पर्यावरण-अनुकूल खेती (Climate Change Adaptation in Agriculture)

पर्यावरण-अनुकूल खेती ही स्थाई खाद्य और आजीविका सुरक्षा प्रदान कर सकती है। इस कार्य को मिले-जुले प्रयोग के जरिए बेहतर ढंग से किया जा सकता है जिसमें खेतिहर परिवार विज्ञान के सर्वोत्तम ज्ञान को परम्परागत सूझबूझ और पद्धतियों से मिलाकर उसका उपयोग करेंगे। इस प्रयोग की सफलता के लिये क्या करना जरूरी होगा और उसकी क्या प्राथमिकताएं होंगी, यहाँ लेखक ने इस पर प्रकाश डाला है। अमेरिका के डा. विलियम गौड़ द्वारा 1968 में गढ़ा गया ‘हरित क्रान्ति’ शब्द न केवल उच्च उत्पादकता के जरिए अधिक उत्पादन से, बल्कि अनेक नकारात्मक पारिस्थितिकीय और सामाजिक परिणामों से जुड़ा है। अनेक बार उपज के स्तर में ठहराव और सत्तर के दशक जैसी उपज के लिये पोषक तत्वों की आवश्यकता में वृद्धि के कारण ‘हरितक्रान्ति’ की ‘थकान’ का भी उल्लेख किया जाता है।

क्या यह सम्भव है कि जब हम 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर रहे हों तब हमें उस नई प्रौद्योगिकी का लाभ न मिले जो हमारे किसानों को कम भूमि और कम पानी से अधिक उत्पादन करने में सहायता देती है?

मेरा विश्वास है कि अगर हम अपनी कृषि अनुसंधान और विकास रणनीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर सकें तो हम इस स्थिति में हैं कि एक स्थाई हरित क्रान्ति की शुरुआत कर सकें जो हमें भूमि और पानी की प्रति इकाई अधिक उपज, आय और जीविका उपलब्ध कराने में सहायक हो। पिछली हरित क्रान्ति चावल, गेहूँ और मक्का जैसी फसलों की उपज में जीन (आनुवांशिक जनन विज्ञान) सम्बन्धी परिवर्तन करके लाई गई थी।

स्थाई हरित क्रान्ति उपलब्ध भूमि, जल और श्रम साधनों से अधिक उपज प्राप्त करके लाई जाएगी। यह क्रान्ति न तो पर्यावरण को और न समाज को कोई नुकसान पहुंचाएगी। इस प्रकार अगर हम अपना ध्यान जींस-केन्द्रित दृष्टिकोण से हटाकर सम्पूर्ण फसल या खेती व्यवस्था की ओर लगाएं तो इस दिशा में प्रगति की जा सकती है।

इसका अर्थ यह नहीं हैै कि हम फसलों के सुधार हेतु किये जा रहे अनुसंधान में किसी किस्म की ढील दें लेकिन इस तरह के अनुसंधान में सम्पूर्ण उत्पादन व्यवस्था की कुशलता और उत्पादकता बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए। हरित क्रन्ति की ‘थकान’ से स्थाई हरित क्रान्ति पर आने के लिये फसल-केन्द्रित दृष्टिकोण के स्थान पर योजना आधारित दृष्टिकोण अपनाना एवं टेक्नॉलॉजी का विकास और प्रचार करना जरूरी है।

आइए, अब हम अधिक उपज देने वाले ऐसे चावल (सुपर राइस) की खेती की सम्भावना पर विचार करें जो प्रति हेकटेयर 10 टन की उपज दे। इस तरह के चावल की पौध को प्रति हेक्टेयर कम से कम 200 किलोग्राम नाइट्रोजन और अन्य प्रमुख एवं गौण पोषक तत्वों की जरूरत पड़ेगी। केवल खनिज उर्वरकों के जरिए इतने पोषक तत्व देने से पर्यावरण की गम्भीर समस्या पैदा होगी और इसलिये फसल चक्र में फलीदार किस्में शामिल करना आवश्यक होगा।

