पर्यावरण में प्लास्टिक


पिछले कुछ समय में मानव जनित गतिविधियों के कारण समुद्री वातावरण में प्लास्टिक अपशिष्ट की अधिकता हो रही है जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिये खतरा बनता जा रहा है। 90 के दशक के दौरान प्लास्टिक अपशिष्ट यू.एस. के समुद्री पर्यावरण में 3 गुना बढ़ा हुआ पाया गया। वहीं जापान में वर्ष 1970-1980 में यह 10 और यू.के. में वर्ष 1990 में 14-15 गुना बढ़ा पाया गया। भारत की बात की जाये तो यहाँ 10 हजार टन प्लास्टिक प्रतिदिन कचरे में जाता है।प्लास्टिक और पॉलीथीन मानव निर्मित पॉलीमर पदार्थ हैं। यह पॉलीमर एक लम्बी शृंखलाबद्ध रूप में बिना किसी अनुप्रस्थ जुड़ाव के होते हैं। सामान्यतः यह पॉलीमर अधिक परमाणु भार वाले यौगिक होते हैं, जो पॉलीमराइजेशन द्वारा परमाणुओं के अधिक संख्या में जुड़ने से बनते हैं।

दैनिक जीवन शैली में प्लास्टिक पदार्थों का उपयोग व्यापक स्तर में निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इनमें पॉलीथीन मुख्यतः प्रयोग किये जाने वाला पदार्थ है, जिसे ग्रामीण व शहरी क्रिया-कलापों में प्रायः देखा जा सकता है। वर्ष 1993 में प्लास्टिक की माँग 107 मिलियन टन थी, जो कि वर्ष 2000 में बढ़कर 146 मिलियन टन हो गई। वर्ष 1960-2000 के मध्य प्लास्टिक उत्पादन में 25 गुना की वृद्धि हुई परन्तु वहीं इससे बनी सामग्री की प्रतिलाभिता सिर्फ 5 प्रतिशत ही थी।

पिछले कुछ समय में मानव जनित गतिविधियों के कारण समुद्री वातावरण में प्लास्टिक अपशिष्ट की अधिकता हो रही है जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिये खतरा बनता जा रहा है। 90 के दशक के दौरान प्लास्टिक अपशिष्ट यू.एस. के समुद्री पर्यावरण में 3 गुना बढ़ा हुआ पाया गया। वहीं जापान में वर्ष 1970-1980 में यह 10 और यू.के. में वर्ष 1990 में 14-15 गुना बढ़ा पाया गया।

भारत की बात की जाये तो यहाँ 10 हजार टन प्लास्टिक प्रतिदिन कचरे में जाता है। इसकी उचित निस्तारण व्यवस्था का अभाव तथा विघटन के प्रति लचीलापन, इसकी मात्रा को दिन-प्रतिदिन कूड़े के रूप में बढ़ता जा रहा है। यह घरों, नगरों, व्यावसायिक क्षेत्रों तथा फैक्टरियों से अपशिष्ट के रूप में आता है। शहरों से निकलने वाले कचरे का 30 प्रतिशत भाग फैक्टरियों तथा उद्योगों से आ रहा है। जिसमें प्लास्टिक मुख्य रूप से है। जिस कारण विश्व के कई देश प्लास्टिक उपयोग पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं।

कूड़े में उपस्थित प्लास्टिक पदार्थ लम्बे समय तक मृदा में रहकर उसकी उर्वरक क्षमता को घटाते हैं। यह मृदा और प्राकृतिक वातावरण में अवरोधक का कार्य करता है और मृदा को कमजोर बनाता है।

समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में प्लास्टिक के दुष्प्रभाव


पिछले दो दशकों में पूर्व दशकों की अपेक्षा कृत्रिम पॉलीमर के कचरे के रूप में जमा होने की दर में अधिकता आई है। जिस कारण कई समुद्री क्षेत्रों में प्लास्टिक अपशिष्ट की प्रतिशतता 60-80 तक हो गई है। समुद्री पक्षियों की 44 प्रतिशत प्रजातियाँ प्लास्टिक के कूड़े से प्रभावित हैं। वहीं दुनिया भर में समुद्री जीवों की 267 प्रजातियाँ प्लास्टिक अपशिष्ट से प्रभावित हो रही है।

उद्योगों में प्रयोग होने वाला थर्मोप्लास्टिक सूक्ष्म मलबे के रूप में समुद्र में आता है जिसका पता लगाना मुश्किल है। भोजन शृंखला में प्लास्टिक का संचय होना तथा इसकी विषाक्तता के कारण यह हाइड्रोफोबिक प्रदूषक के रूप में जाना जाता है, जो समुद्री जैवविविधता व पारिस्थितिकी के लिये खतरा है।

मृदा में प्लास्टिक दुष्परिणाम


जीवन की मूलभूत आवश्यकता को पूर्ण करने में मृदा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। जिसमें खाद्य पदार्थों की निरन्तर उपलब्धता बनाए रखना है जो कि मृदा की उर्वरक क्षमता पर निर्भर करता है। वर्तमान समय में भारत में करोड़ों एकड़ भूमि खेती के लिये उपयोग में लाई जा रही है। खेती हेतु भूमि में निरन्तर आती कमी तथा इसकी घटती उर्वरक क्षमता आने वाले दशकों में जनसंख्या के अनुपात में आपूर्ति हेतु समस्या बनती दिख रही है। काले रंग की प्लास्टिक की पॉलीथीन जो पौधों के स्थानान्तरण में उपयोग होती है, वह मृदा की नमी व तापमान को प्रभावित करती है।

