ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघलने एवं वनों की अत्यधिक कटाई से नदियों में बाढ़ आ रही है। समुद्र का जलस्तर सन् 1990 के मुकाबले सन् 2011 में 10 से 20 सेमी. तक बढ़ गया है। जिससे तटीय इलाकों में मैंग्रोव के जंगल नष्ट हो रहे हैं। परिणाम स्वरूप समुद्री तुफानों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रतिवर्ष समुद्र में करोड़ों टन कूड़े-कचरे एवं खर-पतवार के पहुंचने से विश्व की लगभग एक चौथाई मुंगे की चट्टाने नष्ट हो चूकी है। जिसमें समुद्री खाद्य प्रणाली प्रभावित होने से परिस्थिति तंत्र संकट में पड़ गया है।
भौतिक एवं सांस्कृतिक दशाओं का सम्पूर्ण योग जो मानव के चारो ओर व्याप्त होता है और उसे प्रभावित करता है ‘पर्यावरण’ कहलाता है। पर्यावरण शब्द ‘परि’ ‘आवरण’ दो शब्दों से मिलकर बना है। आदि काल से ही मानव एवं प्रकृति का अटूट संबंध रहा है। सभ्यता के विकास में प्रकृति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विकास के आरम्भिक चरण में कोई भी जीवधारी या मनुष्य सर्वप्रथम प्रकृति के साथ अनुकूल होने का प्रयास करता है, इसके पश्चात् वह धीरे-धीरे प्रकृति में परिवर्तन करने का प्रयास करता है। परंतु अपने विकास क्रम में मानव की बढ़ती भौतिकवादी महत्वकांक्षाओं ने पर्यावरण में इतना अधिक परिवर्तन ला दिया है कि मानव और प्रकृति के बीच का संतुलन, जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है, धाराशायी होने के कगार पर पहुंच गया है। साथ ही मानव की अदूरदर्शी विकास प्रक्रियाओं ने विनाशात्मक रूप धारण कर लिया है। 1970 के दशक में ही यह अनुभव किया गया कि वर्तमान विकास की प्रवृति असंतुलित है एवं पर्यावरण की प्रतिक्रिया उसे विनाशकारी विकास में परिवर्तित कर सकती है।संयुक्त राष्ट्र ने मई 1969 की रिपोर्ट में पर्यावरण असंतुलन पर गंभीर चिंता व्यक्त की ‘मानव जाति के इतिहास में पहली बार पर्यावरण असंतुलन का विश्वव्यापी संकट खड़ा हो रहा है। मानव जनसंख्या में असीमित वृद्धि पर्यावरणीय आवश्यकताओं का सक्षम एवं वनस्पति जीवन का बढ़ता हुआ विकास का खतरा-ये सब उसके लक्षण है। यही वर्तमान प्रवृत्ति जारी रहती है तो पृथ्वी पर जीवन खतरे में पड़ सकता है।
औद्योगिक विकास और पर्यावरण
औपनिवेशिक काल से ही साम्राज्यवादी देशों ने प्राकृतिक साधनों का अंधाधुंध दोहन किया। बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां, संयंत्र आदि स्थापित हुए। यूरोप अमेरिका आदि देशों में जीवाश्म इंधन की खपत बढ़ती चली गई। प्राकृतिक संसाधनों के धनी देश जैसे-भारत, अफ्रिका आदि बड़े और अमीर देशों की जरूरत को पूरा करने लिए शोषित होने लगे। एक ओर जहां औद्योगिकरण की बयार, धन, ऐशो-आराम, रोमांच और जीत का एहसास लाई, वहीं पृथ्वी की हवा में जहर घुलना शुरू हो गया। इसकी परिणती पर्यावरणीय असंतुलन के रूप में सामने आई। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघलने एवं वनों की अत्यधिक कटाई से नदियों में बाढ़ आ रही है। समुद्र का जलस्तर सन् 1990 के मुकाबले सन् 2011 में 10 से 20 सेमी. तक बढ़ गया है। जिससे तटीय इलाकों में मैंग्रोव के जंगल नष्ट हो रहे हैं। परिणाम स्वरूप समुद्री तुफानों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रतिवर्ष समुद्र में करोड़ों टन कूड़े-कचरे एवं खर-पतवार के पहुंचने से विश्व की लगभग एक चौथाई मुंगे की चट्टाने (कोरल रीफ) नष्ट हो चूकी है। जिसमें समुद्री खाद्य प्रणाली प्रभावित होने से परिस्थिति तंत्र संकट में पड़ गया है।
अनियंत्रित औद्योगिक विकास के फल्स्वरूप निकले विषाक्त कचरे को नदियों में बहाते रहने से विश्व में स्वच्छ जल का संकट उत्पन्न हो गया है। विश्व के लगभग 1 अरब से अधिक लोगों को पीने का पानी नहीं मिल पा रहा है। रासायनिक खादों और किट नाशकों के अधिक प्रयोग से कृषि योग्य भूमि बंजर हो रही है। औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक कोयले, पेट्रोलियम पदार्थों, पनबिजली व आण्विक शक्ति के दुरुपयोग से पर्यावरण संकट में पड़ गया है। अतीत के युद्ध एवं हिरोशिमा व नागासाकी पर विध्वसंक बम गिराने की क्रूर कार्यवाहियों से पर्यावरण एवं मनुष्य की बेहद क्षति हुई है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) ने हाल ही में अपनी एक शोध रिपोर्ट में बताया कि दक्षिण एशिया में आसमान प्रदूषण के कारण ‘ब्राउनहेज’ से आच्छादित हो गया है। पर्यावरणविदों का मानना है कि इसके लिए औद्योगिकीकरण के साथ-साथ अफगानिस्तान पर अमरीकी बम-बारी से उत्पन्न विषैली गैसे उत्तरदायी है।