वैज्ञानिकों के सामने अब प्रति हेक्टेयर ‘अधिक खाद्यान्न, अधिक आय और अधिक आजीविका’ का तिहरा लक्ष्य प्राप्त करने वाली कृषि व्यवस्था विकसित करने के अनुपम अवसर हैं। वे यह सब परम्परागत ज्ञान के साथ अति आधुनिक प्रौद्योगिकी जैसे कि जीव प्रौद्योगिकी, जी.आई.एस. मानचित्रण सहित सूचना विज्ञान, अन्तरिक्ष प्रौद्योगिकी, नवीकरण योग्य ऊर्जा प्रौद्योगिकी (सौर्य, वायु, बायोमास और बायोगैस) और प्रबन्ध तथा निपणन प्रौद्योगिकी के मिश्रण द्वारा खेती की नई विधियों का विकास करके प्राप्त कर सकते हैं।

विश्व की अधिकांश पर्यावरणीय समस्याओं जैसे कि तापमान, वर्षण, समुद्र के स्तर में परिवर्तन और पराबैंगनी-बी विकिरण के लिये औद्योगिक देश जिम्मेदार हैं। औद्योगिक देशों में खेती का तीव्रीकरण पर्यावरण की दृष्टि से अनर्थकारी होगा। विकासशील देशों में जहाँ खेती रोजगार के अधिकांश अवसर उपलब्ध कराती है, खेती के तीव्रीकरण और विविधीकरण में विफलता सामाजिक दृष्टि से अनर्थकारी होगी।

ऐसा इसलिये है क्योंकि फसल और पशुपालन, वनीकरण और वन्य कृषि, मत्स्य पालन और कृषि उद्योग सहित कृषि हमारी 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या को आजीविका प्रदान करती है। जितना छोटा फार्म होगा, आय बढ़ाने के लिये बिक्री योग्य फालतू सामान उपलब्ध कराने की आवश्यकता उतनी ही अधिक होगी।

देश में प्रतिवर्ष आजीविका के एक करोड़ 10 लाख साधन उपलब्ध कराने होंगे और इनमें से अधिकांश फार्मों और ग्रामीण उद्योग क्षेत्रों से पैदा करने होंगे। अतः खाद्यान्न और अन्य कृषि वस्तु आयात करने का वही असर होगा जो बेरोजगारी आयात करने का होता है।

इस प्रकार अब हमें जरूरत है पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल और सामाजिक दृष्टि से न्यायपूर्ण हरित क्रान्ति अथवा ऐसी क्रान्ति की जिसे ‘स्थाई हरित क्रान्ति’ कहा जा सकता है। ‘एमएस स्वामीनाथन अनुसंधान प्रतिष्ठान’ (एमएसएसअप्र) ने कार्यान्वित किये जाने योग्य दृष्टिकोणों की पहचान करने के लिये कुछ अनुक्रियाएं विकसित की हैं और उनका क्षेत्र परीक्षण किया जा रहा है। इनसे पहले बताई गई चुनौतियों का सामना किस तरह किया जाएगा, इसका विवरण संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है।

(क) किसी क्षेत्र की पारिस्थितिकीय सुरक्षा को स्थानीय समाज की आजीविका सुरक्षा से जोड़ना; संरक्षण में आर्थिक हित या लगाव पैदा करना।

स्वामीनाथन अनुसंधान प्रतिष्ठान के जैव विविधता कार्यक्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह जैव विविधता सम्पन्न क्षेत्रों में ऐसे पारस्परिक लाभकारी सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं। यह एक दुखद तथ्य है कि आदिवासी और ग्रामीण परिवार जिन्होंने जैव-विविधता का संरक्षण किया है और उसे बढ़ाया है, गरीब रहते हैं जबकि वे लोग जो उनके प्रयत्नों का लाभ पाते हैं, धनी हो जाते हैं।

