इस विश्लेषण में लेखक ने उर्वरकों के प्रयोग के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के सख्त रवैये के खिलाफ चेतावनी दी है। जहाँ रासायनिक उर्वरकों पर पूर्ण निर्भरता महंगी साबित हो सकती है वहीं स्थायी खाद्य आपूर्ति के लिए जैव उर्वरकों की वकालत भी अव्यावहारिक हो सकती है। लेखक के विचार में भारतीय कृषि के लिए दोनों का मिला-जुला उपयोग ही आदर्श हो सकता है।
माना जाता है कि लगभग दस हजार वर्ष पूर्व मानव ने एक जगह रहकर खेती करनी शुरू की थी। मैसोपोटामिया, सिंधु घाटी और यांग्तजे तथा ह्वांग हो के बेसिन सम्भवतः वे इलाके थे जहाँ खेती और पशुपालन की शुरुआत हुई। कल्पना की जा सकती है कि उस प्रारम्भिक अवस्था में वर्षा की शुरुआत के समय उन फसलों के बीज बिखेरे जाते होंगे जिन्हें आज हम चावल, मकई, ज्वार आदि खरीफ फसलें कहते हैं। अगला काम होता था फसलों की कटाई का। कुछ ठंडे इलाकों में सर्दियाँ शुरू होते ही गेहूँ बोया जाता था और बसंत में फसल काटी जाती थी।
बीजों के अलावा स्थाई कृषि की आरम्भिक अवस्था में वर्षा जल ही एकमात्र दूसरा कृषि आदान था। उस समय हमें खेतों में पौधों के लिए किसी प्रकार के पोषक तत्वों के इस्तेमाल का कोई संकेत नहीं मिलता। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि भूमि असीमित थी; जनसंख्या थोड़ी-सी थी और जब भी कमी का अंदेशा होता था, लोगों को फसल के लिए और भूमि हमेशा उपलब्ध रहती थी।
फसल और पशुपालन के दौरान एक समय यह पता चला होगा कि गोबर, फसल अपशिष्ट, बकरी, शूकर और कुक्कुट के मल आदि का प्रयोग अन्न पैदा करने वाले खेतों में किया जाता है तो पैदावार बढ़ जाती है। कई हजार वर्षों तक आदमी इस प्रकार की खेती करता आया है कि- बीज बिखेरो, जहाँ सम्भव हो सिंचाई की व्यवस्था करो और खेतों में उपलब्ध जैविक खाद का उपयोग करो। सामूहिक रूप से इस खाद को पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने वाली ‘खेतों की खाद’ कहते हैं। यहाँ तक कि जब जनसंख्या में कई गुना वृद्धि हुई, विशाल साम्राज्य बनाए गए और सभ्यताएँ विकसित हुईं, तब भी बुनियादी कृषि प्रणालियों में वैसा परिवर्तन नहीं हुआ जैसा कि हम आज देख रहे हैं। भूमि या तो उपजाऊ और सिंचित थी या फिर बंजर थी। किसी ने भी अनाज, रेशेदार फसल, चारा और जलाऊ लकड़ी पैदा करने के खेतों की खाद के इस्तेमाल के बारे में सोचा नहीं था।
अठारहवीं सदी में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत और वैज्ञानिक ज्ञान के विस्फोट ने इस सबको बदल डाला। कृषि भी एक प्रमुख वैज्ञानिक शाखा बन गई और कृषि वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशालाओं और खेतों में परीक्षण शुरू कर दिए। इस प्रकार पता चला कि आदमी को ज्ञात 100 तत्वों में से कम-से-कम 16 तत्व सदैव पौधों में मौजूद रहे हैं तथा पौधों के पोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। ये सोलह तत्व हैं: कार्बन (सी), हाइड्रोजन (एच), ऑक्सीजन (ओ), नाइट्रोजन (एन), फास्फोरस (पी), पोटाशियम (के), सल्फर (एस), कैल्शियम (सी), मैग्नीजियम (एम जी), जस्ता (जेड एन), लौह (एफ ई), मैंगनींज (एमएन), ताम्बा (सीयू), बोरोन (बी), क्लोरीन (सीएल) और मोलीबडेनम (एमओ)।
