पर्यावरण-पर्यटन भूमि का समुचित प्रबंध


समझदार और संवेदनशील विकासकर्ता और डिजाइनकर्ता के नाते हम यह काम तो कर ही सकते हैं कि भूमि के सही-सच्चे प्रबंधक बनें। तभी हम अपने विनाश को टाल सकेंगे। हम धरती से जुड़ी जनजातियों और धरती माँ के साथ उनके सम्बन्धों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। उनके इलाके का परिदृश्य उनकी भूमि के साथ एकाकार रहता है। कोई कारण नहीं कि पारिस्थितिक-पर्यटन सुविधाओं के रूपांकन में इन सिद्धान्तों को काम में न लाया जाए।

हालाँकि पर्यटन के प्रति चेतना निरन्तर बढ़ रही है, फिर भी भारतीय पर्यटन उद्योग धुँआरहित उद्योग बनने से बहुत दूर है। व्यावसायिक स्तर पर इसका तकाजा है कि हम पर्यटन को बढ़ावा देने वाले मूल संसाधनों, जैसे- भौतिक और सांस्कृतिक परिवेश, सांस्कृतिक मूल्य, विरासत और जैव-विविधता की रक्षा करें।

एक बार प्रकृति के जटिल नियमों और धरती की नागरिकता के नियमों को समझ लेने के बाद न केवल हमें वित्तीय दृष्टि से लाभ होगा, बल्कि हम एक तरह से भूमंडल की सेवा भी कर सकेंगे। इससे हम एक अच्छा मानव बन सकेंगे। अगर ऐसा हुआ तो हम अपने सांस्कृतिक मर्म को स्पर्श कर सकेंगे और बेहतर मानवता के लिये जागरुकता पैदा कर सकेंगे।

यह जान लेना जरूरी है कि पारम्परिक सामूहिक पर्यटन अब भी पर्यटन उद्योग की मुख्य विशेषता है और इस बात की पूरी सम्भावना है कि यह स्थिति कुछ और समय के लिये बनी रहे। इस कारण यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि हम सामूहिक पर्यटन पर ध्यान केन्द्रित करें; इसे अधिक-पर्यावरण अनुकूल बनाने के उपाय करें और जैव-विविधता पर इसके नकारात्मक प्रभाव को कम से कम करें।

हमें पर्यावरण-पर्यटन के जैव-विविधता संरक्षण सम्बन्धी पहलुओं पर ही नहीं, बल्कि सामूहिक पर्यटन के अन्य सम्बन्धों, विशेष रूप से बड़े होटलों के प्रभाव पर भी विचार करना चाहिए और सोचना चाहिए कि कैसे इन होटलों का डिजाइन और उनका संचालन पर्यावरण के अधिक अनुकूल बनाया जा सकता है।

विश्वव्यापी स्तर पर कुछ पारिस्थितिक ‘लॉज’ बना देने से खास अंतर नहीं आएगा। अंततः हमें पर्यटन उद्योग में व्यापक परिवर्तन लाना होगा। हमें सोचना होगा कि विभिन्न क्षेत्रों, जैसे, विमान सेवाओं, हवाई अड्डों, बड़े मनोरंजन और संगीत पार्कों, गोल्फ मैदानों और खेल-स्टेडियमों का पर्यावरण-रिकार्ड कैसे सुधारा जाए। इस सिलसिले में पर्यावरण-सहायक होटलों के डिजाइन निर्माण, भवन-निर्माण और संचालन में निजी क्षेत्र की बड़ी जिम्मेदारी है।

पर्यटकों की संख्या बढ़ने से अब पर्यटन क्षेत्र की सभी एजेंसियों को ऐसे सरल दिशा-निर्देशों के अनुसार काम करना होगा जिन्हें पर्यावरण-प्रबंधन प्रणालियों में शामिल किया जा सके, चाहे वे राष्ट्रीय या राज्य पर्यटन बोर्ड, सरकार, होटल, विमान सेवा, रेल, परिवहन चालक, गश्ती जहाज, पर्यटन चालक या सूचना माध्यम ही क्यों न हों।

