसी तरह ‘उणोदरी-तप’ को श्रेष्ठ तप माना जाता है, जिसमें अपेक्षा या आवश्यकता से एक चौथाई कम खाने की परंपरा है। दिन भर में सीमित मात्रा में खाद्य वस्तुओं का सेवन, वस्त्रों का सेवन और अन्य भौतिक साधनों का उपयोग भी ऐसी ही साधना का अंग है। ये सब संयम और त्याग की श्रेणी में आते हैं।

इनकी गणना की जाए तो करोड़ों दिन होंगे जब लाखों जन यह संयम नित्य रखते हैं। यह अध्यात्म का श्रेष्ठतम हिस्सा है। आत्मा के सन्निकट रहने का यह सबल माध्यम है। इसके साथ ही हम यह भी देखें कि एक तरफ संसाधनों, आम उपभोक्ता वस्तुओं के अभाव का रोना रोया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसी त्याग, संयम और अध्यात्म से भारी बचत भी होती है। क्या हमने इस बचत का कभी हिसाब लगाया है? अपनी प्रकृति और परिवेश को इससे सहज संपोषण मिल सकता है। ये सभी बातें हमारी चर्चा-परिचर्चा का हिस्सा होनी चाहिए।

कहना होगा कि अध्यात्म और पर्यावरण सहगामी हैं, सहजीवी हैं और सहज संपोषण का बुनियादी आधार हैं। विश्व-स्तर पर पर्यावरण की बात करते हुए ऐसे सहजीवी, सहगामी संपोषण की बात अब की जानी चाहिए। यही है सही मार्ग। यही है पर्यावरण और अध्यात्म।

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