पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र की अनदेखी के चलते अस्तित्व के संकट के दौर में बाघ

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जंगलों के कटान के चलते जहाँ धरती का बुखार बढ़ रहा है, मौसम का मिजाज बदल रहा है, प्रदूषण में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, बाढ़-सुखाड़ का संकट बढ़ता जा रहा है, पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है यानी वह बुरी तरह बिगड़ रहा है, जाहिर है यह सब समाज, सरकार और बाजार के चरित्र में आये बदलाव के कारण हो रहा है। यही वह अहम वजह है जिसके चलते जल, जगल, जमीन और कृषि जैसे जीवन जीने के लिये जरूरी बुनियादी क्षेत्रों में पैदा नित-नई चुनौतियों से निपटना बेहद जरूरी हो गया है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि जब भी बड़े बाँध बनते हैं तो उनके डूब क्षेत्र में जंगल, खेत, गाँव आदि सभी आते हैं। इसी भाँति शहरों और गाँवों के क्षेत्र में धीरे-धीरे होने वाले निर्वनीकरण से वनों का दायरा सिकुड़ता है और उसके परिणामस्वरूप वहाँ बसने वाले असंख्य वन्यजीवों-जन्तुओं को विवशता में पलायन करना पड़ता है। इससे उनके रहवास का सन्तुलन बिगड़ जाता है। नतीजतन उनका मानव बस्तियों की ओर आना-जाना बढ़ जाता है, फलस्वरूप मानव-वन्य प्राणी द्वन्द्व में वृद्धि होती है जिसमें सबसे ज्यादा हानि वन्य प्राणियों को उठानी पड़ती है। इसे यदि यूँ कहें कि उनकी शामत आ जाती है तो कुछ गलत नहीं होगा।

जंगलों के कटान के चलते जहाँ धरती का बुखार बढ़ रहा है, मौसम का मिजाज बदल रहा है, प्रदूषण में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, बाढ़-सुखाड़ का संकट बढ़ता जा रहा है, पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है यानी वह बुरी तरह बिगड़ रहा है, जाहिर है यह सब समाज, सरकार और बाजार के चरित्र में आये बदलाव के कारण हो रहा है। यही वह अहम वजह है जिसके चलते जल, जगल, जमीन और कृषि जैसे जीवन जीने के लिये जरूरी बुनियादी क्षेत्रों में पैदा नित-नई चुनौतियों से निपटना बेहद जरूरी हो गया है। लेकिन यह भी कम दुखद नहीं है कि इसमें हम बराबर असफल होते जा रहे हैं।

विडम्बना तो यह है कि देश में स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण और जल संवर्धन हेतु जहाँ एक ओर पेड़ लगाओ यात्राएँ आयोजित हो रही हैं, वहीं दूसरी ओर जगलों के काटे जाने का सिलसिला निर्वाध गति से जारी है। पता नहीं हम क्यों विकास के नशे में मदहोश होकर यह सब जानते-समझते हुए कि इसके गम्भीर परिणाम होंगे, पर्यावरण प्रदूषण का खतरा बढ़ जाएगा जिसकी भरपाई असम्भव होगी और मानव जीवन खतरे में पड़ जाएगा, प्रकृति की मूलाकृति को विकृत करने पर तुले हैं।

यही वह अहम वजह है जिसके चलते आज देश में ही नहीं समूची दुनिया में बाघों के अस्तित्व पर संकट मँडरा रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि आज समूची दुनिया में 97 फीसदी के करीब बाघ खत्म हो चुके हैं। दुख इस बात का है कि पारिस्थितिकी तंत्र में अहम भूमिका का निर्वहन करने वाले बाघों के भविष्य के बारे में नेतृत्व मौन है। वह बात दीगर है कि इस बाबत समय-समय पर ढेरों दावे किये जाते रहे हैं। लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात वाली कहावत के यथार्थ के रूप में सामने आये हैं। इस मामले में यदि भारत की बात करें तो भारत में बाघों की संख्या में बढ़ोत्तरी का दावा किया जा रहा है। लेकिन मौजूदा हालात इसकी गवाही नहीं देते। वन्य जीव विशेषज्ञ तो बाघों की तादाद में बढ़ोत्तरी के दावों को सिरे से खारिज करते हैं।

