भारत का समाजवादी लोकतंत्र प्रतिनिधित्व की राजनीति में अच्छी तरह रचा-बसा है। यहां विशेषज्ञों की सभा और समिति के बारे में आमतौर पर यह माना जाता है कि वे स्थितियों को बेहतर ढंग से समझते हैं। बनिस्बत उनके, जो ऐतिहासिक तौर पर सत्ता प्रतिष्ठान में निर्णायक भूमिका रखते हैं। यह सब एक प्रक्रिया के तहत होता है। इसमें प्राथमिकताएं सुनिश्चित होती हैं, योजनाओं का मूल्यांकन किया जाता है और विकास के रास्ते तैयार किए जाते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में फैसले लेने वाली कमिटी के सामने हितों में टकराव कई बार देखने को मिला। भारत के बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट 2002 के तहत नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी के ज़रिए एक कमिटी का गठन किया गया, जो राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से बायोलॉजिकल संसाधनों के इस्तेमाल के लिए आने वाले आवेदनों की जांच करता है।
एक दिलचस्प बात यह है कि समय के साथ निर्णय लेने की इस प्रक्रिया का इस्तेमाल नीति-निर्धारण के मुद्दों से आगे बढ़कर क़ानून निर्माण के क्षेत्र में भी होने लगा है। हाल के वर्षों में रेगूलेटरी इंफोर्समेंट के बढ़ते चलन का परिणाम यह हुआ है कि पेशेवर संस्थाओं को भी स़िफारिशी कार्य सौंपे जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है वैज्ञानिक एवं पेशेवर संस्थाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी, जिन्हें पर्यावरण से जुड़े तमाम क़ानूनों को कार्यान्वित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। इनके गठन का प्रमुख उद्देश्य निर्णय प्रकिया में निष्पक्षता और कुशलता सुनिश्चित करना है। हालांकि इस काम में भी पर्यावरण की रक्षा उनका प्राथमिक उद्देश्य होगा।
यहां तक कि हम यह भी कहते हैं कि मौजूदा पर्यावरण नियम इकोलॉजिकल सिद्धांत के मुताबिक़ बनाए गए हैं, लेकिन इनके बीच दरार आनी शुरू हो चुकी है। वे अपरिपक्व मान्यताओं को चुनौती देते हैं। वे इस मान्यता को चुनौती देते नज़र आते हैं कि संस्थाएं और उन्हें चलाने वाले लोग अपने सामाजिक एवं राजनीतिक हित को किनारे रखकर काम करेंगे। यह कैसे मुमकिन है कि ऊर्जा मंत्रालय का कोई पूर्व सचिव, जो हाइड्रो पावर डेवलपर्स की गवर्निंग बॉडी में शामिल है, पर्यावरण क़ानूनों पर फैसले से संबंधित किसी मीटिंग में शामिल हो और अपने पूर्वाग्रहों से प्रभावित न हो? जब एक ग़ैर सरकारी संस्था का प्रमुख, जो किसी औद्योगिक संगठन का प्रतिनिधित्व भी करता है और पर्यावरण से संबंधित किसी कमिटी का सदस्य हो तो उसका कौन सा हित सबसे पहले आता है?
पिछले कुछ वर्षों में फैसले लेने वाली कमिटी के सामने हितों में टकराव कई बार देखने को मिला। भारत के बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट 2002 के तहत नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी के ज़रिए एक कमिटी का गठन किया गया, जो राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से बायोलॉजिकल संसाधनों के इस्तेमाल के लिए आने वाले आवेदनों की जांच करता है। जबसे इस कमिटी का गठन हुआ है, तबसे अब तक इसकी पांच बार बैठक हो चुकी है। इस दौरान सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थाओं मसलन, नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज़, एनआरसी ऑन मेडिसिनल एंड एरोमेटिक प्लांट आदि के आवेदनों को भी मंजूरी दी गई, जबकि इनके प्रतिनिधि भी इस कमिटी के सदस्य हैं। बैठक में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) का एक वैज्ञानिक भी शामिल था। इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (आईपीआर) के लिए सीएसआईआर के 126 आवेदनों पर विचार किया गया और उसे मंजूरी भी दी गई। 26 जुलाई 2007 को सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी एम एल मजूमदार की अध्यक्षता में गठित एक्सपर्ट अपराइज़ल कमिटी यानी विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) द्वारा पांडुरंगा टिंबलो इंडस्ट्रीज़ को मंजूरी दी गई। मंजूरी देने के समय मजूमदार ख़ुद चार कंपनियों यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, आरबीजी मिनरल्स इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, हिंदुस्तान डॉर-ऑलिवर लिमिटेड और आधुनिक मेटालिक्स लिमिटेड के निदेशक थे। प्रत्यक्ष तौर पर इन माइंस का पांडुरंगा टिंबलो से कुछ ़खास लेना-देना नहीं है, लेकिन निश्चित तौर पर अध्यक्ष की नियुक्ति में निष्पक्षता नहीं बरती गई।
अक्टूबर 2009 में जेनेटिकली इंजीनियरिंग अप्रूवल कमिटी (जीईएसी) ने भारत में पहले जेनेटिकली मोडिफाइड फसल बीटी बैगन को मंजूरी दी। फैसला लेने से पहले मामले पर विचार करने के लिए एक एक्सपर्ट कमिटी का गठन किया गया। जीईएसी का अंतिम फैसला व्यापक तौर पर इसी कमिटी के सुझावों पर आधारित था। इस विशेषज्ञ समिति में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ वेजीटेबल रिसर्च (आईआईवीआर) के निदेशक डॉ। मथुरा राय शामिल थे। आईआईवीआर यूएस-एड के एबीएसपी-टू प्रोजेक्ट से जुड़ा है, जिसके तहत बीटी बैगन को विकसित किया गया। ज़ाहिर है, बीटी बैगन की मंजूरी में किसी तरह का कोई संदेह नहीं था। समिति में शामिल अन्य लोगों में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के डॉ। आनंद कुमार भी थे, जो ख़ुद बीटी बैगन को विकसित करने के काम से जुड़े हैं। ध्यान रहे कि इस कमिटी का प्रमुख काम ज़ैविक सुरक्षा और प्रायोगिक परीक्षणों से मिलने वाले आंकड़ों का आकलन करना था। उक्त सभी टकराव की गंभीर वजहें हैं। हालांकि कई बार हितों का यह टकराव सतह पर नज़र नहीं आता, लेकिन यही वह अवसर है, जिसमें कोई नीति निर्धारक किसी क्षेत्र विशेष के विकास के लिए वहां पहले से मौजूद वनक्षेत्र को खत्म करने के प्रस्ताव पर विचार करता है। ऐसी परिस्थितियों में ही उसके पूर्वाग्रह उसकी निर्णय प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाने की हालत में आ जाते हैं। अन्यथा इसकी और कोई व्याख्या नहीं हो सकती कि ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किसी प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी जाए, भले ही वह किसी पुराने फैसले के मुताबिक़ ग़ैरक़ानूनी हो।
हमारा सवाल यह है कि कहां गए वैसे वैज्ञानिक, जिनका संबंध कॉरपोरेट घरानों से नहीं है? कहां हैं वैसे विशेषज्ञ, जिनका राजनीतिक दलों से ताल्लुक नहीं है? पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिए जा रहे फैसलों में विशेषज्ञों का रंग तो बेशक़ दिखता है, लेकिन समस्या यह है कि वह हमेशा हरा नहीं होता।
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