पर्यावरण शिक्षा का अभियान चले


वैश्विक स्तर पर पर्यावरण शिक्षा को आंदोलन का रूप देना होगा। जनमानस को शिक्षा देनी होगी कि पर्यावरण की सुरक्षा कैसे करें। पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा होना ही नाकाफी है, आम दिनचर्या में बिजली, टीवी, फ्रिज, एयरकंडीशनर जैसे यंत्रों तथा केमिकल-युक्त पदार्थों के आवश्यकता से अधिक उपयोग आदि से बचने की शिक्षा भी आम जन को देने की जरूरत है।

यह दुखद है कि अमेरिका ने पेरिस जलवायु सम्मेलन में हुए समझौते से अपने को अलग करने का फैसला किया है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने प्रयास से इस सम्मेलन को सफल बनाया था, और इसके करार पर विश्व के लगभग 200 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना तथा विकासशील एवं अविकसित देशों को ईंधन के कम प्रयोग की वजह से सहायता प्रदान करना सम्मेलन की महत्त्वपूर्ण कार्ययोजना थी। अन्य देशों ने भी इस तरह के कदम उठाये तो पर्यावरण को संतुलित एवं सुधरने के नियंत्रण प्रयास को झटका लगेगा। विश्व के सामने जितनी भी चुनौतियाँ हैं, उनमें पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण संतुलन और पर्यावरण पोषण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सांस लेने के लिये हवा, पीने के लिये पानी, रहने के लिये धरती, वातावरण को संतुलित रखने के लिये वनस्पतियाँ एवं पशु-संपदा धरती पर जीवन के लिये जरूरी हैं।

प्रकृति ने धरती पर जीवन चक्र के संचालन एवं जीवन की सुरक्षा के लिये पाँच पदार्थ दिए हैं- हवा, पानी, धरती, वनस्पतियाँ एवं पशु-धन। इनके अधिक दोहन से असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है, और पर्यावरण संतुलन बिगड़ता है। महात्मा गांधी ने इस स्थिति के लिये ठीक ही कहा है कि धरती सबों की आवश्यकता के लिये पर्याप्त है, किंतु उनके लालच के लिये नहीं। सच है मानव के लालच ने उसे विकास के बहाने विनाश के मुहाने तक पहुँचा दिया है। आज एक बार फिर ट्रंप के माध्यम से अमेरिका का लालच जगा है। पर्यावरण संरक्षण के लिये मानव जाति को पर्यावरण की अपेक्षित जानकारी होनी चाहिए और इस क्रम में औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप में पर्यावरण शिक्षा की व्यवस्था आवश्यक है। पर्यावरण शिक्षा से अभिप्राय उस शिक्षा से है, जो ज्ञान दे कि मानव अपनी आवश्यकता एवं सुख-सुविधाओं को नियंत्रित कर कैसे वातावरण को बचाए, जनसंख्या विस्तार को कैसे नियंत्रित करे, कार्बन उत्सर्जन को कैसे रोके और पर्यावरण संतुलन के लिये ईको-सिस्टम को कैसे व्यवस्थित करे।

बढ़ती जनसंख्या एवं जीवन स्तर या कहें तो सुख-सुविधा से परिपूर्ण जीवन जीने की लालसा ने मानव को सभी प्रकार के तकनीकी प्रयोग के लिये प्रेरित किया है। फलस्वरूप अधिक भोजन, हवा, पानी एवं अन्य साधनों एवं ऊर्जा की जरूरत बढ़ी है, और इसी क्रम में सीमित संसाधनों का असीमित उपयोग हुआ है। मौसम परिवर्तन, बढ़ते वैश्विक तापमान, समुद्र के बढ़ते स्तर, कृषि के बदलते तरीके आदि ने भूस्खलन, सुनामी, सूखा, बाढ़, अकाल, जनसंख्या विस्थापन, गंभीर स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों जैसी समस्याओं को जन्म दिया है। औद्योगिकीकरण, नगरीकरण, जीवाश्म ईंधन द्वारा ऊर्जा उत्पादन, जंगलों का घटता क्षेत्र तथा भूमि उपयोग के बदलते स्वरूप की वजह से वायुमंडल का कार्बन-चक्र प्रभावित हो रहा है। फैले जंगल प्रति वर्ष नष्ट किए जा रहे हैं, और वायुमंडल में अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस जमा हो रहा है।

