न्यायपालिका का हस्तक्षेप इसलिये भी जरूरी हो जाता है कि सरकार और उसके विभाग अपने काम को सही से अंजाम नहीं दे रहे हैं। और न ही उद्योग और खनन गतिविधियों को मंजूरी देने की गरज से उनके पास कोई कारगर नीति ही है। इस स्थिति में पर्यावरणीय मंजूरी देना काफी सतर्कता का काम बन जाता है और न्यायपालिका का महती दायित्व दिखलाई पड़ने लगता है। पर्यावरण सम्बन्धी कानून भारत में करीब-करीब पूरी तरह से न्यायिक अधिकारी की व्याख्या पर निर्भर है। दो महत्त्वपूर्ण वैधानिक परिणाम तो इससे मिलते ही हैं। सरसरी नजर डालने पर यह विधायी क़ानूनों में हस्तक्षेप करता प्रतीत होता है।
लोकतंत्र में शासन के तीन स्तम्भों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका-की पृथक भूमिका को यह अनदेखा करता दिखता है। लेकिन पर्यावरण संरक्षण के मद्देनज़र तत्काल कुछ ठोस नहीं किया गया और कुछ समाधान नहीं किया जाता तो यह तरीका पर्यावरण के लिये अनर्थकारी साबित हो सकता है।
लोगों की आजीविका, स्वास्थ्य और प्रजातियों के नुकसान के रूप हमें ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन, समुद्र के बढ़ते स्तर और अन्य अनेक नकारात्मक नतीजों के बारे में अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता। इन हालात में जब संसद भी विपक्ष द्वारा जब-तब बाधा का सामना करती रही है, न्यायपालिका ने आगे बढ़कर अपनी भूमिका का निवर्हन किया है और न्यायपालिका ने सत्तर के दशक के बाद से ही संजीदगी दिखानी शुरू कर दी थी।
अपने पर्यावरण, मानव और पशुओं के अस्तित्व की दृष्टि से नाजुक पारिस्थितिकी को बचाए रखने के लिये नब्बे के दशक के बाद से तो न्यायपालिका ने पूरी सक्रियता दिखाई है।
न्यायिक हस्तक्षेप के बेहतर परिणाम
भारत में नीतिगत फैसलों को लेकर कार्यकारी की भूमिका निभाने की गरज से न्यायिक हस्तक्षेप ने लोगों और पर्यावरण के हितों को सुरक्षित रखने में महती कार्य किया है। खासकर उस स्थिति में जब तेजी से बढ़ती जनसंख्या का हम सामना कर रहे हैं और नाजुक पारिस्थितिकी बेहद दबाव में है।
न्यायपालिका का हस्तक्षेप इसलिये भी जरूरी हो जाता है कि सरकार और उसके विभाग अपने काम को सही से अंजाम नहीं दे रहे हैं। और न ही उद्योग तथा खनन गतिविधियों को मंजूरी देने की गरज से उनके पास कोई कारगर नीति ही है।
इस स्थिति में पर्यावरणीय मंजूरी देना काफी सतर्कता का काम बन जाता है, और न्यायपालिका का महती दायित्व दिखलाई पड़ने लगता है।
ये न्यायिक कानून शीर्ष अदालत-सुप्रीम कोर्ट- के साथ ही देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा सार्वजनिक हित याचिकों के माध्यम से लागू किये जाते रहे हैं। सार्वजनिक हित याचिकाओं की शुरुआत 1979 में हुस्नआरा बनाम बिहार राज्य मामले से हुई थी।
इस मामले का निबटारा होने पर बिहार में चालीस हजार अंडर ट्रायल कैदियों को रिहा किया गया था। इस मामले ने विभिन्न मुद्दों पर सार्वजनिक हित याचिकाएँ दायर करने का प्रचलन शुरू कर दिया था। इनमें पर्यावरण सम्बन्धी याचिकाएँ भी शामिल थीं।
इस क्रम में एमसी मेहता द्वारा दायर याचिकाओं की पूरी शृंखला ही हम देखते हैं। उन्होंने अपनी तमाम याचिकाएँ पर्यावरण के मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट में दायर की हैं। इनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध याचिका 1998 में दायर की गई थी।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में डीजल से परिचालित सभी बसों को कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (सीएनजी) से परिचालित करने का आदेश दिया था ताकि प्रदूषण पर अंकुश लगाया जा सके। इस फैसले से हुआ लाभ हम देख ही सकते हैं।
