प्रथम समुद्र-दर्शन

पिता जी का तबादला सातारा से कारवार हो गया और हम लोगों ने सातारा से हमेशा के लिए बिदा ली। घर पर नरशा नाम का एक बैल था। उसे हमने मामा के घर बेलगुंदी भेज दिया। महादूर को छुट्टी देनी ही पड़ी। बेचारे ने रो-रो कर आंखें सुर्ख कर लीं। नौकरानी मथुरा को छोड़ते समय मां ने अपनी एक पुरानी किन्तु अच्छी साड़ी दे दी और उसने हम सबको बहुत दुआयें दीं। घर के बहुत सारे सामान-असबाब को ठिकाने लगाकर हम पहले शाहपुर गये और वहां कुछ रोज रह कर वेस्टर्न इण्डिया पेनिनशुलर रेलवे से मुरगांव गये। रास्ते में गुंजी के स्टेशन पर पानी के फव्वारे छूट रहे थे, जिन्हें देखने में हमें बड़ा मजा आया। लोढ़े पर गाड़ी बदल कर हम डब्ल्यू.आई.पी. रेलवे के डिब्बे में बैठ गये।

जिस तरह समुद्र की लहर उभरकर, फूलकर फट जाती है, उस तरह हम समुद्र की रट लगाकर ताल के साथ नाचने लगे; लेकिन हम लहरें तो थे नहीं, इसलिए अन्त में थक कर इधर-उधर देखने लगे तो एक तरफ एक-एक कमरे जितनी बड़ी ईंटे चुनी हुई हमने देखीं। उनमें से कुछ टेढ़ी थीं तो कुछ सीधी। उस समय मुझे दुकान में रखी हुई साबुन की बट्टियों और दिया-सलाई की डिब्बियों की उपमा सूझी। वास्तव में वह मुरगांव का चह था, जो बड़ी-बड़ी ईंटों से बनाया गया था। गोवा और भारत की सरहद पर कैसल रॉक स्टेशन है। वहां पर कस्टम वालों ने हम सबकी तालाशी ली। हमारे पास चुंगी के लायक भला क्या हो सकता था? लेकिन सफर में बच्चों के खाने के लिए डिब्बे भर-भरकर छोटे-बड़े लड्डू लिये थे। उन्हें देखकर कस्टम के सिपाही के मुंह में पानी भर आया। उसने निःसंकोच लड्डू हमसे मांग ही लिये। वह बोला, “आपके ये लड्डू हमें खाने को दे दीजिये।” मैंने सोचा की हमारे लड्डू अब यहीं पर खत्म हो जायेंगे। मां का दिल पिघल गया और वह बोली, ले भैया, इसमें क्या बड़ी बात है? लेकिन पिताजी ने बीच में दखल देते हुए कहा, “दूसरे किसी को भी दे दो, लेकिन इस सिपाही को देना तो रिश्वत देने जैसा है।”

सिपाही बोला, “हम किसी से कहने थोड़े ही जायेंगे? आपके पास चुंगी के लायक चींजे मिली होती और हमने आपसे चुंगी वसूल न की होती, तो आपका लड्डू देना रिश्वत में शुमार हो जाता।”

पिताजी का कहना न मानकर मां ने उन तीनों को एक-एक बड़ा लड्डू दिया। घी में तले हुए चीनी की चाशनी में पगे हुए लड्डू उन बेचारों ने शायद उससे पहले कभी खाये न होंगे। उन्होंने लड्डुओं के टुकड़े अपने मुंह में ठूंसकर अपने गालों के लड्डू बना लिये।

पिताजी की ओर देखकर मां बोली, “क्या मैं घर के चपरासियों को खाने को नहीं देती थी? ये तो मेरे लड़कों के समान हैं। इन्हें खाने को देने में शर्म किस बात की? आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी ने मुझसे कुछ मांगा हो और मैंने देने से इनकार किया हो। आज ही आपकी रिश्वत कहां से टपक पड़ी?”

