इण्टर गवर्नमेण्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार आज हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए हमारी खान-पान सहित जीवन-शैली भी जिम्मेदार है और उसमें परिवर्तन लाए बिना हम इस समस्या का सामना नहीं कर सकते।आज किसी भी चीज का मापदण्ड है विकास। राजनीति से लेकर प्रशासन तक का केवल एक ही मुद्दा है विकास। विकास किसी भी कीमत पर। इस विकास को नापने का एक पैमाना भी बनाया गया है और वह है— समृद्धि। व्यक्ति का विकास मतलब व्यक्ति की समृद्धि और देश का विकास मतलब देश की समृद्धि। समृद्धि का भी अर्थ निश्चित और सीमित कर दिया गया है। पैसों और संसाधनों का अधिकाधिक प्रवाह ही समृद्धि का अर्थ है। पैसे भी संसाधनों से ही आते हैं। इसलिए कुल मिलाकर अधिकाधिक संसाधन चाहिए। इस संसाधनों के संचयन की होड़ पूरी दुनिया में लगी हुई है। इसके लिए हम किसी भी चीज की बलि चढ़ाने के लिए तैयार हैं, चढ़ा भी रहे हैं। चूँकि संसाधन हमें प्रकृति से ही मिलते हैं, इसलिए बलि भी प्रकृति की ही चढ़ाई जा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हमारी समृद्धि तो बढ़ रही है परन्तु वास्तविक तौर पर हम गरीब हो रहे हैं। यह गरीबी पर्यावरण और पारिस्थितिकी की है। हमारी जैव-विविधता खतरे में है, हमारा पेयजल खतरे में है, हमारी शुद्ध हवा और उपजाऊ जमीन खतरे में है यही कारण है कि आज हमारे सामने कई ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं, जिनके बारे में कल्पना तक भी नहीं की गई थी।
उदाहरण के लिए देश की राजधानी दिल्ली को देखा जा सकता है। दिल्ली देश का एक सर्वाधिक विकसित शहर माना जाता है। सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ और पर्याप्त से अधिक समृद्धि है यहाँ। परन्तु यदि पर्यावरण और पारिस्थितिकी की बात करें तो दिल्ली से गरीब शायद ही कोई और शहर होगा। हालाँकि दिल्ली गर्व के साथ देश का सबसे अधिक हरियाली वाला मेट्रो शहर होने का दावा करती है, बावजूद इसके यह गौरेया जैसे एक पक्षी को बचा नहीं पा रही। कोयल की कूक दिल्लीवासियों के लिए स्वप्न भर है। विकास के सवालों पर पशु-पक्षियों की बलि तो चढ़ानी ही पड़ी इस मानसिकता को अगर स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी दिल्ली की चिन्ताएँ काफी भयावह हैं।
देश की एक प्रमुख नदी यमुना के किनारे बसे होने के बावजूद दिल्ली के पास अपना पीने का पानी नहीं बचा है। विकास की असीम लालसाओं की वेदी पर उसने अपने नदी-जल और भू-जल की भेंट चढ़ा दी है और अब वह दूसरे राज्यों के पानी पर डाका डाल रही है। इसकी प्यास निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। यदि हम आँकड़ों की बात करें तो दिल्ली को कुल 939 एमजीडी पानी की आवश्यकता पड़ती है जिसका आधे से अधिक उसे दूसरे राज्यों यानी कि भाखड़ा नांगल, गंगनहर और टिहरी से प्राप्त होता है। यमुना उसकी आवश्यकता का केवल 30 प्रतिशत की ही पूर्ति कर पाती है। दिल्ली में पानी की कुल खपत का 75 प्रतिशत घरेलू उपयोग में आता है और केवल 20 प्रतिशत औद्योगिक उपयोग में। दिल्ली में पानी की इतनी आवश्यकता है तो क्या दिल्लीवासियों ने पानी का उपयोग करने में सावधानी बरतनी शुरू कर दी है, उत्तर है नहीं।
