पर्यावरण प्रदूषण और हमारा दायित्व


मानव जीवन में अनादिकाल से ही वनों का बड़ा महत्व रहा है। वन प्रेरणा तथा स्वास्थ्य के स्रोत रहे हैं। आज भी हमारे देश की लगभग अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है तथा उनकी आजीविका का मुख्य साधन खेती अथवा कृषि कार्यों में मिलने वाला रोजगार है। ग्रामीण जनता की बहुत-सी आवश्यकताएँ जैसे जलौनी लकड़ी, पशुओं के लिए चारा, गृह निर्माण हेतु इमारती लकड़ी तथा कृषि उपकरणों हेतु लघु-काष्ठ आदि वनों एवं वृक्षों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त फल-फूल, शहद, मोम, महुए का फूल, बांस, छप्पर बनाने के लिए घास तथा कुटीर उद्योगों जैसे-दियासलाई, लकड़ी के खिलौने, हस्तनिर्मित कागज, दोना-पत्तल, टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कच्चा माल भी इन्हीं वनों एवं वृक्षों से प्राप्त होता है।

हवा मानव जीवन का आधार है, परन्तु हजारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने अग्नि की खोज की तभी से जहरीली वायु ने वातावरण को प्रदूषित करना प्रारम्भ कर दिया। परन्तु इससे किसी प्रकार के दुष्परिणाम सामने नहीं आए। लगभग 400 वर्ष पूर्व पश्चिमी देशों की औद्योगिक एवं वैज्ञानिक क्रान्ति के कारण नई-नई तकनीकों का जन्म हुआ। कोयले से चलने वाले स्वचालित यन्त्र, भाप का इंजन, पेट्रोल से चलने वाले इंजन व विद्युत के आविष्कार ने औद्योगीकरण की रफ्तार को तेज कर दिया। मनुष्य द्वारा प्रकृति से अनजाने में छेड़े गए इस युद्ध के परिणामस्वरूप वायु प्रदूषण के रूप में मृत्युमय आकाश निर्मित हो गया। हम सब एक ही ग्रह पर रहते हैं परन्तु यहाँ विश्व विकसित तथा विकासशील देशों में बँटा हुआ है तथा इनकी आवश्यकताएँ भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। एक ओर प्रचुरता की दुनिया है जहाँ समृद्धता प्रदूषण फैलाती है, दूसरी ओर अभावों की दुनिया है जहाँ विपन्नता के कारण जीवन-स्तर नीचे गिरता है। इस प्रकार विभिन्न भागों में बँटा यह ग्रह प्रकृति और पर्यावरण के साथ समरसता नहीं बनाए रख पा रहा है।

हम प्रकृति से कितना लें जो हमारे गुजारे के लिए आवश्यक हो और कितना छोड़ें कि पृथ्वी के भविष्य के लिए अनिवार्य हो, इन दोनों के बीच हमें सन्तुलन कायम करना होगा। 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन में इन्दिरा गाँधी ने विचार व्यक्त किया था कि जब तक हमारे एक ही ग्रह में कई दुनिया बनती रहेंगी, तब तक इस पर जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए हम अधिक कुछ नहीं कर सकेंगे। आज यह स्पष्ट हो चला है कि हम विकास के वायदे के बिना पर्यावरण का संरक्षण नहीं कर सकते और पर्यावरण के संरक्षण के बिना हम स्थाई विकास भी नहीं कर सकते। जिन देशों के औद्योगिक विकास का स्तर ऊँचा नहीं है, वे भी पर्यावरण-संरक्षण में बहुत योगदान कर सकते हैं। वहाँ के लोगों का प्रकृति के साथ घनिष्ठ तादात्म्य तथा सम्बन्ध है और उन्होंने परम्परिक एवं जड़ी-बूटी चिकित्सा पद्धति, जल संचय तथा प्रबंध जैसे क्षेत्रों में अपने संसाधनों का अधिकाधिक इस्तेमाल करना सीख लिया है। कम से कम एक बात तो है कि वे अभी तक प्रदूषण फैलाने के विशेषज्ञ नहीं बने हैं। उनके जीवन में अपेक्षाकृत अधिक संतोष है जिसकी वजह से वे संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन नहीं करते।

