1987 में ब्रुंडलैंड कमीशन रिपोर्ट के सामान्य भविष्य के विचार से बहुत पहले ही महात्मा गाँधी ने स्थिरता और सतत विकास के लिये लगातार बढ़ती इच्छाओं और जरूरतों के अधीन आधुनिक सभ्यता के खतरे की ओर ध्यान दिलाया था। अपनी पुस्तक ‘द हिंद स्वराज’ में उन्होंने लगातार हो रही खोजों के कारण पैदा हो रहे उत्पादों और सेवाओं को मानवता के लिये खतरा बताया था। उन्होंने वर्तमान सभ्यता को अन्तहीन इच्छाओं और शैतानिक सोच से प्रेरित बताया। उनके अनुसार, असली सभ्यता अपने कर्तव्यों का पालन करना और नैतिक और संयमित आचरण करना है।
उनका दृष्टिकोण था कि लालच और जुनून पर अंकुश होना चाहिए। टिकाऊ विकास का केन्द्र बिन्दु समाज की मौलिक जरूरतों को पूरा करना होना चाहिए। इस अर्थ में उनकी पुस्तक ‘द हिंद स्वराज’ टिकाऊ विकास का घोषणापत्र है। जिसमें कहा गया है कि आधुनिक शहरी औद्योगिक सभ्यता में ही उसके विनाश के बीज निहित है।
वायु प्रदूषण और गाँधी
उचित उपचार और उपायों के जरिए वायु प्रदूषण को रोकना स्थिरता और टिकाऊ विकास का आवश्यक पहलू है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि महात्मा गाँधी जब 1913 में दक्षिण अफ्रीका में अपने पहले सत्याग्रह आन्दोलन की अगुआई कर रहे थे तभी उन्होंने यह महसूस कर लिया था कि आधुनिक समाज तक स्वच्छ हवा पहुँचाने में लागत आएगी।
अपने एक लेख ‘की टु हेल्थ’ (स्वास्थ्य कुंजी) में उन्होंने साफ हवा की जरूरत पर रोशनी डाली। इसमें साफ वायु पर एक अलग से अध्याय है जिसमें कहा गया है कि शरीर को तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है हवा, पानी और भोजन लेकिन साफ हवा सबसे आवश्यक है। वह कहते हैं कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त हवा फ्री में दी है लेकिन उनकी पीड़ा थी कि आधुनिक सभ्यता ने इसकी भी कीमत तय कर दी है। वह कहते हैं कि किसी व्यक्ति को कहीं दूर जाना पड़ता है तो उसे साफ हवा के लिये पैसा खर्च करना पड़ता है।
आज से करीब 100 साल पहले 01 जनवरी, 1918 को अहमदाबाद में एक बैठक को सम्बोधित करते हुए उन्होंने भारत की आजादी को तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने 1918 में जो कहा और किया था उसे अदालतें आज जीवन के अधिकार कानून की व्याख्या करते हुए साफ हवा, साफ पानी और पर्याप्त भोजन के अधिकार के रूप में परिभाषित कर रही हैं।
1930 के दशक के अन्तिम दिनों में उन्होंने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि इसमें सभी नागरिकों को शुद्ध हवा और पानी उपलब्ध होना चाहिए। आज से 100 साल पहले साफ हवा पर गाँधी की समझ, चिन्तन और भारत की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के प्रति उनके विचार आज इक्कीसवीं सदी में भी उन्हें समकालीन बनाते हैं।
सतत जीवन के लिये दृष्टिकोण में बदलाव
महात्मा गाँधी के कई बयान हैं जिन्हें टिकाऊ विकास के लिये उनके विश्वव्यापी दृष्टिकोण के रूप में उद्धृत किया जा सकता है। यूरोपीय संघ के सन्दर्भ में दिये गए उनके एक बयान की प्रासंगिकता आज पूरे मानव समाज को है। उन्होंने 1931 में लिखा था कि भौतिक सुख और आराम के साधनों के निर्माण और उनकी निरन्तर खोज में लगे रहना ही अपने आप में एक बुराई है।