यह स्थिति केवल दिल्ली की नहीं है। झारखण्ड का एक प्रमुख शहर है धनबाद। धनबाद की आबादी तीन लाख है, लेकिन मात्र पचास हजार लोगों ही मैथन के पानी का उपयोग कर पा रहे हैं, ढाई लाख लोग सार्वजनिक नल और पानी पर निर्भर हैं। जिले में जलापूर्ति का मुख्य स्रोत मैथन डैम, तोपचांची झील और दामोदर नदी है। गर्मी में तीनों का जल-स्तर घट जाता है। धनबाद शहर में पानी पिलाने की जिम्मेदारी पेयजल एवं स्वच्छता विभाग और कोलियरी क्षेत्रों में यह काम खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार (माडा) के जिम्मे है। शहर में प्रति दिन 80 लाख गैलन पानी की जरूरत है, लेकिन विभाग की ओर से 40 लाख गैलन पानी की आपूर्ति की जा रही है। इसी तरह झरिया क्षेत्र में अभी माडा की ओर से 30 लाख गैलन आपूर्ति की जा रही है, जबकि जरूरत 125 लाख गैलन की है। समस्या का भयावह पक्ष यह है कि धनबाद का भू-जल स्तर पिछले 15 सालों में बुरी तरह नीचे गिरा है और इसके कारण यहाँ के कई इलाकों के लगभग सभी कुएँ और हैण्डपम्प सूख गए हैं। इस भू-जल स्तर के गिरने का प्रमुख कारण है विकास के नाम पर तालाबों का बलिदान। ऐसे में सवाल यह है कि क्या वास्तव में हम समृद्ध हो रहे हैं?
वास्तव में यह सवाल स्वयं को विकसित और विकासशील कहने वाले उन सभी देशों से है, जो प्रकृति से खिलवाड़ और उसके विनाश को ही विकास का पर्याय मान बैठे हैं। जो विकास का अर्थ औद्योगीकरण समझते हैं और औद्योगीकरण का अर्थ प्रकृति व पर्यावरण विनाशक बड़े-बड़े कल-कारखाने, जो विकास का अर्थ शहरों से लेते हैं और गाँव जिनके लिए पिछड़ेपन की निशानी हैं, जिनके विकास का अर्थ बिजली, सड़क, पानी तक ही सीमित है, चाहे वह किसी भी कीमत पर हो।
दिल्ली को कुल 939 एमजीडी पानी की आवश्यकता पड़ती है जिसका आधे से अधिक उसे दूसरे राज्यों यानी कि भाखड़ा नांगल, गंगनहर और टिहरी से प्राप्त होता है। यमुना उसकी आवश्यकता का केवल 30 प्रतिशत की ही पूर्ति कर पाती है। विकास का तात्पर्य समझे बिना इस बात को ठीक से नहीं समझा जा सकता है। अपने देश में इन्हें विकास का मानक कभी भी नहीं माना गया। यहाँ जिसे विकास माना गया, उसमें कार्बन का उत्सर्जन नहीं बढ़ता था, बल्कि प्रकृति के साथ एक तादात्म्य भी स्थापित होता था। इण्टर गवर्नमेण्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार आज हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए हमारी खान-पान सहित जीवन-शैली भी जिम्मेदार है और उसमें परिवर्तन लाए बिना हम इस समस्या का सामना नहीं कर सकते। एक उदाहरण मांसाहार है। एक किलो मक्का के उत्पादन में 900 लीटर पानी लगता है परन्तु गाय या भैंस के 1 किलो मांस के उत्पादन में 15, 500 लीटर पानी की जरूरत होती है।
आज पशुधन को मांस के नजरिये से ज्यादा और कृषि, पर्यावरण एवं आजीविका के नजरिये से कम देखा जाता है। दुनिया भर के अनाज उत्पादन का एक-तिहाई का उपयोग मांस के लिए जानवर पालने में होता है। एक व्यक्ति एक हेक्टेयर खेती की जमीन से सब्जियाँ, फल और अनाज उगाकर 30 लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था कर सकता है किन्तु अगर इसी का उपयोग अण्डे, मांस, जानवर के लिए किया जाता है तो केवल 5 से 10 लोगों का ही पेट भर सकेगा। इससे साफ है कि मांसाहार दुनिया की पारिस्थितिकी के लिए एक बड़ा खतरा है। विकास का यह बाजार केन्द्रित प्रारूप तात्कालिक तौर पर पारिस्थितिकी और दूरगामी तौर पर मनुष्य जाति के लिए ही एक बड़ा खतरा है।
