पर्वतीय क्षेत्र की प्रमुख मत्स्य जैव विविधता एवं अभ्यागत मत्स्य प्रजातियों का समावेश


मत्स्य विविधता एवं उनका संरक्षण आज केवल वातावरण एवं परिवेश के दृष्टिकोण से आवश्यक है अपितु खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो के डाटाबेस के अनुसार लगभग 708 मछलियाँ मीठे जल की हैं जिसमें लगभग 3.32 प्रतिशत मछलियाँ शीतजल की हैं। पर्वतीय प्रदेश में आज बहुत सी अभ्यागत मछलियाँ प्रवेश कर गयी हैं जिनका मत्स्य पालन में अच्छा घुसपैठ है। विदेशी ट्राउट मछलियाँ सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन काल में वर्ष 1906 में क्रीडा मात्स्यिकी के उद्देश्य से लाई गयी थी जिन्हें कश्मीर में सफलतापूर्वक पाला गया था। तत्पश्चात हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों के पहाड़ी स्थानों पर भी उन्हें पाला जा रहा है। इसी तरह चाइनीज मूल की कार्प मछलियों का भी पालन पोषण इन क्षेत्रों में किया जा रहा है।

हाल में ही अफ्रीकी मूल की मछली जिसे सामान्यत: भारत में थाई मांगुर के नाम से जाना जाता है पड़ोसी देशों से चोरी छिपे मैदानी क्षेत्रों में लाया गया था। अब इसे पर्वतीय क्षेत्रों के निचले भागों में भी पाल जा रहा है। आज पर्वतीय स्थान के मत्स्य संपदा के वर्तमान स्थिति की जानकारी जनमानस तक पहुँचाने की आवश्यकता है ताकि उनके संरक्षण हेतु स्थानीय लोगों का सहयोग प्राप्त हो सके। टिकाऊ संवर्धन एवं मत्स्य पालन की वृद्धि के लिये व्यवहारिक तकनीकी ज्ञान को मत्स्य पालकों तक पहुँचाने की भी आवश्यकता है। स्थानीय मत्स्य प्रजातियों के साथ-साथ अभ्यागत अथवा प्रत्यारोपित मत्स्य प्रजातियों का मत्स्य पालन में समावेश कर मत्स्य उत्पादन करने के लिये भी नये प्रयास प्रचलित हो रहे हैं। इस प्रकार नई प्रजातियों (अभ्यागत या प्रत्यारोपित) के समावेश के संभावित खतरों से भी स्थानीय लोगों को अवगत कराने की आवश्यकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में चूँकि स्थानीय प्रजातियों की बढ़वार मैदानी मत्स्य प्रजातियों की तुलना में प्राय: कम प्रतीत होती है अत: अभ्यागत मछलियों का समावेश साधारणत: आकर्षक देखा जा रहा है।

पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीय मत्स्य प्रजातियों के उचित रखरखाव, विकास एवं उपयोग के लिये यह नितांत आवश्यक है कि विभिन्न सरकारी संस्थायें उचित प्रसार एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा विदेशी मछलियों के दुष्प्रभावों एवं हमारे स्थानीय मत्स्य संसाधनों के संरक्षण के महत्त्व के बारे में निरन्तर मत्स्यपालकों को अवगत कराये ताकि मत्स्यपालक एवं सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं की भागीदारी तथा सहयोग से मत्स्य विकास का कार्यक्रम सफल हो सके और पर्वतीय क्षेत्रों में पर्याप्त एवं टिकाऊ मत्स्य उत्पादन प्राप्त हो सके।

लेखक परिचय
ए. के. सिंह

राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, लखनऊ-226002

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