सन्तुलित पर्यावरण के लिये स्वच्छ जल, शुद्ध हवा और खेती के लिये ज़मीन और भोज्य पदार्थों की सुरक्षा की अधिकतम गारंटी सरकार को ही समाज को देनी चाहिये। समाज को वन संरक्षण, जल संरक्षण, आपदा प्रबन्धन, ऊर्जा निर्माण जैसे कामों के लिये भी उन्नत तकनीकी जो पारम्परिक शैली से मेल खाती हो, उपलब्ध करवाना चाहिए। ज़मीन स्तर पर पर्यावरण की रक्षा का काम लोगों के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता है। पर्यावरण और विकास के बीच युद्ध चल रहा है। वर्तमान विकासवादी दृष्टिकोण पर्यावरण की रक्षा के लिये गम्भीर नहीें है, जबकि राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 के मूल बिन्दुओं पर गौर करें तो प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समाज की अनदेखी नहीं हो सकती है। पर्यावरण की सेवा करने वाले पेड़-पौधों, नदियों, ग्लेशियरों और इसके संरक्षण में अहम भूमिका निभाने वाले लोगों की आजीविका को भी सुरक्षित रखना जरूरी है।
चिन्ता का विषय है कि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जितना गहनता से विचार किया जा रहा है, उतनी ही सरलता से विभिन्न देशों की सरकारें अपने यहाँ इसे लागू करने में असमर्थता जाहिर करती है। मसलन वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर्यावरण के लिये बड़ा खतरा बनने जा रहा है, लेकिन जब इसके प्रभाव को कम करने जैसे आपदा प्रबन्धन, जल प्रबन्धन, वन प्रबन्धन, आजीविका सुरक्षा आदि उपायों को समाज के साथ मिलकर करने की बारी आती है तब वे अकस्मात पिछड़ने लगते हैं।
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति कहती है कि उचित मॉनिटरिंग व पुनरीक्षण के द्वारा आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय आावश्यकताओं के मध्य सन्तुलन शास्त्र की आावश्यकता है। इसमें स्पष्ट रूप से संविधान की दुहाई देकर स्वीकार किया गया है कि स्वस्थ पर्यावरण बनाए रखना केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक को पर्यावरण की रक्षा के लिये जिम्मेदारीपूर्वक आगे आना चाहिये। इसके लिये सरकार को समाज के साथ मिलकर उचित पर्यावरण प्रबन्धन का वातावरण बनाना चाहिए।
अतः हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो पर्यावरण बचाने की बात केवल इसीलिये करते हैं कि जिससे लोगों को शुद्ध हवा, पानी, अनाज के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों पर उन्हें हक मिले। भूमि चाहे वन विभाग की हो या आमजन की दोनों पर भूमि अधिग्रहण का प्रभाव खेती व वनों पर सर्वाधिक दिखाई देती है। इसकी मार किसानों, खेतीहर मजदूरों, जलस्रोतों, वन्य जीवों आदि के पर्यावरण पर पड़ती है।
देशभर में कई स्थानों पर कृषि क्षेत्र और हरित क्षेत्र को बचाने के लिये संघर्ष हो रहा है, लेकिन जिन बातों की ओर पर्यावरण नीति इशारा कर रही है वे लगातार यही कहते आ रहे हैं फिर भी वे विकास विरोधी क्यों कहे जाते हैं? पर्यावरण में भूमि, जलवायु, जैसे विशेष स्रोतों का विशेष महत्त्व है।
इसको प्रभावित करने वाले मुख्य कारक प्रदूषण उद्योग, अनियोजित शहरीकरण, रासायनिक खेती, भूमि अधिग्रहण जैसे अनेक समस्याएँ हैं। इसके चलते जीवित प्राणियों की बदहाली नहीं रोकी जा सकती। निर्धन, गरीब और बीमार समाज इसी की उपज है। अर्थव्यवस्था में भी बेहतरी इन पर्यावरणीय स्रोतों में आ रही गिरावट से नहीं आ सकती है।
पर्यावरण की खराब गुणवत्ता ने स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल दिया है। 20 प्रतिशत बीमारियों में यही पर्यावरणीय कारण जिम्मेदार बताए जा रहे हैं।
पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशल क्षेत्रों की पहचान आजादी के बाद अवश्य हुई है। खासकर जब देश में जल, जंगल, ज़मीन के संघर्ष सामने आये तभी से कुछ ऐसे क्षेत्र सामने आये हैं जहाँ पर थोड़ी सी छेड़छाड़ से भी आपदाएँ घटित होती है। जहाँ तक ऐसे क्षेत्रों में संयमित विकास का सवाल है, वहाँ पर विशेष योजना बनाने के बावजूद भी लोगों को सहभागी बनाने में विफलताएँ हाथ लगी हैं।
इस नाम पर बनाए गए कई राष्ट्रीय पार्क व अभयारण्य लोगों के जीवन को संकट में डालने वाले जैसे सन्देश देते हैं। जबकि पर्यावरण नीति में स्पष्ट लिखा है कि ऐसी योजनाओं में स्थानीय संस्थाओं और स्थानीय समाज की पर्याप्त सहभागिता होनी चाहिए।
भारत के शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्र जिसमें 38.8 प्रतिशत आता है। वहाँ पर पारम्परिक पद्वतियों से जल और नमी का संरक्षण सीमेंट और चैनल बनाकर हो रहा है। भला वहाँ पानी कैसे बचेगा। ऐसे क्षेत्रों की वन प्रजातियों और वन्य जीव प्रजातियाँ काफी हद तक समाप्त हो गई है। पर्यावरण की सर्वाधिक सेवा वन प्रदान करते हैं।
देश में वन क्षेत्र कुल 23.69 प्रतिशत भू-क्षेत्र में ही है। जबकि स्वस्थ पर्यावरण के लिये 33 प्रतिशत तक वनावरण चाहिये। यह लक्ष्य 2012 तक पूरा करना था, वह नहीं हो सका है। इसके लिये जरूरी था कि वनों पर निर्भर समाज को उनके पारम्परिक अधिकारों को लौटाने की बात की गई थी, वह कुछ उदाहरणों को छोड़कर पूरे देश में वनाधिकार कानून 2006 पर आशानुकूल सफलता का अंश भी नहीं छू सका है। इसका परिणाम रहा कि लोगों के द्वारा पाले गए वन भी वन विभाग के हो गए। इससे वनवासी समाज का हतोत्साहित होना लाजिमी है। इसी तरह वन्य जीवों की सुरक्षा के नाम पर भी लोगों को असहज होना पड़ रहा है।
परिणामतः वन्य जीव और लोगों के बीच दुर्घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। शायद ही लोग जंगल के शेर से इतने भयभीत पहले कभी नहीं थे। जितने आज हो रहे हैं। इसका कारण है कि जहाँ जंगल थे वहाँ लोग चले गए और जहाँ लोग थे वहाँ जंगली जानवर आ गए। पर्यावरण में ऐसा असन्तुलन गलत नीतियों के कारण हुआ है।
पर्यावरण की इतनी अनदेखी हुई है कि हिमालय से निकलने वाली तमाम नदियों के उद्गम विकास के नाम पर विभिन्न परियोजनाओं ने उजाड़ दिये हैं। अभी भी इस विषय पर खामोशी बनी हुई है। हिमालय से मैदानी क्षेत्रों तक पहुँच रही नदियों में बेतहासा सीवर लाइने, गन्दे नाले और कल कारखानों की गन्दगी सीधे उड़ेली जा रही है।
ऐसी परिस्थितियाँ आ गई है कि नदियों के किनारों पर रहने वाले लोग इस गन्दे जल के इस्तेमाल से बीमार हो रहे हैं और विडम्बना है कि बीमारों के लिये बिना डॉक्टर के अस्पतालों का उद्घाटन भी पर्यावरण के लिये बड़ा खतरा नजर आ रहा है।
पहाड़ हो या मैदान जहाँ भी देखो महिलाओं का जल, जंगल, जमीन बचाने में बड़ी रुची रहती है। वे इसके अलावा विकास के दूसरे आयामों को अधिक तवज्जों नहीें देती है। इन्हीं महिलाओं ने पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ पेड़ों पर रक्षासूत्र, चिपको, नदी बचाओ, नर्मदा बचाओ, टिहरी बचाओ जैसे कार्यों में आदम्य साहस दिखाया है। फिर भी उन्हें इस विज्ञान के युग में घास, लकड़ी, पानी पीठ व सिर पर ही लाना पड़ता है। वैज्ञानिक उनके बोझ को कम नहीं कर सके।
इससे साफ जाहिर है कि प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों की जिम्मेदारी जितनी गम्भीरतापूर्वक सामने आई है उतना पर्यावरण और विकास के बीच सामंजस्य नहीं बना, जैसे कि कितना पानी, जंगल, जमीन, खनिज लोगों को चाहिए और कितना सरकार को। इसी तरह की उलझन है कि बिजली के कितने बल्ब एक परिवार को चाहिए और सरकारी गेस्ट हाउस में कितने बिजली के बल्ब चाहिए। इसका असन्तुलन पर्यावरण को खतरा दर्शाता है।