भले बाघों के बारे में विश्व वन्यजीव निधि की वरिष्ठ उपाध्यक्ष जिनेट हेमले बाघों के संरक्षण प्रयासों की प्रशंसा करें और बाघों की बढ़ोत्तरी पर खुशी जाहिर करें। दावा किया जा रहा है कि आज दुनिया में बाघों की संख्या 3890 तक पहुँच गई है। इसमें आधी से अधिक यानी 2226 भारत में ही है। टाइगर प्रोजेक्ट तो देश में 3891 बाघ होने का दावा कर रहा है। यह समझ से परे है।

पीपुल्स फॉर एनीमल्स के राजस्थान प्रभारी बाबूलाल जाजू तो इस बारे में टाइगर प्रोजेक्ट के दावे को झूठ का पुलिंदा करार देते हैं। उस हालत में जबकि भारत में ही बीते ढाई सालों में तकरीब 270 से अधिक बाघ तस्करों के द्वारा मार दिये गए हैं। दूसरी ओर दुनिया के देशों में सबसे ज्यादा बाघ होने के मामले में भारत के बाद रूस और इंडोनेशिया का नम्बर आता है जहाँ 433 और 371 बाघ हैं। लेकिन वहाँ बाघ संरक्षण की स्थिति हमसे भिन्न है।

देखा जाये तो बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है। सरकार देश में बाघ संरक्षण के बारे में ढेरों दावे करते नहीं थकती जबकि असलियत में इसी साल अब तक देश में तकरीब 70 बाघ तस्करों द्वारा मार दिये गए हैं। यह चिन्तनीय है। इसका सबसे बड़ा कारण राष्ट्रीय पार्कों की सुरक्षा व्यवस्था का कमजोर होना है। परिणामस्वरूप शिकार और बाघों के अंगों की दुनिया के बाजार में तेजी से बढ़ती माँग के चलते तस्करों द्वारा उनकी हत्याएँ आम बात है। यह सिलसिला लाख प्रयासों के बाद अभी तक थमा नहीं है। गौरतलब है कि एक वैश्विक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि भारत में बाघों की स्थिति बेहतर नहीं है। खासतौर पर यहाँ बाघों की रिहाइश की स्थिति दिनोंदिन बेहद खराब होती जा रही है। यह चिन्ता का विषय है।

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की ओर से जारी ‘फायर्स बट फ्रेजाइल - कोएक्जिस्टेंस इन ए चेजिंग वर्ल्ड’ नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में बाघों की रिहाइश वाले इलाकों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक प्रतिष्ठानों, यातायात हेतु सड़कों, पनबिजली परियोजनाओं और अन्य बुनियादी सुविधाओं के लिये किए जा रहे निर्माण कार्य हेतु वनों की कटाई होने से जंगल सिकुड़ रहे हैं। इससे पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। जंगलों के खात्मे के परिणामस्वरूप बाघों की रिहाइश के हालातों पर बुरा असर पड़ रहा है।

इन हालातों के जारी रहने से बाघों की स्थिति और खराब हो सकती है। इससे बाघों की आबादी के अलग-थलग पड़ने और टूटने का तो खतरा है ही, इनको सामाजिक और जैविक समस्या का भी सामना करना पड़ सकता है। जहाँ तक भारत और नेपाल की तराई के इलाकों का सवाल है, इनमें मानव और वन्यजीव संघर्ष सबसे बड़ी एक अहम समस्या है। इन हालातों के चलते बाघों के विकास और संरक्षण के कार्यक्रमों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि बाघों की रिहाइश वाले इलाकों में मानव आबादी का इसी रफ्तार से बढ़ना जारी रहा तो इंसानों और बाघों के संघर्ष भी बढ़ेंगे। उस हालत में इनके बेहतर प्रबन्धन की बेहद जरूरत होगी।

इस बारे में वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया की मानें तो एक बाघ के लिये कम-से-कम 70 से 100 वर्ग किलोमीटर के इलाके की जरूरत होती है। हमारे यहाँ जंगल दिनोंदिन सिकुड़ रहे हैं। हमारे नेशनल पार्कों में तो बाघों के लिये इतना इलाका भी मौजूद नहीं है। ऐसे में जानवरों के बीच संघर्ष का खतरा हमेशा बना ही रहता है। सिकुड़े हुए इलाकों में बाघ किस तरह रहते हैं, यह सबसे बड़ा शोध का विषय है।

