पर्यावरण: कहीं देर न हो जाए

गंगा और यमुना की सफाई पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है फिर भी ये दोनों पवित्र नदियां धीरे- धीरे मर रही हैं। प्रदूषण और पर्यावरण को सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल कराने के लिए अब जन- आन्दोलन छेड़ा जाना चाहिए। आने वाली पीढ़ी के भविष्य के लिए यह मुद्दा बहुत जरूरी है। देरी किए जाने का परिणाम खतरनाक होगा।इस साल के ग्लोबल एन्वॉयरमेंट इंडेक्स के आंकड़े जारी होने के बाद भारत सरकार बचाव की मुद्रा में है। इंडेक्स के अनुसार प्रदूषण के मामले में हमारा देश 32 वें स्थान से गिरकर 155 वें स्थान पर आ गया है। नासा उपग्रह से जुटाए तथ्यों के आधार पर पता चला है कि देश की राजधानी दिल्ली आज दुनिया का सर्वाधिक प्रदूषित नगर है। बीजिंग (चीन), काहिरा (मिस्र), सेंटियागो (चिली) और मेक्सिको सिटी (मेक्सिको) को दिल्ली ने पीछे छोड़ दिया है। दिल्ली के आसमान में ज्यादातर समय छाई रहने वाली धुंध और जाड़े के मौसम का दमघोंटू काला धुंआ इसका प्रमाण है। इसी कारण आज दिल्ली का हर पांचवां नागरिक सांस की बीमारी की चपेट में है।

दिल्ली ही नहीं अब पूरा देश प्रदूषण की चपेट में आ चुका है। येले विश्वविद्यालय ने ग्लोबल एन्वॉयरमेंट इंडेक्स तैयार करते समय प्रत्येक देश के वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, जन-स्वास्थ्य की स्थिति, कृषि, मत्स्य, जंगल, ऊर्जा, जैविक विविधता, साफ-सफाई और मौसम में आए बदलावों का अध्ययन किया। इन्हीं मापदंडों के आधार पर सूची तैयार की गई। स्विट्जरलैंड, लक्जमबर्ग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और चेक गणराज्य को जहां सूची में सबसे साफ-सुथरा देश घोषित किया गया वहीं भारत को फिसड्डी देशों में शुमार किया गया। हमारे देश में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष प्रदूषण में 44 फीसदी इजाफा हो चुका है, जो एक खतरनाक संकेत है।

इसके बावजूद सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। वह ग्लोबल एन्वॉयरमेंट इंडेक्स के आंकड़ों को गलत बता रही है जबकि सच यह है कि हमारे देश में प्रदूषण मापने की व्यवस्था बहुत लचर है और इसके आंकड़े विश्वसनीय नहीं माने जाते। जनता भी इस जानलेवा खतरे के प्रति जागरूक नहीं है। इसीलिए राजनीतिक दलों के एजेंडे में प्रदूषण नियंत्रण को शामिल नहीं किया जाता। अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि प्रदूषण के कारण हमारे देश के लोगों के फेफड़े सबसे कमजोर हैं। फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों के कारण हमारे यहां मौत भी सबसे ज्यादा होती हैं।

प्रदूषण की मौजूदा खतरनाक स्थिति का एकमात्र कारण सरकार की गलत नीतियां हैं। पिछले तीन दशक में विकास के नाम पर उद्योगों को खुली छूट दी गई तथा पर्यावरण की चिंता करने वालों को विकास विरोधी करार दिया जाता है। वैश्विकरण की राह पकड़ने के बाद प्राकृतिक संसाधनों की जमकर लूट हुई है, जंगल बेदर्दी से काटे जा रहे हैं, नदियों के पवित्र जल में औद्योगिक कचरा बेरोक-टोक डाला जा रहा है, शुद्ध हवा को सांस लेने लायक भी नहीं छोड़ा है तथा भूमिगत जल में खतरनाक रसायन घोल दिए गए हैं। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में मुनाफे के लालच की सबसे बड़ी कीमत पर्यावरण को चुकानी पड़ी है। इसका परिणाम है कि आज हम दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित देशों में शामिल हैं।

