अजय कुमार मिश्र (एके मिश्र) भारतीय वन सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। वे राज्य के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक के पद पर कार्य कर चुके हैं। पिछले कुछ महीनों से वे झारखंड राज्य प्रदूषण बोर्ड के अध्यक्ष हैं। एके मिश्र उन अधिकारियों से अलग हैं, जो सिर्फ सरकारी फाइलें को निबटाते हैं और अपने मातहतों को निर्देश देने में अपनी ड्यूटी पूरी मान लेते हैं। वे अधिकारियों, पर्यावरण में रुचि रखने वालों व आम ग्रामीणों के सीधे संपर्क में रहते हैं और जमीन स्तर पर एक सामाजिक कार्यकर्ता की तरह वन संरक्षण व पर्यावरण संरक्षण के लिए काम भी करते हैं। उनकी यह खूबी उन्हें एक जनसरोकारी पर्यावरणविद की पहचान देती हैं। गांव के पर्यावरण को लेकर विशेष रूप से सचेत व चिंतित रहने के कारण उनसे यह जानना महत्वपूर्ण है कि पर्यावरण को बगैर नुकसान पहुंचाये कैसे गांव का आर्थिक विकास हो। पंचायतनामा के लिए उनसे राहुल सिंह ने विभिन्न मुद्दों पर बात की। प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
आप लंबे समय तक वन अधिकारी रहे हैं। इतने लंबे कैरियर में आपने गांव के लोगों को किस हद तक पर्यावरण को लेकर जागरूक पाया?
गांव के लोग पर्यावरण के प्रति शहर वालों से ज्यादा सचेत हैं। उनकी जीवनशैली ही पर्यावरण के अनुकूल होती है। शहर के ज्यादातर लोग पर्यावरण के प्रति गैर जिम्मेदार होते हैं। जहां पैदल जाया जा सकता है, वहां भी वे कार या मोटरसाइकिल से जाते हैं। इससे वातावरण में सल्फर डाइआॅक्साइड की मात्रा बढ़ती है। रांची शहर में ही जिस तरह वाहनों की संख्या साल-दर-साल लगातार बढ़ रही है, उससे यहां सल्फर डाइऑक्साइड की मात्रा लगातार बढ़ रही है। इस कारण यहां भी अगले दो-चार सालों में सीएनजी की जरूरत पड़ेगी। गांव के लोगों की पर्यावरण मित्र वाली दिनचर्या लाभदायक है। शहर वाले गांव के लोगों को यह कह कर परिहास करते हैं कि हम विकसित हैं और आप पिछड़े हैं। लेकिन क्या यह विकास पर्यावरण को बचा कर किया गया है या पर्यावरण का विनाश कर। पेड़-पौधों, खेती, गोपालन पर केंद्रित रोजगार के विकल्प गांव में हों। पहाड़ को तोड़ कर रोजगार पैदा करने की अवधारणा हमें नुकसान ही पहुंचायेगी। गांव की व्यवस्था को आगे बढ़ाने में रिसर्च करने की जरूरत है। टेक्नोलॉजी के उपयोग व पानी को बढ़ाने की जरूरत है।
पर्यावरण को लेकर ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में क्या चुनौतियां हैं?
पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार सृजन। पर्यावरण को बर्बाद कर रोजगार उत्पन्न करने का प्रचलन पश्चिमी सभ्यता से आया है। जो लोग रोजगार पाना चाहते हैं, वे यह देखें कि इसके बदलें पर्यावरण को बचा कर कैसे विकास किया जाये। विकसित किसको कहा जाये। पश्चिमी देशों व भारत के महानगरों दिल्ली आदि में एसी कार्यालयों में जो लोग बैठ कर काम करते हैं और बाहर निकलते हैं, तो ऑक्सीजन का मास्क लगा कर चलते हैं; ऐसे लोगों को विकसित कहना उचित नहीं है। यह ध्यान रखना होगा कि गांव-देहात में ही भविष्य है। गांव में आधारभूत संरचना व सड़क अच्छी होनी चाहिए। ताकि पलायन न हो व वहां के लोग वैसे रोजगार कर सकें जो पर्यावरण हितैषी हो। इस पर सोचने की जरूरत है। वर्तमान में रिसर्च फैक्टरी व औद्योगिक विकास पर हो रहा है, जबकि गांव के विकास पर रिसर्च होना चाहिए। जैसे- मेडिसिन प्लांट, खेतीबाड़ी, डेयरी विकास पर शोध हो, जिनसे पर्यावरण हितैषी रोजगार विकल्प तैयार होंगे। झारखंड का भविष्य पानी के संरक्षण में ही है।
गांव के लोग किस तरह पर्यावरण की सुरक्षा कर सकते हैं। उन्हें क्या पहल करनी चाहिए। क्या पंचायतें इसमें अपनी भूमिका निभा सकती हैं?