असलियत यह है कि बाघ जैसे जानवरों के लिये जंगलों में जगह बेहद कम है। सबसे बुरा हाल उत्तराखण्ड के कार्बेट नेशनल पार्क का है जहाँ बाघों के रहने के लिये मात्र छह वर्ग किलोमीटर जगह ही है। जंगलों में जानवरों के रहने के लिये पर्याप्त जगह न होने से यह तय है कि बाघों के साथ दूसरे जानवरों की लड़ाइयाँ बढ़ेंगी। यही वह अहम वजह है जिसके कारण बाघों और दूसरे जानवरों के लिये सुरक्षित माहौल बनाना बेहद जरूरी हो गया है। ऐसे में जंगलों का दायरा बढ़ाना ही होगा। इसके सिवाय कोई चारा नहीं है। यह उसी दशा में सम्भव है जबकि जंगलों के बीच बसे गाँवों को हटाकर उन्हें कहीं और बसाया जाये और जानवरों के रहने के लिये और जगह बनाई जाये।

लेकिन विडम्बना यह है कि इस सबके बावजूद बाघों के स्वच्छंद विचरण के लिये उनके रिहाइश के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के सवाल पर सरकार मौन है। और-तो-और पर्यावरण की चिन्ता किये बगैर विकास के नाम पर बाघ गलियारों के बीच हाइवे, नहरों और पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण का सिलसिला बेरोकटोक जारी है। हाँ नए टाइगर रिजर्व बनाने के प्रयास जरूर शुरू हुए हैं। उत्तराखण्ड में नंघौर व खटीमा इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं। इनको मिलाकर देश में 50 टाइगर रिजर्व हो जाएँगे। जबकि पिछले एक दशक में यदि केवल आठ टाइगर रिजर्व का ही जायजा लें तो पाते हैं कि कार्बेट नेशनल पार्क में बाघों का रिहाइशी इलाका 7.85 से घटकर 6 वर्ग किलोमीटर, बांदीपुर में 24.6 से घटकर 12.13 वर्ग किलोमीटर, काजीरंगा में 16.29 से घटकर 11.39 वर्ग किलोमीटर, नागरहोल में 17.21 से घटकर 11.9 वर्ग किलामीटर, मुद्दुमलाई में 16.3 से घटकर 7.73, सत्यमंगलम में 34.34 में से घटकर 19.5 वर्ग किलोमीटर, सुंदरबन में 59.14 से घटकर 38 वर्ग किलोमीटर और अन्नामलाई टाइगर रिजर्व में 70.42 से घटकर 23.49 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

एक हकीकत यह भी है कि देश में पौरुषवर्धक दवाइयों की खातिर बाघों के अंगों का कारोबार लाख कोशिशों के बावजूद थमा नहीं है। यह दशकों से जारी है। कारण विदेशों में एक मृत बाघ की कीमत 60 लाख रुपए के करीब होना है। चीन इसका सबसे बड़ा व्यापारी है। यदि इसका सिलसिलेवार जायजा लें तो अकेले चीनी बाजार में ही बाघ की खोपड़ी की कीमत 500 डालर, लिंग 4000 डालर, पंजे और दाँत 900 डालर, उसकी हड्डियाँ 6000 डालर, खाल 20,000 डालर, मांस 100 डालर प्रति किलो और उसके खून की कीमत 600 डालर प्रति लीटर है।

विडम्बना है कि देश में अभी तक इस पर अंकुश नहीं लग सका है। इन हालात में बाघों की बेहतरी, उनके उचित संरक्षण और प्रबन्धन की उम्मीद बेमानी है। अब पर्यावरण मंत्रालय ने प्रस्तावित वन्यजीव संरक्षण कानून 1972 में संशोधन के तहत वन्यजीवों के शिकार पर 5 से 50 लाख तक जुर्माना लगाने की सिफारिश की है। यह अस्तित्व में कब आएगा, वह भविष्य के गर्भ में है।

बीते साल ढाई साल में ही तकरीब 270 बाघों का मारा जाना सरकार की नाकामी ही जाहिर करता है। दुख इस बात का है कि प्रकृति के सन्तुलन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला हमारा राष्ट्रीय पशु बाघ आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। अब देखना यह है कि सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है।

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