कैसल रॉक से लेकर तिनई घाट तक की शोभा देखकर आंखे तृप्त हो गयी। यह कहना कठिन है कि उसमें देखने का आनन्द अधिक था या एक-दूसरे को बताने का हमने दाहिनी तरफ की खिड़कियों से बायीं तरफ की खिड़कियों तक और फिर बायीं तरफ की खिड़कियों से दाहिनी तरफ की खिड़कियों तक नाच-कूदकर डिब्बे में बैठे हुए मुसाफिरों के नाकों-दम कर दिया।

फिर आया दूध-सागर का प्रपात। वह तो हमसे भी जोर-शोर से कूद रहा था। हमने इससे पहले कोई जल-प्रपात नहीं देखा था। इतना दूध बहता देखकर हमको बड़ा मजा आया। हमारी रेलगाड़ी भी बड़ी रसिक थी। प्रपात के बिलकुल सामने वाले पुल पर आकर वह खड़ी हुई और पानी की ठंडी-ठंडी फुहार खिड़की में से हमारे डिब्बे में आकर हमको गुदगुदाने लगी। उस दिन हम सोने के समय तक जल प्रपात की ही बातें करते रहे।

हम मुरगांव पहुंच गये। आजकल मुरगांव को लोग मार्मागोवा कहते हैं। हम स्टेशन पर उतरे और रेल की बहुत सी पटरियों को लांघकर एक होटल में गये। वहां भोजन करने के बाद मैं इधर-उधर पड़ी हुई सीपियां लेकर खेलने लगा। इतने में केशू दौड़ता हुआ मेरे पास आया। उसकी विस्फारित आंखे और हांफना देखकर मुझे लगा कि उसके पीछे कोई बैल पड़ा होगा।

उसने चिल्लाकर कहा, ‘दत्तू, दत्तू जल्दी आ! जल्दी आ! देख, वहां कितना पानी है! अरे फेंक दे वे सीपियां। समुद्र हैं समुद्र! चल मैं तुझे दिखा दूं।’ बचपन में एक का जोश दूसरे में आ जाने के लिए उसके कारण को जान लेने की जरूरत नहीं हुआ करती। मुझमें भी केशू जैसा जोश भर गया और हम दोनों दौड़ने लगे। गोंदू ने दूर से हमको दौड़ते देखा तो वह भी दौड़ने लगा; और हम तीनों पागल जोर-जोर से दौड़ने लगे।

हमने क्या देखा! सामने इतना पानी उछल रहा था जितना आज तक हमने कभी नहीं देखा था। मैं आश्चर्य से आंखे फांड़कर बोला, ‘अबबबब.....! कितना पानी!’ और अपने दोनों हाथों को इतना फैलाया कि छाती में तनाव पैदा हो गया। केशू और गोंदू ने भी अपने-अपने हाथों को फैला दिया। मगर उस हालत में पिता जी ने हमको देख लिया होता, तो उन्होंने कैमरा लाकर हमारी तस्वीर खींच ली होतीं। ‘कितना पानी है! इतना सारा पानी कहां से आया? देखो तो, धूप में कैसा चमकता है!’ हम एक-दूसरे से कहने लगे। बड़ी देर तक हम समुद्र की तरफ देखते रहे फिर भी जी नहीं भरा। अब इस पानी का किया क्या जाय? बिलकुल क्षितिज तक पानी ही पानी फैला हुआ था और उससे चुप भी नहीं रहा जाता था। उसके साथ हम भी नाचने लगे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे, “समुद्र! समुद्र!! समुद्र!!!” हर बार ‘समुद्र’ शब्द के ‘मुद्र’ की अधिक से अधिक फुलाकर हम बोलते थे। समुद्र की विशालता, लहरों के खेल और दिगन्त की रेखा का दृश्य पहली ही बार देखने को मिला। इससे हमें जो अत्यधिक आनन्द हुआ उसे प्रकट करने के लिए हमारे पास अन्य कोई साधन ही न था। जिस तरह समुद्र की लहर उभरकर, फूलकर फट जाती है, उस तरह हम समुद्र की रट लगाकर ताल के साथ नाचने लगे; लेकिन हम लहरें तो थे नहीं, इसलिए अन्त में थक कर इधर-उधर देखने लगे तो एक तरफ एक-एक कमरे जितनी बड़ी ईंटे चुनी हुई हमने देखीं। उनमें से कुछ टेढ़ी थीं तो कुछ सीधी। उस समय मुझे दुकान में रखी हुई साबुन की बट्टियों और दिया-सलाई की डिब्बियों की उपमा सूझी। वास्तव में वह मुरगांव का चह था, जो बड़ी-बड़ी ईंटों से बनाया गया था। शिवजी के सांड़ की तरह समुद्र की लहरें आ-आकर उस चह के साथ टक्कर ले रही थीं।

