उत्तराखण्ड सरीखे पर्वतीय राज्य के लिए दिक्कत यह है कि जिन संसाधनों से वह आय बढ़ाने की सोच रहा है, उन पर पर्यावरण मन्त्रालय से लेकर पर्यावरण सरोकारों से जुड़े स्वयंसेवी संगठनों का कड़ा पहरा है। खासतौर पर पावर सेक्टर पर जिसमें राज्य सरकार सबसे ज्यादा सम्भावनाएँ तलाश रही है। लेकिन 16 जून 2013 की आपदा के बाद पनबिजली परियोजनाओं से जुड़ी सम्भावनाएँ भी क्षीण हो चुकी है।
उत्तराखण्ड में पर्यावरण को लेकर द्वंद्व चल रहा है। आपदा के झंझावतों से उबरने की कोशिशों में जुटी विकास योजनाओं का ज्योंही ‘गियर’ बदलती है, पर्यावरण सरोकारों के नाम पर कोई न कोई रेड सिग्नल उसकी गति रोक देता है। गाहे-बगाहे यह पीड़ा मुख्यमन्त्री की जुबान से बयान हो भी जाती है। पिछले दिनों जब केदारघाटी क्षेत्र में हेलिकॉप्टरों की उड़ान के मामले में एनजीटी के दखल पर उनसे पूछा गया तो उनकी व्यथा कुछ यूँ बाहर आई। उन्होंने कहा, “उत्तराखण्ड में पर्याप्त वन है। गंगा और उसकी सहायक नदियों की स्थिति अच्छी है। लेकिन न जाने क्यों सारे विशेषज्ञ उत्तराखण्ड में ही क्यों आ रहे हैं? समझ नहीं आता कि उन्हें निचले इलाकों में गंगा की चिन्ता क्यों नहीं सता रही है?” सूबे के मुखिया के तौर पर उनकी चिन्ता वाजिब है। दरअसल, दिल्ली में सरकार बदलने के बाद केन्द्र और राज्यों के सम्बन्धों में काफी कुछ बदला है। मसलन केन्द्र की मोदी सरकार के नये फण्डिंग पैटर्न से वे राज्य सरकारें खासी असहज हैं जिनके खर्च का बड़ा हिस्सा केन्द्रीय मदद के रूप में प्राप्त होता है। नये फण्डिंग पैटर्न की वजह से राज्यों पर अपने संसाधनों से आय बढ़ाने का दबाव बढ़ा है।उत्तराखण्ड सरीखे पर्वतीय राज्य के लिए दिक्कत यह है कि जिन संसाधनों से वह आय बढ़ाने क सोच रहा है, उन पर पर्यावरण मन्त्रालय से लेकर पर्यावरण सरोकारों से जुड़े स्वयंसेवी संगठनों का कड़ा पहरा है। खासतौर पर पावर सेक्टर पर जिसमें राज्य सरकार सबसे ज्यादा सम्भावनाएँ तलाश रही है। लेकिन 16 जून 2013 की आपदा के बाद पनबिजली परियोजनाओं से जुड़ी समभावनाएँ भी क्षीण हो चुकी है। अभी तक के आंकलन के अनुसार राज्य की नदियों एवं जलस्रोतों में 20 हजार मेगावाट से अधिक की बिजली पैदा करने की क्षमता है। मगर आपदा के बाद बाँध परियोजनाओं के प्रति न्यायालय से लेकर केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय का नजरिया बदल गया है। यही राज्य सरकार की चिन्ता का सबसे बड़ा कारण है। रही-सही कसर राज्य में प्रस्तावित 11 इको सेंसेटिव जोन बनाए जाने से पूरी हो जाएगी।
सूत्रों की मानें तो इन्हें बनाये जाने को लेकर केन्द्र का राज्य सरकार पर भारी दबाव है और राज्य सरकार को जल्द से जल्द प्रस्ताव भेजने को कहा गया है। सरकार ने प्रस्ताव नहीं भेजे तो केन्द्र अपने हिसाब से इको सेंसेटिव जोन के कायदे तय कर देगा। ऐसी स्थिति में राज्य के सामने ठीक वैसी ही स्थिति खड़ी हो सकती है जैसी भागीरथी इको सेंसेटिव जोन के मामले में सामने आ रही है। राज्य सरकार गोमुख से उत्तरकाशी के बीच 4179.59 वर्ग किमी को इको सेंसेटिव जोन के दायरे