पर्यावरण सन्तुलन को पूरी तरह किया गया है नजरअन्दाज

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मै2015 के भू-अधिग्रहण कानून को लेकर देश में साफ तौर पर एक राजनैतिक उथल-पुथल हो रही है लेकिन समिति के अध्यक्ष द्वारा इस महत्वपूर्ण राजनैतिक सच्चाई को नज़रअन्दाज किया जाना काफी चिन्ता की बात है। साफ ज़ाहिर है कि सत्ता पक्ष कुछ बचाना चाह रही है तथा वो राजनैतिक बहस के लिए तैयार नहीं हैं। यह मसला बुनियादी रूप से राजनैतिक है जिसमें करोड़ों खे​​तिहर और ग़रीब किसानों की अस्तित्व का सवाल है। इसलिए भविष्य में भूमि अधिकार आन्दोलन को राजनैतिक पक्ष को मजबूत करना होगा चूँकि यह कानूनी शब्दावली के दाव-पेच की लड़ाई नहीं है।

भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर लगातार विरोध का सिलसिला जारी है। इसी परिप्रेक्ष्य में 16 जून को ‘‘भूमि अधिकार आन्दोलन’’ के सात सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा भू-अधिग्रहण बिल के उपर गठित संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष भू-अधिग्रहण विधेयक पर अपनी आपत्तियों को पेश किया। इस समिति में पाठा दलित अधिकार उ.प्र से मातादयाल, कनहर बचाओ आन्दोलन उ.प्र से शिवप्रसाद खरवार, अखिल भारतीय किसान सभा से वीजू, दिल्ली समर्थक समूह से श्वेता और संजीव, ऑल इंडिया कृषक खेत मज़दूर संगठन हरियाणा से सत्यवान व अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन से रोमा ने हिस्सा लिया। ये सभी संगठन ‘‘भूमि अधिकार आन्दोलन’’ जिसे दिल्ली के संसद मार्ग में भू-अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में आयोजित कार्यक्रम में देश के कई जनसंगठन, वाम दलों से जुड़े किसान संगठन व कई नागरिक संगठनों द्वारा गठित किया गया था। संयुक्त सदस्यीय समिति द्वारा भूमि अधिकार आन्दोलन के प्रतिनिधि मण्डल को सुबह 11 बजे आमन्त्रित कर अपने विचार प्रस्तुत करने का मौका दिया गया।

समिति के समक्ष प्रस्तुति की पहल करते हुए श्वेता त्रिपाठी ने कहा कि भूमि अधिकार आन्दोलन द्वारा भू-अधिग्रहण विधेयक 2015 में कई महत्वपूर्ण प्रावधानों पर विषय वार दो दस्तावेज़ तैयार किए गए हैं जिसे समिति को सौंपा गया। विस्तृत रूप से कानून के आपत्तिजनक प्रावधानों को विजू कृष्णन ने बिन्दुवार प्रस्तुत किया। विजू द्वारा भू-अध्यादेश को सरकार द्वारा तीसरी बार पेश करने के सम्बन्ध में विरोध किया गया जिस पर अध्यक्ष एस.एस आहलूवालिया की त्वरित टिप्पणी थी कि अध्यादेश सरकार द्वारा लाया जा रहा है जिससे संयुक्त संसदीय समिति का कोई लेना देना नहीं है कहा कि टिप्पणी केवल विधेयक के अन्दर आपत्तियों को लेकर होनी चाहिए।