मानव ने वनों एवं खनिज सम्पदा का दोहन इस नृशंसता से किया है कि गहन वन प्रदेश भी अब वृक्ष विहीन हो गए हैं। तीव्र गति से कटते जा रहे जंगलों से वन्य जीवन निष्प्राण होता जा रहा है। यहाँ का पर्यावरण इमारती पत्थर और मिट्टी तो दे पा रहा है परन्तु लाख, गोंद, औषधियाँ तथा अन्य जीवनदायिनी वस्तुएं देने की क्षमता निरन्तर खोता जा रहा है। शहरों के विकास के परिणामस्वरूप यहाँ पर कंकरीट वाले क्षेत्रफल की वृद्धि के साथ-साथ प्राकृतिक रूप से उगने वाले पेड़-पौधों की जैव-विविधता घटती जा रही है। एक व्यक्ति को प्रतिदिन लगभग साढे तेरह किलोग्राम हवा की आवश्यकता पड़ती है, जबकि केवल दो लीटर पानी व डेढ़ किलोग्राम भोजन में वह जिन्दा रह सकता है। लेकिन बिना हवा के दो मिनट भी जिन्दा रहना मुश्किल है। ऐसी हालत में जो हमारी जीवन-शक्ति है, उसे शुद्ध रखने का उपाय करना हमारा परम कर्तव्य है।

हमारा दायित्व


पर्यावरण-संरक्षण एवं प्राकृतिक सन्तुलन को बनाए रखने के लिए हमें घरों में आमतौर से प्रयोग किए जाने वाले रसायनों/कीटनाशकों इत्यादि का कम से कम प्रयोग करना चाहिए। इन्हें नालियों में अनावश्यक रूप से न बहाएँ तथा पानी के संरक्षण तक सम्भव हो, पानी का कम से कम प्रयोग करें तथा पानी को घरों के आस-पास इकट्ठा न होने दें। आवश्यकता न होने पर पंखे, बत्ती इत्यादि विद्युत उपकरणों को बन्द कर दें। सौर-ऊर्जा पर आधारित कुकर, वाटर-हीटर इत्यादि तथा अन्य संयन्त्रों, धूमरहित चूल्हों और बायोगैस संयन्त्रों का घरों में रोजमर्रा के कार्यों में प्रयोग करें। पुनर्चक्रीकरण योग्य सामग्री जैसे स्टील और काँच द्वारा निर्मित वस्तुओं का ही प्रयोग करें। कागज के दोनों तरफ लिखने की आदत डालें। प्लास्टिक की थैलियों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए। घरों से उत्सर्जित कचरे के विभिन्न भागों जैसे जैवीय कचरा (घासफूस, बगीचा, टहनियाँ इत्यादि), कागज, बोतलें, प्लास्टिक इत्यादि को पुनर्चक्रीकरण क्रिया हेतु अलग-अलग एकत्रित करें। वन्य जीवों के चमड़े, फर, सींग इत्यादि से निर्मित वस्तुओं का उपयोग न करें तथा साथ ही जनसंख्या विस्फोट रोकने हेतु परिवार सीमित रखें। वन्य जीव-जन्तुओं के प्रति क्रूरता न दिखाएँ और ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग करने का प्रयास करें।

प्रदूषण रोकने के लिए जलाऊ लकड़ी का उपयोग कम करना जरूरी है जिसके लिए विद्युत शवदाह गृहों का उपयोग करना चाहिए। मुक्त शौच के स्थान पर अधिकाधिक सुलभ शौचालयों का उपयोग करें। प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए रासायनिक एवं जैविक खादों एवं कीटनाशकों का सन्तुलित रूप से उपयोग करना चाहिए। जल-संग्रहण, लवणीय भूमि, कीटनाशकों और रासायनिक खाद के बहिस्राव जैसी समस्याओं से निपटने के लिए ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति का प्रयोग करते हुए जल का सीमित उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। धान के खेतों, अधिक जल-संग्रहण करने वाले क्षेत्रों और सिंचाई के लिए उपलब्ध जल का योजनाबद्ध तरीके से ‘एक्वाकल्चर’ के लिए उपयोग करें। औद्योगिक और शहरी बहिस्राव वाले जल के उचित उपचार के बाद वृक्षारोपण और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए उसका उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। प्राकृतिक जल संसाधनों जैसे झरनों, नदियों, तालाबों इत्यादि में धुलाई, मृत मवेशियों, मानव-शरीर और कचरे का बहाव न करें। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए कम दूरी तय करने के लिए साइकिल का एवं अधिक दूरी तय करने के लिए सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें अधिक अधिक से अधिक पैदल चलने की कोशिश करें। वायु एवं ध्वनि प्रदूषण रोकने के लिए वाहनों की निरन्तर जाँच करते रहना चाहिए। इमारती लकड़ी, ईंधन, चारा तथा औषधियों की निरन्तर आपूर्ति के लिए तथा वनाच्छादन को क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत की सीमा तक बनाए रखने के लिए योजनाबद्ध वनीकरण के प्रयासों में सहयोग दें। अनियोजित एवं अवैज्ञानिक ढँग से भवन निर्माण, खनन, औद्योगिकीकरण, प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित शोषण इत्यादि पर्यावरण असंगत कार्यों को यथाशीघ्र बन्द कर देना चाहिए तथा प्रत्येक कार्य पर्यावरण-संगत विधि से करना चाहिए। तभी हमारा पर्यावरण सन्तुलित रह सकेगा।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मानव सभ्यता का विकास वनों की गोद में हुआ है। प्राचीनकाल में हमारे ऋषि-मुनियों ने इन्हीं वनों के सौम्य, शुद्ध एवं शान्त वातावरण में गहन चिन्तन करके वेदों और पुराणों की रचना की तथा इनमें वनों के महत्व को भी रेखांकित किया। पौधे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दो रूपों से हमें लाभ पहुँचाते हैं। पौधे पर्यावरण सन्तुलन बनाए रखने में फेफड़े का कार्य करते हैं। अतः हमें पर्यावरण सन्तुलन को बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक वृक्षों को लगाना चाहिए क्योंकि पौधे हमारे लिए कई प्रकार से उपयोगी हैं-