जब संरक्षणकर्ताओं का संरक्षित वस्तु में कोई सामाजिक या आर्थिक हित नहीं होता तो उनका विनाश अधिक तेजी से होने लगता है। स्वामीनाथन अनुसंधान प्रतिष्ठान ने जैव विविधता संरक्षण में आर्थिक लगाव पैदा करने के लिये त्रिकोणीय रणनीति अपनाई है।पहली, स्यूई जेनेरिस प्रणाली में पौध-विविधता संरक्षण प्रक्रिया को समाविष्ट करने के लिये एक पारदर्शी और कार्यान्वयन योग्य कार्यविधि विकसित की गई है जो जननीय संसाधनों के संरक्षण और वृद्धि की अनौपचारिक नई प्रथा को मान्यता प्रदान करेगी और उसे पुरस्कृत करेगी।

दूसरा, व्यापारिक कम्पनियों और आदिवासी तथा ग्रामीण परिवारों के बीच एक सहजीवी सामाजिक समझौते को प्रोत्साहित किया जा रहा है जिसके अंतर्गत स्थानीय जनता कंपनियों की दिलचस्पी की जनन सामग्री का उत्पादन करेगी और कम्पनियां उस उत्पाद को खरीद लेंगी। इस तरह की व्यवस्था में मूल सामग्री के अनुचित दोहन की सम्भावना समाप्त हो जाएगी।

तीसरा, स्थानीय स्त्री-पुरुषों को जैव-विविधता की सूची बनाने में प्रशिक्षित किया जाएगा। उनको जैव सामग्री पर नजर रखने का भी प्रशिक्षण दिया जाएगा। ऐसे वे स्वयं अपनी बौद्धिक सम्पदा के संरक्षक बन जायेंगे। इस तरह प्रशिक्षित स्त्री-पुरुष अपनी कृषि/जैव-विविधता संरक्षण सेना बना लेंगे और इस तरह के मामलों जैसे कि जननीय संसाधनों के इस्तेमाल में ‘पूर्व सूचना सहमति’ द्वारा अपने-अपने समाज की सहायता कर सकेंगे।

सामुदायिक जैव-विविधता आन्दोलन को सहायता पहुंचाने के लिये स्वामीनाथन अनुसंधान प्रतिष्ठान ने एक तकनीकी संसाधन केन्द्र स्थापित किया है। यह केन्द्र जैविक विविधता समझौते की न्यायपूर्ण व्यवस्थाओं को लागू करता है। चूंकि यह विश्व में अपने किस्म का पहला तकनीकी संसाधन केन्द्र है, इसके छह प्रमुख संघटकों का वर्णन नीचे किया जा रहा है।

1. कृषि जैव विविधता के संरक्षण और उसे बढ़ाने में आदिवासियों और ग्रामीण परिवारों के योगदान को तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और साथ ही लक्षद्वीप तथा ग्रेट निकोबार द्वीप समूह में प्रारम्भिक आंकड़ों के संग्रह के जरिए लिपिबद्ध करना।

2. युवा आदिवासियों और ग्रामीण स्त्री-पुरुषों की एक कृषि जैव विविधता संरक्षण सेना गठित करना।
इसमें ऐसे युवा स्त्री-पुरुषों को लिया जाएगा जिनका अपने-अपने गाँव में रहने में आर्थिक हित हो और जो उपयुक्त प्रशिक्षण दिये जाने पर इस तरह के काम कर सकें जैसे कि स्थानीय जैव-विविधता की सूची तैयार करना, अपने-अपने समुदाय की जननीय संरक्षण परम्पराओं को नया जीवन प्रदान करना, उपयुक्त किस्म के जीव संकेतकों की सहायता से पारिस्थितिकीय प्रणाली के स्वास्थ्य पर नजर रखना और नष्ट हुए उपवनों को फिर से ठीक करना। इस सेना के सदस्य अपने-अपने समाज को जनन संसाधनों के इस्तेमाल के बारे में जैविक विविधता समझौते की व्यवस्था- ‘पूर्व सूचित सहमति’ से निपटने में सहायता देंगे।