हम घर लौटे और समुद्र कैसा दिखता है उसके बारे में घर के अन्य लोगों को जानकारी देने लगे। समुद्र के नक्कारखानें में बेचारे दूध-सागर की तूती की आवाज अब कौन सुनता?

सूर्य समुद्र में डूब गया। सब जगह अंधेरा फैल गया। हम खाना खाकर चह के साथ लगे हुए जहाज पर चढ़ गये। लोहे के तारों का जो कठड़ा जहाज में होता है, उसके पास की बेंच पर बैठकर गोंदू और मैं यह देखने लगे कि ऊंट जैसी गर्दन वाले भारी बोझ उठाने के यंत्र (केन) बड़े-बड़े बोरों को रस्सों से बांधकर कैसे ऊपर उठाते हैं। और एक तरफ रख देते हैं। हमारे सामने के क्रेन ने एक बड़े ढेर में से बोरे निकालकर हमारे जहाज के पेट को भर दिया। यंत्रों की घर्र-घर्र आवाज के साथ साथ मल्लाह जोर-जोर से चिल्लाते, ‘आबेस! आबेस!-आप्या! आप्या!’ जब वे ‘आबेस’ कहते तब क्रेन की जंजीर कस जाती और ‘आप्या’ कहते तब वह ढीली पड़ जाती। कहते हैं कि ये अरबी शब्द हैं।

हम यह दृश्य देखने में मशगूल थे कि इतने में हमारे पीछे से मानों कान में ही ‘भों ओं ओं...’ की बड़े जोर की आवज आयी। हम दोनों डर के मारे बेंच से झट कूद पड़े और पागल की तरह इधर-उधर देखने लगे। हमारे कानों के परदे गोया फटे जा रहे थे। इतने नजदीक इतने जोर की आवाज बर्दाश्त भी कैसे हो? कहां तो दूर से सुनाई देने वाली रेल की ‘कू.... ऊ...ऊ....’ वाली सीटी और कहां यह भैंस की तेरह रेंकने वाली ‘भों ओं.....’ की आवाज! आखिरकार वह आवाज रुक गई; लकड़ी का पुल पीछे खींच लिया गया, आने-जाने के रास्ते पर से निकाला हुआ कंटीला कठड़ा फिर से लगा दिया गया और ‘धस धस’ करते हुए हमारे जहाज ने किनारा छोड़ दिया। देखते-देखते अंतर बढ़ने लगा। किसी ने रूमाल को हवा में फहराकर तो किसी ने सिर्फ हाथ हिलाकर एक-दूसरे से बिदा ली। ऐसे मौकों पर चंद लोगों को कुछ-न-कुछ भूली हुई बात जरूर याद आ जाती है। वे जोर-जोर से चिल्लाकर एक-दूसरे को वह बताते हैं और दूसरा आदमी उसकी तसल्ली के लिए ‘हां हां’ कहता रहता है, फिर भले उसकी समझ में खाक भी न आया हो।

जमीन से हमारा संबंध कट गया। और हम समुद्र के पृष्ठ पर जहाज के जरिए आगे बढ़ने लगे। यह सब मजा देखकर हम अपनी–अपनी जगहों पर बैठ गये। जहाज में सब जगह बिजली की बत्तियां थी। रेल में अलग ढंग के दीये थे। वहां खोपरे के ओर मिट्टी के मिले हुए तेल में जलने वाली बत्तियां कांच की हंडियों में लटकती रहती थीं। यहां दिवारों में छोटे-छोटे कांच के गोलों के अंदर बिजली के तार जलकर धीमी रोशनी दे रहे थे।

समुद्र और समुद्र-यात्रा का वह हमारा प्रथम अनुभव था।

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