बताया जा रहा है कि ग्लेशियर प्रतिवर्ष 15-20 मीटर पीछे जा रहे हैं। फिर भी इसके अध्ययन व मूल्यांकन की सफल प्रणाली का अभाव है। इस सम्बन्ध में 50-60 वर्षों से ग्लेशियरों का एक ही आँकड़ा प्रस्तुत किया जा रहा है। बहता जल हो या भूजल दोनों बहुत जहरीले साबित हो रहे हैं। भारत में 4.6 करोड़ लोग प्रतिदिन गन्दे पानी पीने को मजबूर हैं। इसी तरह दुनिया में 1.8 अरब लोगों को भी प्रदूषित पानी से ही प्यास बुझानी पड़ती है।
सन्तुलित पर्यावरण के लिये स्वच्छ जल, शुद्ध हवा और खेती के लिये ज़मीन और भोज्य पदार्थों की सुरक्षा की अधिकतम गारंटी सरकार को ही समाज को देनी चाहिये। समाज को वन संरक्षण, जल संरक्षण, आपदा प्रबन्धन, ऊर्जा निर्माण जैसे कामों के लिये भी उन्नत तकनीकी जो पारम्परिक शैली से मेल खाती हो, उपलब्ध करवाना चाहिए। ज़मीन स्तर पर पर्यावरण की रक्षा का काम लोगों के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता है।
इसलिये पर्यावरण को बेतहाशा नुकसान पहुँचाने वाली सोच मे भी आमूल-चूल परिर्वतन की आवश्यकता है। सड़क, पानी, बिजली, बाजार, ऊर्जा, खाद्य सामग्री के नाम पर फूड पार्क की भी संख्या देश में कहाँ कितनी है उसको नियन्त्रित करके सच्ची आवश्यकता से ऊपर उठकर पर्यावरण और विकास के झगड़े नहीं निपटाए जा सकते हैं।
पर्यावरण नीति-2006 से पहले देश में यह विचार भी लोग सामने लाए थे, कि पर्यावरण एक एकीकृत रूप में अनेक वस्तुओं का एक समागम है। इसलिये पर्यावरण नीति को पूरे ब्रह्माण्ड की स्थिति को समझकर अन्य सम्बन्धित नीतियों से श्रेष्ठ बननी चाहिए। लेकिन इस नीति में अन्य नीतियों की ही भाँति यह लिखा गया है कि इसके संचालन में राष्ट्रीय वन नीति, जलनीति, कृषिनीति, जनसंख्या नीति आदि के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को भी पर्यावरण नीति में मान्यता मिली है, जिससे निश्चित ही वर्तमान परिदृश्यों में बदलते पर्यावरण और प्रभावित समाज को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण और विकास में सृजनात्मक सम्बन्धों पर पुनर्विचार के लिये मन्थन जरूरी है।
चिन्ता का विषय है कि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जितना गहनता से विचार किया जा रहा है, उतनी ही सरलता से विभिन्न देशों की सरकारें अपने यहाँ इसे लागू करने में असमर्थता जाहिर करती है। मसलन वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर्यावरण के लिये बड़ा खतरा बनने जा रहा है, लेकिन जब इसके प्रभाव को कम करने जैसे आपदा प्रबन्धन, जल प्रबन्धन, वन प्रबन्धन, आजीविका सुरक्षा आदि उपायों को समाज के साथ मिलकर करने की बारी आती है तब वे अकस्मात पिछड़ने लगते हैं।
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति कहती है कि उचित मॉनिटरिंग व पुनरीक्षण के द्वारा आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय आावश्यकताओं के मध्य सन्तुलन शास्त्र की आावश्यकता है। इसमें स्पष्ट रूप से संविधान की दुहाई देकर स्वीकार किया गया है कि स्वस्थ पर्यावरण बनाए रखना केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक को पर्यावरण की रक्षा के लिये जिम्मेदारीपूर्वक आगे आना चाहिये। इसके लिये सरकार को समाज के साथ मिलकर उचित पर्यावरण प्रबन्धन का वातावरण बनाना चाहिए।