भू-विधेयक 2015 को लेकर सामाजिक आँकलन, भूमि अधिग्रहित कर पाँच वर्ष तक उपयोग न करने की स्थिति में भू-मालिक को लौटाने सम्बन्धित, 13 विभिन्न कानूनों को इस कानून के दायरे में लाने, भू-मालिकों की भू-अर्जन की सहमति को 70 फीसदी से घटाने के मामले को लेकर काफी विस्तार पूर्वक प्रस्तुति विजू कृष्णन द्वारा की गई। औद्योगिक गलियारों जैसी महापरियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहित में खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण व सामाजिक सांस्कृतिक ताने बाने में सन्तुलन बनाए रखने की आवश्यकता को नए कानून द्वारा पूर्ण रूप से नजरअन्दाज किया गया है। बहुफसली भूमि को बचाने के लिए कानून में किसी प्रकार के प्रावधान नहीं है। इन औद्योगिक गलियारों के लिए सार्वजनिक-निजी साझेदारी के तहत भूमि अधिग्रहित करना जिसमें सहमति एवं सामाजिक प्रभाव आँकलन की कोई मान्यता नहीं है इस पर काफी चिन्ता जताई। खेत मज़दूर परिवार के एक ही सदस्य को अनिवार्य रूप से रोज़गार मुहैया कराने सम्बन्धी प्रावधान जनविरोधी है जबकि किसी भी परियोजना को लगाए जाने पर परिवार के सभी सदस्यों को रोज़गार व पुर्नवासन के प्रावधान किए जाने चाहिए। व प्रभावित लोगों के रोज़गार के अवसर बढ़ाये जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए तथा न्यूनतम वेतन बढ़ती हुई महँगाई को ध्यान में रखते हुए व जीवन जीने योग्य वेतन के मुताबिक होना चाहिए। लेकिन 2015 कानून में यह प्रावधान नहीं दिए गए हैं। विजू द्वारा देश में पास्को में चल रहे गैरकानूनी भूमि अधिग्रहण से उपजे जनप्रतिरोध को समिति के संज्ञान में लाया गया। श्वेता ने वन एवं राजस्व भूमि में लाखों हैक्टर के विवादों का निपटारा अभी तक नहीं किए जाने वाले सवाल को भी उठाया।

सत्यवान द्वारा श्रीमति सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली ग्रामीण विकास संसदीय स्थाई समिति की सिफ़ारिशें तथा भूमि अधिग्रहण् पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन हेतु निष्पक्ष क्षतिपूर्ति एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 के पारित होने से पहले संसद में हुई चर्चाओं पर समिति को विचार करने का अनुरोध किया। रोमा ने भू-अधिग्रहण अध्यादेश को सरकार द्वारा पारित करने पर ही आपत्ति जताई गई कि पूरे देश में किसानों द्वारा आत्महत्याएँ व गम्भीर संकट है तो आखिर सरकार को इस अध्यादेश को पारित करने की क्या आपातकालीन जरूरत थी? उन्होंने कहा अध्यादेश को सरकार द्वारा बिना किसी आपातकालीन स्थिति के तीन बार पेश करना अपने आप में गैर-संवैधानिक एवं गैर-संसदीय परम्परा है। देश के भूमि रिकार्ड आज़ादी से लेकर अभी तक दूरुस्त नहीं किए गए हैं ऐसे में जो भी अधिग्रहण हो रहा है वह किसी भी मायने में वैधानिक नहीं है। आज़ादी के समय दिए गए नारे ‘‘लैड़ टू टिलर’’ को अभी तक देश में सही मायने में लागू नहीं है भूमि सुधार के मुद्दे अभी तक अनसुलझे हैं व भूमिहीनों को अभी तक भूमि वितरण नहीं की गई, भूमिहीनता जबकि बड़े पैमाने में दस गुना हो चुकी है ऐसे में भूमि अधिग्रहण कानून को ही बार-बार बहस करना न्यायोचित नहीं है। देश के 67 साल बीतने पर भी सिवाय आज़ादी के समय जमींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार कानून के अभी तक आज़ाद देश की सरकारों ने भूमि अधिकार के उपर एक भी कानून नहीं बनाया ऐसे में भूमि अधिग्रहण पर ही कानून बनाने का आखिर क्या औचित्य है?