पर्यटन संचालकों, होटल मालिकों और अन्य सम्बद्ध व्यक्तियों को टिकाऊ पर्यटन की जानकारी देना और तत्संबंधी सर्वोत्तम क्रियाकलापों की शिक्षा देना अत्यन्त जरूरी है। सम्बद्ध कानून को मजबूत बनाने और संशोधित करने की आवश्यकता है ताकि इस नजरिए को अच्छी तरह समझा जा सके और इसका व्यापाक प्रसार किया जा सके। पर्यावरण कानून को एक प्रेरक शक्ति के रूप में काम करना होगा और प्रमाणिकरण का आधार बनना होगा। इसके अलावा व्यापक शिक्षा अभियान तत्काल चलाना जरूरी है ताकि पर्यटक पर्यावरणपरक सेवाओं की माँग कर सकें।

पारम्परिक पर्यटकों के लिये आचार-संहिता का प्रचार-प्रसार जरूरी है। इससे नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकेगा। सामूहिक पर्यटन प्रभावों के विश्लेषण के लिये नई पर्यटन संविधाओं और मौजूद संविधाओं-दोनों पर विचार करना होगा। पूर्ववर्ती मामले में नई पर्यावरण सेवाओं और सुविधाओं के निर्धारण के लिये न्यूनतम पर्यावरण मानक जरूरी हैं। परवर्ती मामले में कामकाज सुधारने और उसे अधिक पर्यावरण-अनुकूल बनाने के तौर-तरीके अपनाए जाने चाहिए। इसके लिये पुरानी टेक्नोलॉजी को आधुनिक बनाया जा सकता है या फिर अधिक उपयुक्त टेक्नोलॉजी काम में लाई जा सकती है। प्रत्येक मामले में पर्यटन क्षेत्र के लाभों को बाजार माँग, अर्थनीति और प्रभावी प्रबंधन की दृष्टि से आकर्षक ढँग से प्रदर्शित किया जाना चाहिए।

यह मामला प्रतिबंधों और दबावों का नहीं, बल्कि पर्यावरण पर्यटन को अधिक अनुकूल बनाने का है। उदाहरण के लिये कई पारम्परिक पुराने होटलों में पानी गरम करने का वर्तमान तरीका अकुशल और महँगा है। इसलिये वैकल्पिक ऊर्जा साधनों के व्यापक प्रयोग का मुख्य पर्यटन कार्य के रूप में स्वागत किया जाना चाहिए। बहुत से पारम्परिक तटीय पर्यटन-स्थलों में पर्यटक दोबारा नहीं जाते क्योंकि वहाँ पानी प्रदूषित होता है। इसलिये तटीय विश्रामस्थलों के मालिकों और संचालकों के लिये पर्यावरण-अनुकूल कदम उठाना निश्चित रूप से लाभकारी होगा।

पारिस्थितिक डिजाइन


अगर हमें पर्यावरणीय क्षति, तथा अधिक प्रदूषण और ऊर्जा संसाधनों का ह्रास रोकना है, तो न सिर्फ पर्यावरण संरक्षण, बल्कि मानवीय गतिविधियों में भी स्थापत्य-कला और भौतिक सुविधाओं की आयोजना पर नया दृष्टिकोण अपनाना होगा। यह नया दृष्टिकोण पारिस्थितिक डिजाइन की परिकल्पना पर आधारित होना चाहिए। इसे इन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है: ‘कोई भी ऐसा डिजाइन जो आस-पास के परिवेश से तालमेल बिठाते हुए नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव को कम से कम करें।’

चूँकि पर्यटन सुविधाओं की व्यवस्था अक्सर बहुत खूबसूरत नजारों से भरपूर इलाकों और परिवेश की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इलाकों में की जाती है, इसलिये उनके डिजाइन विशेष तौर पर इस तरह के बनाए जाने चाहिए कि वे पर्यावरण-अनुकूल हों। कचरे के उपयोग के समुचित तौर-तरीकों और विशेष रूप से दूरदराज के इलाकों में वैकल्पिक ऊर्जा संसाधनों का उपयोग महत्त्वपूर्ण है। इन पर विचार करने की जरूरत है। भौतिक सुविधाएँ प्रौद्योगिकीय दृष्टि से उत्कृष्ट और उपयुक्त, सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य और आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक होनी चाहिए। संयुक्त उद्यमों, संचार और वित्तीय संस्थाओं के साथ काम करके प्रौद्योगिकी खर्च कम किया जा सकता है। भौतिक आयोजना और भवन निर्माण (विस्तार के लिये आयोजना) हमेशा दीर्घकालिक प्रयास के रूप में हाथ में लिये जाने चाहिए।