उन्होंने कहा कि मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि यूरोपीय लोगों को अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना होगा। इससे उनका काफी नुकसान होगा और वह आरामतलबी के दास बन जाएँगे। असल में यूरोपीय लोग अब गाँधी जी की बातों को सुन रहे हैं। यह बात कुछ ब्रिटिश नागरिकों के दृष्टिकोण से भी स्पष्ट है जिन्होंने सरल जीवन जीने के लिये ऊर्जा और भौतिक संसाधनों पर से अपनी निर्भरता कम कर ली है। उन्होंने शून्य ऊर्जा इकाई (जीवाश्म) स्थापित की है, यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके जरिए लंदन में एक हाउसिंग सोसाइटी चलाई जा रही है।
सोसाइटी के प्रवेश द्वार पर लिखा है- यूके में एक व्यक्ति जितना उपभोग करता है अगर दुनिया का हर व्यक्ति इतना ही उपभोग करे तो सबकी जरूरतों को पूरा करने के लिये हमें धरती जैसे तीन ग्रहों की जरूरत होगी। गाँधी जी ने आठ दशक पहले ही लिख दिया था कि यदि भारत ने विकास के लिये पश्चिमी मॉडल का पालन किया तो उसे अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये एक अलग धरती की जरूरत होगी। लंदन की इस हाउसिंग सोसाइटी के लोग किसी भी जलवायु और पर्यावरण आन्दोलन से नहीं जुड़े हैं और साथ ही वह अलग-अलग कामों और व्यवसायों से जुड़े हैं। ये सभी जीवन्त मध्यम वर्ग का हिस्सा हैं। बस इन लोगों का खपत और उत्पादन दृष्टिकोण ही इन्हें दूसरों से अलग बनाता है।
उन्होंने निर्णय ले रखा है कि दूरदराज के स्थानों से लाये जाने वाले खाद्य पदार्थ वे नहीं खाएँगे। उनका मानना है कि जब वस्तुओं की लम्बी दूरी से ले जाया जाता है तो परिवहन, संरक्षण और पैकिंग में बहुत ज्यादा ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। दूर स्थानों से भोजन के लाने और उन पर निर्भरता से काफी ऊर्जा का प्रयोग होता है जिसकी वजह से काफी अधिक मात्रा में कार्बन डाइअॉक्साइड और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है इसलिये उन्होंने कुछ किलोमीटर के भीतर उपलब्ध पदार्थों के प्रयोग का निर्णय लिया है।
जलवायु के अर्थशास्त्र पर यूके में निकोलस स्टर्न कमेटी रिपोर्ट ग्रीन हाउस गैस के कम उपयोग के साथ-साथ जीवनशैली में बदलाव करके एक कार्बन अर्थव्यवस्था से एक गैर कार्बन अर्थव्यवस्था में स्थानान्तरित होने पर जोर देती है। गाँधी जी ने कई अवसरों पर लिखा है कि मनुष्य जब अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिये 15 या 20 किलोमीटर से ज्यादा दूर के संसाधनों को प्रयोग करेगा तो प्रकृति की अर्थव्यवस्था नष्ट होगी। उनका स्वदेशी चिन्तन और 1911 में ‘प्रकृति की अर्थव्यवस्था’ वाक्यांश के निर्माण के जरिए ही प्रकृति के प्रति उनकी गहरी समझ और संवेदनशीलता को समझा जा सकता है।
1928 में ही उन्होंने चेतावनी दी थी कि विकास और औद्योगिकता में पश्चिमी देशों का पीछा करना मानवता और पृथ्वी के लिये खतरा पैदा करेगा। उन्होंने कहा कि भगवान न करे कि भारत को कभी पश्चिमी देशों की तरह औद्योगीकीकरण अपनाना पड़े। कुछ किलोमीटर के एक छोटे से एक द्वीप इंग्लैण्ड के आर्थिक साम्राज्यवाद ने आज दुनिया को उलझा रखा है। अगर सभी देश इसी तरह आर्थिक शोषण करेंगे तो यह दुनिया एक टिड्डीयों के दल की तरह हो जाएगी।