3. मल्टी मीडिया आँकड़ों का विकास
जिसमें कृषि जैव विविधता के संरक्षण और सुधार में आदिवासी और ग्रामीण परिवारों के योगदान की चर्चा हो। इससे ये लोग राष्ट्रीय और विश्व सामुदायिक जीन कोष से अपने अधिकार पा सकेंगे।

4. सामुदायिक जीन बैंक और जड़ी-बूटी संग्रहालय का रख-रखाव :
दक्षिण भारत के आदिवासी इलाकों से किसानों द्वारा रक्षित और विकसित बीजों की रक्षा के लिये एक सामुदायिक जीन बैंक की स्थापना की गई है। इसमें थोड़ी अवधि के लिये भण्डारण की भी सुविधा है। इस सामग्री की सूची बनाई जाएगी और इसे तकनीकी संसाधन केन्द्र के ‘डाटाबेस’ से जोड़ दिया जाएगा। जड़ी-बूटी संग्रहालय आदिवासी और ग्रामीण परिवारों द्वारा रक्षित जड़ी-बूटियों, खेती के परिणामस्वरूप उत्पन्न विभिन्न किस्मों और भूमि जातियों की पहचान के संदर्भ-केन्द्र के रूप में काम करेगा।

5. आदिवासी और ग्रामीण परिवारों की जनननीय संरक्षण परम्पराओं को पुनर्जीवित करना:
यह कार्य उनके योगदान को सामाजिक मान्यता प्रदान करके और संरक्षण मे आर्थिक हित की व्यवस्था करके किया जाएगा। इस उद्देश्य के लिये आदिवासियों और ग्रामीणों द्वारा निजी क्षेत्र के लिये ठेके पर उगाए जा रहे व्यापारिक महत्त्व के पौधों की खेती के हूबहू मॉडल तैयार किये जा रहे हैं।

6. कानूनी सलाह प्रकोष्ठ:
यह प्रकोष्ठ आदिवासी और ग्रामीण परिवारों को बौद्धिक सम्पदा अधिकार और पौध-विविधता संरक्षण से सम्बन्धित मामलों में उपयुक्त कानूनी सलाह देगा।

ख. पारिस्थितिकी की जनसंख्या को सहारा देने की क्षमता: स्थानीय स्तर के सामाजिक जनांकिकीय चार्टर

जनसंख्या वृद्धि को सीमित रखने की आवश्यकता के बारे में जनता को शिक्षित करने के लिये उसे यह जानकारी देना जरूरी है कि हमारी भूमि, पानी, वन और अन्य पारिस्थितिक संघटक कितने लोगों को सहारा दे सकते हैं। इस उद्देश्य के लिये प्रशिक्षण मापांक विकसित किये गए हैं। इनकी सहायता से गाँव स्तर की लोकतांत्रिक संस्थाओं के स्त्री-पुरुष सदस्य अपने-अपने गाँव के लिये सामाजिक जनांकिकीय चार्टर तैयार कर लेंगे।

यह स्थानीय स्तर पर योजना बनाने के उपकरण हैं जिनका उद्देश्य अपूर्ण न्यूनतम आवश्यकताओं के मामले में प्राथमिकता का निर्धारण करना है। चार्टर का महत्त्वपूर्ण संघटक स्त्री-पुरुषों के समान अधिकार की संहिता है। इस तरह के सामाजिक जनांकिकीय चार्टर स्थानीय समाज को जनसंख्या के प्रश्न को सामाजिक विकास के सन्दर्भ में देखने में सहायक होंगे और वे यह सुनिश्चित करेंगे कि बच्चे केवल आनंद और सुख के लिये जन्म लें।