जब इन 16 तत्वों में से किसी एक तत्व की कमी हो जाती है या उसकी आपूर्ति इष्टतम मात्रा में नहीं होती तो पौधों का तीव्र एवं स्वस्थ विकास रुक जाता है और पौधे अपना जीवन-चक्र पूरा नहीं कर पाते। इसका अर्थ यह होता है कि इन अनिवार्य तत्वों में से किसी की भी कमी को पूरा नहीं किया जाए तो वृद्धि रुक जाती है तथा पैदावार घट जाती है। यह निष्कर्ष सबसे पहले लाइबिंग ने निकाला और इसे पोषक तत्वों के परिसीमन का सिद्धान्त कहा जाता है। सी, एच, ओ और कुछ हद तक एन (फलियों के मामले में) को छोड़कर मृदा ही प्रमुख संसाधन है जहाँ से पौधे इन सोलह अनिवार्य तत्वों का अपना राशन प्राप्त करते हैं।
वैज्ञानिकों ने यह भी पता लगाया है कि जिस तरह पोषकों की आपूर्ति की दृष्टि से मृदाओं में अंतर होता है उसी तरह मिट्टी से पोषक तत्व प्राप्त करने की पौधों की क्षमताओं में भी अंतर होता है। भिन्न-भिन्न मृदाओं तथा अकुशल पौध-प्रजातियों के चलते पोषक तत्वों के प्राकृतिक (खाद) या मानव निर्मित (उर्वरक) संसाधनों के जरिए पूरक तत्व उपलब्ध कराकर इन तत्वों की उपलब्धता में सन्तुलन रखना आवश्यक होता है। (जे.सी. कटियाल, राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान एवं प्रबंध अकादमी, हैदराबाद, के.एल. शर्मा, के. श्रीनिवास और एम. नरेन्द्र रेड्डी, केन्द्रीय शुष्क भूमि संस्थान, हैदराबाद फर्टिलाइजर एसोसिएशन आॅफ इंडिया द्वारा प्रकाशित फर्टिलाइजर न्यूज, हैदराबाद के अप्रैल, 1997 अंक में।)
जब यूरोप में ये खोजें हो रही थीं तब इंग्लैंड के उपनिवेश भारत में पौधों के लिए पोषक तत्वों के नाम पर खेतों की खाद ही एकमात्र साधन थी। वर्ष 1899 के भीषण अकाल और 1943 के बंगाल दुर्भिक्ष जैसे विनाशकारी अकालों ने विज्ञान और कृषि के मेल की आवश्यकता को रेखांकित किया तथा परिणामस्वरूप देश में भारतीय कृषि अनुसंधान परिसर तथा कई कृषि कॉलेजों और संस्थाओं की नीव पड़ी। इन्होंने कृषि के विकास में अमूल्य योगदान दिया परन्तु भारतीय कृषि में तब भी पौधों के लिए एकमात्र पोषक तत्व के रूप में खेतों की खाद का ही बोलबाल रहा।
1943 का बंगाल दुर्भीक्ष, द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भारत की कठिन और असम्मानजनक स्थिति, और 35 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में (1947 में) केवल 50,000 टन की वैज्ञानिक खाद के इस्तेमाल की स्थिति ने वैज्ञानिकों और प्रशासकों को गम्भीरता से सोचने पर विवश कर दिया और ‘अधिक अन्न उगाओ’ तथा ‘गहन कृषि विकास कार्यक्रम’ जैसे कार्यक्रम देश भर में शुरू किए गए। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिक, विशेषकर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक इस बीच गेहूँ के बीजों की नई किस्मों पर परीक्षण कर रह थे जिनके पौधे छोटे कद के या बौने होते थे लेकिन काफी अधिक उपज देते थे।
चमत्कारिक सफलता