गांव के लोग समूह बनायें। सामूहिक प्रयास से स्वयं सहायता समूह बनायें। ग्रामसभा, टोलासभा में समूह बनायें। पर्यावरण मित्र मंडली बनायें और जब ये समूह बन जाये तो तालाब को गड्ढा करें। नदी-नाले को साफ करें। इससे पानी के संग्रह की क्षमता बढ़ेगी। वर्षा का पानी अधिक से अधिक संग्रहित हो सकेगा। लोग पेड़-पौधे भी लगायें। इससे खेतीबाड़ी अच्छी होगी। गांव के लोग जब परिस्थितिवश (रोजगार के लिए) शहर जाते हैं, तो वे वहां स्लम में रहते हैं। वहां उन्हें नरकीय जीवन जीना पड़ता है। गंदा पानी, गंदा खाना व प्रदूषित हवा मिलती है। यह उचित नहीं है। अत: उन्हें रोकने के लिए गांव में ही पहल हो।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण रोकने के लिए किस तरह काम करता है?
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कानून के तहत गठित एक संवैधानिक बॉडी है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड विभिन्न प्रकार की औद्योगिक इकाइयों को स्वीकृति देने के अलावा पर्यावरण को लेकर जागरूकता का काम करता है। बोर्ड पर्यावरण को बचा कर कैसे विकास हो इस दिशा में पहल कर रहा है। हम पर्यावरण शोध संस्थान स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। गांव-देहात में पर्यावरण के साथ कैसे विकास हो, रोजगार उपलब्ध हो, इस पर काम कर रहे हैं। बोर्ड ऐसी औद्योगिक इकाइयों को अनापत्ति प्रमाण पत्र देता है, जिसके कारण पानी व वायु प्रदूषण होता है। हमलोग निकट भविष्य में इस तरह के आवेदनों को ऑनलाइन निबटारे की व्यवस्था करने जा रहे हैं, ताकि पारदर्शिता भी आये और लोगों को कार्यालयों का बेवजह चक्कर नहीं लगाना पड़े।
जबकि दूसरे तरह के प्रदूषण वाली इकाइयों के लिए अनुमति केंद्र की एजेंसी देती है। इसकी राज्यों में भी इकाई स्थापित की गयी है। स्टेट इनवायरमेंट इंपेक्ट एसेसमेंट ऑथोरिटी नामक यह राज्य स्तरीय इकाई केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के नियंत्रण में कार्य करती है। इसकी स्थापना इनवायरमेंट इंपेक्ट एसेसमेंट एक्ट 2006 के तहत हुई है। रांची के अशोक नगर में इसका कार्यालय है।
पर्यावरण दिवस के मौके पर किस तरह के कार्यक्रम किये जाने वाले हैं?
इस बार हमलोग पर्यावरण को लेकर लोगों को जागरूक करने के लिए पर्यावरण माह मनायेंगे। इसके तहत विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम पांच जून से पांच जुलाई तक चलायेंगे। इस तरह के आयोजन का विषय है : सतत विकास के लिए पर्यावरण के प्रति जिम्मेवारी। मुख्य कार्यक्रम में सीएफआरआइ, देहरादून के निदेशक डॉ पीपी भोजवेद आ रहे हैं। इनकी पूरे देश में पहचान है। हम यह बताने की कोशिश करेंगे कि कैसे जंगल के बाहर निजी जमीन पर पेड़-पौधे, जड़ी-बूटी लगायें। झारखंड के लिए यह उपयोगी विषय होगा। महीने भर कार्यक्रम चलने के कारण बीच में मानसून आ जायेगा, ऐसे में पेड़-पौधे लगाने में सहूलियत होगी।
आप पूर्व वन अधिकार हैं और उस रूप में काम करने का लंबा अनुभव है। अपने अनुभवों के आधार पर बतायें कि वन विभाग पर्यावरण संरक्षित करने के लिए किस तरह काम करता है। इससे कैसे आम लोग लाभ उठा सकते हैं?
