विश्व साक्षरता दिवस 8 सितम्बर 2015 पर विशेष
‘प्यासा कौआ’ पानी और पर्यावरण शिक्षा का पहला पाठ है। घड़े के पेंदे में पानी होने, कंकड़ डालकर पानी ऊपर लाने और प्यास बुझाने की यह कहानी कई रूपों में पढ़ाई जाती है। यह रूपक कथा या कविता बच्चों को विवेक, उद्यम और पानी के महत्त्व को एक साथ बताती है। पर वर्तमान परिस्थितियों में कौआ और कंकड़ का रूपक किसी काम का नहीं।
सम्भव है अभी के स्कूली बच्चे ऐसे भी हों जिन्होंने घड़ा भी नहीं देखा हो। क्योंकि तकरीबन हर घर में चापाकल है या फिर नल से पानी आने की सुविधा है। पानी कहीं से लाने, रखने की जरूरत नहीं है। और रखना भी है तो वाटर फिल्टर या फ्रिज में रखना है। ऐसे में जल के बारे में शिक्षण या वाटर लिटरेसी थोड़ा कठिन काम हो गया है।
देश में पहला हरित पाठ्यचर्या तैयार करने वाले प्रोफेसर विनय कंठ ने कहा कि कुछ विकसित देशों में पर्यावरण का ज्ञान भूगोल के अंग के रूप में कराया जाता है, पर अपने यहाँ यह जीवन-विज्ञान का अंग रहा है। दुनिया में पर्यावरण शिक्षा के बारे में बहस की शुरुआत 1977 में तेबिशी (जापान ) सम्मेलन से हुई, जबकि भारत में उसके ग्यारह साल पहले 1966 में ही कोठारी कमीशन ने इसकी सिफारिश की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने एमसी मेहता की पुरानी याचिका पर सुनवाई के दौरान पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य बनाने का निर्देश दिसम्बर 2003 में दिया जिससे सरकारी हलके में खलबली मच गई। सर्वोच्च अदालत के निर्देश के मैकेनिकल अर्थ लगाए गए और उसके अनुपालन में कभी भूगोल का नाम बदलकर पर्यावरण रखने का विचार आया तो कहीं भूगोल में कुछ नए अध्याय जोड़ने की तजबीज सामने आई।
प्रो कंठ पर्यावरण शिक्षा के तौर-तरीकों के बारे में दुनिया भर में शिक्षाविदों के बीच बहस रही है। बताते हैं कि तेबेशी सम्मेलन-77 में चार लक्ष्य निर्धारित किये गए। मोटे तौर पर समझदारी बनी कि प्राइमरी स्तर पर पृथक पद्धति अपनाई जाये और उच्चतर स्तर पर इसे विभिन्न विषयों में समाहित कर दिया जाये।
बिहार के विद्यालयों में मोटे तौर पर यही होता है। तीसरी कक्षा से पर्यावरण शिक्षा दी जाती है। उसकी अलग पाठ्य-पुस्तक होती है। परन्तु नवीं-दसवीं में यह भूगोल का हिस्सा बन जाता है। विश्वविद्यालय के स्तर पर पर्यावरण विज्ञान पढ़ाया जाता है। किसी विषय के शिक्षण में दो तरह के तरीके अपनाए जाते हैं। पृथक विषय या अन्य कई विषयों में समाहित।
बिहार के विद्यालयों में माध्यमिक स्तर की कक्षाओं के लिये पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने वाली टीम में रहे डॉ. ज्ञानदेव त्रिपाठी समीर कहते हैं कि पानी एक विषय नहीं, पूरा प्रकरण है। विभिन्न विषयों में इसका समावेश होता है। साहित्य में अगर कहीं इन्द्रधनुष का उल्लेख आया तो वह पानी का विषय है।
पानी केवल पर्यावरण शिक्षा का विषय नहीं हो सकता और विषय के रूप में पर्यावरण शिक्षा के आगमन के बहुत पहले से भारतीय बच्चों को इसके बारे में शिक्षा दी जाती है। उन्होंने कहा कि पाठ्यचर्या ही इस तरह से तैयार होनी चाहिए कि हर विषय में पर्यावरण का प्रासंगिक ज्ञान समाहित हो, पर बच्चे देखकर सीखते हैं। पानी को गन्दा नहीं करने या बर्बाद नहीं करने का ज्ञान केवल कहकर नहीं दिया जा सकता। कही, सूनी या पढ़ी हुई बात समझ में तभी आती है जब कल्पनापटल पर वह दिखने लगती है।साहित्य के विद्यार्थी को इन्द्रधुनष के विज्ञान की मोटी समझ बनानी होती है। विद्यालयों के पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या के माध्यम से पानी के विविध रूपों की समझ विकसित होने का अवसर देना चाहिए। विभिन्न विषयों में विभिन्न प्रकरणों के माध्यम से इसे करना चाहिए। यह भाषा-साहित्य से लेकर भूगोल, विज्ञान, पर्यावरण शिक्षा सब में आता है।
पानी केवल पर्यावरण शिक्षा का विषय नहीं हो सकता और विषय के रूप में पर्यावरण शिक्षा के आगमन के बहुत पहले से भारतीय बच्चों को इसके बारे में शिक्षा दी जाती है। उन्होंने कहा कि पाठ्यचर्या ही इस तरह से तैयार होनी चाहिए कि हर विषय में पर्यावरण का प्रासंगिक ज्ञान समाहित हो, पर बच्चे देखकर सीखते हैं।
पानी को गन्दा नहीं करने या बर्बाद नहीं करने का ज्ञान केवल कहकर नहीं दिया जा सकता। कही, सूनी या पढ़ी हुई बात समझ में तभी आती है जब कल्पनापटल पर वह दिखने लगती है। इसलिये पर्यावरण शिक्षण पाठ्य-पुस्तकों पर नहीं शिक्षकों की योग्यता और शिक्षण विधि पर निर्भर करता है।
पर्यावरण के प्रति जागरूक और शिक्षण से जुड़े इस हस्तियों की बातचीत से स्पष्ट हुआ कि पर्यावरण शिक्षण के लिहाज से पाठय-पुस्तकों से अधिक उपयोगी विभिन्न समारोह और गतिविधि मूलक आयोजन होते हैं। विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल की तर्ज पर बिहार पृथ्वी दिवस 9 अगस्त को भी आयोजन के प्रावधान हैं।
इसी तरह जल दिवस, वृक्ष दिवस आदि पर कार्यक्रम हो सकते हैं। उनमें पौधरोपण या चित्रांकन या कविता वाचन, गायन आदि कार्यक्रमों के माध्यम से बच्चों को बोध कराया जा सकता है। इसे रेखांकित करते हुए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक देवी लाल यादव ने कहा कि बच्चों को इसका बोध कराना होता है कि पर्यावरण ही सब कुछ है।
हवा, पानी, पौधे और पृथ्वी सबके महत्त्व को बताना होता है। हम बताते हैं कि बूँद-बूँद गिरकर घंटे या दिन भर में कितना पानी इकट्ठा हो जाता है या बूँद-बूँद गिरने से थोड़ी देर में पूरी बाल्टी खाली हो जाती है- पानी हमेशा मिलती रहे, इसके लिये जरूरी है कि उसे गिरने नहीं देना चाहिए। लेकिन हमारे बताने से अधिक प्रभाव तब होता है जब बच्चों से उनके रोजमर्रा के अनुभवों को सूना जाता है और जरूरत के अनुसार उसकी व्याख्या की जाती है।
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Post By: RuralWater