वर्ष 1965 और 1966 में लगातार दक्षिण-पश्चिमी मानसून की विफलता के परिणामस्वरूप देश में 1943 के बंगाल दुर्भिक्ष की पुनरावृत्ति की आशंका व्यक्त की जा रही थी और अमेरिकी कानून पी.एल. 480 (पब्लिक ला) के अन्तर्गत अमेरिका से भारी मात्रा में गेहूँ का आयात किया जा रहा था तभी सौभाग्य से नोबेल पुरस्कार विजेता और विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्ध ‘क्षुधा लड़ाका’ डा. नार्मन बोरलाग के सहयोग से गेहूँ की पैदावार बढ़ाने में एक चमत्कारिक सफलता मिली। यह सफलता गेहूँ के ‘कल्याण सोना’ और ‘सोनालिका’ जैसे बीजों के विकास के रूप में प्राप्त हुई। इन बीजों ने तो भारत के गेहूँ परिदृश्य को नाटकीय रूप से बदल डाला। रिकार्ड के लिए कहा जा सकता है कि नई दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा अधिकांशतः विकसित ये बीज एक रुपया प्रति बीज अर्थात 3000 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बेचे गए। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि अधिक पैदावार देने वाले इन बीजों के लिए एक ओर तो पक्की सिंचाई व्यवस्था जरूरी थी तथा दूसरी ओर यूरिया, डाई-अमोनियम सल्फेट (डीएपी), म्यूरिएट आॅफ पोटाश (एमओपी) और विभिन्न रासायनिक उर्वरकों की भी भारी मात्रा की जरूरत थी।
भारत ने 1977 के आस-पास अमेरिका से गेहूँ का आयात बंद कर दिया। पहली पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के समय अनाज की पैदावार 5 करोड़ टन थी जो हाल के वर्षों में 19 करोड़ टन तक पहुँच गई है तथा लगभग दो साल पूर्व देश में 3.5 करोड़ टन खाद्यान्न का सुरक्षित भंडार मौजूद था। भारतीय खाद्य निगम जैसी राज्य एजेंसियों के पास मौजूद इस भंडार में अधिकांशतः गेहूँ और चावल था। इस सफलता का श्रेय केवल अधिक पैदावार देने वाले बीजों और सिंचाई को नहीं जाता बल्कि इसमें निर्धारित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों की भारी खपत का भी बहुत बड़ा हाथ था। पचास के दशक के मध्य में 20.6 प्रतिशत नाइट्रोजन की मात्रा वाले अमोनियम सल्फेट का निर्माण करने वाला सार्वजनिक क्षेत्र का पहला प्रतिष्ठान बिहार के सिंदरी में स्थापित हुआ।
1995-96 में 87.80 लाख टन नाइट्रोजन और 25.6 लाख टन फास्फेटीय उर्वरकों के उत्पादन के साथ ही भारतीय उर्वरक उद्योग ने अब विश्व में चौथा स्थान बना लिया है। भारत को एमओपी की पूरी मात्रा का आयात करना पड़ता है क्योंकि देश में पोटाश का कोई ज्ञात स्रोत नहीं है (रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय की 1996-97 की वार्षिक रिपोर्ट)
हाल ही में (अप्रैल 1997) राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी द्वारा जारी एक पत्र में कहा गया है कि वर्ष 2025 तक देश की जनसंख्या के एक अरब 40 करोड़ तक पहुँच जाने की सम्भावना और आहार की न्यूनतम कैलोरी की जरूरत को ध्यान में रखते हुए देश को कम-से-कम 30 करोड़ टन अनाज पैदा करना होगा और इसके लिए विभिन्न स्रोतों से उसे साढ़े तीन करोड़ एन पी के प्राप्त करना होगा। इसके अलावा बागवानी तथा अन्य उच्च मूल्य की फसलों के लिए भी वर्ष 2025 तक 1.4 से 1.5 करोड़ टन की अतिरिक्त उर्वरक की आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रकार एन पी के की कुल आवश्यकता चार से साढ़े चार करोड़ टन के बीच होगी।
