पर्यावरण हितैषी जेनरेटर

वीरेन्द्र ने आवाज को बन्द करने के लिए एक विशेष चैम्बर बनाने और धुआँ छोड़ने वाले पाईप को टुकड़ों में बाँटने के लिए एक प्रयोग करने का फैसला किया। लोहे के ड्रम, छिद्रयुक्त लोहे के पाईप, इस्पात के चैनल, कपाट और कालिख जमा करने वाली ट्रे आदि जैसी आमतौर पर उपलब्ध सामग्री का इस्तेमाल करते हुए वीरेन्द्र ने आवाज बन्द करने के अनेक चैम्बरों वाला पहला नमूना तैयार किया। इस पर 4 हजार रुपए की लागत आई। उसके कारखाने में इस्तेमाल होने वाले 10 एचपी के इंजन में इस यन्त्र को फिट किया गया। इससे आवाज को कम करने में सफलता मिली। देश में ऐसा एक भी जेनरेटर नहीं है जिसमें प्रदूषण नियन्त्रण के लिए कोई यन्त्र लगा हो। मौजूदा नियमों के तहत् ऐसा कोई जरूरी भी नहीं है। परन्तु 58 वर्षीय वीरेन्द्र कुमार सिन्हा ने जेनसेटों के लिए एक प्रदूषण नियन्त्रक उपकरण विकसित किया है। यह यन्त्र निकासी गैसों में तैरने वाले विषैले रासायनिक कणों को अवक्षेपित कर उन्हें स्वच्छ बनाता है साथ ही तापमान भी कम करता है।

वीरेन्द्र कुमार का जन्म सन् 1950 में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। वे छह भाई-बहनों, दो भाई और चार बहनों में सबसे बड़े हैं। अपने भाई-बहनों के विपरीत उनका मन पढ़ाई-लिखाई में नहीं लगता था। फुटबाॅल और कंचों (कांच की गोलियों) के अलावा वे प्रायः तारों और बिजली के उपकरणों से खेला करते। वे हमेशा बेचैन और जिज्ञासु रहा करते थे। उन्होंने परिवार और पड़ोसियों के लिए सिलाई मशीन, हवा भरने वाला पम्प और साइकिलों की मरम्मत का काम करना शुरू कर दिया।

उनके भाई-बहन तो उच्च अध्ययन में लगे रहे, परन्तु वे 12वीं कक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सके और अन्ततः उन्होंने आईटीआई में एक पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लिया। परन्तु परिवार की कुछ समस्याओं के कारण उन्होंने बीच में ही आईटीआई छोड़ दिया। सत्तर के दशक में उन्होंने सड़क और भवन निर्माण के ठेकेदार के रूप में अपना जीवन शुरू किया। अधिक पैसा कमाने के चक्कर में उन्होंने कुछ समय बाद कपड़े के निर्यात का व्यवसाय शुरू किया, परन्तु अधिक लाभ न होने के कारण शीघ्र ही वह भी छोड़ दिया।

विभिन्न विकल्पों पर विचार करने के बाद, उन्होंने अपने एक मित्र को इस फैब्रीकेशन कार्यशाला में मदद करने का फैसला किया। करीब डेढ़ साल का इस क्षेत्र में अनुभव प्राप्त करने के बाद, अस्सी के दशक के प्रारम्भ में, उन्होंने अपनी फैब्रीकेशन इकाई स्थापित करने का निर्णय लिया। एक बैंक से कर्ज लेकर उन्होंने लोहे के गेट और ग्रिल बनाने का काम शुरू किया। शुरू के छह-सात महीने संघर्ष करने के बाद उन्होंने आॅर्डर प्राप्त करने के लिए स्थानीय हार्डवेयर दुकानदारों के साथ सम्पर्क बनाना शुरू किया। वह याद करते हुए कहते हैं कि इस दौरान उनके मित्र बच्चूभाई ने उनकी बहुत मदद की। उन्होंने हमेशा ही वीरेन्द्र को धीरज से काम लेने की सलाह दी। उनका कारखाना (वर्कशाॅप) मोतिहारी में था। परन्तु आमदनी कम और किराया अधिक होने के कारण शीघ्र ही उन्हें अपना कारखाना अपने गाँव बेलवाना के घर में ले जाना पड़ा। यह गाँव मोतिहारी से दो किलोमीटर दूर है।

