पर्यावरण कानून: कुछ मुद्दे

हमारे देश में पर्यावरण सम्बन्धी कानूनों की कमी नहीं है। उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार सतत विकास किसी भी सरकार का कानूनी दायित्व है। लेखक का कहना है कि पर्यावरण मामलों की बढ़ती संख्या और उनके शीघ्र निपटान के लिए पर्याप्त मशीनरी उपलब्ध न होने के मुद्दों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना जरूरी है।

दिल्ली में वाहन प्रदूषण से सम्बद्ध मामला 1986 से चल रहा है लेकिन अभी तक इसमें कोई निर्णय नहीं दिया गया है। दूसरी तरफ सुप्रीमकोर्ट तक यह सूचना पहुँचने का कोई जरिया नहीं है कि जिन उद्योगों को उसने स्थानांतरण का आदेश दिया था उन्होंने आदेश का पालन किया है अथवा नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने संकेत दिया था कि केन्द्र सरकार केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के तहत एक ‘प्रदूषण स्क्वाड’ स्थापित करेगा। इस पर अभी पूरी तरह अमल नहीं हुआ है।भारत के संविधान में ‘पर्यावरण संरक्षण’ का स्पष्ट जिक्र वर्ष 1977 में किया गया। यानी हमारा संविधान लागू होने के 28 साल बाद संसद ने वर्ष 1977 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा केन्द्र तथा राज्य सरकारों के लिए पर्यावरण को संरक्षण तथा बाढ़ावा देना आवश्यक कर दिया। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में अनुच्छेद 48ए जोड़ा गया। इस अनुच्छेद के अनुसार ‘‘राज्य पर्यावरण के संरक्षण एवं सुधार और देश के वनों तथा वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए प्रयास करेगा।’’ इसी संशोधन के दौरान संविधान में अनुच्छेद 51ए(जी) भी जोड़ा गया जिसके तहत प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह ‘‘प्राकृतिक वातावरण जिसमें वन, झील, नदियाँ तथा वन्यजीव शामिल हैं, के संरक्षण तथा सुधार के लिए कार्य करे तथा जीवित प्राणियों के प्रति दया भाव रखे।’’ वर्ष 1980 में उच्चतम न्यायालय में पर्यावरण सम्बन्धी पहला मामला रतलाम नगरपालिका बनाम विरधीचंद का दर्ज हुआ। तत्पश्चात आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ भी बढ़ती गई। और अदालत में नदी जल प्रदूषण, भूजल प्रदूषण तथा वायु प्रदूषण और वनों के विनाश से सम्बन्धित याचिकाओं की बाढ़ ही आ गई। अब जबकि उच्चतम न्यायालय ने संविधान के तहत कई कानूनी मापदंड निर्धारित कर दिए हैं तथा इन आदेशों को मानने के लिए हम बाध्य भी हैं, इन्हें लागू करना एक समस्या बन गया है। उच्चतम न्यायालय में रतलाम नगरपालिका के खिलाफ दायर मामले में यही तथ्य सामने आया कि भारत में नगरपालिकाओं के सहयोग से शहर तो बसाए जा रहे हैं लेकिन ये नगरपालिकाएँ अपने क्षेत्रों में मूलभूत जन-सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं अथवा वे ऐसा करने के लिए विशेष प्रयास नहीं कर रही हैं। रतलाम नगरपालिका वासियों ने खुली नालियों से निकलती दुर्गन्ध, अल्कोहल प्लांट से बहते खुले अपशिष्ट तथा झुग्गी-झोंपड़ीवासियों द्वारा सार्वजनिक स्थानों में की गई गंदगी से परेशान होकर नगरपालिका से कहा कि वह नगरपालिका कानून के तहत अपनी जिम्मेदारी निभाए और इन सब पर रोक लगाए। जब नगरपािलका में उनकी सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने कानून के उल्लंघन के आरोप में आपराधिक दण्ड संहिता के तहत स्थानीय मजिस्ट्रेट के समक्ष अपनी शिकायत रखी। मजिस्ट्रेट ने नगरपालिका को आदेश दिया कि वह छह महीने के अंदर इस समस्या के समाधान के लिए योजना का प्रारूप तैयार करे। सेशन कोर्ट ने जिला मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द कर दिया और उच्च न्यायालय ने सेशनकोर्ट के आदेश को। उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ नगरपालिका ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।

सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले पर फैसला सुनाते हुए तीन सिद्धान्त तय किए जिन्हें भारत की सभी नगरपालिकाएँ मानने के लिए बाध्य हैं। पहला, देश की कोई भी नगरपालिका अपने क्षेत्र के निवासियों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा का अपना प्राथमिक कर्तव्य पूरा नहीं करने के लिए आर्थिक संकट का कारण सामने नहीं रख सकती। दूसरा, जन-सुविधाएँ उपलब्ध न कराना तथा औद्योगिक प्रदूषण जो आम नागरिक के स्वास्थ्य के लिए अहितकर है, पर रोक नहीं लगाना शालीनता तथा सम्मान से रहने के मानवाधिकार का उल्लंघन है तथा ऐसे प्राथमिक आरोपों से नगरपालिका को किसी भी शर्त पर बरी नहीं किया जा सकता। तीसरा, जो अधिकारी समस्याओं का समाधान करने के अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे उन्हें भारतीय दंड संहिता के तहत जेल अथवा जुर्माने की सजा दी जाएगी। निष्कर्ष के तौर पर कोर्ट ने यह घोषित किया कि ‘‘सम्बद्ध अधिकारी को ही नहीं बल्कि निर्वाचित प्रतिनिधि को भी कानून के तहत सजा का सामना करना पड़ सकता है यदि वे गलत तरीके से संविधान तथा सम्बद्ध विधेयक का पालन करने से इंकार करते हैं या उसका पालन नहीं करते। और उल्लंघन का भुगतान व्यक्ति तथा कारपोरेट दोनों को सजा के रूप में करना पड़ेगा।’’ इस फैसले से संविधान में 1977 में किए गए उस संशोधन का कोई जिक्र नहीं किया गया जिसके तहत संविधान में धारा 48ए तथा 51ए(जी) शामिल की गई थीं। ऐसा वर्ष 1995 में हुआ जब सुप्रीमकोर्ट ने वीरेन्द्र गोड़ बनाम हरियाणा राज्य के मामले में यह घोषणा की कि ‘‘सफाई तथा स्वस्थ वातावरण प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है तथा नगरपालिकाओं का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वे नागरिकों को ये सुविधाएँ उपलब्ध कराएँ।’’ अदालत ने कहा कि ‘पर्यावरण’ शब्द का अर्थ विस्तृत है जिसमें ‘‘स्वच्छ वातावरण तथा पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना भी शामिल है।’’

वर्ष 1974 में संसद ने जल (प्रदूषण पर प्रतिबंध तथा नियन्त्रण) अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के तहत जनरुचि के पहले मामले पर सुप्रीमकोर्ट ने वर्ष 1991 में फैसला सुनाया। यह मामला सुभाष कुमार बनाम बिहार सरकार का था जिसमें शिकायतकर्ता ने बोकारो नदी में कोयले की राख फेंके जाने पर चिन्ता जाहिर की थी। तब सुप्रीमकोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत पर्यावरण को जीने के मौलिक अधिकार के बराबर का दर्जा प्रदान किया तथा नागरिकों के स्वच्छ हवा तथा पानी के अधिकार को सुरक्षित रखा और कहा कि कोई भी सत्ताधारी दल सामान्य संशोधनों द्वारा इसमें परिवर्तन नहीं कर सकता। साथ ही पर्यावरणीय मामलों पर जनरुचि कानूनों के दुरुपयोग की सम्भावनाओं को देखते हुए अदालत ने यह घोषणा की कि ‘‘संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीने का अधिकार मौलिक अधिकार’ है तथा इसमें जीवन का आनंद उठाने के लिए प्रदूषण रहित पानी तथा हवा का लाभ शामिल है। यदि कानून का उल्लंघन कर जीवन की इस गुणवत्ता को नुकसान पहुँचाने का प्रयास किया जाता है तो नागरिकों को अनुच्छेद 32 के तहत यह अधिकार है कि वे पानी अथवा हवा को प्रदूषण मुक्त करने की मांग करें जो उनके जीवन की गुणवत्ता के मार्ग में बाधक हैं।’’ अनुच्छेद 32 के तहत प्रभावित व्यक्तियों या सामाजिक कार्यकर्ताओं अथवा पत्रकारों द्वारा सामूहिक रूप से याचिका दायर की जा सकती है। इस अनुच्छेद के तहत मामला तभी दायर किया जाना चाहिए जब ‘‘समाज के संरक्षण की दृष्टि से ऐसा किया जाना जरूरी हो।’’ सुप्रीमकोर्ट ने वर्ष 1993 में नीलावती बहेरा बनाम उड़ीसा सरकार के मामले पर फैसला सुनाते हुए इस नए मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने पर वित्तीय मुआवजे का भी मौलिक अधिकार स्वीकार कर इसे और मजबूती प्रदान की। मुआवजे का यह अधिकार मुआवजे सम्बन्धी अन्य लम्बित मामलों से हटकर है।