‘पौधों की पोषक’ तत्वों की जरूरतें, आपूर्ति कुशलता तथा नीतिगत मसलों पर कृषि वैज्ञानिकों की अनुभूति (2000-2025) विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी पर आधारित इस पत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि (1) कृषि उत्पादन बढ़ाने की कुंजी उर्वरक हैं जो भूमि की उत्पादकता बढ़ाते हैं तथा साथ ही भूमि की बचत भी करते हैं और (2) दुनिया में विकसित या विकासशील कोई भी देश उर्वरकों का उपयोग बढ़ाए बिना अपनी कृषि उत्पादकता नहीं बढ़ा सका है और भारत भी इसका अपवाद नहीं हो सकता।
हैदराबाद में 19-21 अप्रैल, 1996 को इसी विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी में स्वीकार किया गया कि ‘‘हमने कृषि उत्पादकता एवं निरन्तरता बढ़ाने, मृदा की क्वालिटी सुधारने एवं पर्यावरण सुरक्षा सुधारने के लिए जैविक खाद, वानस्पतिक खाद, खेती का कचरा और रासायनिक उर्वरकों के साथ उनकी सह-क्रियाशीलता के प्रभावों की उपेक्षा की है।’’ संगोष्ठी में यह भी सिफारिश की गई कि ‘‘स्थानीय तौर पर उपलब्ध सभी जैविक संसाधनों को एकत्र करने और उनसे प्राप्त पोषक तत्वों को कुशलता पूर्वक पुनरुपयोगी बनाने के हर सम्भव प्रयास किए जाने जरूरी हैं।’’
जैव कृषि क्या है? कुछ वर्ष पूर्व कृषि और सहकारिता मंत्रालय द्वारा तैयार एक पत्र में कहा गया था: ‘‘सच पूछिए तो जैव कृषि उस कृषि को कहेंगे जिसमें किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरक या अन्य कृषि रसायनों का उपयोग न किया जाए तथा फसल को पुष्ट बनाने और फसल व्यवस्था के लिए वह पूर्णतः जैविक स्रोतों पर निर्भर हो’’। इसमें यह भी कहा गया था कि ‘‘जैव कृषि एक ऐसी प्रणाली है जिसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने तथा कीड़ों और बीमारियों की रोकथाम के लिए जैविक प्रक्रियाओं और पारिस्थितिकीय सम्पर्क में तेजी लाई जाती है’’। जैव कृषि का प्रमुख कार्य है पोषकों के पुनरुपयोग एवं नुकसान में कमी द्वारा मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना। फसल की पोषक तत्वों की आवश्यकता को पूरा करने के साथ-साथ जैव कृषि का अतिरिक्त लाभ है कि यह मिट्टी के भौतिक गुणधर्म, सूक्ष्मजीवी उत्पादन और खाद के अंश को बढ़ाने के साथ-साथ उसकी जलधारण क्षमता में भी वृद्धि करती है।
जैव कृषि में मात्र खेतों की खाद शामिल नहीं है जिसे प्राचीन काल में पौधों की पौष्टिक तत्व के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है बल्कि इसमें कृमि खाद, हरी खाद और जैव-उर्वरक खादों का प्रयोग भी शामिल है। खेतों की खाद में गोबर, अपशिष्ट, फसलों के अपशिष्ट, खाद्य कचरा आदि आते हैं। शहरी और ग्रामीण कचरे से बनी खाद भी पौधों को पोषक तत्व प्रदान करती है। कृमि खाद प्रक्रिया के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के अपशिष्टों में केंचुए पाले जाते हैं और इन केंचुओं