भारत में विकास का जो प्रारूप विकसित हुआ, उसमें मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक जीव व जड़ प्रकृति की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया था। मनुष्य के केवल भौतिक पक्ष की ही चिन्ता करने की बजाय उसके सामाजिक, मानसिक और आत्मिक पक्षों की भी चिन्ता की गई थी। मनुष्य को केवल सुख-सुविधाओं से लैस करने की कभी कोई योजना यहाँ नहीं बनाई गई। इसलिए अपने देश में एक मुहावरा प्रचलित हुआ— उत्तम खेती, मध्यम बान; अधम चाकरी भीख निदान। इसका अर्थ बहुत साफ है। नौकरी करने को अपने देश में कभी महत्ता नहीं दी गई। पशु, भूमि एवं मनुष्य और इस प्रकार पूरी प्रकृति मात्र का पोषण करने वाली खेती को सर्वोत्तम माना गया। खेती की इस भारतीय व्यवस्था में पशु सहायक हुआ करते थे, बोझ नहीं। इसलिए किसान अपने पशु को मांस के लिए कभी भी उपयोग में नहीं लाता था। रोचक बात यह है कि गाय जैसे दुधारू पशुओं को व्यवसाय हेतु नहीं पाला जाता था। दूध एक अतिरिक्त उत्पाद था, मुख्य नहीं। मुख्य उत्पाद तो गोबर और गोमूत्र की माने जाते थे। इसलिए भारत में पशुपालन हो या खेती, दोनों जीवन जीने की कला बने, उद्योग नहीं। समस्या ही तब शुरू होती है जब हम किसी भी चीज को उद्योग का दर्जा दे देते हैं।
भारत में विकसित जीवन जीने की कला को अपनाने और उसके अनुसार विकास के मापदण्डों को तय किए बिना पर्यावरण और पारिस्थितिकी की समस्या नहीं सुलझ सकती।आज तो जीवन के हरेक आयाम को बाजार और उद्योग से जोड़ दिया गया है। दूध का उत्पादन, मांस का उत्पादन उद्योग हो गया है। यहाँ तक कि एक निहायत ही व्यक्तिगत विषय श्रृंगार भी फैशन उद्योग बन गया है और आज खेती को भी उद्योग की श्रेणी में लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। समस्या इस औद्योगीकरण से ही शुरू होती है। किसी भी चीज का उत्पादन बुरा नहीं है, बुरा है उसका काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन करना। उदाहरण के लिए दूध का उत्पादन लें। व्यक्तिगत स्तर पर या छोटे-मोटे समूह द्वारा दूध का उत्पादन तो सदियों से हो रहा हैं, परन्तु कभी कोई समस्या नहीं आई। लेकिन आज दूध का उत्पादन दूध उद्योग बन गया है।
परिणामस्वरूप भारत में तो नहीं परन्तु अमेरिका जैसे देशों में दूध और मांस उद्योग के जटिल रख-रखाव से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। उत्सर्जन इतना अधिक है कि उस पर संयुक्त राष्टं के खाद्य एवं कृषि संगठन को रिपोर्ट निकालनी पड़ती है और उस पर अपने देश में बहस होने लगती है। उस रिपोर्ट से भी यह साफ पता चलता है कि गायों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन उतना नहीं होता जितना कि बड़ी-बड़ी गौशालाओं के संचालन के लिए की जा रही चारे की खेती से होता है। इससे साफ होता है कि दूध व गाय कोई समस्या नहीं है, समस्या है दूध व मांस का उद्योग।
भारत में विकसित जीवन जीने की कला को अपनाने और उसके अनुसार विकास के मापदण्डों को तय किए बिना पर्यावरण और पारिस्थितिकी की समस्या नहीं सुलझ सकती। जब हम ग्राम आधारित विकास के प्रारूप की बात करते हैं तो सबसे पहले इसे प्रगति विरोधी कहा जाता है, फिर इसे अव्यावहारिक ठहराया जाता है और अन्त में मूर्खता ठहराकर इसे खारिज कर दिया जाता है। परन्तु जो कुछ हम दिल्ली में कर रहे हैं, क्या उसे पूरे देश में लागू किया जा सकता है? क्या पूरे देश को आप कंक्रीट के जंगल में बदल सकते हैं, यदि बदल देंगे तो क्या जीवन सम्भव होगा? दिल्ली में यदि आप मोबाइल, एसी और कम्प्यूटर के बिना नहीं रह सकते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि गाँवों में भी लोगों को ऐसा ही हो जाना चाहिए।
