पर्यावरण बनाम विकास

इस तेजी से बदलती दुनिया के सामने आज जो कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं उसमें पर्यावरणीय संकट सबसे महत्वपूर्ण है। इस समस्या ने मानवीय अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। मौजूदा विकास की गति और स्वरूप ने पर्यावरणीय संसाधनों के ऊपर भारी दबाव डाला है। पर्यावरणीय संकट और अनिश्चितताओं के मद्देनजर दुनिया भर में जिस प्रकार के प्रयास किए जा रहे है उसमे ईमानदारी और समस्या के जड़ में जाने का घोर अभाव दिखता है। दुनिया के तमाम देशों में अपने हितों से ऊपर उठकर नष्ट होते पर्यावरण के प्रति गंभीर चिंता कहीं दिखाई नहीं पड़ती है। कोपेनहेगन की विफलता तथा विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन के प्रति अड़ियल रवैया इसका सबूत है। दुनिया ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है उस रफ्तार से पीछे आना संभव नहीं है। इसलिए पर्यावरण और विकास के मौलिक अवधारणा का अंतर्द्वन्द अब स्पष्ट रूप से सामने है। किसी ने कहा है कि विकास का हर सोपान बर्बरता के नए आयाम को पैदा करता है। विकास की यह समझ विकास के मायनों को ही उलट देती है और उसके प्रति नकारात्मक भाव पैदा करती है। यह गति और समय के नियम के भी खिलाफ है।

विकास की अवधारणा एक सापेक्षिक अवधारणा है। मानव जाति के जीवन स्तर में गुणात्मक परिवर्तन ही सही मायने में विकास है। दरअसल, मानव जाति पर्यावरण के जैवमंडल का अटूट हिस्सा है। इन दोनों के बीच अंतर्संबंध है, जो एक दूसरे को गहरे तक प्रभावित करने वाला है। मनुष्य अपने उत्पत्ति के साथ ही प्रकृति पर निर्भर रहा है परंतु प्रकृति के ऊपर यह निर्भरता मौजूदा समय में भयावह रूप ले चुकी है। यह निर्भरता अब केवल आवश्यकताओं तक सीमित न रह कर अंधाधुंध विकास की उस धारा से जुड़ गई है जो इंसान की अनिवार्य जरूरतों के साथ-साथ व्यवस्था जनित आवश्यकताओं से जुड़ी हुई है। विकास की जो धारा बाजारवादी प्रवृत्ति की शिकार और पोषक है वह उत्पाद को लेकर कृत्रिम उपभोक्तावाद पैदा करने वाली है। विकास की इस धारा में उत्पादन इंसान की जरूरतों के अलावा बाजार के लिए भी केन्द्रीकृत हो चुका है। मांग और आपूर्ति के बाजारवादी सिद्धांत ने अंधाधुंध उत्पादन को प्रोत्साहित किया है। उर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है।

वर्तमान में संम्पूर्ण उद्योग धंधों का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित इंधनों पर टिका है। विकास के इस मॉडल के कारण दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। पृथ्वी इतनी गर्म हो गई है जितनी पहले कभी नहीं थी। ग्लेशियर और ध्रुवों पर मौजूद बर्फ पिघल रही है। नई औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। औद्योगीकरण की वर्तमान प्रक्रिया के पूर्व भी कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए सदियों से वनों को काटा जाता रहा है लेकिन अब यह कटान खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। इससे साबित होता है कि इंसान की प्रकृति पर किसी भी तरह से निर्भरता उसे नकारात्मक रूप में प्रभावित करने वाली है। आज विज्ञान और तकनीक के माध्यम से इंसानी जीवन की बेहतरी के बहाने विकास का जो ताना-बाना बुना जा रहा है, दुर्भाग्य से उसका सबसे बुरा असर मानव सभ्यता की मेरुदंड प्रकृति पर ही पड़ रहा है। सूचना तकनीक के मौजूदा दौर में दुनिया ई-कचरे का ढेर बनती जा रही है। जो पर्यावरण को लंबे समय तक और गहरे तक प्रदूषित करने वाला है।

यह ई-कचरा अक्षरणीय प्रदूषक है लेकिन यह चूनौतियां ऐसी है जो केवल मौजूदा व्यवस्था के साथ नहीं जुड़ी है। मसलन क्या बाजार आधारित व्यवस्था खत्म होने से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ई-कचरे का निस्तारण हो जाएगा या यह पैदा ही नहीं होगा? यदि इससे निबटने के लिए हम मोबाइल या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल बंद कर देंगे तो क्या पॉलीथीन या प्लास्टिक के अन्य कचरों की एक अन्य पर्यावरणीय समस्या खत्म हो जाएगी। पर्यावरण हितैषी कल्पना करते है कि प्लास्टिक का प्रयोग बंद हो जाए और फर्नीचर प्लास्टिक के बजाए लकड़ियों का बनाया जाए तो क्या ऐसे में वनों पर निर्भरता बढ़ नहीं जाएगी। यहीं पर मानवीय चेतना की भूमिका है जो मौजूदा व्यवस्था में भी और बाजार से इतर ढांचे में भी महत्वपूर्ण हो जाती है। अभी मानवीय चेतना बाजारवाद के प्रभाव मे है और इंसान एक उपभोक्ता और ग्राहक की तरह इस्तेमाल हो रहा है। विकास के संदर्भ में आर्थिक विकास जितना महत्वपूर्ण नहीं है उतना महत्वपूर्ण है मानव विकास। पृथ्वी पर मौजूद संसाधन सीमित है। ऐसे में बढ़ती जनसंख्या और उसके साथ जुड़ी उपभोक्ता दर भी एक बड़ी समस्या है। पृथ्वी एक ऐसा पात्र है जिसमें से हम निकाल तो सकते हैं लेकिन उसमें कुछ डाल नहीं सकते हैं। यानि उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन अत्यधिक इस्तेमाल होने से समाप्त होने के कगार पर है। विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच हो रही बहस ने जनसंख्या और उपभोक्ता दर के बीच विरोधाभास को उजागर किया है।

विकसित देश बड़ी जनसंख्या का हवाला देते हुए विकासशील देशों को पर्यावरण के प्रति पहली जिम्मेवारी लेने की बात कर रहे है वही विकासशील देश अधिक उपभोक्ता दर का हवाला देते हुए विकसित देशों से ज्यादा जिम्मेदारी उठाने की बात कर रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि यदि दुनिया के लिए एक जैसी उपभोक्ता दर की कल्पना की जाती है तो यह पृथ्वी पर अत्यधिक दबाव डालने वाला होगा। दुनिया को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों और विज्ञान तथा तकनीक के नवाचार की तरफ अग्रसर होना होगा क्योंकि दुनिया विकास की गति से पीछे नहीं हट सकती है। पर्यावरणीय संकट की समस्या को सभी छोटे-बडे़ देशों को समय रहते गंभीरता से लेना होगा और सुरक्षित पर्यावरण के मसले को विनाशकारी चुनौती के रूप में ईमानदारी से स्वीकारना होगा।
 

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