वन वाड़ी में जंगल के साथ-साथ पानी भी भरपूर मिल रहा हैवन वाड़ी में जंगल के साथ-साथ पानी भी भरपूर मिल रहा हैi. पौधों द्वारा हमें खाने के लिए अन्न, दालें, शाक-सब्जी, फल, मसाले, औषधि, मकान, झोपड़ी और भवन निर्माण के लिए सामग्री, रेशे, टैनिन, जानवरों के लिए चारा, मनोरंजन एवं पर्यटन आदि के लिए अनेक पदार्थ प्राप्त होते हैं।

ii. पेड़-पौधे जल के बहाव, बाढ़, मृदाक्षरण, मृदा की उर्वरता, तापमान और प्रदूषण आदि को नियन्त्रित करते हुए हमारे वातावरण की रक्षा एवं शुद्धि भी करते हैं।

iii. पौधे वायुमंडल की कार्बन-डाई-ऑक्साइड को ऑक्सीजन में परिवर्तित कर हमारे वातावरण को स्वास्थ्यप्रद बनाते हैं। साधारण आकार का एक वृक्ष दो परिवारों द्वारा निष्काषित कार्बन-डाईऑक्साइड को अपने अन्दर सोखकर इतनी ऑक्सीजन में परिवर्तित करता है जो दो परिवारों के लिए पर्याप्त हो।

iv. पेड़-पौधे सौर-विकिरण को सोख लेते हैं, सूर्य की तेज किरणों को रोककर अथवा छानकर हमें शीतल छाया प्रदान करते हैं। ऐसा अनुमान किया गया है कि 50-100 मीटर चौड़ा हरित क्षेत्र शहरों में 3.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान कम कर देता है। पौधे वायु के वेग और दिशा को भी नियंत्रित करते हैं। साथ ही वे ध्वनि-प्रदूषण को भी कम करते हैं।

v. पौधे वायुमंडल को नमी भी प्रदान करते हैं। एक एकड़ भूमि पर लगा हुआ फलों का उद्यान वहाँ के वातावरण को ठंडा और सुखद बनाये रखने क लिए पर्याप्त मात्रा में नमी प्रदान कर सकता है।

vi. पेड़-पौधे वायु मंडल के धुएँ और धूल को हमारे पास आने से न केवल रोकते हैं, बल्कि हानिकारक गैसों और अन्य प्रदूषित पदार्थों का अवशोषण कर वायु को शुद्ध करते हैं।

vii. एक कार 25,000 किलामीटर चलने पर जितना प्रदूषण करती है उतना ही प्रदूषण एक बड़े आकार का वृक्ष अवशोषित कर सकता है।

viii. पौधे धूल का अवशोषण करते हैं और वायु को शुद्ध करते हैं। जिन शहरों में सड़कों के किनारे वृक्षों की कतारें नहीं हैं वहाँ के वायुमंडल में वृक्षों की कतारों वाले शहरों की तुलना में चार गुना अथवा उससे भी अधिक धूलकण होते हैं। यह पाया गया है कि बरगद, पीपल, टीक, जंगल जलेबी, आम अशोक और ट्यूलिप के पौधे धूलकण के अच्छे अवशोषक होते हैं।

ix. पौधे सूर्य की तथा प्रकाश के अन्य स्रोत जैसे नियोनसाइन व मोटरगाड़ियों की हेडलाइट आदि की तीखी चौंध को भी कम करते हैं।

x. पौधे मृदा एवं पानी का भी संरक्षण करते हैं और बाढ़ को नियन्त्रित करते हैं। ऐसा अनुमान है कि एक हेक्टेयर वन क्षेत्र 3,333 घनमीटर पानी रोक सकता है। नदियों के किनारे और उनके संग्रहण-क्षेत्र में रोपित अच्छे वन बाढ़ को 60 प्रतिशत तक कम कर देते हैं।

