पलाश का वैज्ञानिक नाम ‘ब्यूटिया मोनोस्पर्मा’ है। पलाश, भारत का एक सुपरिचित वृक्ष है। यह मझोला 10 से 15 फुट ऊँचा पतझड़ी वृक्ष है। इसके पत्तों में एक डंठल में तीन पत्तक होते हैं। शायद इसी कारण ‘ढाक के तीन पात’- वाली कहावत लोक जीवन में मशहूर हुई।
वैज्ञानिकों ने अरावली सहित अनेक स्थानों में लुप्त होते पलाश के वन पुनः विकसित करने के लिये ऊतक संवर्द्धन (टिश्यू कल्चर) तथा माइक्रो प्रवर्धन का सहारा लिया है। वैज्ञानिकों को विश्वास है कि हाईटेक आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी की बदौलत वह पलाश के लाखों पौधे परखनली में उगाकर पलाश को पुनः जीवित कर देंगे। आम आदमी से लेकर साधु-सन्यासियों को सम्मोहित करने वाला ‘पलाश’ का वृक्ष आज संकट में है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर इसी तरह पलाश के वृक्षों का विनाश जारी रहा तो पलाश यानी टेसू यानी ढाक ‘ढाक के तीन पात’ वाली कहावत में ही शेष बचेगा। अरावली, सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश वृक्ष चैत (बसंत) में फूलते थे तो लगता था कि मीलों लम्बे पलाश वन में आग लग गई हो। स्वयं अग्नि देव फूलों के रूप में खिल उठे हों। खेतों की मेड़ों से लेकर पर्वतों तक अपना ध्वज फहराने वाला पलाश, एक-दो दिन में ही संकट में नहीं आ गया है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में दोना-पत्तल बनाने वाले कारखानों के बढ़ने, गाँव-गाँव में चकबन्दी होने तथा वन माफियाओं द्वारा अन्धाधुन्ध कटान कराने के कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रान्तों में पलाश के वन घटकर दस प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। वैज्ञानिकों ने पलाश वनों के बचाने के लिये ऊतक संवर्द्धन (टिश्यू कल्चर) द्वारा परखनली में पलाश के पौधों को विकसित कर एक अभियान चलाकर पलाश वन रोपने की योजना प्रस्तुत की है। हरियाणा तथा पुणे में ऐसी दो प्रयोगशालाएँ भी खोली हैं।
एक समय था जब बंगाल का पलाशी का मैदान, अरावली की पर्वत मालाएँ टेसू के फूलों के लिये दुनिया में मशहूर थीं। विदेशों से लोग पलाश के रक्तिम वर्ण के फूल देखने आते थे। महाकवि पद्माकर का छंद - कहैं पद्माकर परागन में, पौन हूँ में, पानन में पिक में, पलासन पगंत है। लिखकर पलाश की महिमा बखान की थी। ब्रज, अवधी, बुन्देलखण्डी, राजस्थानी, हरियाण्वी, पंजाबी लोक गीतों में पलाश के गुण गाए गए हैं। कबीर ने कहा है-
कबीर गर्व न कीजिए, इस जोबन की आस।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास।।
यह कहकर पलाश की तुलना एक ऐसे सुन्दर-सजीले नव-युवक से की है, जो अपनी जवानी में सबको आकर्षित कर लेता है किन्तु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। बसन्त व ग्रीष्म ऋतु में जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं किन्तु शेष आठ महीने वह पतझड़ का शिकार होकर झाड़-झंखाड़ की तरह रह जाता है। अवधी भाषा का एक प्रसिद्ध लोकगीत है -
छापक पेड़ छ्यूलिया कि तेहि छांह गहवर हो।
कि ता तर हिरनी उदास कि मन अति अनमन हो।।
हरछठ यानी हरतालिका तीज में तो ढाक के वृक्ष की पूजा की जाती है। यज्ञ, हवन, पूजा, पाठ व दैनिक कामों में पलाश के पत्तों, फूलों व लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि पलाश सदियों से जन-जन में रचा बसा था।
अब जबकि पर्यावरण के लिये प्लास्टिक-पॉलीथीन की थैलियाँ नुकसानप्रद पाई गई और इन पर रोक लगाई गई। ऐसे में पलाश वृक्ष की उपयोगिता महसूस की गई। जिसके पत्ते दोने, थैले, पत्तल, थाली, गिलास सहित न जानें कितने काम में उपयोग में आ सकते हैं। परन्तु पिछले तीस-चालीस सालों में पलाश के नब्बे प्रतिशत वन नष्ट कर डाले गए। बिन पानी के बंजर, ऊसर तक में उग आने वाले इस पेड़ की नई पीढ़ी तैयार नहीं हुई। यदि यही स्थिति रही और समाज जागरूक न हुआ तो पलाश विलुप्त वृक्ष हो जाएगा।