फैसलों की बाढ़


जनहित याचिकाओं के तहत मुआवजे का अधिकार मिलने के बाद वर्ष 1995-97 के बीच फैसलों की बाढ़-सी आ गई। हिमाचल प्रदेश के कत्था वनों से सम्बन्धित गणेश वुड प्रोडक्ट्स के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि ‘‘सतत विकास प्रत्येक सरकार की कानूनी बाध्यता है’’। कोई भी सत्ताधारी दल तथा प्रशासन प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित किसी भी उद्योग को अनुमति देने से पूर्व उद्योग स्थापना से उस स्थान पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करेगा। इसमें जरूरी नहीं है कि केवल वर्तमान जरूरतों का अध्ययन किया जाए बल्कि अंतर्पीढीय समानता के आधार पर भविष्य की जरूरतों का भी ध्यान रखा जाए। वर्तमान पीढ़ी सभी संसाधनों को समाप्त नहीं कर सकती। उसे आने वाली पीढ़ियों के बारे में भी सोचना होगा। इस उद्देश्य से अदालत ने यह घोषणा की कि सार्वजनिक या सरकारी वनों तथा निजी वनों में कोई अंतर नहीं किया जा सकता क्योंकि वन राष्ट्रीय सम्पत्ति हैं।

इन चार मूल सिद्धान्तों की स्थापना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन कौंसिल फॉर एनवायरो-लीगल एक्शन एच एसिड का मामला, वेल्लोर नागरिक फोरम (चर्मशोधक सम्बन्धी) तथा एस. जगन्नाथन (समुद्री जीव पालन सम्बन्धी) मामलों की सुनवाई के दौरान तीन और सिद्धान्त प्रतिपादित किए। पहला, प्रदूषण फैलाने वाले को मुआवजा भरना होगा। दूसरा, सभी प्राधिकरणों का यह कर्तव्य है कि वे लोगों के स्वास्थ्य को प्रदूषण अथवा अन्य खतरों से बचाएँ तीसरा, पर्यावरण सन्तुलन दोबारा स्थापित किया जाए। यानी प्रदूषण फैलाने वाले को न केवल क्षतिपूर्ति करनी होगी बल्कि सम्बद्ध क्षेत्र में पारिस्थितिकी को पहुँचाए गए नुकसान को दूर कर दोबारा पर्यावरण सन्तुलन स्थापित करना होगा।

दिल्ली में वाहन प्रदूषण से सम्बद्ध मामला 1986 से चल रहा है लेकिन अभी तक इसमें कोई निर्णय नहीं दिया गया है। दूसरी तरफ सुप्रीमकोर्ट तक यह सूचना पहुँचने का कोई जरिया नहीं है कि जिन उद्योगों को उसने स्थानांतरण का आदेश दिया था उन्होंने आदेश का पालन किया है अथवा नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने संकेत दिया था कि केन्द्र सरकार केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के तहत एक ‘प्रदूषण स्क्वाड’ स्थापित करेगा। इस पर अभी पूरी तरह अमल नहीं हुआ है।