पारिस्थितिकी के टिकाऊ बने रहने और परिणामस्वरूप मानव के सुखी रहने के लिए कुछेक बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना नितान्त आवश्यक है। पहली बात है पानी की। शहरों में पानी का अपना स्रोत हो, जिसकी रक्षा शहर के लोगों की जिम्मेदारी हो। दूसरी बात है शहर की जैव-विविधता की सुरक्षा का जिम्मा भी शहर के लोगों की ही हो न कि सरकार की। इसके लिए शहरों में वार्ड स्तर पर समितियाँ बनाई जानी चाहिए। राजस्थान के दूदू जिले के एक छोटे-से गाँव लापोरिया में खुला चिड़ियाघर के सफल प्रयोग के आधार पर कुछ नये प्रयोग किए जा सकते हैं। पशुओं के साथ जीने का जो प्रशिक्षण भारत के परम्परागत शिक्षण में था, उसे आज की शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए। जैसे, रसोई की पहली रोटी गाय के लिए निकालना, कुत्तों को रोटी देना, पक्षियों को दाना देना आदि।
टाउनशिप के विकास में जैव-विविधता की रक्षा को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए। गाड़ियों की पार्किंग व्यवस्था के अलावा केले, पीपल एवं वट वृक्ष की उपस्थिति और गायों, कुत्तों, पक्षियों के रहने की व्यवस्था उनका अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। हरेक टाउनशिप के साथ एक गौशाला होने को अनिवार्य किया जा सकता है। उस गौशाला की जिम्मेदारी उस टाउनशिप की होनी चाहिए। इससे उस टाउनशिप को दूध भी मिलेगा और इससे पशु-पक्षियों के प्रति लोगों का नजरिया भी बदलेगा। इससे गाँवों के विकास के प्रति भी लोगों की दृष्टि बदलेगी और गाँवों को नष्ट करने की प्रक्रिया पर विराम लग सकेगा।
प्रत्येक शहर के अनाज की न भी सम्भव हो तो भी उसके सब्जियों और फलों की खपत के लिए जीरो फूड माइल का सिद्धान्त प्रयोग किया जाना चाहिए। यानी कि एक-दो कि.मी. के दायरे में ही इनका उत्पादन क्षेत्र हो। इसके लिए किचन गार्डनिंग को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। पशुओं के संरक्षण में स्थानीय नस्लों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और सामुदायिक जिम्मेदारी सबसे अधिक जरूरी है। ऐसे और भी उपाय हो सकते हैं, जिन्हें आज हम अव्यावहारिक मान बैठे हैं परन्तु पारिस्थितिकीय असन्तुलन से जो खतरे पैदा हो रहे हैं, उसके मद्देनजर अब अपने नजरिये में बदलाव लाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : ravinoy@gmail.com
उदाहरण के लिए देश की राजधानी दिल्ली को देखा जा सकता है। दिल्ली देश का एक सर्वाधिक विकसित शहर माना जाता है। सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ और पर्याप्त से अधिक समृद्धि है यहाँ। परन्तु यदि पर्यावरण और पारिस्थितिकी की बात करें तो दिल्ली से गरीब शायद ही कोई और शहर होगा। हालाँकि दिल्ली गर्व के साथ देश का सबसे अधिक हरियाली वाला मेट्रो शहर होने का दावा करती है, बावजूद इसके यह गौरेया जैसे एक पक्षी को बचा नहीं पा रही। कोयल की कूक दिल्लीवासियों के लिए स्वप्न भर है। विकास के सवालों पर पशु-पक्षियों की बलि तो चढ़ानी ही पड़ी इस मानसिकता को अगर स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी दिल्ली की चिन्ताएँ काफी भयावह हैं।