अपनी बड़ी बेटी के नाम पर उन्होंने अपनी फैब्रीकेशन इकाई का नाम ‘काजल स्टील’ रखा। अगले बारह-तेरह वर्षों तक उनका यह कारखाना धीरे-धीरे परन्तु निरन्तर प्रगति करता रहा। परन्तु 1994 के आसपास कठिन समय की शुरुआत हुई जब उनकी फर्म को अन्य कारखानों से कड़ी स्पर्धा का सामना करना पड़ा। प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए उन्होंने गेट और ग्रिल की डिजाइनों में कुछ नयापन लाना शुरू किया और उनकी कीमत यथासम्भव कम रखी। इसी के साथ-साथ उन्होंने कुशल कारीगरों को काम पर रखा और उनका वेतन बढ़ा दिया तथा फालतू लोगों को हटा दिया ताकि अधिक लाभ कमाया जा सके। धीरे-धीरे स्थिति में सुधार आने लगा और आज वे पहले की अपेक्षा बेहतर स्थिति में हैं।

एक घनी बस्ती में स्थित एक स्कूल के सामने वीरेन्द्र ने अपने फैब्रीकेशन कारखाने का काम शुरू किया। अनियमित विद्युत आपूर्ति के विकल्प के रूप में उन्होंने डीजल जेनसेट (एक खड़े हुए इंजन से जुड़ा जेनरेटर) का इस्तेमाल करना शुरू किया। परन्तु समस्या थी कि जेनसेट बहुत आवाज करता था और काफी धुआँ छोड़ता था जिससे प्रदूषण फैलता था और बच्चों को परेशानी होती थी। परन्तु न तो स्कूल वहाँ से हट सकता था और न ही कारखाना। इसे लेकर वीरेन्द्र के पड़ोसी उनके ख़िलाफ हो गए और जेनरेटर के शोर एवं धुएँ के कारण उन्हें अदालत में खींच ले गए। एसडीएम और अदालत ने उनसे कहा, ‘‘या तो समस्या का समाधान करो या फिर दुकान बन्द कर दो।’’

अपने सीमित संसाधनों के कारण कारखाना वहाँ से हटाना उनके लिए मुमकिन नहीं था। समस्या को हमेशा के लिए समाप्त करने के इरादे से उन्होंने जेनरेटर में एक ऐसा यन्त्र बनाकर लगाने का सोचा जिससे धुआँ भी कम निकले और शोर भी कम हो। यह विचार करते हुए कि यह यन्त्र कैसे तैयार किया जाए, उन्हें अपने स्कूल के विज्ञान शिक्षक की वह बात ध्यान में आई जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘बन्द कमरे में किए जाने वाले शोर की तीव्रता (प्रभाव) खुले स्थान पर किए जाने वाले शोर की तीव्रता से कम होती है।’’ यानी हम बन्द कमरे में शोर करते हैं तो बाहर खड़े लोगों पर उसका प्रभाव खुले स्थान में किए जाने वाले शोर की अपेक्षा कम होता है।

वीरेन्द्र ने आवाज को बन्द करने के लिए एक विशेष चैम्बर बनाने और धुआँ छोड़ने वाले पाईप को टुकड़ों में बाँटने के लिए एक प्रयोग करने का फैसला किया। लोहे के ड्रम, छिद्रयुक्त लोहे के पाईप, इस्पात के चैनल, कपाट और कालिख जमा करने वाली ट्रे आदि जैसी आमतौर पर उपलब्ध सामग्री का इस्तेमाल करते हुए वीरेन्द्र ने आवाज बन्द करने के अनेक चैम्बरों वाला पहला नमूना तैयार किया। इस पर 4 हजार रुपए की लागत आई। उसके कारखाने में इस्तेमाल होने वाले 10 एचपी के इंजन में इस यन्त्र को फिट किया गया। इससे आवाज को कम करने में सफलता मिली।

करीब आठ महीने तक वह निरन्तर प्रयोग और निवेश करते रहे। अन्ततः एक ऐसा यन्त्र तैयार करने में सफलता मिली जिससे आवाज में और भी कमी आई। यहाँ तक कि उनके कुछ पड़ोसी पूछने आए कि कारखाने में सब कुछ ठीक-ठाक तो है न! धुएँ की निकासी में भी कमी आई, पर उतनी नहीं जितनी वह चाहते थे। वह लगातार उसमें सुधार करते रहे और लगभग एक दशक के बाद अब कहीं जाकर वह ऐसी मशीन बनाने में कामयाब हुए जो उन्हें सन्तोष दे सके।

प्रदूषण नियन्त्रण यन्त्र प्रदूषण नियन्त्रण यन्त्र एक ऐसा पुर्जा है जो जेनसेट में लगाया जाता है। यह गैसों के कणों को अवक्षेपित कर देता है और तापमान को भी कम करता है। इससे आवाज भी काफी हद तक दब जाती है। इस पुर्जे में एक बेलननुमा ड्रम, घने छिद्रों वाले पर्दे और कुछ लम्बी छिद्रयुक्त बलियाँ लगी होती हैं जिसमें समान फासले पर जाली के अस्तर लगे होते हैं। बेलन के अन्दरूनी सतह पर पंख लगे होते हैं ताकि ध्वनि तरंगों को छोड़ा जा सके। 65 किलो वजन के बेलनाकार ड्रम को जेनरेटर और निकासी पाइप के बीच लगाया जाता है।