इन सात मौलिक सिद्धान्तों के आधार पर कानूनी लड़ाई लड़ना बेहद टेढ़ा और दुरूह कार्य था जैसा कि श्रीराम फूड एण्ड फर्टिलाइजर्स में ओलियम गैस रिसने और यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के मामलों में देखने में आया। औद्योगिक विकास के लिए खतरनाक रसायनों की आवश्यकता और साथ ही इनके इस्तेमाल से आम नागरिकों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को खतरे का सवाल इन दोनों मामलों में उठाया गया। इन दोनों दुर्घटनाओं के बाद, जिनमें यूनियन कार्बाइड भोपाल फैक्ट्री की विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना शामिल थी, संसद ने व्यापक पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 तथा जन दायित्व बीमा अधिनियम, 1991 पारित किया। श्रीराम मामले में सुप्रीमकोर्ट ने अपने आदेश में कहा- ‘‘निजी लाभ के लिए खतरनाक कार्य में लगे किसी भी उद्योग को केवल तभी बर्दाश्त किया जा सकता है जब वह अपनी उस गतिविधि से प्रभावित होने वाले लोगों को क्षतिपूर्ति दे। क्षतिपूर्ति के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उस औद्योगिक गतिविधि के दौरान सतर्कता बरती गई थी या नहीं।’’ इसके कुछ ही समय बाद जब यूनियन कार्बाइड के भोपाल प्लांट से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ तब यह बात सामने आई कि वास्तविक समस्या कानून की अनुपस्थिति नहीं है बल्कि उस कानून को लागू किए जाने की है। जब गैस रिसने की घटना हुई तब ऐसी गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिए कई कानून मौजूद थे- जैसे कि फैक्ट्री अधिनियम, आपराधिक दंड संहिता तथा वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण) अधिनियम, (1981)। कार्बाइड मामले के परिणामस्वरूप संसद ने एक विशेष कानून पारित किया जिसके तहत तत्कालीन केन्द्र सरकार ने यूनियन कार्बाइड मामले में प्रभावित लोगों के मुकदमें का पूरा खर्च, इस कानूनी सिद्धान्त के आधार पर उठाया कि राज्य सभी नागरिकों के पिता समान होता है। इसी दुर्घटना के बाद ही सुप्रीमकोर्ट ने आपराधिक मामलों में माफी से सम्बद्ध एक विवादास्पद निर्णय भी दे डाला जो उसे बाद में संशोधित करना पड़ा। यूनियन कार्बाइड मामले में आपराधिक मुकदमों तथा दावों को सुलझाने के लिए आयुक्तों की गतिविधियाँ आज भी जारी हैं।

हरित न्यायपीठ


इन्हीं सात सिद्धान्तों के आधार पर, जिन्हें पारित करने और लागू करने के बीच विवादास्पद चुप्पी बनी रही, सुप्रीमकोर्ट ने भारत भर में वनों के विनाश, जहरीले रासायनिक कचरे के आयात, गंगा प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, दिल्ली रिज, परिवहन प्रदूषण, पार्कों का नाश तथा दिल्ली में कूड़ा-करकट इकट्ठा करने सम्बन्धी कई मामले निपटाए। सिद्धान्तों के निर्धारण तथा कार्यवाही के आश्वासन के बाद इनमें से कुछ मामले सम्बद्ध उच्च न्यायालयों को स्थानांतरित कर दिए गए और उनके मुख्य न्यायाधीशों से अपील की गई कि वे इन मामलों के शीघ्र निपटान के लिए ‘हरित न्यायपीठ’ का गठन करें।

कोर्ट ने अपने निर्देशों को लागू करने के सम्बन्ध में दो तरह का रास्ता अपनाया। पहला, सम्बद्ध अधिकारियों को सीधे कोर्ट में बुलाकर उन्हें उनका कानूनी कर्तव्य समझाया जाता था तथा उनसे पूछा जाता था कि उन्हें अपने कर्तव्य के निर्वाह में किसी समस्या से निपटने के लिए कोर्ट के आदेश की आवश्यकता तो नहीं है। तब कोर्ट उनकी मदद से ही एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित कर उसमें जरूरी कार्य पूरा करने को कहता था। जहाँ कोर्ट संतुष्ट नहीं होता था वहाँ वह अपने आयुक्त अथवा वकील को इस बात की निगरानी के लिए नियुक्त करता था कि उसके आदेश का पालन हो रहा है या नहीं, और उन्हें वापस कोर्ट में अपनी रिपोर्ट देनी होती थी। सुप्रीमकोर्ट ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन आॅफ इंडिया मामले की सुनवाई के दौरान यह घोषणा की थी कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के गम्भीर मामलों में कोर्ट को सम्बद्ध तथ्य एकत्रित करने के लिए अपना आयुक्त नियुक्त करने का अधिकार है जिसका बाद में श्रीराम फूड्स एंड फर्टिलाइजर्स (एम.सी. मेहता बनाम यूनियन आफ इंडिया) मामले में पाँच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने समर्थन किया।