प्लास्टिक व पॉलीथीन


प्लास्टिक और पॉलीथीन मानव निर्मित पॉलीमर पदार्थ हैं। यह पॉलीमर एक लम्बी शृंखलाबद्ध रूप में बिना किसी अनुप्रस्थ जुड़ाव के होते हैं। सामान्यतः यह पॉलीमर अधिक परमाणु भार वाले यौगिक होते हैं, जो पॉलीमराइजेशन द्वारा परमाणुओं के अधिक संख्या में जुड़ने से बनते हैं। विभिन्न प्रकार की विशिष्टता वाले मोनोमरस का प्रयोग पॉलीमर बनाने में किया जाता है।

मुख्यतः 5 पॉलीमर उत्पादों का प्रयोग व्यापक स्तर में होता है, जिनमें लो-डेंसिटी पॉलीइथाइलीन (एल.डी.पी.ई.), हाई-डेंसिटी पॉलीइथाइलीन (एच.डी.पी.ई.), पॉलीप्रोपाइलीन (पी.पी.), पॉलीयूरेथ्रिन (पी.यू.), पॉलीस्ट्राइरीन (पी.एस.) हैं। ये सभी अधिक ताप में गर्म करने पर लचीले और नर्म होकर विभिन्न आकारों में परिवर्तित किये जा सकते हैं।

पॉलीमर की इस विशेषता के कारण इसे घरेलू, औद्योगिक, कृषि, पैकेजिंग व परिवहन सम्बन्धित उपकरणों और उत्पादों में प्रयोग किया जा रहा है। इससे बने उत्पाद अल्प-उपयोग के पश्चात पर्यावरण में एकत्र हो जाते हैं। इसके निस्तारण के लिये परम्परागत विकल्पों से एक में इसे जमीन में दबा दिया जाता है या अधिक ताप में जला दिया जाता है परन्तु इस तरह अपशिष्ट का पूर्ण अपघटन न होकर विभिन्न पॉलीसाइकिल ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बन, टॉक्सिक, हैवी मेटल व गैसों का उत्सर्जन होता है। ये सभी पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

पॉलीमर का जैवअपघटन


सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्प्रेरित रासायनिक यौगिकों में आई कमी जैवअपघटन कहलाती है। प्लास्टिक और पॉलीथीन के अपघटन के लिये उचित सूक्ष्मजीवों के स्ट्रेन का होना अति आवश्यक है। सूक्ष्मजीवों द्वारा पॉलीथीन का अपघटन एक प्रभावी तथा पर्यावरण के अनुकूल समाधान है। पॉलीमर में स्व-ऑक्सीकारकों की उपस्थिति से परॉक्साइड बनते हैं। जो पॉलीमर के बन्धों में परिवर्तन करते हैं। जिससे सूक्ष्मजीव अपघटित पॉलीमर का उपभोग कर सकें।

वहीं स्ट्रेप्टोकोकस, स्टेफाइलोकोकस, माइक्रोकोकस व स्यूडोमोनास बैक्टीरिया की प्रजातियाँ मुख्यतः पॉलीमर अपघटन में प्रतिभाग करती हैं। वहीं कवकों में ऐस्पर्जिलस ग्लूकस तथा ऐस्पर्जिलस नाइजर की प्रजातियाँ भी पॉलीमर अपघटन करती हैं। इसी प्रकार कुछ सुक्ष्मजीव पॉलीकार्बोनेट की सतह पर विकसित होने में भी सक्षम हैं, जिनमें प्रोटियोबैक्टर व ऐन्ट्रोबैक्टर मुख्य हैं। पॉलीस्ट्राइरीन थर्मोस्टेबल प्लास्टिक के तौर पर प्रयुक्त होने वाला पॉलीमर है और अन्ततः कूड़े के रूप में पारिस्थितिक सम्बन्धित समस्याओं को उत्पन्न करता है। कुछ संशोधित पॉलीमर जैसे-स्टार्च आधारित पॉलीमर का उपघटन अधिक प्रभावी रूप में होता है।

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बीजिंग (चीन) ने वर्ष 2030 तक मानक स्तर को हासिल करने हेतु प्रदूषण कम करने के लिये व्यापक कदम उठाएँ हैं। इसी के तहत इस वर्ष 2500 प्रदूषण फैलाने वाली कम्पनियों को बन्द करने का निर्णय लिया गया है। वर्ष 2013 से वर्तमान तक बीजिंग 1000 से अधिक प्रदूषण फैलाने वाली कम्पनियों को बन्द कर चुका है।

अमेरिका में प्लास्टिक से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को देखते हुए एक शोधन संख्या (रीसाइक्लिंग नम्बर) प्रणाली लाई गई है, जो लोगों को सचेत करती है। वहीं, भारत की बात करें तो प्लास्टिक कचरे की समस्या से निपटने के लिये विभिन्न विश्वविद्यालयों व शोध संस्थानों में इसके जैवअपघटन तथा रासायनिक अपघटन पर कार्य चल रहा है। साथ ही भारत में प्लास्टिक का उपयोग सड़क बनाने में हो रहा है, जिसका प्रयास जमीनी स्तर पर कई शहरों (दिल्ली, देहरादून आदि) में हो रहा है।

वर्तमान में इसके प्रयासों की अत्यधिक आवश्यकता है, जिससे की हम प्लास्टिक की मात्रा को मानक स्तर तक ला सकें और इससे हो रहे दुष्प्रभावों को नियंत्रित कर सकें।

सम्पर्क सूत्रः


श्री विनय मोहन पाठक, श्री अजीत सिंह एवं डॉ. नवनीत

वनस्पति एवं सूक्ष्मजीव विज्ञान विभागगुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालयहरिद्वार 249404 (उत्तराखण्ड)

मो. : 09012515267;
ई-मेल : vinaymohanpathak@gmail.com

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