देश की एक प्रमुख नदी यमुना के किनारे बसे होने के बावजूद दिल्ली के पास अपना पीने का पानी नहीं बचा है। विकास की असीम लालसाओं की वेदी पर उसने अपने नदी-जल और भू-जल की भेंट चढ़ा दी है और अब वह दूसरे राज्यों के पानी पर डाका डाल रही है। इसकी प्यास निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। यदि हम आँकड़ों की बात करें तो दिल्ली को कुल 939 एमजीडी पानी की आवश्यकता पड़ती है जिसका आधे से अधिक उसे दूसरे राज्यों यानी कि भाखड़ा नांगल, गंगनहर और टिहरी से प्राप्त होता है। यमुना उसकी आवश्यकता का केवल 30 प्रतिशत की ही पूर्ति कर पाती है। दिल्ली में पानी की कुल खपत का 75 प्रतिशत घरेलू उपयोग में आता है और केवल 20 प्रतिशत औद्योगिक उपयोग में। दिल्ली में पानी की इतनी आवश्यकता है तो क्या दिल्लीवासियों ने पानी का उपयोग करने में सावधानी बरतनी शुरू कर दी है, उत्तर है नहीं।
यह स्थिति केवल दिल्ली की नहीं है। झारखण्ड का एक प्रमुख शहर है धनबाद। धनबाद की आबादी तीन लाख है, लेकिन मात्र पचास हजार लोगों ही मैथन के पानी का उपयोग कर पा रहे हैं, ढाई लाख लोग सार्वजनिक नल और पानी पर निर्भर हैं। जिले में जलापूर्ति का मुख्य स्रोत मैथन डैम, तोपचांची झील और दामोदर नदी है। गर्मी में तीनों का जल-स्तर घट जाता है। धनबाद शहर में पानी पिलाने की जिम्मेदारी पेयजल एवं स्वच्छता विभाग और कोलियरी क्षेत्रों में यह काम खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार (माडा) के जिम्मे है। शहर में प्रति दिन 80 लाख गैलन पानी की जरूरत है, लेकिन विभाग की ओर से 40 लाख गैलन पानी की आपूर्ति की जा रही है। इसी तरह झरिया क्षेत्र में अभी माडा की ओर से 30 लाख गैलन आपूर्ति की जा रही है, जबकि जरूरत 125 लाख गैलन की है। समस्या का भयावह पक्ष यह है कि धनबाद का भू-जल स्तर पिछले 15 सालों में बुरी तरह नीचे गिरा है और इसके कारण यहाँ के कई इलाकों के लगभग सभी कुएँ और हैण्डपम्प सूख गए हैं। इस भू-जल स्तर के गिरने का प्रमुख कारण है विकास के नाम पर तालाबों का बलिदान। ऐसे में सवाल यह है कि क्या वास्तव में हम समृद्ध हो रहे हैं?
वास्तव में यह सवाल स्वयं को विकसित और विकासशील कहने वाले उन सभी देशों से है, जो प्रकृति से खिलवाड़ और उसके विनाश को ही विकास का पर्याय मान बैठे हैं। जो विकास का अर्थ औद्योगीकरण समझते हैं और औद्योगीकरण का अर्थ प्रकृति व पर्यावरण विनाशक बड़े-बड़े कल-कारखाने, जो विकास का अर्थ शहरों से लेते हैं और गाँव जिनके लिए पिछड़ेपन की निशानी हैं, जिनके विकास का अर्थ बिजली, सड़क, पानी तक ही सीमित है, चाहे वह किसी भी कीमत पर हो।
दिल्ली को कुल 939 एमजीडी पानी की आवश्यकता पड़ती है जिसका आधे से अधिक उसे दूसरे राज्यों यानी कि भाखड़ा नांगल, गंगनहर और टिहरी से प्राप्त होता है। यमुना उसकी आवश्यकता का केवल 30 प्रतिशत की ही पूर्ति कर पाती है। विकास का तात्पर्य समझे बिना इस बात को ठीक से नहीं समझा जा सकता है। अपने देश में इन्हें विकास का मानक कभी भी नहीं माना गया। यहाँ जिसे विकास माना गया, उसमें कार्बन का उत्सर्जन नहीं बढ़ता था, बल्कि प्रकृति के साथ एक तादात्म्य भी स्थापित होता था। इण्टर गवर्नमेण्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार आज हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए हमारी खान-पान सहित जीवन-शैली भी जिम्मेदार है और उसमें परिवर्तन लाए बिना हम इस समस्या का सामना नहीं कर सकते। एक उदाहरण मांसाहार है। एक किलो मक्का के उत्पादन में 900 लीटर पानी लगता है परन्तु गाय या भैंस के 1 किलो मांस के उत्पादन में 15, 500 लीटर पानी की जरूरत होती है।
