विश्व के कुल भू-भाग के दस प्रतिशत हिस्से में पर्वत हैं, जहाँ कुल आबादी का मात्र चार प्रतिशत लोग रहते हैं। किन्तु वे तराई में रहने वाले 40 प्रतिशत लोगों के भाग्य का फैसला करते हैं, यह तथ्य कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि पर्यटन ढाँचे की आयोजना और विकास, उसके परवर्ती परिचालन और उसके विपणन में पर्यावरण, तथा सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिरता के मापदंडों पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए।
पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणाली के विश्वव्यापी महत्व के प्रति जागरुकता बढ़ाने और पर्वतीय लोगों की कठिनाइयों एवं चुनौतियों को उजागर कने तथा दीर्घावधि ठोस उपाय करने के बड़े अभियान के तहत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2002 को ‘अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष’ घोषित किया। अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष मनाने में एक बड़ी चुनौती और अवसर, दोनों ही मौजूद हैं। 1992 में रियो डी जेनेरो में हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन में कार्य सूची 21 के अध्याय-13 में पर्वत श्रेणियों पर ध्यान केन्द्रित किया गया था और उन्हें स्थाई विकास का आधार बताया गया था। इससे पर्वतीय मुद्दों के समाधान के लिये एक पर्वतीय संस्कृति का विकास हुआ।अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष इसी क्रम को आगे बढ़ाने का अभूतपूर्व अवसर प्रदान करता है। यह वास्तव में 1992 में रियो डी जेनेरो में हुए पृथ्वी सम्मेलन से आरम्भ हुई दीर्घकालीन प्रक्रिया के भीतर एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिसका लक्ष्य स्थाई पर्वतीय विकास को मूर्त रूप देने की ठोस कार्यवाही के बारे में जन-जागरुकता पैदा करना और उसके लिये समुचित राजनीतिक, संस्थागत और वित्तीय प्रतिबद्धता सुनिश्चित करना है। अनेक स्थानों पर पर्वतीय लोग दुनिया के निर्धनतम और सर्वाधिक अभावग्रस्त लोगों में हैं। उन्हें विकास मार्ग में बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जैसे ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र, संचार एवं परिवहन प्रणालियों का अभाव, राजनीतिक पृथक्करण और शिक्षा तथा पूँजी तक सीमित पहुँच। इन परिस्थितियों में अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष का लक्ष्य इस बात की पुख्ता व्यवस्था करना है कि पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के स्थाई विकास को बढ़ावा देकर पर्वतीय लोगों को खुशहाल बनाया जाए। किसी राष्ट्र द्वारा यह लक्ष्य हासिल करने के लिये शांति और खाद्य सुरक्षा दो पूर्वापेक्षाएं हैं।
वास्तव में आज जब हम अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष मना रहे हैं, लक्ष्य हासिल करने की दिशा में एकमात्र बड़ी रुकावट संघर्ष है। शांति के बिना हम गरीबी दूर नहीं कर सकते। शांति के बिना हम सुरक्षित खाद्यापूर्ति की गारंटी नहीं दे सकते। इतना ही नहीं, शांति के बिना हम स्थाई विकास की कल्पना भी नहीं कर सकते। तथ्य यह है कि सशस्त्र-संघर्ष और भुखमरी सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। उदाहरण के लिये 1999 में दुनिया के 27 प्रमुख सशस्त्र संघर्षों में 23 ऐसे थे जो पर्वतीय क्षेत्रों में हुए। आज विश्व भर में कुपोषणग्रस्त करीब 80 करोड़ लोग पर्वतीय क्षेत्रों में रह रहे हैं।
नई सहस्राब्दि के आगमन के साथ पृथ्वी के परिमित, परस्पर-सम्बद्ध और अनमोल स्वरूप के बार में हमारी जागरुकता निरंतर बढ़ रही है। इसी तरह इस जागरुकता की अभिव्यक्ति के रूप में पर्यटन निरंतर लोकप्रिय हो रहा है। परिवहन और सूचना प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ धरती के अधिकाधिक दूर-दराज के क्षेत्र यात्रियों की पहुँच के दायरे में आ रहे हैं। वास्तव में पर्यटन आज दुनिया का सबसे बड़ा उद्योग है और प्राकृतिक पर्यटन इसका सबसे तेजी से बढ़ने वाला हिस्सा है।