के मल को खाद के रूप में काम में लाया जाता है जिसमें एन,पी और के तत्व शामिल होते हैं। हरित खाद में सेसबानिया (हिन्दी में ‘धाइन्चा’) की विभिन्न प्रजातियों जैसी तेजी से उगने वाली फलीदार फसलों की खेती और वापिस इन्हें उर्वरक के रूप में मिट्टी में जोत देने की प्रक्रिया शामिल होती है। यह प्रक्रिया भी मिट्टी में सूक्ष्मजीवी क्रिया को बढ़ावा देती है जिससे फोटो सिंथेसिस की प्रक्रिया और पैदावार में बढ़ोत्तरी होती है। फिर रिजोबियम जैसे जैव उर्वरक भी हैं जो फलीदार फसलों द्वारा मिट्टी में वातावरणीय नाइट्रोजन स्थिर करने में सहायक हैं। नील-हरित शैवाल, एजोटोबैक्टर, एजोला एजोस्पिरिलियम धान की खेती के लिए उपयुक्त होते हैं तथा ये फसलों को ‘एन’ पोषक तत्व उपलब्ध कराने के अच्छे साधन हैं।
उत्साहवर्द्धक परिणाम
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) द्वारा भारत में उस समय एक अध्ययन प्रायोजित किया गया जब हरित क्रान्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी। अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया कि ‘‘हालाँकि खनिज उर्वरक और जैविक खाद, दोनों के मृदा और फसल पर अलग-अलग लाभकारी प्रभाव होते हैं लेकिन सर्वाधिक सकारात्मक तथा उत्साहवर्द्धक परिणाम इन दोनों के संयुक्त उपयोग से निकले हैं।” हालाँकि यह अध्ययन काफी पुराना है फिर भी इसके कुछेक निष्कर्ष जैविक कृषि के पक्षधरों के लिए आमतौर पर दिलचस्प हैं। इनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया जा रहा है।
1. जैविक उर्वरक पौधों के लिए सान्द्रित रूप में तत्काल पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैं तथा इनसे मिट्टी के प्राकृतिक गुणों पर आमतौर से कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। जैविक खादों में पोषक तत्वों की मात्रा कम जरूर होती है लेकिन ये मिट्टी के प्राकृतिक, भौतिक-रासायनिक और जैविक गुणों को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इनसे पोषक तत्व उपलब्ध होने की प्रक्रिया धीमी तो है लेकिन यह काफी अरसे तक चलती है।
2. खनिज उर्वरकों और जैविक खादों का अलग-अलग प्रयोग करने पर मिट्टी के रासायनिक, प्राकृतिक और सूक्ष्मजैविक गुणधर्मों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है लेकिन यदि जैविक अंश कम हो तो फास्फेटीय उर्वरकों को छोड़कर खनिज उर्वरकों के निरन्तर उपयोग से मिट्टी की संरचना और उससे सम्बद्ध गुणधर्मों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
3. इस प्रकार जैविक खादों के ही प्रयोग से ऐसी मिट्टी बन सकती है जिसके प्राकृतिक एवं सूक्ष्मजैविक गुण बढ़िया किस्म के हों। खनिज उर्वरकों से मिट्टी के पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ेगी तथा दोनों के मिले-जुले उपयोग से उसके प्राकृतिक एवं सूक्ष्म जैविक गुणों में बेहतरी होगी जिनके परिणामस्वरूप इन पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ेगी और फसली मिट्टी बढ़िया बनेगी।