यह याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि पर्यावरण-अनुकूल सुविधाओं और प्रौद्योगिकी से आर्थिक लाभ मिलता है। पारिस्थितिकी ‘लॉज’ अक्सर वन्य और दूरदराज के इलाके में होते हैं। इसलिये वहाँ पारम्परिक बुनियादी ढाँचा और सेवाएं कम ही मिलती हैं। इनमें पटरी वाले राजमार्ग, सार्वजनिक परिवहन सेवाएँ, बिजली और टेलीफोन लाइनें, नलों से प्राप्त पेयजल, सार्वजनिक जल निकासी और कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने और ठिकाने लगाने का प्रबंध, समीपवर्ती स्कूल, चिकित्सा सुविधाएँ और बाजार आदि शामिल हैं। यही कारण है कि क्रियात्मकता, ऊर्जा और खाद्य-आत्मनिर्भरता की दृष्टि से उच्चस्तरीय भौतिक आयोजना और उसके लिये बिल्कुल नया और अलग नजरिया अपनाना आवश्यक है। पारिस्थितिकीय लॉज का डिजाइन बनाने और उसके निर्माण से पहले, अलगाव वाली खास बातों का सही-सही पता लगाना, बुनियादी ढाँचे और सार्वजनिक सेवाओं के कठिनाई से मिलने के कारणों का पता लगाना जरूरी है। साथ ही पहले साफ-साफ यह बताना जरूरी होगा कि आप आत्मनिर्भरता का कितना ऊँचा स्तर चाहते हैं, या प्राप्त करना आवश्यक समझते हैं।

बहुत से परिपक्व पर्यटक समृद्ध शहरों और तटीय विश्राम स्थलों में उपलब्ध सुविधाओं की उम्मीद किसी गरीब ग्रामीण क्षेत्र में नहीं करते। कुछ तो मुसीबतों का भी आनंद लेते हैं, भले ही थोड़े समय के लिये। वे सुविधाओं के लिये अधिक देने को भी तैयार रहते हैं लेकिन कुछ मानकों, विशेष रूप से सुरक्षा और मूल सफाई मानकों पर कभी समझौता नहीं हो सकता।

पर्यटन सुविधाओं को चारों तरफ के प्राकृतिक और सांस्कृतिक परिवेश के साथ समन्वित करना हमेशा महत्त्वपूर्ण होता है। इसलिये दीर्घकालीन पर्यटक-सुविधा मानक क्षेत्रीय वनस्पति और भू-संरचना के प्राकृतिक रूप के साथ समरूप होने चाहिए। जो भी पर्यटन नीति बनाई जाए, उसमें स्थान विशेष के महत्व का हमेशा ध्यान रखा जाए।

स्थल-आयोजना


स्थल-आयोजना और डिजाइन एक ऐसी प्रक्रिया है जो भूमि उपयोग, मानव प्रवाह, संरचना सुविधा और उपयोगिता से सम्बन्धित मामलों को प्राकृतिक और मानवीय पर्यावरण के साथ जोड़कर देखती है। पर्यटन-विकास और पर्यावरण-संरक्षण में सामंजस्य बढ़ाने के लिये जरूरी है कि मूल संरचना का डिजाइन संवेदनशील हो, और स्थल-डिजाइन और भू-परिदृश्य पर्यावरणीय और सामाजिक जरूरतों के अनुसार हों।

पर्यटन-स्थल की विशेषताओं की रक्षा के लिये स्थान विशेष की प्राकृतिक प्रणालियों की गहरी पैठ और पर्यावरण के अवसरों और कठिनाइयों के प्रति सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। हम पारम्परिक पर्यटन-सुविधाएँ प्रदान करने के तौर-तरीकों को बदलना चाहते हैं। हम स्थल आयोजन और डिजाइन के सम्बन्ध में नई सोच चाहते हैं, ऐसी सोच जिसमें सभी बातें ध्यान में रखी जाएँ। टिकाऊ स्थल-आयोजना और डिजाइन से पर्यटन-स्थल और परिवेश की सुविधाओं में बेहतर तालमेल बैठाया जा सकता है और डिजाइन के पर्यावरण-प्रतिकूल प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है।