संसाधनों पर आम लोगों का अधिकार
हम सभी 1930 के गाँधी जी के ऐतिहासिक दांडी मार्च से परिचित हैं। इसके जरिए उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों पर आाम लोगों के अधिकारों पर जोर दिया था। नमक एक महत्त्वपूर्ण और बुनियादी प्राकृतिक जरूरत है। ब्रिटिश साम्राज्य संसाधनों पर अपना एकाधिकार रखता था और उन्हें उनके वैध मालिकों की पहुँच से वंचित रखता था।
बुनियादी संसाधनों से आम लोगों को दूर रखना उनकी अस्थिर विकास की रणनीति का हिस्सा था। नमक कानून तोड़कर और आम लोगों को नमक बनाने का अधिकार देकर उन्होंने उन्हें सशक्त बनाने का काम किया जो कि टिकाऊ विकास का केन्द्रीय मुद्दा है। दांडी मार्च खत्म होने के बाद, उन्होंने अपने बड़े लक्ष्यों को रेखाकिंत किया। उन्होंने कहा कि इस मार्च का उद्देश्य भारत की आजादी से भी आगे जाकर दुनिया को भौतिकवाद के राक्षसी लालच के चंगुल से मुक्त करना है। यह एक शक्तिशाली बयान था जिसमें उन्होंने लालच पर आधारित आधुनिक सभ्यता की आलोचना के साथ-साथ टिकाऊ विकास पर जोर दिया था।
रचनात्मक रूप से अहिंसात्मक कार्रवाई की व्याख्या करते हुए उन्होंने साप्रदायिक सद्भाव के साथ-साथ कई अन्य चीजों पर भी जोर दिया, जैसे आर्थिक समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन, लोगों के जीवन में प्रगतिशील सुधार, महिलाओं को मताधिकार, निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार, ताकि साधारण लोगों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इनमें से अधिकतर मुद्दे रियो शिखर सम्मेलन के एजेंडा-21 के अभिन्न अंग हैं, जो टिकाऊ विकास के लिये एक ब्लूप्रिंट है।
गाँधी की कारों के खिलाफ चेतावनी
आधुनिक सभ्यता की कुछ विशेषताओं में एक विशेषता यह है कि गतिशीलता को बढ़ावा देने के लिये कारों और विमानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जोसेफ स्टिजलिट्ज ने अपनी पुस्तक ‘मेकिंग ग्लोबलाइजेशन वर्क’ में लिखा है 80 प्रतिशत ग्लोबल वार्मिंग हाइड्रोकार्बन और 20 प्रतिशत वनों की कटाई की वजह से होती है। सबको पता है कि पर्यावरण के लिये कारों की बढ़ती संख्या कितना बड़ा खतरा है।
जब 1938 में गाँधी जी को बताया गया कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति चाहते हैं कि उनके देश के हर नागरिक के पास दो कारें और दो रेडियो सेट हों तो महात्मा गाँधी ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि अगर हर भारतीय परिवार में एक कार होगी तो सड़कों पर चलने के लिये जगह की कमी पड़ जाएगी। साथ ही उन्होंने आगे कहा था कि अगर भारतीय एक कार भी रखें तो यह कोई अच्छा काम नहीं होगा। दांडी मार्च के दौरान कुछ लोग कार पर संतरे लाये तो उन्होंने कहा था कि नियम होना चाहिए की यदि आप चल सकते हो तो कार से बचो।
कई यूरोपीय देश है जहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कारों के प्रवेश पर टैक्स लगाया जाता है ताकि प्रदूषण को कम किया जाये। साथ ही यूरोप में कई अन्य देश हैं जहाँ कार फ्री दिन मनाएँ जाते हैं। अॉड और ईवन के जरिए भी सड़कों पर कारों की संख्या को कम करने की कोशिश की जा रही है। ज्यादा कारों को रखने से होने वाले नुकसान पर गाँधी जी ने जो चेतावनी दी थी उसे आज पूरी दुनिया महसूस कर रही है।