आज पशुधन को मांस के नजरिये से ज्यादा और कृषि, पर्यावरण एवं आजीविका के नजरिये से कम देखा जाता है। दुनिया भर के अनाज उत्पादन का एक-तिहाई का उपयोग मांस के लिए जानवर पालने में होता है। एक व्यक्ति एक हेक्टेयर खेती की जमीन से सब्जियाँ, फल और अनाज उगाकर 30 लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था कर सकता है किन्तु अगर इसी का उपयोग अण्डे, मांस, जानवर के लिए किया जाता है तो केवल 5 से 10 लोगों का ही पेट भर सकेगा। इससे साफ है कि मांसाहार दुनिया की पारिस्थितिकी के लिए एक बड़ा खतरा है। विकास का यह बाजार केन्द्रित प्रारूप तात्कालिक तौर पर पारिस्थितिकी और दूरगामी तौर पर मनुष्य जाति के लिए ही एक बड़ा खतरा है।
भारत में विकास का जो प्रारूप विकसित हुआ, उसमें मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक जीव व जड़ प्रकृति की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया था। मनुष्य के केवल भौतिक पक्ष की ही चिन्ता करने की बजाय उसके सामाजिक, मानसिक और आत्मिक पक्षों की भी चिन्ता की गई थी। मनुष्य को केवल सुख-सुविधाओं से लैस करने की कभी कोई योजना यहाँ नहीं बनाई गई। इसलिए अपने देश में एक मुहावरा प्रचलित हुआ— उत्तम खेती, मध्यम बान; अधम चाकरी भीख निदान। इसका अर्थ बहुत साफ है। नौकरी करने को अपने देश में कभी महत्ता नहीं दी गई। पशु, भूमि एवं मनुष्य और इस प्रकार पूरी प्रकृति मात्र का पोषण करने वाली खेती को सर्वोत्तम माना गया। खेती की इस भारतीय व्यवस्था में पशु सहायक हुआ करते थे, बोझ नहीं। इसलिए किसान अपने पशु को मांस के लिए कभी भी उपयोग में नहीं लाता था। रोचक बात यह है कि गाय जैसे दुधारू पशुओं को व्यवसाय हेतु नहीं पाला जाता था। दूध एक अतिरिक्त उत्पाद था, मुख्य नहीं। मुख्य उत्पाद तो गोबर और गोमूत्र की माने जाते थे। इसलिए भारत में पशुपालन हो या खेती, दोनों जीवन जीने की कला बने, उद्योग नहीं। समस्या ही तब शुरू होती है जब हम किसी भी चीज को उद्योग का दर्जा दे देते हैं।
भारत में विकसित जीवन जीने की कला को अपनाने और उसके अनुसार विकास के मापदण्डों को तय किए बिना पर्यावरण और पारिस्थितिकी की समस्या नहीं सुलझ सकती।आज तो जीवन के हरेक आयाम को बाजार और उद्योग से जोड़ दिया गया है। दूध का उत्पादन, मांस का उत्पादन उद्योग हो गया है। यहाँ तक कि एक निहायत ही व्यक्तिगत विषय श्रृंगार भी फैशन उद्योग बन गया है और आज खेती को भी उद्योग की श्रेणी में लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। समस्या इस औद्योगीकरण से ही शुरू होती है। किसी भी चीज का उत्पादन बुरा नहीं है, बुरा है उसका काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन करना। उदाहरण के लिए दूध का उत्पादन लें। व्यक्तिगत स्तर पर या छोटे-मोटे समूह द्वारा दूध का उत्पादन तो सदियों से हो रहा हैं, परन्तु कभी कोई समस्या नहीं आई। लेकिन आज दूध का उत्पादन दूध उद्योग बन गया है।
परिणामस्वरूप भारत में तो नहीं परन्तु अमेरिका जैसे देशों में दूध और मांस उद्योग के जटिल रख-रखाव से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। उत्सर्जन इतना अधिक है कि उस पर संयुक्त राष्टं के खाद्य एवं कृषि संगठन को रिपोर्ट निकालनी पड़ती है और उस पर अपने देश में बहस होने लगती है। उस रिपोर्ट से भी यह साफ पता चलता है कि गायों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन उतना नहीं होता जितना कि बड़ी-बड़ी गौशालाओं के संचालन के लिए की जा रही चारे की खेती से होता है। इससे साफ होता है कि दूध व गाय कोई समस्या नहीं है, समस्या है दूध व मांस का उद्योग।