वन विभाग वन सीमा के अंदर ही ज्यादातर काम करता है। पेड़-पौधा लगाने, पानी बचाने जैसे काम वह करता है। जबकि उस सीमा के बाहर भी बहुत बड़ा क्षेत्र है। झारखंड जैसे राज्य में 20 प्रतिशत बंजर भूमि है। पर, खेद का विषय है कि वह जंगल के बाहर है। उसे कौन करेगा। उसमें पानी नहीं पहुंच सकता। पेड़ लगाया जा सकता है। पेड़ कौन लगायेगा। इस पर सोचने की जरूरत है। गांव के लोग समूह बना कर पेड़-पौधे लगायें। इससे वे सूखा से प्रभावित नहीं होंगे। ऊपरी हिस्से में पेड़ लगायें व निचले हिस्से में साग-सब्जी, कंद-मूल की खेती करें। उससे जो कमाई हो उसका एक हिस्सा समूह में जमा करें। वही पूंजी उसमें फिर लगायें।
भूमि का प्रदूषण व जल प्रदूषण किस तरह कृषि अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाती है। इसे रोकने के लिए किसान क्या करें?
भूमि प्रदूषण कैमिकल फर्टिलाइजर के प्रयोग के कारण होता है। खेतों में गया रासायनिक खाद जमीन में समा कर पानी में घुल जाता है। इस कारण पानी भी जहरीला हो जाता है। यह मनुष्य के साथ लंबी अवधि में खेती के लिए भी नुकसानदायक होता है। किसान तुरंत लाभ के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। अत: किसान जैविक खाद, केंचुआ खाद का इस्तेमाल करें। करंज के पत्ते व नीम की खल्ली का उपयोग खेती में करें।
बच्चे ही कल के नागरिक हैं। वे कैसे पर्यावरण को लेकर अधिक गंभीर व संवेदनशील हो सकते हैं। क्या उपाय किये जायें?
पर्यावरण के लिए जागरूक करने के लिए स्वयं सहायता समूहों का गठन होना चाहिए और उससे बच्चों का परिचय करवाया जाये। आपसी संवाद हो। उन्हें बताना होगा कि कैसे हवा-पानी जरूरी है। बच्चों को बताना होगा कि बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाये विकास हो सकता है। ताकि बच्चे पश्चिमी सभ्यता की तरफ नहीं दौड़ें। मैं देखता हूं कि बच्चे गरमी में भी टाइ लगा कर स्कूल जाते हैं, जबकि यह आवश्यक नहीं है। शिक्षक बच्चों को सही शिक्षा दें कि कैसे पर्यावरण बचा कर विकास हो सकता है।
आप लंबे समय तक वन अधिकारी रहे हैं। इतने लंबे कैरियर में आपने गांव के लोगों को किस हद तक पर्यावरण को लेकर जागरूक पाया?
गांव के लोग पर्यावरण के प्रति शहर वालों से ज्यादा सचेत हैं। उनकी जीवनशैली ही पर्यावरण के अनुकूल होती है। शहर के ज्यादातर लोग पर्यावरण के प्रति गैर जिम्मेदार होते हैं। जहां पैदल जाया जा सकता है, वहां भी वे कार या मोटरसाइकिल से जाते हैं। इससे वातावरण में सल्फर डाइआॅक्साइड की मात्रा बढ़ती है। रांची शहर में ही जिस तरह वाहनों की संख्या साल-दर-साल लगातार बढ़ रही है, उससे यहां सल्फर डाइऑक्साइड की मात्रा लगातार बढ़ रही है। इस कारण यहां भी अगले दो-चार सालों में सीएनजी की जरूरत पड़ेगी। गांव के लोगों की पर्यावरण मित्र वाली दिनचर्या लाभदायक है। शहर वाले गांव के लोगों को यह कह कर परिहास करते हैं कि हम विकसित हैं और आप पिछड़े हैं। लेकिन क्या यह विकास पर्यावरण को बचा कर किया गया है या पर्यावरण का विनाश कर। पेड़-पौधों, खेती, गोपालन पर केंद्रित रोजगार के विकल्प गांव में हों। पहाड़ को तोड़ कर रोजगार पैदा करने की अवधारणा हमें नुकसान ही पहुंचायेगी। गांव की व्यवस्था को आगे बढ़ाने में रिसर्च करने की जरूरत है। टेक्नोलॉजी के उपयोग व पानी को बढ़ाने की जरूरत है।
पर्यावरण को लेकर ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में क्या चुनौतियां हैं?
पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार सृजन। पर्यावरण को बर्बाद कर रोजगार उत्पन्न करने का प्रचलन पश्चिमी सभ्यता से आया है। जो लोग रोजगार पाना चाहते हैं, वे यह देखें कि इसके बदलें पर्यावरण को बचा कर कैसे विकास किया जाये। विकसित किसको कहा जाये। पश्चिमी देशों व भारत के महानगरों दिल्ली आदि में एसी कार्यालयों में जो लोग बैठ कर काम करते हैं और बाहर निकलते हैं, तो ऑक्सीजन का मास्क लगा कर चलते हैं; ऐसे लोगों को विकसित कहना उचित नहीं है। यह ध्यान रखना होगा कि गांव-देहात में ही भविष्य है। गांव में आधारभूत संरचना व सड़क अच्छी होनी चाहिए। ताकि पलायन न हो व वहां के लोग वैसे रोजगार कर सकें जो पर्यावरण हितैषी हो। इस पर सोचने की जरूरत है। वर्तमान में रिसर्च फैक्टरी व औद्योगिक विकास पर हो रहा है, जबकि गांव के विकास पर रिसर्च होना चाहिए। जैसे- मेडिसिन प्लांट, खेतीबाड़ी, डेयरी विकास पर शोध हो, जिनसे पर्यावरण हितैषी रोजगार विकल्प तैयार होंगे। झारखंड का भविष्य पानी के संरक्षण में ही है।
गांव के लोग किस तरह पर्यावरण की सुरक्षा कर सकते हैं। उन्हें क्या पहल करनी चाहिए। क्या पंचायतें इसमें अपनी भूमिका निभा सकती हैं?
गांव के लोग समूह बनायें। सामूहिक प्रयास से स्वयं सहायता समूह बनायें। ग्रामसभा, टोलासभा में समूह बनायें। पर्यावरण मित्र मंडली बनायें और जब ये समूह बन जाये तो तालाब को गड्ढा करें। नदी-नाले को साफ करें। इससे पानी के संग्रह की क्षमता बढ़ेगी। वर्षा का पानी अधिक से अधिक संग्रहित हो सकेगा। लोग पेड़-पौधे भी लगायें। इससे खेतीबाड़ी अच्छी होगी। गांव के लोग जब परिस्थितिवश (रोजगार के लिए) शहर जाते हैं, तो वे वहां स्लम में रहते हैं। वहां उन्हें नरकीय जीवन जीना पड़ता है। गंदा पानी, गंदा खाना व प्रदूषित हवा मिलती है। यह उचित नहीं है। अत: उन्हें रोकने के लिए गांव में ही पहल हो।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण रोकने के लिए किस तरह काम करता है?
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कानून के तहत गठित एक संवैधानिक बॉडी है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड विभिन्न प्रकार की औद्योगिक इकाइयों को स्वीकृति देने के अलावा पर्यावरण को लेकर जागरूकता का काम करता है। बोर्ड पर्यावरण को बचा कर कैसे विकास हो इस दिशा में पहल कर रहा है। हम पर्यावरण शोध संस्थान स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। गांव-देहात में पर्यावरण के साथ कैसे विकास हो, रोजगार उपलब्ध हो, इस पर काम कर रहे हैं। बोर्ड ऐसी औद्योगिक इकाइयों को अनापत्ति प्रमाण पत्र देता है, जिसके कारण पानी व वायु प्रदूषण होता है। हमलोग निकट भविष्य में इस तरह के आवेदनों को ऑनलाइन निबटारे की व्यवस्था करने जा रहे हैं, ताकि पारदर्शिता भी आये और लोगों को कार्यालयों का बेवजह चक्कर नहीं लगाना पड़े।
जबकि दूसरे तरह के प्रदूषण वाली इकाइयों के लिए अनुमति केंद्र की एजेंसी देती है। इसकी राज्यों में भी इकाई स्थापित की गयी है। स्टेट इनवायरमेंट इंपेक्ट एसेसमेंट ऑथोरिटी नामक यह राज्य स्तरीय इकाई केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के नियंत्रण में कार्य करती है। इसकी स्थापना इनवायरमेंट इंपेक्ट एसेसमेंट एक्ट 2006 के तहत हुई है। रांची के अशोक नगर में इसका कार्यालय है।
पर्यावरण दिवस के मौके पर किस तरह के कार्यक्रम किये जाने वाले हैं?