इस सबकी चर्चा के बाद यह भी आवश्यक है कि पौधों के पोषक तत्वों के जैविक स्रोतों की उपलब्धता का आकलन किया जाए। पहले जिस राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के पत्र की चर्चा की गई है उसके अनुसार ‘‘एकदम सामान्य अनुमानों के हिसाब से देश में मुश्किल से विभिन्न किस्मों की 27/30 करोड़ टन जैविक खाद उपलब्ध है जिससे 40 से 60 लाख टन एन पी के प्राप्त हो सकता है।’’ पत्र में कहा गया है कि ये अनुमान छिटपुट डाटाबेस के आधार पर निकाले गए हैं। पत्र में कृषि अपशिष्ट और फसल के कचरे को पुनरुपयोगी बनाने पर ध्यान देने की सिफारिश की गई है। अकादमी का कहना है कि ‘‘इनके युक्तिसंगत उपयोग की भावी सम्भावनाओं को तलाशना होगा तथा इनकी क्षमताओं के भरपूर उपयोग के लिए प्रौद्योगिकियों और नीतियों की जरूरत होगी।’’
इस पत्र के अनुसार कृषि उपयोग के लिए उपलब्ध पोषक तत्वों की अनुमानित क्षमता एवं सम्भावना इस प्रकार है:
फसल का कचरा | क्षमता 5.6 से 8.7 लाख टन | सम्भावना 1.7 से 2.6 लाख टन |
गोबर | क्षमता 2.4 से 5.7 लाख टन | सम्भावना 1.0 से 1.7 लाख टन |
मल | क्षमता 1.5 से 1.8 लाख टन | सम्भावना 1.2 से 1.4 लाख टन |
कुल | क्षमता 10.5 से 16.2 लाख टन | संभावना 3.7 से 5.7 लाख टन |
कृषि और सहकारिता मंत्रालय के जिस पत्र की चर्चा पहले की गई है उसके मुताबिक 1987 की गणना के अनुसार मवेशियों की 2 करोड़ 7 लाख से अधिक संख्या से प्रति वर्ष कुल 83 करोड़ टन गोबर मिलता है। यदि मान लें कि 20 प्रतिशत गोबर उठाया नहीं जाता और 25 प्रतिशत ईंधन के रूप में जला दिया जाता है तो खाद के लिए केवल 55 प्रतिशत गोबर ही बचता है।
इसी पत्र में अनुमान लगाया गया है कि ग्रामीण इलाकों में खाद बनाने के लिए उपलब्ध जैविक अपशिष्ट में 457 लाख टन गोबर, 176.6 लाख टन कूड़ा-करकट और 300 लाख टन अन्य अपशिष्ट होता है। इस प्रकार कुल जैविक अपशिष्ट 933.6 लाख टन होता है। सिकुड़ने के कारण 30 प्रतिशत का नुकसान छोड़ दें तो इससे 653 लाख टन खाद बनाई जा सकती है।
शहरी कीचड़ से भी पौधों के पोषक तत्व प्राप्त किए जा सकते हैं। इसी प्रकार नीम केक और मुर्गे-मुर्गियों की बीट भी पोषक तत्वों का स्रोत है। मंत्रालय के पास में शहरी खाद क्षमता के लगभग 160 लाख टन होने का अनुमान लगाया गया है।
यहाँ एक विवादास्पद प्रश्न पूछा जा सकता है कि विभिन्न प्रकार की जैविक खादों से प्रमुख, मध्यवर्ती और सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता कितनी है? मंत्रालय पत्र के अनुमान तालिका-1 में दिखाए गए हैं।
जैव खाद | एन | पी | के | कुल पोषक तत्व (प्रतिशत) |
ग्रामीण खाद | 0.75 | 0.5 | 0.5 | 1.75 |
शहरी खाद | 1.00 | 1.00 | 1.00 | 3.00 |
नीम केक | 5.20 | 1.00 | 1.40 | 7.60 |
खेतों की खाद | 0.60 | 0.20 | 0.60 | 1.40 |
कुक्कुट मल | 3.00 | 2.60 | 1.40 | 7.00 |
जे.सी. कटियाल, के. शर्मा, के. श्रीनिवास और एम. नारायण रेड्डी जिनकी चर्चा शुरू में की गई थी कुछ अधिक व्यापक आँकड़े प्रदान करते हैं जिनमें सूक्ष्म पोषकों की उपलब्धता भी दर्शाई गई है।
(तालिका-2)
कुछ जैविक खादों और फसल अपशिष्टों का रासायनिक संघटन (शुष्क भार के आधार पर) | ||||||||||