अतः हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो पर्यावरण बचाने की बात केवल इसीलिये करते हैं कि जिससे लोगों को शुद्ध हवा, पानी, अनाज के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों पर उन्हें हक मिले। भूमि चाहे वन विभाग की हो या आमजन की दोनों पर भूमि अधिग्रहण का प्रभाव खेती व वनों पर सर्वाधिक दिखाई देती है। इसकी मार किसानों, खेतीहर मजदूरों, जलस्रोतों, वन्य जीवों आदि के पर्यावरण पर पड़ती है।
देशभर में कई स्थानों पर कृषि क्षेत्र और हरित क्षेत्र को बचाने के लिये संघर्ष हो रहा है, लेकिन जिन बातों की ओर पर्यावरण नीति इशारा कर रही है वे लगातार यही कहते आ रहे हैं फिर भी वे विकास विरोधी क्यों कहे जाते हैं? पर्यावरण में भूमि, जलवायु, जैसे विशेष स्रोतों का विशेष महत्त्व है।
इसको प्रभावित करने वाले मुख्य कारक प्रदूषण उद्योग, अनियोजित शहरीकरण, रासायनिक खेती, भूमि अधिग्रहण जैसे अनेक समस्याएँ हैं। इसके चलते जीवित प्राणियों की बदहाली नहीं रोकी जा सकती। निर्धन, गरीब और बीमार समाज इसी की उपज है। अर्थव्यवस्था में भी बेहतरी इन पर्यावरणीय स्रोतों में आ रही गिरावट से नहीं आ सकती है।
पर्यावरण की खराब गुणवत्ता ने स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल दिया है। 20 प्रतिशत बीमारियों में यही पर्यावरणीय कारण जिम्मेदार बताए जा रहे हैं।
पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशल क्षेत्रों की पहचान आजादी के बाद अवश्य हुई है। खासकर जब देश में जल, जंगल, ज़मीन के संघर्ष सामने आये तभी से कुछ ऐसे क्षेत्र सामने आये हैं जहाँ पर थोड़ी सी छेड़छाड़ से भी आपदाएँ घटित होती है। जहाँ तक ऐसे क्षेत्रों में संयमित विकास का सवाल है, वहाँ पर विशेष योजना बनाने के बावजूद भी लोगों को सहभागी बनाने में विफलताएँ हाथ लगी हैं।
इस नाम पर बनाए गए कई राष्ट्रीय पार्क व अभयारण्य लोगों के जीवन को संकट में डालने वाले जैसे सन्देश देते हैं। जबकि पर्यावरण नीति में स्पष्ट लिखा है कि ऐसी योजनाओं में स्थानीय संस्थाओं और स्थानीय समाज की पर्याप्त सहभागिता होनी चाहिए।
भारत के शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्र जिसमें 38.8 प्रतिशत आता है। वहाँ पर पारम्परिक पद्वतियों से जल और नमी का संरक्षण सीमेंट और चैनल बनाकर हो रहा है। भला वहाँ पानी कैसे बचेगा। ऐसे क्षेत्रों की वन प्रजातियों और वन्य जीव प्रजातियाँ काफी हद तक समाप्त हो गई है। पर्यावरण की सर्वाधिक सेवा वन प्रदान करते हैं।
देश में वन क्षेत्र कुल 23.69 प्रतिशत भू-क्षेत्र में ही है। जबकि स्वस्थ पर्यावरण के लिये 33 प्रतिशत तक वनावरण चाहिये। यह लक्ष्य 2012 तक पूरा करना था, वह नहीं हो सका है। इसके लिये जरूरी था कि वनों पर निर्भर समाज को उनके पारम्परिक अधिकारों को लौटाने की बात की गई थी, वह कुछ उदाहरणों को छोड़कर पूरे देश में वनाधिकार कानून 2006 पर आशानुकूल सफलता का अंश भी नहीं छू सका है। इसका परिणाम रहा कि लोगों के द्वारा पाले गए वन भी वन विभाग के हो गए। इससे वनवासी समाज का हतोत्साहित होना लाजिमी है। इसी तरह वन्य जीवों की सुरक्षा के नाम पर भी लोगों को असहज होना पड़ रहा है।
परिणामतः वन्य जीव और लोगों के बीच दुर्घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। शायद ही लोग जंगल के शेर से इतने भयभीत पहले कभी नहीं थे। जितने आज हो रहे हैं। इसका कारण है कि जहाँ जंगल थे वहाँ लोग चले गए और जहाँ लोग थे वहाँ जंगली जानवर आ गए। पर्यावरण में ऐसा असन्तुलन गलत नीतियों के कारण हुआ है।
पर्यावरण की इतनी अनदेखी हुई है कि हिमालय से निकलने वाली तमाम नदियों के उद्गम विकास के नाम पर विभिन्न परियोजनाओं ने उजाड़ दिये हैं। अभी भी इस विषय पर खामोशी बनी हुई है। हिमालय से मैदानी क्षेत्रों तक पहुँच रही नदियों में बेतहासा सीवर लाइने, गन्दे नाले और कल कारखानों की गन्दगी सीधे उड़ेली जा रही है।