इस बार हमलोग पर्यावरण को लेकर लोगों को जागरूक करने के लिए पर्यावरण माह मनायेंगे। इसके तहत विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम पांच जून से पांच जुलाई तक चलायेंगे। इस तरह के आयोजन का विषय है : सतत विकास के लिए पर्यावरण के प्रति जिम्मेवारी। मुख्य कार्यक्रम में सीएफआरआइ, देहरादून के निदेशक डॉ पीपी भोजवेद आ रहे हैं। इनकी पूरे देश में पहचान है। हम यह बताने की कोशिश करेंगे कि कैसे जंगल के बाहर निजी जमीन पर पेड़-पौधे, जड़ी-बूटी लगायें। झारखंड के लिए यह उपयोगी विषय होगा। महीने भर कार्यक्रम चलने के कारण बीच में मानसून आ जायेगा, ऐसे में पेड़-पौधे लगाने में सहूलियत होगी।
आप पूर्व वन अधिकार हैं और उस रूप में काम करने का लंबा अनुभव है। अपने अनुभवों के आधार पर बतायें कि वन विभाग पर्यावरण संरक्षित करने के लिए किस तरह काम करता है। इससे कैसे आम लोग लाभ उठा सकते हैं?
वन विभाग वन सीमा के अंदर ही ज्यादातर काम करता है। पेड़-पौधा लगाने, पानी बचाने जैसे काम वह करता है। जबकि उस सीमा के बाहर भी बहुत बड़ा क्षेत्र है। झारखंड जैसे राज्य में 20 प्रतिशत बंजर भूमि है। पर, खेद का विषय है कि वह जंगल के बाहर है। उसे कौन करेगा। उसमें पानी नहीं पहुंच सकता। पेड़ लगाया जा सकता है। पेड़ कौन लगायेगा। इस पर सोचने की जरूरत है। गांव के लोग समूह बना कर पेड़-पौधे लगायें। इससे वे सूखा से प्रभावित नहीं होंगे। ऊपरी हिस्से में पेड़ लगायें व निचले हिस्से में साग-सब्जी, कंद-मूल की खेती करें। उससे जो कमाई हो उसका एक हिस्सा समूह में जमा करें। वही पूंजी उसमें फिर लगायें।
भूमि का प्रदूषण व जल प्रदूषण किस तरह कृषि अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाती है। इसे रोकने के लिए किसान क्या करें?
भूमि प्रदूषण कैमिकल फर्टिलाइजर के प्रयोग के कारण होता है। खेतों में गया रासायनिक खाद जमीन में समा कर पानी में घुल जाता है। इस कारण पानी भी जहरीला हो जाता है। यह मनुष्य के साथ लंबी अवधि में खेती के लिए भी नुकसानदायक होता है। किसान तुरंत लाभ के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। अत: किसान जैविक खाद, केंचुआ खाद का इस्तेमाल करें। करंज के पत्ते व नीम की खल्ली का उपयोग खेती में करें।
बच्चे ही कल के नागरिक हैं। वे कैसे पर्यावरण को लेकर अधिक गंभीर व संवेदनशील हो सकते हैं। क्या उपाय किये जायें?
पर्यावरण के लिए जागरूक करने के लिए स्वयं सहायता समूहों का गठन होना चाहिए और उससे बच्चों का परिचय करवाया जाये। आपसी संवाद हो। उन्हें बताना होगा कि कैसे हवा-पानी जरूरी है। बच्चों को बताना होगा कि बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाये विकास हो सकता है। ताकि बच्चे पश्चिमी सभ्यता की तरफ नहीं दौड़ें। मैं देखता हूं कि बच्चे गरमी में भी टाइ लगा कर स्कूल जाते हैं, जबकि यह आवश्यक नहीं है। शिक्षक बच्चों को सही शिक्षा दें कि कैसे पर्यावरण बचा कर विकास हो सकता है।
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