जैवखाद/फसल अपशिष्ट
| प्राथमिक पोषक तत्व (प्रतिशत में) | सूक्ष्म पोषक (मिग्रा./किग्रा.) | सी.एन. अनुपात | |||||||
| एन | पी | के | एफ ई | जेड.एन | एम.एन. | सी.यू. | बी | एम.ओ. |
|
खोतों की खाद | 2.28 | 0.34 | 1.45 | 1300 | 25 | 75 | 2.4 | 3.5 | 2.4 | 18 |
‘‘ | 1.00 | 0.54 | 0.90 | 2600 | 57 | 250 | 2.5 | 2.1 | 0.7 | 35 |
‘‘ | 1.30 | 0.38 | 0.40 | 1465 | 40 | 69 | 2.8 | 8.3 | 3.1 | 26 |
शूकर खाद | 1.88 | 2.13 | 0.67 | 1200 | 50 | 70 | 8.9 | - | - | - |
कुक्कुट खाद | 1.89 | 1.90 | 1.60 | 1400 | 90 | 210 | 7.1 | 5.0 | - | - |
‘‘ | 1.85 | 1.81 | - | 1075 | 50 | 196 | 6.9 | 7.0 | - | - |
मानव मल | 1.60 | 0.50 | 0.46 | - | - | - | - | - | - | - |
शहरी खाद | 1.50 | 0.50 | 1.00 | - | 400 | 560 | 150 | 15 | 9 | - |
बकरी/भेड़ खाद | 0.65 | 0.50 | 0.03 | - | 2570 | 150 | 61 | 4600 | - | - |
जलमल कीचड़ | 2.40 | 1.20 | 0.002 | - | 2459 | 262 | 643 | 9 | 6 | - |
हरित खाद (सेसबानिया) | 2.25 | 0.37 | - | 140 | 17 | 80 | 3.2 | 20 | 0.2 | 13 |
गेहूँ की भूसी | 0.55 | 0.07 | 1.60 | 190 | 25 | 90 | 3.4 | 5 | 0.1 | 78 |
चावल की भूसी | 0.45 | 0.13 | 1.20 | 280 | 20 | 340 | 3.5 | 5 | 0.05 | 85 |
प्रेस मड | 1.20 | 1.96 | 2.20 | 1140 | 94 | 450 | - | - | - | - |
गन्ने की खोई | 0.25 | 0.12 | - | 240 | 17 | 50 | - | - | - | - |
अरंडी केक | 5.70 | 0.78 | 1.40 | 590 | 76 | 50 | - | - | - | - |
अजोला | 4.03 | 0.29 | 1.70 | - | - | - | - | - | - | 8 |
नोट: इस तालिका में रासायनिक संघटन कुछ पारम्परिक खादों के मूल्य दर्शाते हैं। इनका मूल्य असामान्य नहीं है। स्रोतः फर्टिलाइजर न्यूज, अप्रैल, 1997। |
इस चार्ट से हमें पता चलता है कि सभी प्रकार की जैविक खादों में अनिवार्य पोषक तत्वों की वास्तविक उपस्थिति कम होती है। उदाहरण के लिए यदि गेहूँ के लिए ‘एन’ की निर्धारित मात्रा प्रति हेक्टेयर 120 किलोग्राम है तो 4 से 12 टन खेतों की खाद की जरूरत पड़ेगी। (उपरोक्त चार्ट के अनुसार ‘एन’ की उपलब्धता 1.00 से 2.80 प्रतिशत मानी जा सकती है। गेहूँ की फसल के 1000 हेक्टेयर खेत में केवल ‘एन’ प्रदान करने के लिए 4,000 से 12,000 टन खेत की खाद की जरूरत पड़ेगी। हो सकता है कि इस मात्रा से ‘पी’ और ‘के’ की निर्धारित मात्रा के साथ-साथ सूक्ष्म पोषकों की आवश्यकता भी पूरी हो जाए। वर्ष 1995-96 में देश में उत्पादित 2 करोड़ 51 लाख टन गेहूँ की फसल (आर्थिक सर्वेक्षण, 1996-97) के लिए 10 से 30 करोड़ टन खेतों की खाद की प्रतिवर्ष जरूरत पड़ेगी (‘एन’ की उपलब्धता 1.00 से 2.80 प्रतिशत मानकर)।
चावल को लें तो 4 करोड़ 29 लाख हेक्टेयर में पैदा की जाने वाली फसल के लिए (आर्थिक सर्वेक्षण, 1996-97) 17.2 से 51.6 करोड़ टन खेतों की खाद की जरूरत पड़ेगी ताकि एन,पी,के (जरूरी नहीं कि ‘पी’ और ‘के’ निर्धारित मात्रा में हों) और सूक्ष्म पोषक उपलब्ध हो सकें।