xi. पौधे सौर-विकिरण एवं चौंध को कम करते हैं, वायु के वेग और जल के बहाव को रोकते हैं। जल के अवशोषण को बढ़ाते हैं, वायु के तापमान को कम करते हैं, वायुमंडल में नमी बढ़ाते हैं, हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं तथा धूल, धुएँ और प्रदूषण से वायु को शुद्ध करते हैं। अतः पौधे प्राकृतिक तौर पर बिना मूल्य के अधिक समय तक चलने वाले ‘पर्यावरण अनुकूलन’ का कार्य करते हैं।

xii. पौधों द्वारा पर्यावरण अनुकूलन बनाए रखने के लिए कई कार्य किए जाते हैं। एक अध्ययन में पाया गया है कि एक पचास वर्ष पुराना वृक्ष हमें करीब 16 लाख रुपये का लाभ पहुँचाता है।

xiii. एक पीपल का वृक्ष, जिसका फैलाव 162 वर्ग.मी. है 1712 कि.ग्रा. प्रति घंटे की दर से ऑक्सीजन देता है। और 20252 कि.ग्रा. प्रतिघंटे की दर से कार्बनडाईऑक्साइड सोखता है।

xiv. एक परिपक्व वृक्ष हवा में नमी बनाये रखने के लिए प्रतिदिन 400 लीटर जल का वाष्पन करता है जो पाँच एयर कंडीशनरों द्वारा उत्पादित ठंडक के बराबर है।

xv. औसतन 0.2 से 0.3 घनत्व वाले अशोक, जामुन, पीपल, बरगद, नीम और आम के वृक्षों से 100 मीटर दूरी पर औसतन 1.5 से 2.5 डिग्री सेल्सियस तापमान कम हो जाता है।

xvi. 30 मीटर चौड़ी हरित पट्टी 7 डेसीबल का ध्वनि प्रदूषण कम करती है।

xvii. पोपलर एवं हार्स चेस्टनट के पौधे क्रमशः 50 प्रतिशत और 60 प्रतिशत प्रकाश की तीव्रता कम करते हैं।

xviii. वृक्षारोपण वायु वेग को गर्मियों में 33 किलोमीटर/घंटा से 13 किलोमीटर/घंटा और वर्षा ऋतु में 46 किलोमीटर/घंटा से 20 किलोमीटर/घंटा की दर से कम करता है।

xix. एक हेक्टेयर में लगे वृक्ष 30-50 टन धूल प्रतिदिन सोख लेते हैं।

xx. 500 मीटर चौड़ा हरित क्षेत्र सल्फर डाईऑक्साइड एवं नाइट्रोजन डाईऑक्साइड की सान्द्रता को क्रमशः 70 प्रतिशत और 67 प्रतिशत कम कर देता है।

xxi. 1.5 वर्ग किलोमीटर चौड़ा हरित क्षेत्र धुएँ को 27 प्रतिशत कम कर देता है।

उपरोक्त बातों से स्पष्ट है कि पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए हमें प्रत्येक कार्य पर्यावरण संगत करना चाहिए तथा अधिक-से-अधिक संख्या में पृथ्वी पर वृक्ष लगाने चाहिए। भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से वृक्षारोपण जैसा पुनीत कार्य दूसरा नहीं है। विभिन्न विकास कार्यों, उद्योगों की स्थापना तथा कृषि-कार्यों के लिए अतिरिक्त भूमि उपलब्ध कराने हेतु बहुत से वन क्षेत्रों का निर्वनीकरण हो चुका है एवं बढ़ती हुई आबादी का वनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है।

हमारी राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्रफल का एक-तिहाई अर्थात 33 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित होना चाहिए, जिसके विपरीत हमारे देश में कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 19.46 प्रतिशत भू-भाग ही वन भूमि है। वन क्षेत्र तथा वृक्षारोपण हेतु सार्वजनिक एवं सरकारी भूमि तथा उपलब्ध संसाधन काफी सीमित है। अतः आज के समय में बढ़ती हुई आबादी की वनाधारित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कृषि-वानिकी को बड़े पैमाने पर किसानों को अपनाना होगा। अनुपजाऊ एवं बंजन निजी भूमि पर भी वृक्षारोपण किए जाने की अत्यन्त आवश्यकता है ताकि ग्रामीण अपनी ईंधन, चारा-पानी, इमारती व लघु प्रकाष्ठ की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आत्मनिर्भर हो सकें, साथ ही पर्यावरण-संरक्षण का उद्देश्य भी पूरा हो सके।

(लेखिका देहरादून, उत्तर प्रदेश के वन अनुसंधान संस्थान से सम्बद्ध हैं।)

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