पर्यावरण और महिलाएँ

इन सब आन्दोलनों के दबाव के कारण 1988 में जो राष्ट्रीय वन नीति बनी उसमें लोगों को स्थान दिया गया। इसमें महिलाओं की सहभागिता को महत्त्व दिया गया और उनकी वनों पर निर्भरता, वनों को लेकर ज्ञान, वन प्रबन्धन में उनकी सक्रीय भागीदारी को समझा गया और यह सोच बनी कि अगर वन प्रबन्धन में महिलाओं की भी भागीदारी होगी तो वन नीति के गोल को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है इसी सोच के चलते संयुक्त वन प्रबन्धन प्रोग्राम के अन्तर्गत हर गाँवों में वन समिति बनाई गई और उस समिति में महिलाओं को भी शामिल किया गया। महिलाओं का शुरू से ही प्रकृति से निकटतम का सम्बन्ध रहा है। एक तरफ वो प्रकृति की उत्पादनकर्ता-संग्रहकर्ता तो दूसरी तरफ प्रबन्धक-संरक्षक की भूमिका निभाती रही हैं। महिलाओं ने इसकी रक्षा के लिये कई आन्दोलन चलाए और अपने प्राण देने से भी नहीं हिचकचाई। महिलाओं के पर्यावरण-संरक्षण में अतुलनीय योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। ये आन्दोलनकारी महिलाएँ एक बात अच्छे से जानती थीं कि स्वच्छ पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हैं और पर्यावरण को बचाकर ही जीवन को सुरक्षित रखा जा सकता है। अगर हम पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करेंगे तो उसका ख़ामियाज़ा आने वाली कई पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ेगा।

देश में हुए कई पर्यावरण-संरक्षण आन्दोलनों खासकर वनों के संरक्षण में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन आन्दोलनों पर अगर नजर डाले तो अमृता देवी के नेतृत्त्व में किए गए आन्दोलन की तस्वीर सबसे पहले आती है, वर्ष 1730 में जोधपुर के महाराजा को महल बनाने के लिये लकड़ी की जरूरत आई तो राजा के आदमी खिजड़ी गाँव में पेड़ों को काटने पहुँचे तब उस गाँव की अमृता देवी के नेतृत्त्व में 84 गाँव के लोगों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया, परन्तु जब वे जबरदस्ती पेड़ों को काटने लगे तो अमृता देवी पेड़ से चिपक गई और कहा कि पेड़ काटने से पहले उसे काटना होगा तब राजा के आदमियों ने अमृता देवी को पेड़ के साथ काट दिया, यहाँ से मूल रूप से चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। अमृता देवी के इस बलिदान से प्रेरित होकर गाँव के महिला और पुरुष पेड़ से चिपक गए। इस आन्दोलन ने बहुत विकराल रूप ले लिया और 363 लोग विरोध के दौरान मारे गए, तब राजा ने पेड़ों को काटने से मना किया।

इसी आन्दोलन ने आजादी के बाद हुए चिपको आन्दोलन को प्रेरित किया और दिशा दिखाई, सरकार को 26 मार्च 1974 को चमोली जिले के नीती घाटी के जंगलों को काटने का कार्य शुरू करना था। इसका रैणी गाँववासियों ने जोरदार विरोध किया जिससे डरकर ठेकेदारों ने रात में पेड़ काटने की योजना बनाईं। लेकिन गौरा देवी ने गाँव की महिलाओं को एकत्रित किया और कहा, “जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाड़ने नहीं देंगे।” सभी महिलाएँ जंगल में पेड़ों से चिपक गई और कहा कुल्हाड़ी पहले हम पर चलानी पड़ेगी फिर इन पेड़ों पर, पूरी रात निर्भय होकर सभी पेड़ों से चिपकी रहीं, ठेकेदारों को पुनः खाली हाथ जाना पड़ा, यह आन्दोलन पूरे उत्तराखण्ड में फैल गया।

इसी प्रकार टिहरी जिले के हेंवल घाटी क्षेत्र के अदवाणी गाँव की बचनी देवी भी ऐसी महिला हैं जिन्होंने चिपको आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 30 मई 1977 को अदवाणी गाँव में वन निगम के ठेकेदार पेड़ों को काटने लगे तो बचनी देवी गाँववासियों को साथ लेकर पेड़ बचाओ आन्दोलन में कूद पड़ी और पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों के हथियार छीन लिये और उन्हें वहाँ से भगा दिया। यह संघर्ष तक़रीबन एक साल चला और आन्दोलन के कारण पेड़ों की कटान पर वन विभाग को रोक लगानी पड़ी।

दक्षिण में भी चिपको आन्दोलन की तर्ज पर ‘अप्पिको’ आन्दोलन उभरा जो 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र से शुरू हुआ, सलकानी तथा निकट के गाँवों के जंगलों को वन विभाग के आदेश से काटा जा रहा था तब इन गाँवों की महिलाओं ने पेड़ों को गले से लगा लिया, यह आन्दोलन लगातार 38 दिनों तक चला, सरकार को मजबूर होकर पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देना पड़ा। इसी तरह से बेनगाँव, हरसी गाँव के हजारों महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों के काटे जाने का विरोध किया और पेड़ों को बचाने के लिये उन्हें गले से लगा लिया।

निदगोड में 300 लोगों ने इक्कठा होकर पेड़ों को गिराए जाने की प्रक्रिया को रोककर सफलता प्राप्त की। उत्तराखण्ड में महिलाओं ने 'रक्षा सूत्र' आन्दोलन की शुरुआत की जिसमें उन्होंने पेड़ों पर 'रक्षा धागा' बाँधते हुए उनकी रक्षा का संकल्प लिया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, साइलेंट घाटी आन्दोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की।

भारत में आजादी के पहले से वन नीति है, भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति वर्ष 1894 में बनी थी। स्वतन्त्र भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति 1952 में, वन संरक्षण अधिनियम 1980 में बने इन नीतियों में महिलाओं का कहीं जिक्र नहीं था, वनों को लेकर महिला एक उत्पादनकर्ता, संग्रहणकर्ता, संरक्षक और प्रबन्धक की भूमिका निभाती हैं इस कारण प्रकृति से खिलवाड़ का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं पर पड़ता है।

इन सब आन्दोलनों के दबाव के कारण 1988 में जो राष्ट्रीय वन नीति बनी उसमें लोगों को स्थान दिया गया। इसमें महिलाओं की सहभागिता को महत्त्व दिया गया और उनकी वनों पर निर्भरता, वनों को लेकर ज्ञान, वन प्रबन्धन में उनकी सक्रीय भागीदारी को समझा गया और यह सोच बनी कि अगर वन प्रबन्धन में महिलाओं की भी भागीदारी होगी तो वन नीति के गोल को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है इसी सोच के चलते संयुक्त वन प्रबन्धन प्रोग्राम के अन्तर्गत हर गाँवों में वन समिति बनाई गई और उस समिति में महिलाओं को भी शामिल किया गया।

1995 में राष्ट्रीय वन नीति में बदलाव करते हुए समितियों में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण कर दिया गया। परन्तु देखने में आया है कि ज्यादातर महिलाओं को संयुक्त वन प्रबन्धन प्रोग्राम और वन समिति के बारे में जानकारी नहीं है, साथ ही पुरुषों के वर्चस्व वाले इस समाज में महिलाओं को कहने-बोलने का स्पेस कम ही मिल पता है, लेकिन देखना ये है कि महिलाएँ इन चुनौतियों से कैसे पार पाती हैं और वनों के स्थायित्व विकास के लिये क्या और किस तरीके के कदम उठाती हैं।

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