ग. सूचना और कुशलता का अधिकार प्रदान करना
इस उद्देश्य के लिये सूचना-गाँव का विचार विकसित किया गया है। प्रशिक्षित ग्रामीण स्त्री-पुरुष सूचनाशालाओं का संचालन करेंगे जहाँ मौसम विज्ञान, प्रबन्ध और बिक्री सम्बन्धी वे सूचनाएं जो ग्रामीण आजीविका के लिये प्रासंगिक हैं, निर्दिष्ट स्थानों के लिये उपयोगी सूचना में बदल दी जाएगी। प्रशिक्षित खेतिहर स्त्री-पुरुष स्वयं प्रशिक्षक का काम करेंगे। सूचनाशालाओं में अपनाई गई कम्प्यूटरीकृत विस्तार प्रणाली स्थानीय परिवारों को बताएगी कि उन्हें सरकार और अन्य कार्यक्रमों से क्या अधिकार मिलने हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक लाभकर रोजगार के प्रचुर अवसर प्रदान करती है, जहाँ नई प्रौद्योगिकी महत्त्वपूर्ण है। लोक माध्यम सभी तरह के लोगों तक पहुंचने का कारगर साधन हैं। इसलिये लोगों तक सूचना पहुंचाने के लिये लोक नाटक, लोक-कला और रंगमंच का पूरा उपयोग किया जाता है। सूचना शक्ति कार्यक्रमों की सफलता सुनिश्चित करने के लिये यह जरूरी है कि दी जा रही सूचना मांग के अनुसार हो और निर्दिष्ट क्षेत्र से सम्बद्ध हो।

घ. पर्यावरण अनुकूल कृषि का तीव्रीकरण, विविधीकरण और मूल्य जोड़
यह काम किसान परिवारों के साथ भागीदारी अनुसंधान के जरिए किया जा सकता है। पारिस्थितिकीय प्रौद्योगिकी जैसे कि समेकित कीट-प्रबन्ध और एकीकृत पोषक-आपूर्ति का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। पारिस्थितिकीय प्रौद्योगिकी के विकास में शामिल है उच्च प्रौद्योगिकी का परम्परागत ज्ञान और पद्धतियों के साथ समन्वय। इस तरह आधुनिक विज्ञान और विगत की पारिस्थितिकीय बुद्धिमत्ता को मिलाया जा सकता है।

पारिस्थितिकीय प्रौद्योगिकी जलीय खेती और मछली पालन आदि में इस्तेमाल की जाती है। समेकित कृषि और जल-खेती एवं मछली पालन आदि तकनीक से खेती से होने वाली आय बढ़ती है और घर के लागों को पर्याप्त पोषाहार मिलते हैं। सम्पूर्ण गाँव इस तरह की एकीकृत एवं सघन खेती प्रणाली अपना रहे हैं। यह दृष्टिकोण उपलब्ध भूमि और जल साधनों से अधिक खाद्यान्न, आय और रोजगार प्राप्त करने के तिहरे लक्ष्य को हासिल करने के लिये जरूरी है। एकीकृत सघन खेती प्रणाली आन्दोलन के साथ बुनियादी सिद्धान्त इस प्रकार हैं:

1. मिट्टी की देखभाल : स्थाई तीव्रीकरण के लिये यह बुनियादी आवश्यकता है। एकीकृत सघन खेती प्रणाली में विभिन्न फलीदार किस्मों को फसलों के साथ या बारी-बारी से लगाया जाता है। इनके अलावा खेत की खाद और जीव-जन्तुओं के मल-मूत्र से बनने वाली खाद, एकीकृत सघन खेती प्रणाली का अभिन्न अंग है। एकीकृत सघन खेती प्रणाली के किसानों को मिट्टी की देखभाल करने के कार्य में प्रशिक्षित किया जाता है। उन्हें इस बात पर नजर रखने को भी कहा जाता है कि खेती का धरती की उर्वराशक्ति पर क्या भौतिक-रासायनिक और सूक्ष्म जैविक प्रभाव पड़ा है।

