पर्यावरण को लगा पलीता

यह सही है कि हम सब लोग इस दुनिया में मिलकर काम कर रहे हैं, पर साथ ही साथ हम पर्यावरण के लिए खतरे भी पैदा कर रहे हैं। हमें खुद को आगे विकसित करते हुए इन खतरों को पैदा होने से रोकना है और समाज को एक मानव संवेदी परिवार बनाकर चलना है। यह जरूरी है कि हम समाज तथा आने वाली पीढि़यों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझें। यह जीवन प्रकृति की वजह से है। प्रकृति ही मनुष्य जाति के लिए जीने के साधन जुटाती रही है। आज वही प्रकृति और पर्यावरण खतरे में है।

मौलिक सिद्धान्तों में आपसी तालमेल हो, जिससे आनेवाले समाज को एक नैतिक आधार मिले। हम सभी को एक ऐसे सिद्धान्त पर केन्द्रित होना होगा, जो जीवन-स्तर में समानता लाए।वस्तुओं के अन्धाधुन्ध उपभोग और उत्पादन के हमारे वर्तमान तौर तरीकों से पर्यावरण नष्ट हो रहा है, जीव लुप्त होते जा रहे हैं। यदि हमने अभी यह निर्णय नहीं लिया तो पृथ्वी पर हम तो नष्ट होंगे ही, साथ ही अपने साथ अन्य जीवों, पशु-पक्षियों के नष्ट होने का खतरा भी बढ़ाते जाएँगे। इस खतरे को टालने के लिए हमें अपने रहन-सहन में बदलाव लाना होगा और अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना होगा। वन्य प्राणियों का शिकार, उन्हें जाल में फंसाना, जलीय जीवों को पकड़ना- ये सभी क्रूरतापूर्ण कार्य दूसरे जीवों को कष्ट देते हैं, इन्हें रोकना होगा। वैसे प्राणी जो लुप्त प्राणियों की श्रेणी में नहीं हैं, उन प्राणियों की भी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।

विकास का अर्थ हमें सम्पूर्ण मानव जाति की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से लेना होगा। आज हमारा विज्ञान इतनी तरक्की कर चुका है कि पृथ्वी को नष्ट करने वाली शक्तियों पर रोकथाम लगाने के साथ हम सभी की आवश्यकताओं को भी पूरा कर सकता है। अत: हमें अपनी योजनाओं को लोकोन्मुखी और लोकतान्त्रिक बनाना होगा। हम सभी की चुनौतियाँ आपस में एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, जैसे- पर्यावरणिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चुनौती। इसलिए हम सबको मिलकर इसका हल निकालना होगा।

इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए सार्वजनिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित करनी आवश्यक है। हमें स्थानीय समाज के साथ-साथ वैश्विक समाज के साथ भी अपने रिश्ते को पहचानना होगा। ब्रह्माण्ड के रहस्य और प्रकृति द्वारा दिए गए जीवन के प्रति सम्मान तथा मानवता और प्रकृति में मानव की गौरवपूर्ण उपस्थिति के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने पर आपसी भाईचारा और बन्धुत्व की भावना और मजबूत होती है। यह बहुत आवश्यक है कि मौलिक सिद्धान्तों में आपसी तालमेल हो, जिससे आनेवाले समाज को एक नैतिक आधार मिले। हम सभी को एक ऐसे सिद्धान्त पर केन्द्रित होना होगा, जो जीवन-स्तर में समानता लाए, साथ ही उससे व्यक्तिगत, व्यावसायिक, सरकारी एवं अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों को भी दिशा-निर्देश मिले और उनका आकलन हो सके।

पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवधारियों का जीवन एक दूसरे से जुड़ा है और हम एक दूसरे के बिना नहीं जी सकते। यहाँ रहने वाले छोटे-बड़े सभी जीव महत्वपूर्ण हैं। किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। निर्बल, उपेक्षित हर मनुष्य के स्वाभिमान की रक्षा करनी होगी। प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व प्रबन्धन तथा प्रयोग के अधिकारों का इस्तेमाल करने से पहले यह तय करना होगा कि पर्यावरण को कोई नुकसान न पहुँचे और जनजाति एवं आदिवासी समुदायों के लोगों के अधिकारों की रक्षा हो।

समाज में मानव अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। हर व्यक्ति को विकास का अवसर प्राप्त होना चाहिए। सामाजिक व आर्थिक न्याय को बढ़ावा मिले तथा हर किसी के पास स्थायी और सार्थक जीविका का ऐसा आधार हो, जो पर्यावरण को नुकसान न पहुँचाए। हमारा हर कार्य आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए। आने वाली पीढ़ी को उन मूल्यों, परम्पराओं और संस्थाओं के बारे में जानकारी देनी होगी, जिससे मानव और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके। उपभोग सामग्री में कमी लाना बहुत जरूरी है। चिरस्थाई विकास की उन सभी योजनाओं और नियमों को अपनाया जाना चाहिए, जो हमारे विकास में सहायक हैं तथा जिनसे पर्यावरण की रक्षा होती है।

पृथ्वी के सभी जीवों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। साथ ही वन्य व समुद्री जीवों की रक्षा भी आवश्यक है ताकि पृथ्वी की जीवनदायिनी शक्तियों की रक्षा हो सके। पशुओं की समाप्त हो चुकी प्रजातियों के अवशेषों की खोज को हमें बढ़ावा देना है। प्राकृतिक प्रजातियों तथा वातावरण को नुकसान पहुँचाने वाले कृत्रिम परिवर्तन तथा कृत्रिम प्रजातियों के विकास पर रोक लगनी चाहिए। जल, मिट्टी, वन्य सम्पदा, समुद्री प्राणी- ये सब ऐसे संसाधन हैं, जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाया जा सकता है, फिर भी इन्हें सोच-समझकर प्रयोग में लाया जाना चाहिए, जिससे न तो ये नष्ट हों और न ही पर्यावरण को कोई नुकसान पहुँचे।