वर्ष 2002 को अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण-पर्यटन वर्ष भी घोषित किया गया है। चूँकि अधिकतर पर्यटन गतिविधियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में होती हैं, इसलिए यह वर्ष पर्वत और पर्यटन सम्बन्धी सहक्रियाओं से लाभ उठाने का महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। इस लेख में पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण-पर्यटन के नये पहलुओं और स्थानीय समुदाय की भागीदारी के माध्यम से पर्वतीय विकास के स्थायी कार्यक्रमों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
पर्यावरण-पर्यटन की अवधारणा
पर्यटन आज दुनिया का सबसे बड़ा उद्योग है (34 खरब डाॅलर वार्षिक) और पर्यावरण-पर्यटन इस उद्योग का सबसे तेजी से बढ़ने वाला हिस्सा है। कोस्टा रिका और बेलिज जैसे देशों में विदेशी मुद्रा अर्जित करने का सबसे बड़ा स्रोत पर्यटन ही है जबकि गुवाटेमाला में इसका स्थान दूसरा है। समूचे विकासशील उष्णकटिबंधी क्षेत्रों में संरक्षित क्षेत्र प्रबंधकों और स्थानीय समुदायों को आर्थिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता के बीच सन्तुलन कायम करने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है। पर्यावरण-पर्यटन भी इस महत्त्वपूर्ण सन्तुलन का एक पक्ष है। सुनियोजित पर्यावरण-पर्यटन से संरक्षित क्षेत्रों और उनके आस-पास रहने वाले समुदायों को लाभ पहुँचाया जा सकता है। इसके लिये दीर्घावधि जैव-विविधता संरक्षण उपायों और स्थानीय सामाजिक तथा आर्थिक विकास के बीच सम्बन्ध कायम करना होगा।
सामान्य शब्दों में पर्यावरण-पर्यटन का अर्थ है पर्यटन और प्रकृति संरक्षण का प्रबंध इस ढंग से करना कि एक तरफ पर्यटन और पारिस्थितिकी की आवश्यकताएँ पूरी हों और दूसरी तरफ स्थानीय समुदायों के लिये रोजगार- नये कौशल, आय और महिलाओं के लिये बेहतर स्तर सुनिश्चित किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2002 को अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण-पर्यटन वर्ष के रूप में मनाए जाने से पर्यावरण पर्यटन के विश्वव्यापी महत्व, उसके लाभों और प्रभावों को मान्यता दी गई है। अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण-पर्यटन वर्ष हमें विश्व स्तर पर पर्यावरण-पर्यटन की समीक्षा का अवसर प्रदान करता है ताकि भविष्य में इसका स्थायी विकास सुनिश्चित करने के लिये उपयुक्त साधनों और संस्थागत ढाँचे को मजबूत किया जा सके। इसका अर्थ है कि पर्यावरण-पर्यटन की खामियाँ और नकारात्मक प्रभाव दूर करते हुए इससे अधिकतम आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक लाभ प्राप्त किए जा सकें।
पर्यावरण-पर्यटन को अब सब रोगों की औषधि के रूप में देखा जा रहा है जिससे भारी मात्रा में पर्यटन राजस्व मिलता है और पारिस्थितिकी प्रणाली को कोई क्षति नहीं पहुँचती क्योंकि इसमें वन-संसाधनों का दोहन नहीं किया जाता। एक अवधारणा के रूप में पर्यावरण पर्यटन को भारत में हाल ही में बल मिला है, लेकिन एक जीवन पद्धति के रूप में भारतीय सदियों से इस अवधारणा पर अमल कर रहे हैं। पर्यावरण-पर्यटन को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है। इंटरनेशनल इको-टूरिज्म सोसायटी ने 1991 में इसकी परिभाषा इस प्रकार की थी: ‘‘पर्यावरण-पर्यटन प्राकृतिक क्षेत्रों की वह दायित्वपूर्ण यात्रा है जिससे पर्यावरण संरक्षण होता है और स्थानीय लोगों की खुशहाली बढ़ती है।’’
विश्व पर्यटन संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार ‘‘पर्यावरण-पर्यटन के अंतर्गत अपेक्षाकृत अबाधित प्राकृतिक क्षेत्रों की ऐसी यात्रा शामिल है जिसका निर्दिष्ट लक्ष्य प्रकृति का अध्ययन और समादर करना तथा वनस्पति और जीव-जन्तुओं के दर्शन का लाभ उठाना तथा साथ ही इन क्षेत्रों से संबद्ध सांस्कृृतिक पहलुओं (अतीत और वर्तमान, दोनों) का अध्ययन करना है।’’ वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन (आईयूसीएन, 1996) के अनुसार पर्यावरण-पर्यटन का अर्थ है “प्राकृतिक क्षेत्रों की पर्यावरण-अनुकूल यात्रा ताकि प्रकृति की (साथ ही अतीत और वर्तमान की सांस्कृतिक विशेषताओं की) प्रशंसा की जा सके और उनका आनंद उठाया जा सके, जिससे संरक्षण को प्रोत्साहन मिले, पर्यटकों का असर कम पड़े और स्थानीय लोगों की सक्रिय सामाजिक-आर्थिक भागीदारी का लाभ उठाया जा सके।’’ संक्षेप में, इसकी परिभाषाओं में तीन पहलुओं को रेखांकित किया गया है- प्रकृति, पर्यटन और स्थानीय समुदाय। सार्वजनिक पर्यटन से इसका अर्थ भिन्न है, जिसका लक्ष्य प्रकृति का दोहन है। संरक्षण, स्थिरता और जैव-विविधता पर्यावरण पर्यटन के तीन परस्पर संबद्ध पहलू हैं। विकास के एक साधन के रूप में पर्यावरण पर्यटन ‘जैव विविधता समझौते’ के इन तीन बुनियादी लक्ष्यों को हासिल करने में मदद दे सकता है:-
- संरक्षित क्षेत्र प्रबंध प्रणालियाँ (सार्वजनिक या निजी) मजबूत बनाकर और सुदृढ़ पारिस्थितिकी प्रणालियों का योगदान बढ़ाकर जैव-विविधता (और सांस्कृतिक विविधता) का संरक्षण।
- पर्यावरण पर्यटन और संबद्ध व्यापार नेटवर्क में आमदनी, रोजगार और व्यापार के अवसर पैदा करके जैव-विविधता के स्थायी इस्तेमाल को प्रोत्साहन, और
- स्थानीय समुदायों और जनजातीय लोगों को पर्यावरण-पर्यटन गतिविधियों के लाभ में समान रूप से भागीदार बनाना और इसके लिये पर्यावरण-पर्यटन व्यापार की आयोजना और प्रबंध में उनकी पूर्ण सहमति एवं भागीदारी प्राप्त करना।
पर्यावरण-पर्यटन का जबरदस्त सिद्धान्तों, दिशा-निर्देशों और स्थिरता मानदंडों पर आधारित) प्रमाणन की ओर अभिमुख होना इसे पर्यटन क्षेत्र में असाधारण स्थान प्रदान करता है। पहली बार इस धारणा को परिभाषित किए जाने के बाद के वर्षों में पर्यावरण-पर्यटन के अनिवार्य बुनियादी तत्वों के बारे में आम सहमति बनी है जो इस प्रकार है: भली-भाँति संरक्षित पारिस्थितिकी-प्रणाली पर्यटकों को आकर्षित करती है, विभिन्न सांस्कृतिक और साहसिक गतिविधियों के दौरान एक कर्तव्यनिष्ठ, कम असर डालने वाला पर्यटक व्यवहार, पुनर्भरण न हो सकने वाले संसाधनों की कम से कम खपत, स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी, जो प्रकृति, संस्कृति अपनी जातीय परम्पराओं के बारे में पर्यटकों को प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराने में सक्षम होते हैं और अंत में स्थानीय लोगों को पर्यावरण-पर्यटन का प्रबंध करने के अधिकार प्रदान करना ताकि वे जीविका के वैकल्पिक अवसर अपनाकर संरक्षण सुनिश्चित कर सकें तथा पर्यटक और स्थानीय समुदाय-दोनों के लिये शैक्षिक घटक शामिल कर सकें।
पर्यावरण-अनुकूल गतिविधि होने के कारण पर्यावरण-पर्यटन का लक्ष्य पर्यावरण मूल्यों और शिष्टाचार को प्रोत्साहित करना तथा निर्बाध रूप में प्रकृति का संरक्षण करना है। इस तरह यह पारिस्थिति-विषयक अखंडता में योगदान करके वन्य जीवों और प्रकृति को लाभ पहुँचाता है। स्थानीय लोगों की भागीदारी उनके लिये आर्थिक लाभ सुनिश्चित करती है जो आगे चलकर उन्हें बेहतर स्तर और आसान जीवन उपलब्ध कराती है।
जब क्षेत्र में परिस्थितियाँ (जैसे व्यवहार्यता, स्थानीय स्तर पर प्रबंध-क्षमता और पर्यावरण-पर्यटन विकास तथा संरक्षण के बीच स्पष्ट एवं नियंत्रित सम्पर्क) सही हों तो सुनियोजित एवं व्यवस्थित पर्यावरण-पर्यटन दीर्घावधि जैव-विविधता संरक्षण के सर्वाधिक कारगर उपकरणों में एक सिद्ध होता है।
विश्व परिदृश्य
पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियाँ बेजोड़ रचनाएँ हैं जिनमें एक साथ कई विशिष्टताएँ होती हैं उन्हें ईश्वर का वास, शांति, स्थिरता और संयम के प्रतीक तथा सभ्यताओं के पालने के रूप में देखा जाता है। पर्वतश्रेणियाँ सूक्ष्म पारिस्थितिकी प्रणालियाँ हैं और धरती पर जल-गुम्बदों, समृद्ध जैव-विविधता, खनिजों और वन भंडारों, मनोरंजन के लक्षित क्षेत्रों और सांस्कृतिक एकता तथा विरासत के केन्द्रों के रूप में विश्वभर में उनका महत्व है। विश्व के भू-तल क्षेत्र के पाँचवें हिस्से में पर्वत हैं, जो मानव मात्र की कुल आबादी के दसवें भाग को प्रत्यक्ष जीविका प्रदान करते हैं। पर्वतों पर समृद्धतम मानव सभ्यताओं का वास रहा है। धरती पर सभी प्रकार के जीवन के लिये पर्वतों का महत्व है। वे ताजा जल का अनिवार्य स्रोत भी हैं। 3 अरब से अधिक लोग ऐसे हैं जो खाद्य फसलें उगाने, बिजली पैदा करने, उद्योगों को स्थिरता प्रदान करने और सबसे महत्त्वपूर्ण, पेयजल के लिये पर्वतों पर निर्भर हैं।