रोमा ने अपने वक्तव्य में कहा कि यू.पी.ए सरकार द्वारा 2013 के कानून ने राज्य के एकाधिकार ऐमिनेंट डोमेन को पहली बार चुनौती ज़रूर दी गई लेकिन उस कानून को लागू करने की राजनैतिक इच्छा नहीं दिखाई गई। देश में ज्यादतर अधिग्रहण बिना कानून के हो रहे है भूमि रिकार्ड दुरुस्त नहीं है, वनक्षेत्र एवं पर्ती भूमि आदि में आदिवासी समुदाय के अधिकार अभी भी अभिलिखित नहीं है, 2006 का वनाधिकार कानून अभी तक प्रभावी रूप से लागू नहीं है व केवल व्यक्तिगत अधिकारों के लिए लागू किया जा रहा है, ऐसे में दबंगई व दमन से भूमि को लूटने का अभियान राज्यों में ज़ारी है।

समिति के अध्यक्ष श्री एस.एस आहलूवालिया द्वारा कई बार प्रतिनिधि मण्डल के सदस्यों को बीच में टोका गया व उन्हें अपनी बात को समाप्त करने की बात तक कही गई। उ.प्र के सोनभद्र जिले में कनहर बाँध के लिए किए जा रहे अवैध भू-अधिग्रहण के सवाल उठाते हुए रोमा ने समिति को सवाल किया कि अभी तो संशोधित कानून पारित ही नहीं हुआ है तो राज्यों में गोली चल रही है जब यह कानून पारित हो जाएगा तब जबरदस्ती भू-अधिग्रहण के लिए तो लगता है कि तोप चलाई जाएगी।

प्रतिनिधि मण्डल ने इस विधेयक को पूर्ण रूप से अमान्य करते हुए कहा कि इस भू-अध्यादेश को फौरन रद्द किया जाना चाहिए अन्यथा इस मुददे पर देश के अन्दर एक वृहद जनांदोलन होगा। कनहर बचाओ आन्दोलन की तरफ से शिवप्रसाद खरवार द्वारा समिति के 30 सांसदों को कनहर गोली कांड़ के सन्दर्भ में एक दस्तावेज़ भी सौंपा। समिति के अध्यक्ष द्वारा समुदाय से उपस्थित सदस्यों शिव प्रसाद खरवार जो कि सोनभद्र उ.प्र के कनहर बाँध निर्माण में किए जा रहे अवैध भू-अधिग्रहण में पुलिसिया हिंसा, दमन व गोलीकांड़ के शिकार हैं व बुदेलखण्ड म.प्र. से प्रतिनिधित्व कर रहे मातादयाल को सुनवाई का मौका नहीं दिया गया। इस पर प्रतिनिधि मण्डल सदस्या रोमा ने समिति को यह अवगत कराया गया कि समिति में समक्ष वैसे ही 2 लोगों को प्रस्तुति करने की अनुमति दी गई थी लेकिन काफी मशक्कत के बाद सात प्रतिनिधियों को समिति के समक्ष उपस्थित होने की अनुमति मिली। ऐसे में प्रतिनिधियों को बोलने का मौका न दिया जाना काफी निराशाजनक है। समिति से अनुरोध किया गया कि जहाँ-जहाँ पर भू-अधिग्रहण को लेकर संघर्ष चल रहे हैं समिति के सदस्य सांसदों को उन क्षेत्र में जा कर जन-सुनवाई का आयोजन किया जाना चाहिए।