पृथ्वी के सभी जीवों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। साथ ही वन्य व समुद्री जीवों की रक्षा भी आवश्यक है ताकि पृथ्वी की जीवनदायिनी शक्तियों की रक्षा हो सके। हमें खनिज पदार्थों तथा खनिज तेल का उत्पादन भी सोच-समझकर करना होगा। ये पदार्थ धरती के अन्दर सीमित मात्रा में हैं और इनका समाप्त होना भी मानव जाति के लिए खतरनाक है। यदि आपका कार्य पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है तो इसके लिए आपके पास ठोस सबूत होने चाहिए और यदि आप के द्वारा किए जा रहे कार्य ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया तो इसकी जिम्मेदारी आपकी होगी। हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हमारे द्वारा लिए गए निर्णयों का सम्बन्ध मनुष्य द्वारा किए गए कार्यों से हो। इन निर्णयों का प्रभाव लम्बे समय तक के लिए लाभकारी होना चाहिए।

पर्यावरण को दूषित करने वाले साधनों पर रोक लगनी चाहिए तथा विषैले पदार्थ, विकिरण और प्रकृति के लिए हानिकारक तत्वों व कार्यों के निर्माण पर भी पाबन्दी लगनी चाहिए। उत्पादन, उपभोग के दौरान काम आने वाले सभी घटकों का उपयोग हो सके और इस दौरान जो अवशेष निकले वह प्रकृति के लिए नुकसान पहुँचाने वाला सिद्ध न हो।

हमें सूर्य और वायु जैसे ऊर्जा के साधनों के महत्व को जानना होगा। ये ऐसे साधन हैं, जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है। हमें उन तकनीकों के विकास, प्रयोग और प्रचार को महत्व देना होगा, जो पर्यावरण की रक्षा में उपयोगी हो सकें। वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में उनके सामाजिक तथा पर्यावरणिक सुरक्षा से जुड़े खर्चों को भी शामिल करना होगा, जिससे उपभोक्ताओं को इस बात का अहसास हो सके कि इन वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता में पर्यावरणीय और सामाजिक कीमतें चुकानी पड़ती हैं। हमें ऐसी जीवन पद्धति को चुनना होगा, जो हमारे जीवन-स्तर को बेहतर बनाए और प्रकृति की भी रक्षा करे।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विज्ञान और तकनीक में सुचारू सम्बन्ध होना, प्रत्येक देश का विकास होना और उसकी आत्मनिर्भरता में बढ़ोत्तरी आवश्यक है। विकासशील देशों के लिए यह और भी आवश्यक है। इस बात की भी कोशिश करनी होगी कि स्वास्थ्य, पर्यावरण सुरक्षा और आनुवांशिकता से जुड़ी आवश्यक और लाभदायक जानकारी लोगों को मिलती रहे। सुनिश्चित करना होगा कि शुद्ध जल, शुद्ध वायु, भोजन, घर और सफाई जैसी सुविधाएँ सभी के लिए हों। विकासशील देशों में शिक्षा, तकनीक, सामाजिक और आर्थिक संसाधनों का निरन्तर विकास होना चाहिए तथा उन्हें भारी अन्तरराष्ट्रीय कर्जों से मुक्ति मिलनी चाहिए। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि सभी प्रकार के व्यापार में प्राकृतिक संसाधनों के पुन: इस्तेमाल के महत्व को समझा जाए। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों को सार्वजनिक हित के काम में आगे आना चाहिए। राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थ का समान रूप से विभाजन अपेक्षित है। उपेक्षित, प्रताड़ित और पीड़ित वर्ग की क्षमताओं को विकसित करना आवश्यक है।

महिलाओं को पुरुषों के बराबर आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने को प्रोत्साहित करना होगा। जाति, रंग, लिंग, धर्म, भाषा, राष्ट्र और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर उपजे भेदभाव को समाप्त करना होगा। हमें आदिवासियों के रहन-सहन, जीविका प्राप्त करने के तौर-तरीकों, भूमि सम्बन्धी अधिकारों और धार्मिक धारणाओं को स्वीकार करना होगा। समाज के युवा वर्ग की भावनाओं को सम्मान और प्रोत्साहन देना होगा, जिससे कि वे एक स्वस्थ और आत्मनिर्भर समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकें।

सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व के सभी स्थानों की सुरक्षा और रख-रखाव की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। सबको पर्यावरण सम्बन्धी व सभी प्रकार की विकास योजनाओं तथा प्रक्रियाओं की सम्पूर्ण जानकारी दी जानी चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संवाद बढ़ाना और उसके क्षेत्र का विस्तार करना भी जरूरी है क्योंकि अपेक्षित परिणाम को पाने और बुद्धि-विवेक के विकास के लिए यह जो साझा प्रयास होगा, उससे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। जीवन में महत्वपूर्ण मूल्यों के बीच विरोध प्रकट होते रहते हैं और फिर इनके बीच सामंजस्य मुश्किल हो जाता है, पर हमें प्राणी जगत की भलाई के लिए उदारता, सहनशीलता तथा दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा तभी कोई सही रास्ता निकल सकेगा।

लेखक का ई-मेल : shailendrachauhan@hotmail.com

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