ट्रैकिंग के उत्साही लोग पर्वतीय क्षेत्रों में ढेर सारा कचरा और पारिस्थितिकी को क्षति पहुँचाने वाली अन्य सामग्री छोड़ देते हैं। यही वजह है कि यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और गौमुख जैसे दूर-दराज के स्थान भी पर्यावरण ह्रास की चपेट में आ रहे हैं। इन तीर्थ स्थानों की पवित्रता दिन-ब-दिन नष्ट की जा रही है।
पर्वत आज भी एक तंत्र प्रदान करते हैं जिससे वैश्विक संचरण से बारिश करते हैं जिससे वैश्विक संचरण से बारिश होती है। किन्तु, पारिस्थितिकी ह्रास के कारण क्षेत्रीय जलीय चक्र गम्भीर रूप से दुष्प्रभावित हो रहा है और इससे जल-गुम्बदों के रूप में पर्वतों की भूमिका निरंतर समाप्त होती जा रही है। पर्वतीय क्षेत्रों में ‘ग्रीन हाउस इफेक्ट’ के गम्भीर दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे। जून 1992 में रिओडी जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन में विचारित पर्वतीय कार्यसूची में कहा गया था, ‘‘हिमनदों (ग्लेशियर्स) और बर्फ की चोटियों को आधार प्रदान करने वाले पर्वतीय क्षेत्रों में ताप वृद्धि से न केवल बर्फ रेखा की ऊँचाई बढ़ेगी, बल्कि पिघलती बर्फ और हिम से जल-प्रवाह भी बढ़ेगा। हिमनद अपने में जलाशय हैं, अगर वे पिघल गए तो भविष्य में जल प्रवाह में नाटकीय बदलाव आएगा और पानी की भारी किल्लत हो सकती है।’’फिर भी, आज पर्वतीय जगत संकटपूर्ण पारिस्थितिकी अवस्था में है। मानव की गतिविधियों के कारण जैव-भौतिक और सामाजिक-आर्थिक संसाधनों का आधार खतरनाक रूप में क्षीण होता जा रहा है। ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटेग्रेटिड माउंटेन डिवेलपमेंट’ (आईसीआईएमओडी), काठमांडू, नेपाल द्वारा कराए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि पर्वत श्रेणियाँ अस्थिरता की स्थिति में हैं। निचले क्षेत्रों के पर्यावरण की तुलना में पर्वतीय क्षेत्रों की स्थिति अधिक नाजुक है। दुनिया भर में अस्थिर वानिकी और कृषि पद्धतियों की वजह से अनेक पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों का ह्रास हो रहा है जो अक्सर गरीबी, शहरीकरण और बढ़ती जनसंख्या का नतीजा है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि पर्वत धरती का तापमान बढ़ने का संकेत देने वाले बैरोमीटर हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में हिमनद, जो विश्व की अधिकतर नदी-प्रणालियों का जल स्रोत हैं, अभूतपूर्व तेजी से पिघल रहे हैं।
भारत की स्थिति
भारत में सात प्रमुख पर्वत श्रेणियाँ हैं और उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है हिमालय पर्वतश्रेणी। भारत को वैभवशाली हिमालयी पर्वतश्रेणी विरासत में मिली है जो देश के समूचे उत्तरी भाग को भोजन प्रदान करती है। यह पर्वतमाला स्थिरता और शांति का पर्याय बन चुकी है। 2500 किलोमीटर से अधिक लंबी हिमालय पर्वतमाला भारतीय उपमहाद्वीप के शिखर से गुजरती है। इस पर्वतमाला के 5 से 6 करोड़ वर्ष पहले अस्तित्व में आने का अनुमान है। शिवालिक पर्वतश्रेणी सबसे बाद में अस्तित्व में आई, जिसे निचली गिरिपीठ कहा जाता है। शिवालिक से ऊपर निम्न हिमालय श्रेणी है, जिस पर शिमला, डलहौजी, मसूरी, नैनीताल और दार्जिलिंग जैसे भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वतीय सैरगाह हैं, जो समुद्र तल से 4 से 8 हजार फुट की ऊँचाई पर हैं। निम्न हिमालय से ऊपर बृहत हिमालय श्रेणी या हिमाद्री पर्वतमाला है।
हिमाद्री में एवरेस्ट और अन्नपूर्णा चोटियाँ हैं जो नेपाल राज्य की सीमा में आती हैं, और कंचनजंगा, नंगा पर्वत और नंदा देवी चोटियाँ भारतीय सीमा में हैं। अरावली पर्वतमाला विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रेणी है जो दक्षिण-पश्चिम में दिल्ली और गुजरात के बीच फैली है। इसकी चोटियाँ कभी बर्फ से ढंकी रहती थी, जो आज नहीं है, लेकिन इस पर्वत श्रेणी पर एक पर्वतीय सैरगाह ‘माउंट आबू’ और एक चोटी ‘गुरु शिखर’ आज भी मौजूद हैं जो 6000 फुट से अधिक ऊँचे हैं।