जल सुरक्षा के लिये वर्षाजल संचयन और वनीकरण पर गाँधी जी के विचार
दुनिया में अकाल और पानी की कमी के सन्दर्भ में महात्मा गाँधी के विचारों को याद करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आजादी के लिये संघर्ष के दौरान वह गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में होने वाले अकालों पर भी काफी चिन्तित थे। पानी की कमी के मुद्दे पर उन्होंने सभी रियासतों को सलाह दी थी कि सभी को एक संघ बनाकर दीर्घकालिक उपाय करने चाहिए और खाली भूमि पर पेड़ लगाने चाहिए। उन्होंने बड़े पैमाने पर वनों के काटने का भी विरोध किया था। आज इक्कीसवीं सदी में गाँधी जी की बात और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है।
अंग्रेजों ने वनों को बस धन कमाने का जरिया ही समझा था। इसके साथ ही गाँधी जी ने वर्षाजल के संचयन पर भी जोर दिया। 1947 में दिल्ली में प्रार्थना में बोलते समय उन्होंने बारिश के पानी के प्रयोग की वकालत की थी और इससे फसलों की सिंचाई पर जोर दिया। किसानों पर 2006 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में स्वामीनाथ आयोग ने भी सिंचाई की समस्या को हल करने के लिये बारिश के पानी के उपयोग की सिफारिश की थी।
जर्मनी में ग्रीन पार्टी की जड़े, गाँधी जी के विचारों और दृष्टिकोण
ग्रीन पार्टी की संस्थापकों में से एक पेट्रा केली ने पार्टी की स्थापना में महात्मा गाँधी के विचारों के प्रभावों को स्वीकार करते हुए लिखा है कि हम अपने काम करने के तरीकों में महात्मा गाँधी से बहुत प्रेरित हुए हैं। हमारी धारणा है कि हमारी जीवनशैली इस तरह होनी चाहिए कि हमें लगातार उत्पादन के लिये कच्चे माल की आपूर्ति होती रहे और हम कच्चे माल का उपयोग करते रहें। कच्चे माल के उपभोग से पारिस्थितिकी तंत्र उन्मुख जीवनशैली विकसित होगी और साथ ही अर्थव्यवस्था से हिंसक नीतियाँ भी कम होंगी।
अहिंसा और सरल जीवनशैली से ही पृथ्वी बच सकती है
एक पुस्तक “सर्वाइविंग द सेंचुरी: फेसिंग क्लाउड कैओस एण्ड ग्लोबल चैलेंज” जो प्रोफेसर हर्बर्ट गिरार्डेट द्वारा सम्पादित की गई है, उसमें चार मानक सिद्धान्तों अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को इस सदी और पृथ्वी को बचाने के लिये जरूरी बताया गया है।
धीरे-धीरे ही सही दुनिया गाँधी जी और उनके उन सिद्धान्तों को मान और अपना रही है जो सदैव उनके जीवन और कार्यों के केन्द्र में रहें। द टाइम मैगजीन ने अपने 09 अप्रैल, 2007 के अंक में दुनिया को ग्लोबल वॉर्मिंग से बचाने के 51 उपाय छापे। इसमें से 51वाँ उपाय था कम उपभोग, ज्यादा साझेदारी और सरल जीवन।
दूसरे शब्दों में कहें तो टाइम मैगजीन जैसी पत्रिका जिसे पश्चिमी देशों का मुख्यपत्र कहा जाता है, वह अब ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को रोकने के लिये अब गाँधी जी के रास्तों को अपनाने के लिये कह रही है। ये सब तथ्य बताते हैं कि पृथ्वी को बचाने के लिये गाँधी जी की मौलिक सोच और उनके विचार कितने महत्त्वपूर्ण और गहरे हैं। इसलिये टिकाऊ और सतत विकास के लिये गाँधी जी के विचारों को फिर से समझना अनिवार्य है।