प्रतिनिधि मण्डल को यह महसूस हुआ कि समिति के अध्यक्ष ज्यादा विरोध सुनने के पक्ष में नहीं थे जबकि विपक्ष सदस्यों द्वारा प्रतिनिधि मण्डल द्वारा उठाए गए सवालों पर गौर से सुना गया व महत्वपूर्ण बिन्दुओं को नोट किया गया। जेपीसी के अध्यक्ष का जोर था कि केवल कानूनों के संशोधनों पर ही बोला जाए न कि भू-अधिग्रहण के राजनैतिक पृष्ठभूमि पर। इसलिए जब भी प्रतिनिधि मण्डल द्वारा कानून के राजनैतिक परिपेक्ष्य पर बोलने की कोशिश की गई तब उनके द्वारा प्रतिनिधि मण्डल के सदस्यों को बीच में टोका गया। जबकि भूमि अधिकार आन्दोलन का मानना है कि संयुक्त संसदीय समिति सांसदों की है जो कि राजनैतिक लोगों की समिति है इसलिए राजनैतिक बिन्दुओं को प्रकाश में लाना बेहद ही जरूरी है। लेकिन अध्यक्ष द्वारा प्रतिनिधि मण्डल की प्रस्तुति को कानून के शब्दावलीयों में संशोधनों के दायरे तक ही सीमित रखने की कोशिश की जा रही थी जबकि संशोधनों को भू-अधिग्रहण के राजनैतिक परिपेक्ष्य में देखना चाहिए। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे यह राजनैतिक समिति नहीं बल्कि केवल कानून के शब्दावलीयों में संशोधनो तक ही सीमित समिति है, कानून के सारवस्तु में कोई संशोधन नहीं चाहती।

जबकि सब जानते हैं कि इन संशोधनों को लाने के पीछे कई राजनैतिक कारण है जिसमें सबसे बड़ी वजह कारपोरिटी हितों के लिए भू-अधिग्रहण करना मुख्य मकसद है। इस अध्यादेश को बार-बार पारित करने से देश में काफी गम्भीर राजनैतिक प्रभाव भी पड़ रहा है। स्मरण रहे कि वनाधिकार कानून को बनाने के लिए जो संयुक्त संसदीय समिति श्री किशोर चंद्र देव की अध्यक्षता में गठित हुई थी उस समिति ने कानून के पहले ड्राफ्ट था जिसमें केवल अनुसूचित जनजाति के अधिकारों को मान्यता दी गई थी उसे जनांदोलनों के माँग पर बदल कर सारतत्व में बदल कर केवल अनुसूचित जनजाति के लिए नहीं बल्कि तमाम वनाश्रित समुदाय के लिए पारित किया गया था। जो आज एक ऐतिहासिक कानून के रूप में संसद द्वारा पारित किया गया है।

संयुक्त संसदीय समिति को गठित करने की एक मुख्य वजह देश में व संसद मार्ग पर हो रहे किसानों व मज़दूरों के हो रहे प्रतिरोध भी था। 2015 के भू-अधिग्रहण कानून को लेकर देश में साफ तौर पर एक राजनैतिक उथल-पुथल हो रही है लेकिन समिति के अध्यक्ष द्वारा इस महत्वपूर्ण राजनैतिक सच्चाई को नज़रअन्दाज किया जाना काफी चिन्ता की बात है। साफ ज़ाहिर है कि सत्ता पक्ष कुछ बचाना चाह रही है तथा वो राजनैतिक बहस के लिए तैयार नहीं हैं। यह मसला बुनियादी रूप से राजनैतिक है जिसमें करोड़ों खे​​तिहर और ग़रीब किसानों की अस्तित्व का सवाल है। इसलिए भविष्य में भूमि अधिकार आन्दोलन को राजनैतिक पक्ष को मजबूत करना होगा चूँकि यह कानूनी शब्दावली के दाव-पेच की लड़ाई नहीं है । भूमि अधिकार आन्दोलन के कई महत्वपूर्ण घटक संगठनों ने अलग से अपनी प्रतिवेदन दिए हैं और दे रहे हैं, उम्मीद है कि सभी संगठन संशोधन के राजनैतिक पक्ष को मजबूती से उठाएंगे। ताकि भविष्य में भूमि अधिकार आन्दोलन एक सशक्त जन राजनैतिक आन्दोलन के रूप से उभर सके जिसकी पहल भूमिहीन और दलित आदिवासी किसानों व उनके साथ जुड़े हुए संगठनों के द्वारा होगी जोकि देश के सामने एक वैकल्पिक भूमि व्यवस्था का स्वरूप भी प्रस्तुत करेंगें। अभी तक समिति के समक्ष 400 प्रतिवेदन आए हैं और यह सभी प्रतिवेदन नए भूमि विधेयक के खिलाफ हैं।

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