भारत में विकसित जीवन जीने की कला को अपनाने और उसके अनुसार विकास के मापदण्डों को तय किए बिना पर्यावरण और पारिस्थितिकी की समस्या नहीं सुलझ सकती। जब हम ग्राम आधारित विकास के प्रारूप की बात करते हैं तो सबसे पहले इसे प्रगति विरोधी कहा जाता है, फिर इसे अव्यावहारिक ठहराया जाता है और अन्त में मूर्खता ठहराकर इसे खारिज कर दिया जाता है। परन्तु जो कुछ हम दिल्ली में कर रहे हैं, क्या उसे पूरे देश में लागू किया जा सकता है? क्या पूरे देश को आप कंक्रीट के जंगल में बदल सकते हैं, यदि बदल देंगे तो क्या जीवन सम्भव होगा? दिल्ली में यदि आप मोबाइल, एसी और कम्प्यूटर के बिना नहीं रह सकते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि गाँवों में भी लोगों को ऐसा ही हो जाना चाहिए।
पारिस्थितिकी के टिकाऊ बने रहने और परिणामस्वरूप मानव के सुखी रहने के लिए कुछेक बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना नितान्त आवश्यक है। पहली बात है पानी की। शहरों में पानी का अपना स्रोत हो, जिसकी रक्षा शहर के लोगों की जिम्मेदारी हो। दूसरी बात है शहर की जैव-विविधता की सुरक्षा का जिम्मा भी शहर के लोगों की ही हो न कि सरकार की। इसके लिए शहरों में वार्ड स्तर पर समितियाँ बनाई जानी चाहिए। राजस्थान के दूदू जिले के एक छोटे-से गाँव लापोरिया में खुला चिड़ियाघर के सफल प्रयोग के आधार पर कुछ नये प्रयोग किए जा सकते हैं। पशुओं के साथ जीने का जो प्रशिक्षण भारत के परम्परागत शिक्षण में था, उसे आज की शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए। जैसे, रसोई की पहली रोटी गाय के लिए निकालना, कुत्तों को रोटी देना, पक्षियों को दाना देना आदि।
टाउनशिप के विकास में जैव-विविधता की रक्षा को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए। गाड़ियों की पार्किंग व्यवस्था के अलावा केले, पीपल एवं वट वृक्ष की उपस्थिति और गायों, कुत्तों, पक्षियों के रहने की व्यवस्था उनका अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। हरेक टाउनशिप के साथ एक गौशाला होने को अनिवार्य किया जा सकता है। उस गौशाला की जिम्मेदारी उस टाउनशिप की होनी चाहिए। इससे उस टाउनशिप को दूध भी मिलेगा और इससे पशु-पक्षियों के प्रति लोगों का नजरिया भी बदलेगा। इससे गाँवों के विकास के प्रति भी लोगों की दृष्टि बदलेगी और गाँवों को नष्ट करने की प्रक्रिया पर विराम लग सकेगा।
प्रत्येक शहर के अनाज की न भी सम्भव हो तो भी उसके सब्जियों और फलों की खपत के लिए जीरो फूड माइल का सिद्धान्त प्रयोग किया जाना चाहिए। यानी कि एक-दो कि.मी. के दायरे में ही इनका उत्पादन क्षेत्र हो। इसके लिए किचन गार्डनिंग को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। पशुओं के संरक्षण में स्थानीय नस्लों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और सामुदायिक जिम्मेदारी सबसे अधिक जरूरी है। ऐसे और भी उपाय हो सकते हैं, जिन्हें आज हम अव्यावहारिक मान बैठे हैं परन्तु पारिस्थितिकीय असन्तुलन से जो खतरे पैदा हो रहे हैं, उसके मद्देनजर अब अपने नजरिये में बदलाव लाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
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Post By: birendrakrgupta