भारत के पर्वतीय स्थल | |
राज्य | पर्वतीय स्थलों के नाम |
हिमाचल प्रदेश | चैल, चंबा, डलहौजी, धर्मशाला, कसोली, कांगड़ा, कुल्लू, मनाली, नाल्डेरा, परवानू, शिमला |
जम्मू-कश्मीर | गुलमर्ग, जम्मू, पटनीटाप, सोनमर्ग, श्रीनगर |
झारखंड | रांची |
केरल | मन्नार, नेल्लियामपथि, वायनाड, देविकुलम, पीरुमाड, पोन्मुडी, तिरुवनंतपुरम, इडुक्की, पालक्काड, कन्नूर |
उत्तरांचल | अल्मोड़ा, देहरादून, कौसानी, मसूरी, नैनीताल, पिथौरागढ़ |
मध्यप्रदेश | भेड़ाघाट |
राजस्थान | माउंट आबू |
महाराष्ट्र | महाबलेश्वर, पंचगनी, लोनाबला, खांडला-कार्ला, माथेरान, अम्बोली, जवाहर, पन्हाला, चिखल्दरा |
सिक्किम | गंगटोक |
तमिलनाडु | कोडईकनाल, येरकाड, कोट्टल्लम, उधगमंडलम |
पश्चिम बंगाल | दार्जिलिंग |
विंध्य पर्वतमाला उत्तर भारत के विस्तृत गंगा मैदान को देश के दक्षिणी भाग से अलग करती है। इसकी लम्बाई करीब 1000 कि.मी. और औसत ऊँचाई 974 फुट है। विंध्य श्रेणी के दक्षिण में सतपुड़ा पर्वतमाला है जो उसके समानांतर फैली है। सतपुड़ा का निर्माण दो शब्दों से मिलकर हुआ है, ‘सत’ का अर्थ है ‘सात’ और ‘पुड़ा’ का अर्थ है ‘मोड़’, यानी सात पंक्तियों वाली पर्वतमाला है, सतपुड़ा। इस पर्वत श्रेणी में एक पर्वतीय सैरगाह है, पचमढ़ी, जो इस शृंखला में सर्वाधिक ऊँचाई वाले बिंदु, धूपगढ़ के निकट स्थित है, जिसकी ऊँचाई 4429 फुट है। सहयाद्रि पश्चिम की ओर से मानसून की बारिश ग्रहण करती है। इस क्षेत्र में एक पर्वतीय सैरगाह ऊटकमंड या ऊटी है, जिसे अब उधगमंडलम कहा जाने लगा है।
यह सैरगाह 8615 फुट ऊँचाई वाले डोडाबेट्टा शिखर के निचले भाग में स्थित है। यह शिखर नीलगिरि (जिसका शाब्दिक अर्थ है नीला पर्वत) श्रेणी में स्थित है। नीलगिरि से ऊपर अन्नामलाई या ऐलिफेंट हिल्स पर्वत श्रेणी है, जिसका शिखर हाथी के मस्तक जैसा कहा जाता है। सुप्रसिद्ध पर्वतीय सैरगाह कोडाइकनाल पलानी पर्वत श्रेणी में स्थित है। पूर्वीघाट, जो सहयाद्रि श्रेणी की विपरीत दिशा में फैला है, वहाँ 3200 फुट ऊँचे शिखर हैं लेकिन कोई पर्वतीय सैरगाह नहीं है। इसके दक्षिण-पूर्व में शेवरोय पर्वतमाला और येर्काड पर्यटक-स्थल है। पूर्वांचल, या पूर्वी पर्वतमाला भारत की अंतिम बृहत पर्वत श्रेणी है जो देश के उत्तर-पूर्व में भारत-म्यांमार सीमा पर स्थित है।
दुर्भाग्य से भारत में पर्वत शृंखलाओं पर स्थानीय जीवन-निवाह के लिये संसाधनों का आधार निरंतर घट रहा है और पहले से कमजोर पर्यावरण का और ह्रास हुआ है। इसका नतीजा भूस्खलन, जलग्रहण क्षेत्रों का ह्रास और हिमालय क्षेत्र के दक्षिण में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र थाले में घनी आबादी वाले मैदानी भाग में बार-बार बाढ़ के रूप में सामने आया है। कुमांऊ हिमालय में पिछले कुछ दशकों में मानव आबादी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और तदनुरूप विकास गतिविधियाँ, जिनमें आवास, उद्योग, कृषि, खनन और संचार शामिल हैं, भी तेजी से बढ़ी हैं। नतीजतन प्राकृतिक वास और वनों का आकार तेजी से सिकुड़ रहा है।
पर्यटन उद्योग की वजह से भी वन-कटाई जैसी गतिविधियों को बल मिला है। साथ ही सड़क और भवन निर्माण और भारी वाहनों की आवाजाही से पहले से कमजोर पर्वत श्रेणियों पर अपकर्षक दबाव बढ़ा है। उत्साही युवाओं में ट्रैकिंग का नया चाव देखने को मिला है। उनके लिये ट्रैकिंग का अर्थ है जोखिम भरे पर्वतीय क्षेत्रों में चढ़ना-उतरना तथा बुनियादी नागरिक तथा स्वच्छता नियमों का पालन न करना, जो इस खेल के साथ जुड़े हैं। इस तरह ट्रैकिंग के उत्साही लोग पर्वतीय क्षेत्रों में ढेर सारा कचरा और पारिस्थितिकी को क्षति पहुँचाने वाली अन्य सामग्री छोड़ देते हैं। यही वजह है कि यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और गौमुख जैसे दूर-दराज के स्थान भी पर्यावरण ह्रास की चपेट में आ रहे हैं। इन तीर्थ स्थानों की पवित्रता दिन-ब-दिन नष्ट की जा रही है।
पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण-पर्यटन