(लेखक पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायण के ओएसडी और प्रेस सचिव रहे हैं।)
उनका दृष्टिकोण था कि लालच और जुनून पर अंकुश होना चाहिए। टिकाऊ विकास का केन्द्र बिन्दु समाज की मौलिक जरूरतों को पूरा करना होना चाहिए। इस अर्थ में उनकी पुस्तक ‘द हिंद स्वराज’ टिकाऊ विकास का घोषणापत्र है। जिसमें कहा गया है कि आधुनिक शहरी औद्योगिक सभ्यता में ही उसके विनाश के बीज निहित है।
वायु प्रदूषण और गाँधी
उचित उपचार और उपायों के जरिए वायु प्रदूषण को रोकना स्थिरता और टिकाऊ विकास का आवश्यक पहलू है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि महात्मा गाँधी जब 1913 में दक्षिण अफ्रीका में अपने पहले सत्याग्रह आन्दोलन की अगुआई कर रहे थे तभी उन्होंने यह महसूस कर लिया था कि आधुनिक समाज तक स्वच्छ हवा पहुँचाने में लागत आएगी।
अपने एक लेख ‘की टु हेल्थ’ (स्वास्थ्य कुंजी) में उन्होंने साफ हवा की जरूरत पर रोशनी डाली। इसमें साफ वायु पर एक अलग से अध्याय है जिसमें कहा गया है कि शरीर को तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है हवा, पानी और भोजन लेकिन साफ हवा सबसे आवश्यक है। वह कहते हैं कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त हवा फ्री में दी है लेकिन उनकी पीड़ा थी कि आधुनिक सभ्यता ने इसकी भी कीमत तय कर दी है। वह कहते हैं कि किसी व्यक्ति को कहीं दूर जाना पड़ता है तो उसे साफ हवा के लिये पैसा खर्च करना पड़ता है।
आज से करीब 100 साल पहले 01 जनवरी, 1918 को अहमदाबाद में एक बैठक को सम्बोधित करते हुए उन्होंने भारत की आजादी को तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने 1918 में जो कहा और किया था उसे अदालतें आज जीवन के अधिकार कानून की व्याख्या करते हुए साफ हवा, साफ पानी और पर्याप्त भोजन के अधिकार के रूप में परिभाषित कर रही हैं।
1930 के दशक के अन्तिम दिनों में उन्होंने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि इसमें सभी नागरिकों को शुद्ध हवा और पानी उपलब्ध होना चाहिए। आज से 100 साल पहले साफ हवा पर गाँधी की समझ, चिन्तन और भारत की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के प्रति उनके विचार आज इक्कीसवीं सदी में भी उन्हें समकालीन बनाते हैं।
सतत जीवन के लिये दृष्टिकोण में बदलाव
महात्मा गाँधी के कई बयान हैं जिन्हें टिकाऊ विकास के लिये उनके विश्वव्यापी दृष्टिकोण के रूप में उद्धृत किया जा सकता है। यूरोपीय संघ के सन्दर्भ में दिये गए उनके एक बयान की प्रासंगिकता आज पूरे मानव समाज को है। उन्होंने 1931 में लिखा था कि भौतिक सुख और आराम के साधनों के निर्माण और उनकी निरन्तर खोज में लगे रहना ही अपने आप में एक बुराई है।