2. जल संग्रह और उसका प्रबन्ध : एकीकृत सघन खेती प्रणाली के किसान परिवार अपना खेती-बाड़ी का सामान्य कामकाज करने के साथ-साथ वर्षा का पानी जमा करने और उसके संरक्षण का कार्य भी करते हैं ताकि इस पानी को अन्य स्रोतों से उपलब्ध पानी के साथ मिलाकर उसका उचित उपयोग किया जा सके। उन क्षेत्रों में जहाँ पानी की कमी है इस तरह की प्रौद्योगिकी अपनाई जाती है जिससे प्रति लीटर पानी से अधिकतम आय और रोजगार के अवसर प्राप्त हों। इस बात पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है कि उपलब्ध पानी का अधिकतम उपयोग किया जाये और इसके लिये ‘ड्रिप इरिगेशन’ या ‘बूंद-बूंद सिंचाई’ तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है जो उपलब्ध पानी से अधिकतम लाभ देती है।

3. फसल और कीट नियंत्रण : एकीकृत पोषाहार आपूर्ति (एपोआ) और एकीकृत कीट नियंत्रण प्रणाली (एकीनिप्र) एकीकृत सघन खेती प्रणाली के महत्त्वपूर्ण संघटक हैं। एपोआ और एकीनि प्रणालियों की ठीक रचना खेती प्रणाली के संघटकों और साथ ही कृषि-पारिस्थितिकी और क्षेत्र की मिट्टी की दशा पर निर्भर करेगी। कम्प्यूटर की सहायता से चलने वाली विस्तार प्रणाली किसान परिवारों को भूमि, जल, कीट और फसल पकने के बाद की व्यवस्थाओं के सभी पहलुओं की समय पर और सही जानकारी देगी।

4. ऊर्ज प्रबन्ध : ऊर्जा एक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक तत्व है। पहले वर्णित भूमि, जल और कीट-प्रबन्ध में ऊर्जा का किफायती और कुशल उपयोग करने के साथ-साथ इस बात का भरसक प्रयास किया जाएगा कि बायोगैस, बायोमास, सौर और वायु ऊर्जा का अधिकतम उपयोग किया जाये। खेती की गतिवधियों जैसे कि पानी पम्प करना, अनाज सुखाना और अन्य कृषि कार्यों के लिये सौर और वायु ऊर्जा का बायोगैस के साथ मिलाकर उपयोग किया जाएगा।

5. फसल पकने के बाद की व्यवस्था : एकीकृत सघन खेती प्रणाली के किसान न केवल गाहने-दाबने, भण्डारण और संसाधन के लिये सर्वोत्तम तरीके अपनाएंगे बल्कि इस बात का भी प्रयास करेंगे कि पौध और पशु के प्रत्येक भाग से अधिक लाभकारी उत्पाद प्राप्त हों। फसल पकने के बाद प्रौद्योगिकी नश्वर जिन्सों जैसे कि फल, सब्जी, दूध, मांस, अंडा मछली तथा अन्य पशु उत्पाद और संसाधित खाद्यान्न के लिये विशेष महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

अगर उत्पादन और फसल पकने के बाद की प्रौद्योगिकी के बीच उपयुक्त तालमेल न हो तो उसका उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ता है। बढ़ते शहरीकरण के कारण खाने-पीने की आदतों में विविधता आ जाती है। इसलिये पशु उत्पादों जैसे कि दूध, पनीर, अंडा और अन्य संसाधित खाद्य पदार्थ की अधिक मांग होगी। उपभोक्ताओं की मांग का मूल्यांकन करके कृषि पदार्थों को संसाधित करने वाले उद्योगों को बढ़ावा दिया जा सकता है। इस तरह के खाद्य-संसाधन उद्योग गाँवों में स्थापित किये जाने चाहिए ताकि ग्रामीण युवकों को रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध हों। इसके अतिरिक्त ये उद्योग लोगों के आहार में पोषक तत्वों की कमी को भी दूर कर सकते हैं।

घरेलू उपभोक्ता और निर्यात दोनों के लिये गुणवत्ता प्राप्त भोजन उपलब्ध कराने हेतु आस-पड़ोस और वनस्पति क्षेत्र की सफाई में अधिक निवेश किया जाना चाहिए। एकीकृत सघन खेती प्रणाली के प्रसार में सहायता देने के लिये सरकार को भंडारण, सड़क, परिवहन और सफाई जैसी मदों में अधिक निवेश करना चाहिए।