पर्यावरण-पर्यटन का सार चूँकि प्रकृति की प्रशंसा और बाहरी मनोरंजन है, अतः इसके अन्तर्गत ट्रैकिंग, हाइकिंग, पर्वतारोहण, पक्षी-पर्यवेक्षण, नौकायन, राफ्टिंग, जैव-वैज्ञानिक खोज, और वन्य-जीव अभ्यारण्यों की यात्रा जैसी व्यापक गतिविधियाँ शामिल हैं। एक तरह से यह साहसिक पर्यटन के सदृश है लेकिन उससे भिन्न इस दृष्टि से है कि साहसिक पर्यटन में जहाँ रोमांच की प्रमुखता होती है, वहीं पर्यावरण-पर्यटन में संतुष्टि पर बल दिया जाता है। इसका प्रेरणात्मक और भावनात्मक पहलू मूल्यवान है क्योंकि इसका लक्ष्य प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास करना नहीं है।
भारत विश्व में जैव-विविधता सम्पन्न उन सात देशों में एक है जिनकी सांस्कृतिक विरासत समृद्धतम है। भारत में पर्यावरण-पर्यटन की व्यापक सम्भावनाएँ हैं। जिनका दोहन आर्थिक लाभ, स्वास्थ्य परिरक्षण और प्रकृति संरक्षण के लिये किया जाना चाहिए। पर्यावरण-पर्यटन के अन्तरराष्ट्रीय वर्ष में सरकार और निजी क्षेत्र द्वारा पर्यावरण-पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण फैसले किए गए हैं। उदाहरणार्थ हिमाचल प्रदेश सरकार ने पर्यावरण-पर्यटन विकास नीति घोषित की है, जिसमें स्थानीय समुदायों की भागीदारी पर बल दिया गया है। इसी तरह कर्नाटक, सिक्किम, राजस्थान और आंध्र प्रदेश के वन एवं पर्यटन विभागों ने अधिकारी मनोनीत किए हैं जो इन गतिविधियों के बीच समन्वय स्थापित करेंगे। केरल द्वारा स्थापित ‘तेन्माला’ इको-टूरिज्म प्रमोशन सोसायटी पर्यावरण-पर्यटन का एक माॅडल तैयार करेगी। निजी क्षेत्र में भी पर्यावरण-अनुकूल सैरगाहों और होटलों की धारणा जोर पकड़ रही है।
स्पष्ट है कि समुचित आयोजना और प्रबंध के अभाव में संवेदनशील प्राकृतिक क्षेत्रों का पर्यटन पारिस्थितिकी प्रणाली और स्थानीय संस्कृति, दोनों की अखंडता के प्रति खतरा बन सकता है। पारिस्थितिकी की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में अधिक संख्या में पर्यटकों के जाने से पर्यावरण-ह्रास का गम्भीर खतरा उतपन्न हो सकता है। इसी तरह स्थानीय समुदायों और देशी संस्कृतियों को विदेशी पर्यटकों और धन के अंतर-प्रवाह से कई तरह का नुकसान हो सकता है।
पर्यटन-प्रोत्साहन और पर्यटन सम्बन्धी ढाँचा-विकास गतिवधियों का प्राकृतिक आवास पर सामाजिक-सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक, भौतिक और पर्यावरण विषयक प्रभाव पड़ना अनिवार्य है और विकास सम्बन्धी फैसले करने से पहले वैज्ञानिक पद्धतियाँ अपनाते हुए इन प्रभावों का व्यवस्थित मूल्यांकन जरूरी है। इस तरह पर्यटन विकास के किसी भी कार्यक्रम का अंतर्निहित लक्ष्य चुनिंदा क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक और भौतिक वातावरण पर रचनात्मक प्रभाव डालना और नकारात्मक प्रभावों को कम से कम करना होना चाहिए और इस विकास से संरक्षण और स्थानीय समुदायों के लाभ के महत्त्वपूर्ण अवसर पैदा होने चाहिए।
पर्यावरण-पर्यटन से राष्ट्रीय उद्यानों और अन्य प्राकृतिक क्षेत्रों के संरक्षण के लिये अत्यावश्यक धन प्राप्त किया जा सकता है जो अन्य किसी स्रोत से सम्भव नहीं है। दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के निम्न आय वाले देशों में आज जो पुरातत्वीय और ऐतिहासिक संरक्षण किया जा रहा है, उसे आर्थिक दृष्टि से युक्तिसंगत बनाया जा सकता है क्योंकि इन देशों में पर्यटकों के लिये विशेष आकर्षण उपलब्ध हैं। श्रीलंका जैसे कुछ देशों में प्रवेश-शुल्क से एकत्र धन का इस्तेमाल प्रत्यक्ष रूप से पुरातत्वीय अनुसंधान और संरक्षण के लिये किया जाता है।
इतना ही नहीं, पर्यावरण-पर्यटन कुछ अन्य आमदनी विकल्पों के साथ स्थानीय समुदायों को आर्थिक विकास का व्यवहार्य विकल्प उपलब्ध करा सकता है। पर्यावरण-पर्यटन पर्यटकों में शिक्षा और सक्रियता का स्तर बढ़ा सकता है और उन्हें संरक्षण का अधिक उत्साही और प्रभावकारी एजेंट बना सकता है। परम्परागत कलाओं, हस्तशिल्पों, नृत्य, संगीत, नाटक, रीतिरिवाज, और उत्सव का संरक्षण और नवीनीकरण तथा परम्परागत जीवनशैलियों के कुछ पहलू सीधे पर्यटन से जोड़े जा सकते हैं।