सरकारी बदनीयती जानने के लिए दिल्ली की दुर्दशा के कारणों की गहराई से परख जरूरी है। वायु प्रदूषण की खतरनाक हालत को देखकर सन 1988 में उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली में डीजल से चलने वाली बसों और तिपहिया वाहनों में सीएनजी किट लगाने का आदेश दिया था। उसके बाद बस और थ्री विहलर तो गैस से चलने लगे लेकिन डीजल से चलने वाली निजी कारों की संख्या में वृद्धि हो गई। केंद्र और दिल्ली सरकार ने न तो निजी वाहनों की संख्या कम करने के लिए कोई कदम उठाया और न ही डीजल की कारों की बिक्री और खरीद पर अंकुश लगाने की नीति बनाई।

दुष्परिणाम सामने है। आज दिल्ली में देश के अन्य सभी महानगरों से ज्यादा निजी वाहन हैं। दिल्ली में 1970 में जहां केवल आठ लाख वाहन थे वहीं यह संख्या सन 2013 में बढ़कर 81 लाख पहुंच गई। सरकार की नीतिगत बेईमानी का एक और प्रमाण है। डीजल पर सरकार हर साल करोड़ों रुपये की सब्सिडी देती है। तर्क यह दिया जाता है कि डीजल का प्रयोग खेती और सार्वजनिक परिवहन में होता है, इसलिए सब्सिडी देना उचित है। एक लीटर डीजल की बिक्री पर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम आदि) को नौ रुपये का घाटा खाना पड़ता है। चौंकाने वाला सच यह है कि 40 प्रतिशत डीजल का इस्तेमाल महंगी निजी कारों, एसयूवी, उद्योगों, मोबाइल टावर, निर्माण उद्योग और जनरेटर सेटों में होता है।

हर साल देश में मर्सिडीज, ऑडी, निशान जैसी 30 हजार लग्जरी गाड़ियों की बिक्री होती है और ये गाड़ियां जमकर डीजल पीती हैं। यह बात सरकार की जानकारी में है। उसने प्रदूषण फैलाने और सब्सिडी का डीजल इस्तेमाल करने वाली महंगी निजी कारों के निर्माण और बिक्री पर नियंत्रण के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। कार निर्माण उद्योग के आगे सरकार ने पूरी तरह समर्पण कर रखा है इसीलिए दिल्ली की फिजा में बेशुमार जहर घुल चुका है। यह सब जानकार भी सरकार खामोश है।

पर्यावरण से खिलवाड़ कर रहे कॉरपोरेट जगत की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके इशारे पर मनमोहन सरकार के दो पर्यावरण मंत्रियों को हटाया जा चुका है। उद्योगों को पर्यावरण मंजूरी देने में देरी के आरोप के चलते जयंती नटराजन को हाल ही में मंत्री पद खोना पड़ा। इससे पहले जयराम रमेश को भी कुछ ऐसे ही आरोपों के कारण हटाया गया था। नटराजन की जगह आए वीरप्पा मोइली ने आनन-फानन में अरबों रुपये की परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। मंजूरी देते समय पर्यावरण से जुड़े मुद्दों की अनदेखी की गई है। वहीं उत्तराखंड में हाल ही में हुई विनाश लीला से भी सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा है।दुनिया में पर्यावरण-सुरक्षा आज एक प्रमुख मुद्दा है। प्रदूषण से प्रभावित महानगरों में कई देशों की सरकारें समय-समय पर चेतावनी जारी करती हैं। जनवरी माह में बीजिंग का वायु प्रदूषण बढ़ने पर सरकार ने वहां के चार हाइवे बंद कर दिए थे। चीन में प्रदूषण से बचाव के लिए एयर फिल्टरों की बिक्री भारत के मुकाबले सैकड़ों गुना ज्यादा है। मेक्सिको में प्रदूषण बढ़ने पर लोगों को मास्क पहनने और घर से बाहर न निकलने की चेतावनी दी जाती है। हमारे यहां अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। जनता को जागरूक बनाने के लिए न तो सरकार और न ही मीडिया ऐसी खबर को प्रमुखता देता है।

जन-चेतना के अभाव और भ्रष्टाचार के कारण पर्यावरण रक्षा के अधिकांश अभियान विफल हो जाते हैं। गंगा और यमुना की सफाई पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है फिर भी ये दोनों पवित्र नदियां धीरे- धीरे मर रही हैं। प्रदूषण और पर्यावरण को सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल कराने के लिए अब जन- आन्दोलन छेड़ा जाना चाहिए। आने वाली पीढ़ी के भविष्य के लिए यह मुद्दा बहुत जरूरी है। देरी किए जाने का परिणाम खतरनाक होगा।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। )

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