ऐसी परिस्थितियाँ आ गई है कि नदियों के किनारों पर रहने वाले लोग इस गन्दे जल के इस्तेमाल से बीमार हो रहे हैं और विडम्बना है कि बीमारों के लिये बिना डॉक्टर के अस्पतालों का उद्घाटन भी पर्यावरण के लिये बड़ा खतरा नजर आ रहा है।
पहाड़ हो या मैदान जहाँ भी देखो महिलाओं का जल, जंगल, जमीन बचाने में बड़ी रुची रहती है। वे इसके अलावा विकास के दूसरे आयामों को अधिक तवज्जों नहीें देती है। इन्हीं महिलाओं ने पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ पेड़ों पर रक्षासूत्र, चिपको, नदी बचाओ, नर्मदा बचाओ, टिहरी बचाओ जैसे कार्यों में आदम्य साहस दिखाया है। फिर भी उन्हें इस विज्ञान के युग में घास, लकड़ी, पानी पीठ व सिर पर ही लाना पड़ता है। वैज्ञानिक उनके बोझ को कम नहीं कर सके।
इससे साफ जाहिर है कि प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों की जिम्मेदारी जितनी गम्भीरतापूर्वक सामने आई है उतना पर्यावरण और विकास के बीच सामंजस्य नहीं बना, जैसे कि कितना पानी, जंगल, जमीन, खनिज लोगों को चाहिए और कितना सरकार को। इसी तरह की उलझन है कि बिजली के कितने बल्ब एक परिवार को चाहिए और सरकारी गेस्ट हाउस में कितने बिजली के बल्ब चाहिए। इसका असन्तुलन पर्यावरण को खतरा दर्शाता है।
बताया जा रहा है कि ग्लेशियर प्रतिवर्ष 15-20 मीटर पीछे जा रहे हैं। फिर भी इसके अध्ययन व मूल्यांकन की सफल प्रणाली का अभाव है। इस सम्बन्ध में 50-60 वर्षों से ग्लेशियरों का एक ही आँकड़ा प्रस्तुत किया जा रहा है। बहता जल हो या भूजल दोनों बहुत जहरीले साबित हो रहे हैं। भारत में 4.6 करोड़ लोग प्रतिदिन गन्दे पानी पीने को मजबूर हैं। इसी तरह दुनिया में 1.8 अरब लोगों को भी प्रदूषित पानी से ही प्यास बुझानी पड़ती है।
सन्तुलित पर्यावरण के लिये स्वच्छ जल, शुद्ध हवा और खेती के लिये ज़मीन और भोज्य पदार्थों की सुरक्षा की अधिकतम गारंटी सरकार को ही समाज को देनी चाहिये। समाज को वन संरक्षण, जल संरक्षण, आपदा प्रबन्धन, ऊर्जा निर्माण जैसे कामों के लिये भी उन्नत तकनीकी जो पारम्परिक शैली से मेल खाती हो, उपलब्ध करवाना चाहिए। ज़मीन स्तर पर पर्यावरण की रक्षा का काम लोगों के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता है।
इसलिये पर्यावरण को बेतहाशा नुकसान पहुँचाने वाली सोच मे भी आमूल-चूल परिर्वतन की आवश्यकता है। सड़क, पानी, बिजली, बाजार, ऊर्जा, खाद्य सामग्री के नाम पर फूड पार्क की भी संख्या देश में कहाँ कितनी है उसको नियन्त्रित करके सच्ची आवश्यकता से ऊपर उठकर पर्यावरण और विकास के झगड़े नहीं निपटाए जा सकते हैं।
पर्यावरण नीति-2006 से पहले देश में यह विचार भी लोग सामने लाए थे, कि पर्यावरण एक एकीकृत रूप में अनेक वस्तुओं का एक समागम है। इसलिये पर्यावरण नीति को पूरे ब्रह्माण्ड की स्थिति को समझकर अन्य सम्बन्धित नीतियों से श्रेष्ठ बननी चाहिए। लेकिन इस नीति में अन्य नीतियों की ही भाँति यह लिखा गया है कि इसके संचालन में राष्ट्रीय वन नीति, जलनीति, कृषिनीति, जनसंख्या नीति आदि के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को भी पर्यावरण नीति में मान्यता मिली है, जिससे निश्चित ही वर्तमान परिदृश्यों में बदलते पर्यावरण और प्रभावित समाज को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण और विकास में सृजनात्मक सम्बन्धों पर पुनर्विचार के लिये मन्थन जरूरी है।
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