भारत में पर्यावरण-पर्यटन उद्योग को नीतिगत व्यापार योजनाओं के अभाव प्रशिक्षित स्थानीय प्राकृतिक गाइडों की कमी, उपयुक्त विपणन तकनीकों (पर्यटन और स्थानीय कामगार, दोनों के लिये) का अभाव, विकास परियोजनाओं में सामुदायिक सहमति प्राप्त करने के तरीकों का अभाव; और बुनियादी ढाँचे का अभाव, आदि चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
पंचवर्षीय योजनाओं में पर्यटन विकास के लिये जिन क्षेत्रों पर मुख्य रूप से बल दिया गया और जिनका प्रभाव पर्यटन के वृहत और लघु सन्दर्भ में भौतिक आयोजना पर पड़ा, वे इस प्रकार हैं:
1. सीमित संसाधनों को बड़ी संख्या में सर्किटों/केन्द्रों पर खर्च करने की बजाय चुने हुए पर्यटक-सर्किटों और केन्द्रों का विकास, जो पर्यटकों में लोकप्रिय थे।
2. परम्परागत दर्शनीय-स्थलों (मुख्य रूप से सांस्कृतिक स्थलों) की यात्रा-केन्द्रित पर्यटन में विविधता लाते हुए पर्यटन-परियोजनाओं के सौंदर्यपरक, पर्यावरण विषयक और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों के प्रति पूर्ण सजग रहते हुए देश के वातावरणीय फ्रेमवर्क के भीतर तेजी से बढ़ते हुए पर्यटन बाजार में प्रवेश करना।
3. गैर-परम्परागत क्षेत्रों, जैसे, (क) ट्रेकिंग; (ख) शीतकालीन खेल (विंटर स्पोर्टस); (ग) वन्यजीव पर्यटन, और (घ) समुद्रतट-सैरगाह पर्यटन का विकास, ताकि हिमालय के पर्यटन संसाधनों, रेतीले समुद्रतटों सहित विस्तृत तट रेखा और प्रचुर धूप तथा वन्यजीव सम्बन्धी पर्यटन संसाधनों का दोहन करके अधिक पर्यटकों को आकर्षित किया जा सके और देश में उनके प्रवास की अवधि लम्बी की जा सके।
4. सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और दोनों ही प्रकार की पर्यटन महत्व की राष्ट्रीय विरासत परियोजनाओं की बहाली और संतुलित विकास ताकि सांस्कृतिक पर्यटन क्षेत्र के रूप में भारत को बेजोड़ स्थान बनाकर लाभ उठाए जा सकें और राष्ट्रीय विरासत के संरक्षण में पर्यटन का एक प्रमुख शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
पर्वतीय क्षेत्रों और प्राकृतिक वास की पर्यटन योजना के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित कने के लिये निम्नांकित से सम्बन्धित विश्लेषणात्मक अध्ययन आवश्यक है:
1. स्थानीय पर्यावरण और पर्वतीय आबादी पर पड़ने वाले विकास के सम्भावित प्रभाव
2. पर्यटक संसाधनों और बुनियादी-ढाँचा जरूरतों का मूल्यांकन।
3. क्षेत्र की वहन क्षमता और ऐसे ही अन्य पहलुओं के अनुरूप विकास के विभिन्न द्वार कायम करना।
भारत में स्थाई पर्यावरण-पर्यटन कार्यक्रम से सम्बन्धित नीति में निम्नांकित लक्ष्य अवश्य शामिल किए जाने चाहिए:
- भारत के लिये स्थाई विकास नीति के फ्रेमवर्क में पर्यावरण-पर्यटन की भूमिका परिभाषित करना। पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण-पर्यटन के लिये पूर्व शर्तें (निरंतर गतिशीलता, प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक भू-परिदृश्यों आदि का संरक्षण और प्रबंध) निर्धारित करना।
- भारत में पर्वतीय पर्यावरण-पर्यटन में सर्वोत्कृष्ट पद्धतियों की पहचान।
- नीतियों का विकास: वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरों पर पर्वतीय पर्यावरण-पर्यटन की नीतियाँ निर्धारित करना।
- जोखिम में पड़े ऐसे पर्यटक-स्थलों पर अनियंत्रित पर्यटन विकास से उत्पन्न खतरे कम करना, जिनके संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जा रही हो।
- संरक्षित क्षेत्र में स्थित पर्यटक-स्थलों के संरक्षण के लिये दीर्घावधि वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करना।
अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष और अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण-पर्यटन वर्ष मनाने के अवसर पर हमें सही अर्थों में कुछ लक्ष्य तय कर लेने चाहिए:-
1. अगर हम प्रतिकूल प्रभावों को नियन्त्रित करना चाहते हैं तो हमें पर्यटन के प्रभावों पर निगरानी के लिये एक पद्धति विकसित करनी होगी।
2. समुदाय आधारित पर्यावरण-पर्यटन उद्यमों सहित स्थानीय समुदायों के साथ संयुक्त पर्यावरण-पर्यटन नीतियाँ विकसित करने के लिये भागीदारों को प्रशिक्षित करना।
3. पर्यावरण-पर्यटन की आयोजना और प्रबंध में समुदाय की भागीदारी बढ़ाने के लिये दिशा-निर्देशों को प्रोत्साहित करना।
4. राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण-पर्यटन नीति लागू करने के लिये गैर-सरकारी संगठनों की सहायता करना और उन्हें इसके लिये प्रोत्साहित करना।
5. पर्यावरण-पर्यटन आयोजना, व्यवहार्यता मूल्यांकन और जहाँ उचित हो, व्यापार आयोजना के बारे में दिशा-निर्देश तैयार करना।
6. आदर्श पर्यावरण-पर्यटन कार्यक्रम और यात्रावृतांत विकसित करने में सहायता करना, ताकि स्थल-संरक्षण साझीदारों और स्थानीय समुदायों को लाभ हो सके।
निष्कर्ष
संरक्षण और आर्थिक विकास के साधन के रूप में पर्यावरण-पर्यटन की क्षमताओं को पहचानने के लिये नए और अधिक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें स्थानीय क्षमता-निर्माण और स्थानीय स्तर पर लाभों में बढ़ोत्तरी पर अधिक बल दिया जा सके। ढाँचागत विकास का समुचित माॅडल विकसित करने; टूर ऑपरेटरों-गैर सरकारी भागीदारों का मार्गदर्शन करने सम्बन्धी फ्रेमवर्क तैयार करने, स्थानीय प्रकृति-गाइडों के लिये कारगर प्रशिक्षण कार्यक्रम; और भागीदार, समुदाय-आधारित पर्यावरण-पर्यटन आयोजना और विकास आदि के लिये पद्धतियाँ और कौशल विकसित करने की परम आवश्यकता है। साहस, परिश्रम, ईमानदारी और शीघ्र निर्णय लेने जैसे अंतर्निहित गुणों का विकास समुचित मानव जाति की पूँजी के रूप में होना चाहिए। विश्व भर में 10 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र में कुल मानव आबादी का मात्र 4 प्रतिशत लोग रहते हैं, लेकिन वे तराई में रहने वाले 40 प्रतिशत लोगों के भाग्य का निर्धारण करते हैं, इसे कभी नहीं भुलाया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि पर्यटन ढाँचे की आयोजना और विकास, इसका परवर्ती परिचालन और इसका विपणन करते समय हमें पर्यावरण तथा सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिरता के मानदंडों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
भारतीयों को पर्यावरण पर्यटन के क्षेत्र में मालदीव की प्रगति से प्रेरणा लेनी चाहिए। मालदीव में चूँकि पर्यटन ही प्रमुख उद्योग है, वे पूरी तरह इस पर निर्भर हैं और उन्होंने अपनी समुद्री-चट्टानों के संरक्षण के तौर-तरीके विकसित किए हैं। सभी सैरगाहों और होटलों के लिये यह अनिवार्य और अपरिहार्य है कि वे अपने कचरे का निपटान करें, जल संरक्षण करें और अपशिष्ट को फिर से काम में लाने (री-साइक्लिंग) की व्यवस्था करें। इंडोनेशिया, फिलीपीन्स और नेपाल जैसे अन्य देशों ने अपने स्थानीय समुदायों के लाभ के लिये पर्यावरण-पर्यटन से प्राप्त आय के उपयोग के कारगर तरीके विकसित किए हैं। उदाहरण के लिये फिलीपीन्स में मछुआरों को इस बात के लिये राजी किया गया कि वे ‘ब्लास्ट फिशिंग’ की बजाय अधिक परम्परागत और सुरक्षित तरीके अपनाएं। इंडोनेशिया में दुर्लभ पक्षियों की संरक्षा के लिये ‘बर्डवाच’ नामक परियोजना शुरू की गई है।
अधिकतर संरक्षित क्षेत्रों और उनमें रहने वाले समुदायों के लिये पर्यावरण-पर्यटन ऐसी सम्भावना है जिसका दोहन अभी नहीं किया गया है, और पारिस्थितिकी विकास तथा संरक्षण के बीच सम्बन्ध ठीक से नहीं समझा गया है। कुछ इक्का-दुक्का सफलताओं के बावजूद पर्यावरण-पर्यटन विकास के प्रयास अक्सर सीमित रहे हैं और उनमें मात्र बुनियादी-ढाँचा विकास पर बल दिया गया है। यही वजह है कि इन प्रयासों से अधिकतम लाभ नहीं उठाया जा सका है। इसके अतिरिक्त यह धारणा भी रही है कि स्थानीय क्षमता विकास का लक्ष्य स्वयं हासिल करने की बजाय अन्तरराष्ट्रीय तकनीकी सहायता और संस्थागत समर्थन के विकल्प से प्राप्त किया जाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस वर्ष के दौरान इन सभी मुद्दों और पर्वतीय विकास कार्यक्रमों को सर्वाच्च प्राथमिकता दी जाएगी ताकि भविष्य बेहतर और स्थाई बनाया जा सके।
(पद्मश्री से सम्मानित श्रीमती संतोष यादव दो बार ऐवरेस्ट पर विजय प्राप्त कर चुकी हैं; वे फिलहाल ‘सोसाइटी फॉर एन्वायरमेंटल अवेयरनेस एण्ड रिहैबिलिटिशन आॅफ चाइल्ड एंड हैंडिकैप्ड (सर्च)’ की उपाध्यक्ष हैं।)
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