पर्यटन-सुविधा की किसी भी स्थल-आयोजना और डिजाइन में साफ-साफ बताया जाना चाहिए कि भूखंड विशेष में मानव कार्यों और निर्माण का क्रम क्या होगा। स्थान, आम आकार और रूप बताने वाले ग्राफ के अलावा परियोजना-स्थल, आयोजना और डिजाइन के विभिन्न पहलुओं को संवारने के क्रम में यह भी बताया जाना चाहिए कि परियोजना के विभिन्न काम किस क्रम से और कितने अन्तराल में पूरे किए जाएँगे। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि स्थल पर सभी मानव-गतिविधियों का प्राकृतिक और मानव-पर्यावरण पर कम से कम नकारात्मक प्रभाव पड़े।

पिछले दशक में निर्जन क्षेत्रों में बढ़ती यात्राओं और पारिस्थितिक प्रणालियों पर पड़ते उनके दुष्प्रभाव को ध्यान में रखते हुए यह विवेकपूर्ण होगा कि पारिस्थितिक पर्यटन के विकास के लिये ऐसे क्षेत्रों का चयन किया जाए जो आरक्षित प्राकृतिक स्थलों के बाहर हों, हालाँकि यह हमेशा सम्भव नहीं होता क्योंकि कुछ आरक्षित क्षेत्र बहुत बड़े होते हैं। ‘पारिस्थितिक लॉज’ क्या हैं? चूँकि पारिस्थितिक लॉज 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में सामने आए, इसलिये इनकी व्याख्या कई तरह से की जाती है। कुछ ऐसे मूल सिद्धान्त हैं जिनके आधार पर ‘पारिस्थितिक लॉज’ को पारम्परिक होटल से अलग माना जाता है। पारिस्थितिक लॉज का डिजाइन और उसके अंदर की गतिविधियाँ प्राकृतिक और सांस्कृतिक पर्यावरण से गहन मेलमिलाप को बढ़ावा देती हैं। लाॅज का वातावरण भी स्थल की विशिष्ट पृष्ठभूमि के अनुकूल होता है। यही वातावरण वह मुख्य तत्व है जो पारिस्थितिक लाॅज को पारम्परिक होटल और उसकी सुविधाओं से अलग करता है। परिस्थितिक लॉजों के दस बुनियादी सिद्धान्त हैं जिन पर विचार करने की आवश्यकता है:-

1. आस-पास के पेड़ पौधों और जीव-जन्तुओं की रक्षा में सहायक हों।
2. निर्माण के समय प्राकृतिक परिवेश पर कम से कम असर डालते हों।
3. रूप-स्वरूप, भूदृश्य, रंग और स्थानीय स्थापत्य-कला के प्रयोग पर ध्यान देते हुए विशिष्ट भौतिक और सांस्कृतिक परिवेश से मेल खाते हों।
4. जल प्राप्ति के वैकल्पिक और टिकाऊ साधनों का प्रयोग करते हों और पानी की खपत कम करें।
5. ठोस कचरे और मल-जल का ध्यान से निपटान करें।
6. ऊर्जा आवश्यकताएँ नियन्त्रित होने वाले डिजाइन और बारंबार उपयोग में लाए जाने वाले संसाधनों से पूरी की जाती हों।
7. जहाँ तक हो सके, परम्परागत आवास-टेक्नोलॉजी और सामग्री का प्रयोग करते हों और अधिक टिकाऊपन आधुनिक टेक्नोलॉजी और सामग्री के मिश्रण से किया जाता हो।
8. स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काम का प्रयास करें।
9. कर्मचारियों और पर्यटकों को आस-पास के प्राकृतिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की जानकारी देने के लिये व्याख्यात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हों।
10. शिक्षा कार्यक्रम और अनुसंधान के जरिए टिकाऊ स्थानीय विकास में योगदान करते हों।

वर्तमान स्थिति


नौवें दशक के पूर्वार्द्ध में विश्वव्यापी मंदी से विकास में ठहराव आने के बाद विश्व के सभी कोनों में पारिस्थितिक लाॅज स्थापित हो गए हैं और पर्यटन उद्योग इन लॉजों के कारण फल-फूल रहा है। न्यूनताएं लाने वाले विकासकर्ता और डिजाइनर भूमि और स्थल आयोजना, स्थापत्य-डिजाइन और निर्माण की पारम्परिक और उच्च-प्रौद्योगिकीय अवधारणाओं को संश्लिस्ट कर रहे हैं; स्थानीय समुदायों की भागीदारी की योजनाएँ बना रहे हैं, वर्तमान पारिस्थितिक प्रणाली के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता व्यक्त कर रहे हैं, और साथ ही वित्तीय लाभ भी कमा रहे हैं। अतीत के ज्ञान को वर्तमान की जानकारी और प्रौद्योगिकी से मिलाकर ऐसे पारिस्थितिक लाॅज बनाए जा रहे हैं जिनमें प्रकृति का आनंद उठाने के लिये स्वस्थ और आरामदेह स्थल होते हैं। ऐसे भवन भी बनाए जा रहे हैं जो आस-पास के परिवेश से घुलमिल जाते हैं, निर्माण में संसाधनों को सुरक्षित रखते हैं, ऊर्जा और जल संसाधनों की बचत करते हैं और सबसे बढ़कर डिजाइन, निर्माण और संचालन कार्यों में स्थानीय लोगों को शामिल करते हैं।

