पर्यावरण के अनुकूल खेती की जरूरत

जिस गति से हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है, लगभग उसी गति से कृषि पर पैदावार बढ़ाने का दबाव भी बढ़ता जा रहा है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि उपज बढ़ाने की चाह में देश के किसान ज्यादा से ज्यादा रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगे हैं। कीटनाशकों और अन्य रासायनिक पदार्थों का उपयोग मानव स्वास्थ्य के लिए कितना घातक सिद्ध को सकता है, इसका प्रमाण इसी बात से मिल जाता है कि पिछले दिनों पंजाब की एक गैर सरकारी संस्था क्वखेती विरासतं ने बठिंडा जिले के तीन गांवों, रामनवास, मंडी खुर्द और हरिकृष्णपुरा में एक सर्वेक्षण कराया, जिससे यह तथ्य उभरकर सामने आया कि इन गांवों में कैंसर से पीड़ित लोगों की संख्या अपेक्षाकृत काफी अधिक है। सर्वेक्षण के मुताबिक, कपास के ऊपर कीटनाशकों के छिड़काव के कारण इन गांवों में कैंसर पीड़ितों की संख्या में वृद्धि हुई है।

रामनवास गांव में लगभग दो हजार लोग निवास करते हैं। आंकड़ों से पता चला है कि इस गांव में पच्चीस लोगों की मौत कैंसर से हो चुकी है। इसके अलावा लगभग पंद्रह लोग एक अन्य तरह के कैंसर से ग्रसित हैं, जबकि पचास लोगों को मधुमेह ने जकड़ लिया है। दूसरी ओर, मंडी खुर्द और हरिकृष्णपुरा में पिछले आठ वर्षों में क्रमशः छह और आठ लोगों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा दोनों गांवों में मधुमेह के आठ और दस रोगी हैं। ये वे लोग हैं, जो सीधे-सीधे पर्यावरण के दुष्प्रभाव में है। लेकिन इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि पर्यावरण के इस दुष्प्रभाव ने आने वाली पीढ़ियों को भी नहीं ब2शा है। सिर्फ हरिकृष्णपुरा में पिछले एक दशक में दर्जन भर मंदबुद्धि बच्चों का जन्म हो चुका है।

इसके पहले खेती विरासत ने बठिंडा के ही तीन अन्य गांवों, मनही नागल, जज्जल और बांगी निहाल सिंह के एक सौ पचास बच्चों की मानसिक क्षमता की जांच की। साथ ही, रोपड़ जिले के चार गांवों के बच्चों की भी जांच की, जहां कीटनाशकों का इस्तेमाल तुलनात्मक रूप से कम किया जाता है। जांच के बाद यह तथ्य सामने आया कि रोपड़ के बच्चे बठिंडा के बच्चों की तुलना में दिमागी रूप से अधिक तेज हैं। यह केवल पंजाब की नहीं, पूरे देश की वास्तविकता है। रासायनिक खादों के दुष्प्रभावों ने हमें पर्यावरण के अनुकूल खेती की आवश्यकता पर गंभीरता से सोचने कि लिए विवश किया है। सच है कि सौ करोड़ से भी अधिक आबादी का पेट भरने के लिए पैदावार बढ़ाना जरूरी है, लेकिन ऐसा हम पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए भी कर सकते हैं। इसके लिए हमें सबसे पहले उस कृषि योग्य भूमि के उपयोग के बारे में सोचना होगा, जिस पर किन्हीं कारणवश फसल नहीं उगाई जा रही है। ऐसी लाखों हेक्टेयर भूमि देश में पड़ी हुई है। साथ ही, पूरे देश की भूख मिटाने के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर अधिकाधिक निर्भरता को भी कम करना होगा। इसके अलावा देश के दूसरे प्रांतों और उर्वर इलाकों पर ध्यान देना होगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु की भूमि भी काफी उपजाऊ है। अगर इन क्षेत्रों पर भी ध्यान दिया जाए, तो आसानी से अधिक उपज का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

प्रकृति के साथ हम कितनी क्रूरता से पेश आ रहे हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि धान के स्वाभाविक उत्पादक राज्य पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार और तमिलनाडु हैं, लेकिन प्रति हेक्टेयर चावल का अधिक उत्पादन पंजाब में होता है। सवाल यह उठता है कि ऐसे हालात में भी पंजाब और हरियाणा के किसान धान की खेती क्यों कर रहे हैं। नौवीं पंचवर्षीय योजना में सवाल उठा था कि देश में इतनी मौसम विविधता के बावजूद अस्वाभाविक खेती की क्या आवश्यकता है। चिंता का कारण यह है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों ने धान की अस्वाभाविक खेती के कारण भूमिगत जल का लगभग पंचानबे प्रतिशत इस्तेमाल कर लिया है। साथ ही उर्वरकों के प्रयोग के कारण शेष भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है। इससे मानव शरीर में विषैले तत्वों की मात्रा बढ़ रही है।

पहले राख और गोबर को खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन विकास के चरण में हम रासायनिक खेती के चक्रव्यूह में फंसते चले गए, जो आज अपने चरम पर पहुंच चुका है। अब जैव उर्वरकों का भी प्रयोग होने लगा है। जरूरी है कि किसानों को रासायनिक उर्वरकों से होने वाली हानि और जैव उर्वरकों के फायदे को विस्तार से बताया जाए। जैव उर्वरकों के इस्तेमाल से पर्यावरण की रक्षा होगी और विदेशी मुद्रा की भी बचत होगी, क्योंकि हमें भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरक विदेशों से आयात करना पड़ता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि जैविक पद्धति से खेती करके ही हम टिकाऊ कृषि की बात कर सकते हैं और पर्यावरण की स्वच्छता की रक्षा कर सकते हैं। हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि कृषि और पर्यावरण हमारे पास आने वाली पीढ़ियों की अमानत हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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