यदि बार-बार कहने के बावजूद आदेश का पालन नहीं किया जा रहा हो तो कोर्ट की अवमानना के आरोप में कार्यवाही की जा सकती है। अन्य तरीका सम्बद्ध अधिकारियों से आमने-सामने बातचीत न करके कोर्ट द्वारा नियुक्त किए गए वकीलों अथवा परामर्शदाताओं से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर केवल निर्देश जारी करना है। नागरिकों के स्वास्थ्य तथा पर्यावरण के संरक्षण का ज्यादा सफल तरीका कौन-सा हो सकता है, इस सम्बन्ध में अभी तक कहीं भी कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है। सुप्रीमकोर्ट द्वारा पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित समाज के निर्माण में सत्तासीन राजनीतिज्ञों के कर्तव्यों से सम्बद्ध सुझाव केवल निर्णयपृष्ठों की शोभा बनकर रह गए हैं। कानूनी मशीनरी को अभी झुग्गी-झोपड़ियों तथा गाँवों में रहने वाले सैकड़ों गरीबों को कानूनी सहायता देनी है जो अभी तक सम्मानजनक जीवन जीने तथा स्वस्थ वातावरण पाने के अधिकार से वंचित हैं।

धीमी गति


जाहिर है कि यह काम काफी बड़ा है। सुप्रीमकोर्ट ने पर्यावरण सम्बन्धी मामलों की सुनवाई के दौरान ही यह महसूस कर लिया था तथा इनमें से कुछ मामलों को उच्च न्यायालयों की ‘हरित न्यायपीठों’ को स्थानांतरित कर दिया था। किन्तु इस काम को पूरा करने के लिए उपलब्ध मशीनरी पूरी तरह सक्षम नहीं है। पर्यावरण सम्बन्धी ट्रिब्यूनल कोर्ट आने अभी बाकी हैं। शिकायतों का शीघ्र निपटान ही ऐसे मामलों में राहत का एकमात्र तरीका है लेकिन यह और भी धीमा होता जा रहा है। पहले सुप्रीमकोर्ट हर कार्य-सप्ताह में कम से कम एक बार पर्यावरण सम्बन्धी मामलों पर सुनवाई करता था और आवश्यकता पड़ने पर हर रोज भी सुनवाई की जाती थी ताकि पर्यावरणीय क्षति के मामलों को तेजी से निपटाया जा सके। सुप्रीमकोर्ट द्वारा अधिकारियों को बुलाया जाता था तथा उन्हें इसके महत्व का एहसास कराया जाता था। लेकिन अन्य कानूनी मामलों में उलझे रहने से अब सुप्रीमकोर्ट पर्यावरण सम्बन्धी मामलों की सुनवाई टालता जा रहा है। कानूनी मोर्चे पर इस धीमी गति के दो उदाहरण वाहन प्रदूषण तथा उद्योगों के स्थानांतरण के हैं। दिल्ली में वाहन प्रदूषण से सम्बद्ध मामला 1986 से चल रहा है लेकिन अभी तक इसमें कोई निर्णय नहीं दिया गया है। दूसरी तरफ सुप्रीमकोर्ट तक यह सूचना पहुँचने का कोई जरिया नहीं है कि जिन उद्योगों को उसने स्थानांतरण का आदेश दिया था उन्होंने आदेश का पालन किया है अथवा नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने संकेत दिया था कि केन्द्र सरकार केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के तहत एक ‘प्रदूषण स्क्वाड’ स्थापित करेगा। इस पर अभी पूरी तरह अमल नहीं हुआ है। इस बीच कई मामले सुप्रीमकोर्ट में फैसले की इंतजार में हैं।

भारत के लम्बे तटीय क्षेत्र के उपयोग से सम्बद्ध समुद्री जीव पालन के मामले में निर्णय लम्बित पड़ा है और इस पर दोबारा सुनवाई होनी है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की पूर्व मंत्रियों की जिम्मेदारी पर भी प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। सुप्रीमकोर्ट का ‘ताज’ के संरक्षण के उपायों से सम्बद्ध फैसला भी अभी लागू किया जाना बाकी है। ओलियम गैस ली के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने फैसला दिया था कि ‘जीवन’ जन-स्वास्थ्य एवं पर्यावरण-संतुलन, बेरोजगारी तथा राजस्व के नुकसान से बढ़कर है। यह फैसला राज्य की आर्थिक नीति में बड़े परिवर्तन का संकेतक है। कानूनों की घोषणा तथा राजनीतिक अर्थतंत्र की वास्तविकता के बीच से ही गति का वह मार्ग प्रशस्त होगा जिसमें कानून का आधार तर्क नहीं परन्तु अनुभव होगा।

(इंडियन एक्सप्रेस’ में विधि सम्पादक और गंगा प्रदूषण, ताज, दिल्ली रिज आदि प्रदूषण मामलों में सुप्रीमकोर्ट द्वारा नियुक्त एडवोकेट-कमिश्नर)

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