6. खेती प्रणाली की फसलों और पशुओं का चुनाव : एकीकृत सघन खेती प्रणाली में खेती प्रणाली की रचना के बारे में अत्यन्त सावधानीपूर्वक विचार करना आवश्यक है। मिट्टी की हालत, पानी की उपलब्धता, खेती योग्य मौसम, घरेलू आवश्यकताएं और सबसे ऊपर बिक्री के अवसर फसलों, पशुओं और अन्य बातों का निर्धारण करेंगे। खेती के पशुओं में जुगाली करने वाले छोटे और बड़े पशु विशेष लाभदायक होते हैं। क्योंकि वे फसल से उत्पन्न ‘बायोगैस’ पर जीवित रह सकते हैं। मुर्गी पालन आदि से आय बढ़ने के साथ-साथ पौष्टिक आहार भी प्राप्त होता है।

7. सूचना, कुशलता, संगठन और बिक्री : एकीकृत सघन खेती प्रणाली का आधार सही खेती है। अतः एकीकृत सघन खेती प्रणाली की सफलता के लिये सार्थक और कारगर सूचना एवं कौशल प्रदान करने वाली व्यवस्था होनी चाहिए। विकेन्द्रीकृत उत्पादन व्यवस्थाओं को कुछ प्रमुख केन्द्रीकृत सेवाओं जैसे कि ऋण, बीज, कीटनाशक दवा और पशुओं के इलाज की व्यवस्था करनी होगी। सबसे अच्छा यह होगा कि प्रशिक्षित स्थानीय युवक एक सूचनाशाला की स्थापना करें जो किसान परिवारों को समय-समय पर सरकार से मिलने वाले लाभ और मौसम-प्रबन्ध एवं बिक्री सम्बन्धी जानकारियां प्रदान करे।

संगठन और प्रबन्ध प्रमुख तत्व हैं और क्षेत्र तथा खेती की प्रणालियों को देखते हुए छोटे किसानों को बड़े पैमाने पर संसाधन और बिक्री के लाभ उपलब्ध कराने के उपाय करने होंगे।

एकीकृत सघन खेती प्रणाली का पूरा विकास वैज्ञानिकों और किसान परिवारों के बीच भागीदारी अनुसंधान के जरिए ही सम्भव है। इससे एकीकृत सघन खेती प्रणाली के गाँवों में आर्थिक लाभप्रदता, पर्यावरण सुरक्षा, सामाजिक समानता और स्त्री पुरुषों की समानता सुनिश्चित होगी। इसकी शुरुआत उन परिवारों के अनुभवों का लाभ उठाकर की जा सकती है जिन्होंने इस दिशा में सफल प्रक्रियाएं विकसित कर ली हैं।

इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए की एकीकृत सघन खेती प्रणाली तभी सफल होगी जब इसे प्रौद्योगिकी-वाहित कार्यक्रम के स्थान पर मानव-केन्द्रित कार्यक्रम के रूप में लिया जाएगा। एकीकृत सघन खेती प्रणाली का सार है किसान परिवारों और उनकी स्थायी निधि यानी प्राकृतिक संसाधन, भूमि, जल, वन, वनस्पति, जीव-जन्तु और सूरज की रोशनी के बीच घनिष्ठ सहयोग। भूमि सुधार, काश्तकारी की सुरक्षा, ऋण आपूर्ति ग्रामीण बुनियादी ढांचा, खेती में काम आने वाली वस्तुओं और कृषि उत्पाद के मूल्यों में संतुलन और बिक्री जैसे विषयों पर सरकारी समर्थन के अभाव में छोटे किसान एकीकृत सघन खेती प्रणाली अपनाना कठिन पाएँगे।