विश्व में प्लास्टिक एवं पॉलिथीन की पहले से ही स्वीकृति बढ़ने से पर्यावरण संकट में था। अब साइबर क्रांति के कारण ‘ई-वेस्ट’ यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरा एवं सांस्कृतिक प्रदूषण नई समस्याओं के रूप में सामने है। ‘ई वेस्ट’ से फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसी खतरनाक धातुओं को असावधानीपूर्वक निकालने से न्यूरोसिस (मनोरोग) एवं कैंसर के रोगियों की संख्या में तीव्रतर वृद्धि हो रही है। ओजोन-क्षरण, अम्लवर्षा, त्वचा कैंसर, शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता एवं आंखों के कोर्नियां एवं लेंस के नुकसान का कारण बनता है।
पर्यावरण सुरक्षा हेतु भारत के प्रयास
भारतीय संविधान विश्व का पहला संविधान है जिसमें पर्यावरण संरक्षण के लिए विशिष्ट प्रावधान है। पर्यावरण से संबंधित समस्याओं और समलों पर भारत सरकार ने चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान विशेष ध्यान देते हुए 1972 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के तहत् राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजना एवं समन्वय समिति का गठन किया। जन साधारण के प्रति जागरूकता लाने के लिए 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 48ए (छ) में निम्नलिखित प्रावधान किए गए।
अनुच्छेद 48ए (छ) राज्य, देश के पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षा तथा उसमें सुधार करने का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 51ए (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव है, रक्षा करें और उसका संवर्द्धन करें तथा प्राणिमात्र के प्रति दया मान रखें।
भारतीय दंड विधान की धारायें 268, 269, 272, 277, 278, 284, 290, 298 तथा 426 में प्रदूषण के लिए दंडात्मक प्रावधान है।
भारतीय दंड प्रक्रिया की संहिता की धारा 135 में प्रदूषण को रोकने के प्रावधान है।
वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 में जीवों के संरक्षण के प्रावधान है।
पर्यावरण संरक्षण और इसके लिए कानूनी उपायों को सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन तंत्र की समीक्षा और उन्हें मजबूत बनाने के उद्देश्य से जनवरी 1980 में एक पर्यावरणीय परामर्श समिति का गठन किया गया। इसी समिति की सिफारिशों पर नवम्बर 1980 में एक पृथक केंद्रीय पर्यावरण विभाग की स्थापना की गई। जिसे 1985 में पूर्णरूप से पर्यावरण तथा वन मंत्रालय का दर्जा प्रदान किया गया। पर्यावरण संरक्षण को कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत लाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने 30 से अधिक कानूनों को लागू किया है। इनमें से प्रमुख कानून है- वन्य प्राणी (सुरक्षा) अधिनियम, 1972 जल पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986, मोटर वाहन (संशोधित) अधिनियम 1988, इन अधिनियमों को केंद्रीय और राज्य प्रदूषण निरीक्षक जैसे संगठनों के माध्यम से लागू किया जाता है। भारत सरकार ने राष्ट्रीय संरक्षण रणनीति और पर्यावरण तथा विकास से संबंधित नीतिगत ब्यौरा जून, 1992 में स्वीकृत किया। इसमें देश की विभिन्न क्षेत्रों की विकास गतिविधियों में पर्यावरण के महत्व को शामिल करने के लिए रणनीति और कार्यवाहियों का प्रावधान है।
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986
यह अधिनियम प्रदूषण नियंत्रक व पर्यावरण संरक्षण के लिए व्यापक एवं प्रभावी अधिनियम हैं। इसमें 4 अध्याय व 26 धारायें हैं।
01. धारा 2(अ) में पर्यावरण पद की व्याख्या एवं परिभाषाएं है।
02. धारा 2 (ब) में विभिन्न प्रकार के प्रदूषण एवं प्रदूषकों को बताया है।
03. धारा (3) में कानून बनाने की शक्तियां वर्णित हैं।
04. धारा 8,9 में औद्योगिक क्रियाकलापों में प्रदूषण की मात्रा निर्धारित करने एवं उन पर नियंत्रण व्यवस्था की गई है।
05. धारा 10 में औद्योगिक परिसर में अधिकारियों के प्रवेश, निरीक्षण की शक्तियां वर्णित है।
06. धारा 11 में अधिकारियों को प्रदूषण के नमूने लेने की शक्ति।
07. धारा 12,13 में 14 में नमूनों के विश्लेषण एवं व्याख्या दी गई है।
08. धारा 15, 16 में औद्योगिक कम्पनियों के इसके विरुद्ध कार्य करने पर 5 से 7 वर्ष के सश्रम कारावास तथा अर्थदंड का प्रावधान है।
09. धारा 19 में अपराध का संज्ञान लेने एवं न्यायालय की जानकारी है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण महत्वपूर्ण बन चुका है तथा इस मुद्दे को हल करने के लिए हमें पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के साथ-साथ अध्ययन क्षेत्र में ग्रीन प्लांट लगाने होंगे ताकि प्रदूषण को कम किया जा सके तथा पर्यावरण के परिस्थितिकी संतुलन को बनाया जा सके।
लेखिका डॉ. अरुणा पाठक, माता गुजरी महिला महाविद्यालय जबलपुर-मध्य प्रदेश में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।
Path Alias
/articles/parayaavarana-evan-vaikaasa
Post By: Hindi