उन्होंने कहा कि मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि यूरोपीय लोगों को अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना होगा। इससे उनका काफी नुकसान होगा और वह आरामतलबी के दास बन जाएँगे। असल में यूरोपीय लोग अब गाँधी जी की बातों को सुन रहे हैं। यह बात कुछ ब्रिटिश नागरिकों के दृष्टिकोण से भी स्पष्ट है जिन्होंने सरल जीवन जीने के लिये ऊर्जा और भौतिक संसाधनों पर से अपनी निर्भरता कम कर ली है। उन्होंने शून्य ऊर्जा इकाई (जीवाश्म) स्थापित की है, यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके जरिए लंदन में एक हाउसिंग सोसाइटी चलाई जा रही है।
सोसाइटी के प्रवेश द्वार पर लिखा है- यूके में एक व्यक्ति जितना उपभोग करता है अगर दुनिया का हर व्यक्ति इतना ही उपभोग करे तो सबकी जरूरतों को पूरा करने के लिये हमें धरती जैसे तीन ग्रहों की जरूरत होगी। गाँधी जी ने आठ दशक पहले ही लिख दिया था कि यदि भारत ने विकास के लिये पश्चिमी मॉडल का पालन किया तो उसे अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये एक अलग धरती की जरूरत होगी। लंदन की इस हाउसिंग सोसाइटी के लोग किसी भी जलवायु और पर्यावरण आन्दोलन से नहीं जुड़े हैं और साथ ही वह अलग-अलग कामों और व्यवसायों से जुड़े हैं। ये सभी जीवन्त मध्यम वर्ग का हिस्सा हैं। बस इन लोगों का खपत और उत्पादन दृष्टिकोण ही इन्हें दूसरों से अलग बनाता है।
उन्होंने निर्णय ले रखा है कि दूरदराज के स्थानों से लाये जाने वाले खाद्य पदार्थ वे नहीं खाएँगे। उनका मानना है कि जब वस्तुओं की लम्बी दूरी से ले जाया जाता है तो परिवहन, संरक्षण और पैकिंग में बहुत ज्यादा ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। दूर स्थानों से भोजन के लाने और उन पर निर्भरता से काफी ऊर्जा का प्रयोग होता है जिसकी वजह से काफी अधिक मात्रा में कार्बन डाइअॉक्साइड और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है इसलिये उन्होंने कुछ किलोमीटर के भीतर उपलब्ध पदार्थों के प्रयोग का निर्णय लिया है।
जलवायु के अर्थशास्त्र पर यूके में निकोलस स्टर्न कमेटी रिपोर्ट ग्रीन हाउस गैस के कम उपयोग के साथ-साथ जीवनशैली में बदलाव करके एक कार्बन अर्थव्यवस्था से एक गैर कार्बन अर्थव्यवस्था में स्थानान्तरित होने पर जोर देती है। गाँधी जी ने कई अवसरों पर लिखा है कि मनुष्य जब अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिये 15 या 20 किलोमीटर से ज्यादा दूर के संसाधनों को प्रयोग करेगा तो प्रकृति की अर्थव्यवस्था नष्ट होगी। उनका स्वदेशी चिन्तन और 1911 में ‘प्रकृति की अर्थव्यवस्था’ वाक्यांश के निर्माण के जरिए ही प्रकृति के प्रति उनकी गहरी समझ और संवेदनशीलता को समझा जा सकता है।
1928 में ही उन्होंने चेतावनी दी थी कि विकास और औद्योगिकता में पश्चिमी देशों का पीछा करना मानवता और पृथ्वी के लिये खतरा पैदा करेगा। उन्होंने कहा कि भगवान न करे कि भारत को कभी पश्चिमी देशों की तरह औद्योगीकीकरण अपनाना पड़े। कुछ किलोमीटर के एक छोटे से एक द्वीप इंग्लैण्ड के आर्थिक साम्राज्यवाद ने आज दुनिया को उलझा रखा है। अगर सभी देश इसी तरह आर्थिक शोषण करेंगे तो यह दुनिया एक टिड्डीयों के दल की तरह हो जाएगी।
संसाधनों पर आम लोगों का अधिकार