वनमैन आर्मी की मानिंद सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने अपने तई अकेले दम देश में खनन माफिया का सामना किया। उन्हें दी गई मंजूरियों पर सवाल उठाए। भ्रष्ट प्रशासनिक कार्यकलाप पर नाराजगी जताई। और मानवीय जीवन पर आन पड़े संकट पर चिन्ता व्यक्त की।
शीर्ष अदालत ने पोल्यूटर पेज प्रिंसिपल, प्रिकोश्यनरी प्रिंसिपल और पब्लिक ट्रस्ट डॉक्टरिन सरीखे कुछ अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जाने गए सिद्धान्तों की अपने फैसलों में मदद ली। पोल्यूटर पेज प्रिंसिपल भारत की वैधानिक शब्दावली में उस समय आ जुड़ा जब इंडियन काउंसिल फॉर एन्वायरो-लीगल एक्शन बनाम भारत सरकार मामले की सुनवाई हो रही थी।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हमारा मानना है कि इस बारे में कोई भी सिद्धान्त सरल, व्यवहार्य और देश की स्थितियों के मुफीद होना चाहिए। अगर कोई गतिविधि खतरनाक है, या अपनी प्रकृति से ही खतरनाक किस्म की है, तो उसे चलाने वाला ही उससे किसी अन्य को होने वाले नुकसान की भरपाई करने का जिम्मेदार होगा। भले ही उसने पूरी एहतियात से इस गतिविधि को अंजाम दिया हो।’
शीर्ष अदालत ने वेल्लोर सिटीजन्स वेल्फेयर फोरम बनाम भारत सरकार मामले में किसी भी व्यावसायिक गतिविधि से पूर्व इसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करने को अनिवार्य करने की व्यवस्था दी थी।
शीर्ष अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसला यह भी दिया कि यह साबित करने की जिम्मेदारी उद्योगपति की है कि उसकी गतिविधि पर्यावरणीय लिहाज से ठोस है। इस करके अब पीड़ित को यह साबित नहीं करना होगा कि कोई व्यावसायिक/औद्योगिक गतिविधि उसके पर्यावरण को प्रभावित कर रही है।
पब्लिक ट्रस्ट डॉक्टरिन एमसी मेहता बनाम कमलनाथ मामले में लागू किया गया। कमलनाथ केन्द्र में मंत्री थे। उन्हें ब्यास नदी के किनारे एक मोटल आवंटित हुआ था।
मोटल से नदी का स्वाभाविक प्रवाह प्रभावित हो रहा था। शीर्ष अदालत ने इस आवंटन को निरस्त कर दिया। साथ ही, मोटल की स्वामी कम्पनी को आदेश दिया कि उस क्षेत्र के पर्यावरण पर पड़े प्रभाव की क्षतिपूर्ति भी करे।
हाल में एक सार्वजनिक हित याचिका का निबटारा करते हुए शीर्ष अदालत ने व्यवस्था दी कि टाइगर संरक्षण आर्थिक विकास की कीमत पर नहीं किया जा सकता।
यह सरकार के संरक्षण प्रयासों को बड़ा झटका है। अब गैर सरकारी संगठन और अन्य मानवाधिकारवादी संगठन सोचना शुरू कर सकते हैं कि उन्हें इस प्रकार के नीतिगत मुद्दों के लिये कार्यकारी अधिकार प्राप्त कर लेने चाहिए। अदालतें, इनमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है, विधायिका या कार्यपालिका का स्थानापन्न नहीं हो सकतीं।
कुछ मामलों में ऐसा होना भले ही अच्छा लगता हो लेकिन इसका लोकतांत्रिक आवाज़ पर गम्भीर असर पड़ सकता है। कानूनी तौर पर देखें तो सरकार के नीतिगत फैसलों से जुड़े तमाम विधायी और कार्यकारी दायित्वों को अदालत अंजाम दे रही है।
जब तक इससे जनता का भला होता है, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा, लेकिन यह तरीका किसी भी स्थिति में जीवन्त लोकतांत्रिक कार्यकलाप का विकल्प नहीं हो सकता।
लेखक, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली में प्राध्यापक हैं।
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