विकसित और विकासशील देश सर्वाधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करते हैं। विकास की अंधी दौड़ के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के साथ-साथ कार्बन मोनोक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि गैसों की मात्रा बढ़ने लगी है, फलत: वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी हुई है। इन ग्रीनहाउस गैसों का धरती के तापमान पर प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान 150 के आसपास है। धरती पर इन ग्रीनहाउस गैसों का प्रभाव न रहे तो तापमान -200 हो जाएगा। ग्रीनहाउस गैसों के अधिक दोहन के कारण ही धरती का तापमान बढ़ रहा है, जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। इस ग्लोबल वार्मिंग की वजह से इन्वायरमेंटल रिफ्यूजी जैसे सम्प्रत्यय का जन्म हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार 2050 तक धरती के एक चौथाई जीव समाप्त हो जाएँगे।

कालक्रम में मानव सभ्यता को जब इस बात का अहसास हुआ कि पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, इसे बचाने एवं स्वस्थ बनाने के लिये कई प्रयास हुए। यद्यपि इस दौरान राजनीति और निजी स्वार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकी, फिर भी ये प्रयास मानव की सजगता को तो प्रदर्शित करते ही हैं। अमेरिका का पेरिस जलवायु समझौता से पीछे हटना इसी राजनीति एवं स्वार्थ का हिस्सा है। इन प्रयासों में 1972 में संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम की स्टॉकहोम (स्वीडेन), नैरोबी में 1977 में संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण सम्मेलन, 1979 में जिनेवा में प्रथम जलवायु सम्मेलन, 1985 में वियना में ओजोन परत के संरक्षण पर सम्मेलन, 1988 में टोरंटो में 2005 तक कार्बन डाइऑक्साइड के उर्त्सजन में 20 प्रतिशत की कटौती करने का निर्णय, 1990 में द्वितीय विश्व जलवायु सम्मेलन का आयोजन, 1992 में रियो (ब्राजील) में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन का आयोजन, 1997 में क्योटो (जापान) में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, 2005 में मॉण्ट्रियल (कनाडा) में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी पर विचार, 2009 में कोपेनहेगन (डेनमार्ग) सम्मेलन तथा 2015 का पेरिस जलवायु सम्मेलन आदि मुख्य हैं। पर्यावरण की सुरक्षा केवल किसी राष्ट्र, संगठन या स्वयंसेवी संस्था की जिम्मेवारी नहीं है, बल्कि यह विश्व समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति की सामूहिक जवाबदेही है।

वैश्विक स्तर पर पर्यावरण शिक्षा को आंदोलन का रूप देना होगा। जनमानस को शिक्षा देनी होगी कि पर्यावरण की सुरक्षा कैसे करें। प्रदूषण कम किया जा सकता है। पाठय़क्रम में पर्यावरण शिक्षा होना ही नाकाफी है, आम दिनर्चया में बिजली, टीवी, फ्रिज, एयरकंडिशनर जैसे यंत्रों तथा केमिकल-युक्त पदार्थों के आवश्यकता से अधिक उपयोग आदि से बचने की शिक्षा भी आम जन को देने की जरूरत है। समृद्ध राष्ट्र एवं संपन्न व्यक्ति, दोनों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति प्राकृतिक ढंग से करना सीखना होगा। पर्यावरण शिक्षा आंदोलन की मदद से वैश्विक समाज को सिखाना होगा कि जीवाश्म ईंधन का न्यूनतम उपयोग करें, वन-भूमि का विस्तार करें, उर्वरक का न्यूनतम और क्लोरोफ्लोरो कार्बन का कम उपयोग करें। इनके विकल्प खोजें, वैकल्पिक ईंधन का प्रयोग पेट्रोल-डीजल की जगह करें। उद्योगों का विकेंद्रीकरण किया जाए। सभी प्रकार का प्रदूषण रोकने में राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कानूनों का ईमानदारी से पालन करें। ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों पर निर्भरता कम कर वैकल्पिक स्रोतों पर ध्यान दें। पर्यावरण अमूल्य है, प्रकृति की अद्भुत सौगात है और मानव को सही शिक्षा प्राप्त कर इसकी सुरक्षा एवं इसके संतुलन पर ध्यान देना ही होगा अपने अस्तित्व को बचाने के लिये।

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