हम सभी 1930 के गाँधी जी के ऐतिहासिक दांडी मार्च से परिचित हैं। इसके जरिए उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों पर आाम लोगों के अधिकारों पर जोर दिया था। नमक एक महत्त्वपूर्ण और बुनियादी प्राकृतिक जरूरत है। ब्रिटिश साम्राज्य संसाधनों पर अपना एकाधिकार रखता था और उन्हें उनके वैध मालिकों की पहुँच से वंचित रखता था।
बुनियादी संसाधनों से आम लोगों को दूर रखना उनकी अस्थिर विकास की रणनीति का हिस्सा था। नमक कानून तोड़कर और आम लोगों को नमक बनाने का अधिकार देकर उन्होंने उन्हें सशक्त बनाने का काम किया जो कि टिकाऊ विकास का केन्द्रीय मुद्दा है। दांडी मार्च खत्म होने के बाद, उन्होंने अपने बड़े लक्ष्यों को रेखाकिंत किया। उन्होंने कहा कि इस मार्च का उद्देश्य भारत की आजादी से भी आगे जाकर दुनिया को भौतिकवाद के राक्षसी लालच के चंगुल से मुक्त करना है। यह एक शक्तिशाली बयान था जिसमें उन्होंने लालच पर आधारित आधुनिक सभ्यता की आलोचना के साथ-साथ टिकाऊ विकास पर जोर दिया था।
रचनात्मक रूप से अहिंसात्मक कार्रवाई की व्याख्या करते हुए उन्होंने साप्रदायिक सद्भाव के साथ-साथ कई अन्य चीजों पर भी जोर दिया, जैसे आर्थिक समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन, लोगों के जीवन में प्रगतिशील सुधार, महिलाओं को मताधिकार, निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार, ताकि साधारण लोगों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इनमें से अधिकतर मुद्दे रियो शिखर सम्मेलन के एजेंडा-21 के अभिन्न अंग हैं, जो टिकाऊ विकास के लिये एक ब्लूप्रिंट है।
गाँधी की कारों के खिलाफ चेतावनी
आधुनिक सभ्यता की कुछ विशेषताओं में एक विशेषता यह है कि गतिशीलता को बढ़ावा देने के लिये कारों और विमानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जोसेफ स्टिजलिट्ज ने अपनी पुस्तक ‘मेकिंग ग्लोबलाइजेशन वर्क’ में लिखा है 80 प्रतिशत ग्लोबल वार्मिंग हाइड्रोकार्बन और 20 प्रतिशत वनों की कटाई की वजह से होती है। सबको पता है कि पर्यावरण के लिये कारों की बढ़ती संख्या कितना बड़ा खतरा है।
जब 1938 में गाँधी जी को बताया गया कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति चाहते हैं कि उनके देश के हर नागरिक के पास दो कारें और दो रेडियो सेट हों तो महात्मा गाँधी ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि अगर हर भारतीय परिवार में एक कार होगी तो सड़कों पर चलने के लिये जगह की कमी पड़ जाएगी। साथ ही उन्होंने आगे कहा था कि अगर भारतीय एक कार भी रखें तो यह कोई अच्छा काम नहीं होगा। दांडी मार्च के दौरान कुछ लोग कार पर संतरे लाये तो उन्होंने कहा था कि नियम होना चाहिए की यदि आप चल सकते हो तो कार से बचो।
कई यूरोपीय देश है जहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कारों के प्रवेश पर टैक्स लगाया जाता है ताकि प्रदूषण को कम किया जाये। साथ ही यूरोप में कई अन्य देश हैं जहाँ कार फ्री दिन मनाएँ जाते हैं। अॉड और ईवन के जरिए भी सड़कों पर कारों की संख्या को कम करने की कोशिश की जा रही है। ज्यादा कारों को रखने से होने वाले नुकसान पर गाँधी जी ने जो चेतावनी दी थी उसे आज पूरी दुनिया महसूस कर रही है।
जल सुरक्षा के लिये वर्षाजल संचयन और वनीकरण पर गाँधी जी के विचार