वैज्ञानिकों ने अरावली सहित अनेक स्थानों में लुप्त होते पलाश के वन पुनः विकसित करने के लिये ऊतक संवर्द्धन (टिश्यू कल्चर) तथा माइक्रो प्रवर्धन का सहारा लिया है। वैज्ञानिकों को विश्वास है कि हाईटेक आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी की बदौलत वह पलाश के लाखों पौधे परखनली में उगाकर पलाश को पुनः जीवित कर देंगे। इसके लिये गोल पहाड़ी हरियाणा स्थित टाटा ऊर्जा अनुसंधान के टिश्यू कल्चर पायलट प्लांट तथा पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला में नए प्रयोग शुरू कर दिए हैं। पलाश का वैज्ञानिक नाम ‘ब्यूटिया मोनोस्पर्मा’ है। इसे हिन्दी में ढाक टेसू, संस्कृत में किंशुक, ब्रह्मवृत, रक्त पुष्पक, बंग्ला में पलाश तेलुगू में पलासमू, गुजराती में खांकरो, केसुडानो, तमिल में पलासु, कन्नड़ में मुत्तुंकदण्डिका, उर्दू में पापडा, राजस्थानी में चौर, छोवरो, खांकरा तथा अंग्रेजी में लेम ऑफ फॉरेस्ट के नाम से जानते हैं।
फरवरी से मई-जून तक जब भी पलाश की काली कलियों से चटक लाल रंग के फूल खिलते हैं तो लगता है कि सारा जंगल अंगारों से दहक उठा है। संस्कृत में किंशुक नाम है पलाश का, जिसका अर्थ है शुक यानी तोते की जैसी लाल चोंच जैसा फूल जबकि अंग्रेजी नाम लेम ऑफ फॉरेस्ट ‘जंगल की आग’ है।
पलाश, भारत का एक सुपरिचित वृक्ष है। यह मझोला 10 से 15 फुट ऊँचा पतझड़ी वृक्ष है। इसके पत्तों में एक डंठल में तीन पत्तक होते हैं। शायद इसी कारण ‘ढाक के तीन पात’ - वाली कहावत लोक जीवन में मशहूर हुई। पत्तों से पत्तल, दोने, बीड़ी, छप्पर, छानी बनाए जाते हैं। पत्तों को पशुओं के चारे व सूखे पत्ते आग जलाने के काम आते हैं। शीत ऋतु में पलाश पर्णहीन होकर झाड़ जैसा बन जाता है। पर्णहीन वृक्ष में फरवरी-मार्च में कोयले जैसी काली कलियाँ लगती हैं और जब ये कलियाँ फूलती हैं तो लगता है जंगल में आग लगी है। पलाश के फल, बकरी के कान जैसे लम्बे होते हैं, जिनमें भूरे या काले रंग के सिक्कों के आकार के बीज निकलते हैं। पलाश, मध्य तथा पश्चिमी भारत में पाया जाता है। मैदानी, पहाड़ी व तलहटी, खेतों की मेड़ों में यह आसानी से उग आता है। जब तक जड़ें न उखाड़ फेंकी जाएँ- यह हरियाता रहता है।
पलाश में लाल व कत्थई रंग का गोंद निकलता है। इसे बंगाल किनों या बूटेआ-गम कहते हैं। गोंद तथा बीज औषधि के काम आते हैं। गोंद में टेनीन होते हैं जो मुँह के छाले ठीक करते हैं। बीज राउड्वर्म, टेमवर्म, पेट दर्द, दाँत दर्द में काम आता है। पलाश के बीज सैंटोनीना के स्थान पर भी प्रयोग किए जाते हैं पलाश के बीज पीसकर नींबू के रस में मिलाकर दाद-खाज-खुजली पर लेप करने से मर्ज दूर हो जाता है। पलाश की जड़ों का काढ़ा रक्तचाप में प्रभावी है। लकड़ी इमारती काम व रस्सी बनाने के भी काम आती है। लकड़ी यानी पानी में जल्दी सड़ती नहीं है।
पलाश के फूलों से आदि काल से रंग बनाया जाता रहा है। पलाश के फूलों को सुखाकर रख लिया जाता है। जब रंग बनाना होता है, फूल पानी में भिगो दिए जाते हैं। पलाश के फूल से ही केसरिया रंग बनता है, जो फागुन में होली खेलने में प्रयोग किया जाता है। साधु-सन्यासी केसरिया रंग से ही अपने वस्त्र, आज भी रंगते हैं। पलाश की जड़ें रेशेदार होती हैं। जिन्हें कूटकर रस्सी बटी जाती है। जड़ों से पुताई करने वाली कूचियाँ भी बनती हैं।
श्री शरद कुमार दास
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