निकासी गैसें जो मशीन में प्रवेश करती हैं बाहर निकले हुए पंखों और छिद्रयुक्त नलियों से लगातार टकराती हैं। इस बवण्डर से कार्बन मोनो आॅक्साइड और कार्बन डाइआॅक्साइड विखण्डित होकर कार्बन के कणों और आॅक्सीजन में बदल जाती है।

यह नवाचारी प्रयोग एक साइलेंसर के रूप में भी काम करता है। सघन चैनलों की शृंखला से गुजरते हुए ध्वनि तरंगें अन्दर-ही-अन्दर समाप्त हो जाती हैं। यन्त्र की ज्यामिति और निर्माण भी कार्बन आधारित उत्सर्जकों को कालिख और ठोस कणों के रूप में बाहर फेंक देते हैं।

इससे जो गैस बाहर आती है वह बहुत साफ होती है और उससे आसपास के वृक्षों और पौधों की पत्तियों पर कार्बन का कोई लक्षण नहीं दिखता। यह अतिरिक्त पुर्जा न केवल धुएँ से कार्बन के कणों को अवक्षेपित करने के काम आता है बल्कि इससे आवाज और तापमान को भी कम किया जा सकता है।

औसतन 3,000 घण्टों तक इंजन के चलने के बाद करीब 5 किलो कालिख जमा होती है जिसे निकालने के लिए ड्रम के नीचे एक निकास मार्ग बना होता है। इंजन के छह से आठ महीनों तक चलने पर 12 से 14 किलोग्राम कार्बन जमा होता है जिसे ड्रम का ताला खोलकर आसानी से हटाया जा सकता है। इस मशीन का नयापन इसकी डिजाइन और निर्माण में निहित है। इसकी ज्यामिति और विभिन्न हिस्सों की रूपरेखा इस प्रकार तैयार की गई है कि ध्वनि तरंगें आगे नहीं बढ़ पातीं।

इस यन्त्र का परीक्षण रांची के मेसरा स्थित बीआईटी में विभिन्न भार पर 5 बीएचपी के किर्लोस्कर इंजन पर किया गया और यह पाया गया कि कार्बन मोनो आॅक्साइड और कार्बन डाइआॅक्साइड की निकासी में 30 प्रतिशत तक की कमी आई। तापमान में भी काफी कमी पाई गई। इस अभिनव प्रयोग के लिए एनआईएफ ने वीरेन्द्र कुमार सिन्हा के नाम पर पेटेंट (1520/केओएल/2008) के लिए आवेदन किया है।

इसी क्षेत्र में अन्य समाधान तमिलनाडु में शिवकाशी के आकासी ने इसी तरह के एक पर्यावरण हितैषी तेल इंजन का विकास किया था। इसमें सुधारा हुआ सायलेंसर लगाया गया था जिससे अन्य सायलेंसरों की अपेक्षा शोर कम होता था। उन्हें वर्ष 2001 में एनआईएफ के प्रथम राष्ट्रीय ग्रासरूट्स नवाचार पुरस्कार समारोह में पुरस्कार मिला था। तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर वीरेन्द्र कुमार सिन्हा का उपकरण अनूठा पाया गया है।

वीरेंद्र को नवाचार की अपनी इस यात्रा के दौरान अनेक उतार-चढ़ाव देखने पड़े। उन्होंने अपनी चिन्ताओं, तनावों और समस्याओं के बारे में किसी को भनक तक नहीं लगने दी। वह केवल अपनी धर्मपत्नी सुधा के साथ ही इन सारी बातों का जिक्र करते थे। उनकी पत्नी हमेशा ही, हर कदम पर अपने पति के साथ खड़ी रहीं और उन्हें पूर्ण रूप से सहयोग एवं समर्थन दिया।

शोधयात्रियों ने बिहार की अपनी 22वीं शोधयात्रा (स्थानीय सृजनशीलता की खोज में ग्रामीण क्षेत्रों की यात्रा) के दौरान वीरेन्द्र के कारखाने का भ्रमण किया और उनके कार्य की सराहना की। अगले दिन मोतिहारी के गाँधी स्मारक में उनका सम्मान किया गया। उनकी प्रतिभा और कौशल से सभी प्रभावित थे।

वीरेन्द्र की कई कम्पनियों से बातचीत हुई है, परन्तु उनकी प्रतिभा और कौशल का सही कीमत आँकने वाला कोई उद्योगपति नहीं मिला है। इंजनों के सहायक अंग के रूप में उनका यह नवप्रयोग बहुत काम का है। ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण दोनों को ही कम करने में उनके नवप्रयोग का योगदान उल्लेखनीय है।

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Post By: Shivendra
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