दुनिया में अकाल और पानी की कमी के सन्दर्भ में महात्मा गाँधी के विचारों को याद करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आजादी के लिये संघर्ष के दौरान वह गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में होने वाले अकालों पर भी काफी चिन्तित थे। पानी की कमी के मुद्दे पर उन्होंने सभी रियासतों को सलाह दी थी कि सभी को एक संघ बनाकर दीर्घकालिक उपाय करने चाहिए और खाली भूमि पर पेड़ लगाने चाहिए। उन्होंने बड़े पैमाने पर वनों के काटने का भी विरोध किया था। आज इक्कीसवीं सदी में गाँधी जी की बात और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है।
अंग्रेजों ने वनों को बस धन कमाने का जरिया ही समझा था। इसके साथ ही गाँधी जी ने वर्षाजल के संचयन पर भी जोर दिया। 1947 में दिल्ली में प्रार्थना में बोलते समय उन्होंने बारिश के पानी के प्रयोग की वकालत की थी और इससे फसलों की सिंचाई पर जोर दिया। किसानों पर 2006 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में स्वामीनाथ आयोग ने भी सिंचाई की समस्या को हल करने के लिये बारिश के पानी के उपयोग की सिफारिश की थी।
जर्मनी में ग्रीन पार्टी की जड़े, गाँधी जी के विचारों और दृष्टिकोण
ग्रीन पार्टी की संस्थापकों में से एक पेट्रा केली ने पार्टी की स्थापना में महात्मा गाँधी के विचारों के प्रभावों को स्वीकार करते हुए लिखा है कि हम अपने काम करने के तरीकों में महात्मा गाँधी से बहुत प्रेरित हुए हैं। हमारी धारणा है कि हमारी जीवनशैली इस तरह होनी चाहिए कि हमें लगातार उत्पादन के लिये कच्चे माल की आपूर्ति होती रहे और हम कच्चे माल का उपयोग करते रहें। कच्चे माल के उपभोग से पारिस्थितिकी तंत्र उन्मुख जीवनशैली विकसित होगी और साथ ही अर्थव्यवस्था से हिंसक नीतियाँ भी कम होंगी।
अहिंसा और सरल जीवनशैली से ही पृथ्वी बच सकती है
एक पुस्तक “सर्वाइविंग द सेंचुरी: फेसिंग क्लाउड कैओस एण्ड ग्लोबल चैलेंज” जो प्रोफेसर हर्बर्ट गिरार्डेट द्वारा सम्पादित की गई है, उसमें चार मानक सिद्धान्तों अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को इस सदी और पृथ्वी को बचाने के लिये जरूरी बताया गया है।
धीरे-धीरे ही सही दुनिया गाँधी जी और उनके उन सिद्धान्तों को मान और अपना रही है जो सदैव उनके जीवन और कार्यों के केन्द्र में रहें। द टाइम मैगजीन ने अपने 09 अप्रैल, 2007 के अंक में दुनिया को ग्लोबल वॉर्मिंग से बचाने के 51 उपाय छापे। इसमें से 51वाँ उपाय था कम उपभोग, ज्यादा साझेदारी और सरल जीवन।
दूसरे शब्दों में कहें तो टाइम मैगजीन जैसी पत्रिका जिसे पश्चिमी देशों का मुख्यपत्र कहा जाता है, वह अब ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को रोकने के लिये अब गाँधी जी के रास्तों को अपनाने के लिये कह रही है। ये सब तथ्य बताते हैं कि पृथ्वी को बचाने के लिये गाँधी जी की मौलिक सोच और उनके विचार कितने महत्त्वपूर्ण और गहरे हैं। इसलिये टिकाऊ और सतत विकास के लिये गाँधी जी के विचारों को फिर से समझना अनिवार्य है।
(लेखक पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायण के ओएसडी और प्रेस सचिव रहे हैं।)
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