में लाए जाने से खासी बेचैन है और इससे मुक्ति के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रही है। अब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक पुनर्विचार याचिका दायर करने की भी तैयारी कर ली है। सरकारी वकील तय कर दिया गया है और उसे हर वह जानकारी उपलब्ध कराई जा रही है जो सरकार के पक्ष को मजबूती से रखने में मददगार हो सकता है। मुख्य सचिव राकेश शर्मा कहते हैं, भागीरथी इको सेंसेटिव जोन राज्यहित में नहीं है। इससे राज्य का विकास प्रभावित होगा।
हमारी ओर से लगातार ये प्रयास किये जा रहे हैं कि केन्द्र इसकी अधिसूचना वापस ले ले। हमें जहाँ भी अवसर मिल रहा है, इस मुद्दे को मजबूती से रख रहे हैं। इको सेंसेटिव जोन से सरकार बेवजह नहीं बिदकी है। ये मसला राज्य के आमदनी से जुड़ा है। आधिकारिक सूत्र ये दलील देते हैं कि उत्तरकाशी जनपद में पावर सेक्टर की करीब डेढ़ दर्जन से ज्यादा बिजली परियोजनाएँ हैं। इनमें से कुछ परियोजनाओं पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं। कुछ बनने की स्थिति में भी है। लेकिन इको सेंसेटिव जोन की अधिसूचना जारी होने के बाद दो मेगावाट से ऊपर की सभी परियोजनाओं पर ब्लैंकेट बैन लग गया है।
जाहिर है कि इससे राज्य सरकार ने आय के तय किये गए लक्ष्य को जोर का झटका लगा है। एक अनुमान के अनुसार, अकेले उत्तरकाशी जनपद से ही उत्तराखण्ड को पावर सेक्टर से 2000 करोड़ रुपये सालाना आय से हाथ धोना पड़ सकता है। मुख्य सचिव की यही सबसे बड़ी चिन्ता है क्योंकि उनके कन्धों पर वित्त विभाग की जिम्मेदारी भी है और राजकोष पर खर्च का इस कदर दबाव बढ़ रहा है कि सरकार ने यदि आय के नये संसाधन नहीं जुटाए तो राज्य की अर्थव्यवस्था की साँसें उखड़ सकती हैं।
अब प्रश्न यह है कि समस्या का समाधान क्या हो सकता है। सूत्रों की मानें तो सरकार अभी तक हर सम्भव कोशिश कर चुकी है। मुख्यमन्त्री हरीश रावत ने केन्द्रीय वन मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर के समक्ष भी कई बार ये मसला उठा चुके हैं। राज्य की ओर से उन्हें कई पत्र भी भेजे गए। लेकिन केन्द्रीय मन्त्री के दो टूक जवाब से राज्य सरकार निराश है। मन्त्रालय का कहना है कि इको सेंसेटिव जोन से जनजीवन, सामाजिक, आर्थिक हालातों पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। लेकिन राज्य सरकार केन्द्र के इस तर्क से इत्तेफाक नहीं रखती है, इसीलिए राज्य ने इस मुद्दे को अदालत में ले जाने का फैसला किया है। सूत्रों की मानें तो राज्य सरकार नये तर्कों के साथ मैदान में उतरने की तैयारी में है। उसका सबसे पहला सवाल इको सेंसेटिव जोन की उस अधिसूचना पर होगा जिसके हिन्दी और अंग्रेजी वर्जन में असमानता है।