ङ. कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार वृद्धि
जैवग्राम कार्यक्रम तीन प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान देता है- संसाधनों की गिरावट को रोकना, फसल और पशुओं की उत्पादकता बढ़ाना और गरीबी की समाप्ति। जैवग्राम कार्यक्रम पांडिचेरी क्षेत्र के गाँवों में चल रहा है। इस कार्यक्रम में खेती और खेती के बाहर रोजगार के अवसरों पर समान जोर दिया जाता है। इस कार्यक्रम में गरीबी निराकरण के प्रति अनुग्रह दिखाने वाले दृष्टिकोण से बचा जाता है।

यह कार्यक्रम गरीबों को भी उत्पादक और नई रीति या पद्धति चलाने वाला समझता है और उनके समय और श्रम में सुधार कर उनकी परिसम्पत्ति बढ़ाता है। बुनियादी दृष्टिकोण परिसम्पत्ति निर्माण और स्थायी मानव विकास पर है जो उद्यमशीलता को बढ़ावा दे। ये कार्यक्रम इस प्रकार तैयार किये जाते हैं कि उनका आधार प्रकृति समर्थक, गरीब समर्थक और महिला समर्थक हो। गरीबों की आजीविका की सुरक्षा पर जोर देकर स्थायी जैवग्राम मॉडल उन लोगों के कल्याण के लिये प्रयत्नशील रहता है जो आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से गरीब हैं।

मानव-केन्द्रित कार्यक्रम


इस प्रकार यह मानव-केन्द्रित विकास कार्यक्रम है जिसमें उद्यम और बिक्री के अवसरों को ध्यान में रखकर चुने गए हैं। मुख्य दृष्टिकोण यह है कि गरीबों को प्रौद्योगिकी और कौशल उपलब्ध कराया जाये। उद्यमों की बाजार-वाहित प्रकृति के कारण जैवग्राम प्रस्ताव की आर्थिक लाभप्रदता सुनिश्चित है। उत्पादन और फसल पकने के बाद की प्रौद्योगिकी और कृषि एवं गैर-कृषि कार्यों को इस प्रकार एक साथ लिया गया है कि उत्पादक और उपभोक्ता दोनों लाभान्वित हों।

जैवमंडलीय क्षेत्र के समीप स्थित जैवग्राम उन क्षेत्रों के समीप रहने वाली जनता की दिन-प्रतिदिन की खाद्य, ईंधन, घास और अन्य वस्तुओं की मांग पूरी करने के लिये वैकल्पिक स्रोत प्रदान करेंगे। साथ ही शहरी क्षेत्रों के समीप स्थित जैव ग्राम ग्रामीण उत्पादकों और शहरी उपभोक्ताओं के बीच परस्पर लाभदायक रिश्ता जोड़ेंगे। शहरों की जरूरत के संसाधित और अर्द्ध-संसाधित खाद्य उत्पाद शहरों और कस्बों के समीप के गाँवों में तैयार होने से ग्रामीण गरीबों को आजीविका की तलाश में शहर जाने की आवश्यकता कम हो जाएगी। साथ ही खाद्य-संसाधन विधि द्वारा खाद्य सामग्री में मोटा अनाज और अनाज की फलियां मिलाकर उसे अधिक पौष्टिक बनाया जा सकेगा।

पर्यावरण-अनुकूल खेती खाद्य और आजीविका सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त करती है। यह प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित दोहन नहीं करती। यह गांधीजी के इस कथन पर आधारित है कि प्रकृति प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की तो पूर्ति कर सकती है लेकिन वह प्रत्येक के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती।’ लालच की प्रवृत्ति बढ़ने से हमारी जीवनदायी व्यवस्था को नुकसान पहुंचता है। सौर ऊर्जा के उपयोग पर आधारित एक स्थाई हरित क्रान्ति और पर्यावरण-अनुकूल कृषि विधियाँ ही सब के लिये उत्पादक और स्वस्थ जवन के अवसर सुनिश्चित कर सकती हैं।

(लेखक एक प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और एमएस स्वामीनाथन अनुसंधान प्रतिष्ठान, चेन्नई के अध्यक्ष हैं।)

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