विश्व में अधिकतर सरकारी एजेंसियों के पास इन लॉजों के डिजाइन और विकास के लिये विशिष्ट नियम या न्यूनतम मानक नहीं हैं। इसलिये भू-दृश्य वास्तुकारों, वास्तुशिल्पियों और आंतरिक डिजाइनकर्ताओं पर यह दायित्व आ पड़ा है कि वे अपने डिजाइन-सिद्धान्त और आचार-संहिता बनाएँ जो पर्यावरण और समाज पर कम से कम प्रतिकूल प्रभाव डालें और भौतिक संरचना तथा आस-पास के पर्यावरण के बीच टिकाऊ और सुव्यवस्थित सम्बन्ध बनाएँ।

पारिस्थितिक लाॅज उद्योग के खिलाफ इस बात को लेकर बराबर उंगलियाँ उठाई जा रही हैं कि क्या वह पर्यावरण-सुरक्षा और सामुदायिक विकास में सहायक होगा और वास्तव में टिकाऊ बन पाएगा। अपने भविष्य को लेकर उसे गम्भीर और कठिन विकल्पों का सामना करना पड़ रहा है। अगर हमें इन कठिनाइयों को निश्चित रूप से पार करना है तो लाॅज-मालिकों और संचालकों को चुनौतियों का सामना करना होगा और आगंतुकों के लिये प्रदूषणरहित पर्यावरण और लगभग प्राकृतिक वातावरण का निर्माण करते रहना होगा।

अगर हमें एक ऐसी टिकाऊ दुनिया बनानी है जिसमें हम भावी मानव पीढ़ियों और सभी जीवित प्राणियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये सही मायने में जिम्मेदार हों तो हमें यह कबूल करना होगा कि हमारी वर्तमान वास्तुकला, इंजीनियरिंग और निर्माण-कार्यों में गम्भीर कमियाँ हैं। टिकाऊ संसार की रचना के लिये हमें ये खामियाँ दूर करनी होंगी। उत्पादों, भवनों और भू-दृश्यों के डिजाइनों को हमें परिवेश की गहरी पैठ के रंग से सजाना होगा। टिकाऊपन के मूल को हमें डिजाइन के सूक्ष्मतर ब्यौरे से मजबूत बनाना होगा।

इस समय मानव जनसंख्या पृथ्वी की वहन क्षमता से कहीं अधिक है। हम समझदार और संवेदनशील विकासकर्ता और डिजाइनकर्ता के नाते भूमि के सही-सच्चे प्रबंधक बन सकते हैं और अपने अस्तित्व को बनाए रख सकते हैं। विश्व के स्थान-विशेष की जनजातियों से और धरती माँ के साथ उनके सम्बन्धों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। उनके भू-परिदृश्य वहाँ की भूमि से एकाकार हुए रहते हैं। कोई वजह नहीं कि हम पारिस्थितिक पर्यटन सुविधाओं के रूपांकन के लिये इन सिद्धान्तों का उपयोग न कर सकें।

नई सहस्राब्दि में हम दो वर्ष आगे बढ़ चुके हैं। इस बात को लेकर आशा का भाव व्याप्त है कि पारिस्थितिक लॉजों की संख्या बढती जा रही है। कोई वास्तविक सर्वेक्षण तो नहीं किया गया जिससे वस्तुस्थिति का पता चल सके लेकिन हाल के वर्षों में हुए पारिस्थितिक सम्मेलनों में भारी उत्साह देखने को मिला है। यह सब पंख लगाकर उड़ते पारिस्थितिक पर्यटन उद्योग के लिये शुभ संकेत है।

(श्री मंदीप सिंह एक पर्वतारोही एवं अन्वेषक हैं, और इंग्लैंड की ‘रॉयल जिओग्राफिकल सोसाइटी’ के अध्येता हैं।)

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