सरकारी सूत्रों का कहना है कि हिन्दी में जो अधिसूचना में 25 मेगावाट तक बिजली परियोजना लगाने का प्रावधान है, लेकिन अंग्रेजी में इसे दो मेगावाट तक सीमित कर दिया गया है। सरकार ये सवाल भी उठाने जा रही है कि अन्तिम अधिसूचना से पूर्व जो ड्राफ्ट भेजा गया था, उसमें इको सेंसेटिव जोन के दायरे को 40 वर्ग किमी तक सीमित किया गया था। लेकिन जब अधिसूचना जारी हुई तो इसके दायरे में 100 गुना बढ़ोत्तरी कर दी गई, जिससे जिले के स्थानीय लोगों के हकहकूकों को संरक्षित रखने का संकट खड़ा हो गया है। सरकार ये तर्क भी पेश करने जा रही है कि जिस इलाके को केन्द्र ने इको सेंसेटिव जोन घोषित किया है, वहाँ पहले से ही वन एवं पर्यावरण कानूनों को प्रभावी तरीके सेे लागू किया जा रहा है।
भागीरथी नदी घाटी प्राधिकरण का दायरा गोमुख से देवप्रयाग तक है जबकि गंगोत्री विकास प्राधिकरण के मानक भी उन्हीं कायदों की पैरवी करते हैं जो इको सेंसेटिव जोन में दर्ज हैं। इसके अलावा सरकार उत्तरकाशी के सीमान्त जनपद होने की वजह से इसके सामरिक महत्व को आधार बनाने जा रही है। आधिकारिक सूत्रों की मानें तो अधिसूचना सामरिक गतिविधियों को रेगूलेट करती है। वे यह तर्क भी पेश कर रहे हैं कि महायोजना में जनपद के लिए एक बार जो मानक तय हो जाएँगे, उनमें फिर कोई बदलाव नहीं हो सकेगा। मिसाल के तौर के लिए इको सेंसेटिव जोन के दायरे में जितने होटल, सराय, धर्मशालाएँ, सार्वजनिक स्थल हैं, उतने ही रहेंगे। उनके विस्तार की योजनाओं के प्रस्ताव दिल्ली से पास कराने होंगे। इतना ही नहीं स्थानीय लोगों को यदि अपने आवासीय भवन का विस्तार करना होगा तो इसके लिए भी उन्हें वन मन्त्रालय की इजाजत की आवश्यकता होगी।
अधिसूचना हटाये जाने के पैरोकारों का मानना है कि इससे क्षेत्र में पलायन की समस्या और ज्यादा बढ़ेगी। पर्यटन की सम्भावनाओं का विस्तार नहीं हो पाएगा और रोजगार के अवसर बेहद सीमित हो जाएँगे तो लोग काम धन्धे की तलाश में मैदानों में उतर आएँगे। उनके ये तर्क न्यायालय पर कितना प्रभाव डाल पाएँगे तो ये भविष्य बतायेगा लेकिन इतना तय है कि पर्यावरण के नाम पर जो अभियान उत्तराखण्ड में चल रहे हैं, उन्हें लेकर राज्य सरकार बेहद बेचैन है और उसकी ये बेचैनी बार-बार प्रकट हो रही है। बानगी के तौर पर पिछले दिनों राज्य सचिवालय में जलवायु परिवर्तन पर हुई बैठक के दौरान कुछ ऐसा देखने को मिला। इस बैठक में पर्यावरण, वन एवं विभिन्न संस्थाओं से जुड़े विज्ञानी एवं विशेषज्ञ यह विचार करने पहुँचे थे कि राज्य के हालातों पर जलवायु परिवर्तन का किस तरह का प्रभाव है और इस प्रभाव के आंकलन के लिए एक डाटा बैंक तैयार करने की आवश्यकता है। लेकिन मुख्य सचिव इस पूरी कवायद के पक्ष में नहीं थे।
दो टूक अंदाज में उपस्थितजनों को उन्होंने तब स्तब्ध कर दिया जब उनसे पूछा कि वे बताएँ कि 2013 में आपदा क्यों आई? इसके पीछे क्या कारण थे और ऐसी आपदाएँ अब कब आएँगी? उनका कहना था कि जलवायु परिवर्तन पर बहुत कहा और सुना जा चुका है, अब सवाल हालातों के सामांजस्य बैठाकर विकास की गति को आगे बढ़ाना है। मुख्य सचिव का ये अन्दाज अनायास नहीं था। दरअसल, पर्यावरणीय सरोकारों की वजह से राज्य की विकास योजनाएँ जिस तरह से लगातार खटाई में पड़ रही है, ये दरअसल उसकी प्रतिक्रिया थी। उत्तराखण्ड में पर्यावरण और विकास के बीच जारी इस द्वंद्व से ही शायद कोई रास्ता निकले।
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