इस प्रकार हम देखते हैं कि केवल धान और गेहूँ के लिए ही 27.2 से 81.6 करोड़ टन के बीच खेतों की खाद की जरूरत पड़ेगी। पहले दिए गए आँकड़ों से हमने देखा कि खेतों की खाद इतनी मात्रा में देश में उपलब्ध नहीं है या इसे जुटाना सम्भव नहीं है। फिर इतनी मात्रा में इस खाद को खेतों तक पहुँचाने की भी समस्या है। ढुलाई के इतने बड़े काम से निश्चय ही बाजार में गेहूँ और चावल की कीमतें बढ़ जाएँगी। इसके अलावा दूसरी फसलें भी हैं जिन्हें पोषक तत्वों के लिए खाद की जरूरत पड़ेगी।
ऐसी स्थिति में भारतीय कृषि में रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर पूरी तरह जैविक खाद के इस्तेमाल की कोई सम्भावना नहीं रह जाती। जैसा कि पहले बताया गया है भारतीय कृषि के लिए इन दोनों खादों का मिला-जुला उपयोग सर्वोत्तम है। इसी के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और इसे सुनिश्चित किया जाना चाहिए। आज स्थिति यह है कि भारत में रासायनिक उर्वरकों की खपत काफी कम है तथा इसी कारण प्रमुख फसलों की पैदावार भी दुनिया के कई देशों की तुलना में कम है। लेकिन इस तथ्य से मिट्टी की पौष्टिकता और उत्पादकता बनाए रखने में जैविक खाद की उपयोगिता कम नहीं हो जाती।
अक्सर दावा किया जाता है कि खाद्यान्न की उच्च उत्पादकता सहित कृषि क्षेत्र में चीन की शानदार सफलता (भारत के 2 टन प्रति हेक्टेयर से कुछ अधिक की तुलना में चीन की 4.5 टन प्रति हेक्टेयर) जैविक खादों पर निर्भरता के कारण ही सम्भव हो सकी है। लेकिन दिसम्बर 1996 में नई दिल्ली में ‘उर्वरक तथा कृषि-उभरती बाध्यताएँ’ विषय पर भारतीय उर्वरक संस्थान द्वारा आयोजित सेमिनार में भाग लेने आए डा. काओ ने कहा था:
‘‘.....चीन में किए गए दीर्घावधि परीक्षणों से पता चला है कि जहाँ जैविक खाद के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों का भी प्रयोग किया गया, वहाँ पैदावार सबसे अधिक रही।’’ उन्होंने चीन की तरह ‘रासायनिक उर्वरक और जैविक खाद के संयुक्त उपयोग’ की पैरवी की। उन्होंने उल्लेख किया कि हालाँकि पिछले वर्षों में जैविक खाद के उपयोग की मात्रा में वृद्धि हुई है लेकिन कुल प्रयुक्त ‘एन पी के’ में जैविक खाद से प्राप्त ‘एन पी के’ की मात्रा जो 1949 में 99.9 प्रतिशत थी, 1990 में घटकर 36.7 प्रतिशत रह गई है (फर्टिलाइजर न्यूज, जनवरी, 1997)
चीन के कृषि वैज्ञानिक के इस वक्तव्य से इस दृष्टिकोण के बारे में भ्रांति समाप्त हो जानी चाहिए कि विश्व को रासायनिक उर्वरकों का उपयोग त्याग कर पूर्णतः जैविक खादों पर ही निर्भर रहना चाहिए। निष्कर्ष के तौर पर 9 फरवरी, 1996 को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में आयोजित दीक्षांत समारोह में डा. नार्मन बोरलाग के इस कथन को उद्धृत करना सर्वथा उपयुक्त होगा:
‘‘आजकल अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर तगड़ा प्रभाव रखने वाले पर्यावरण आन्दोलन के अतिवादियों ने जोड़-तोड़ करके अधिकारियों को विश्वास दिला दिया है कि अब रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता नहीं है तथा जैविक उर्वरकों से ही निरन्तर खाद्य आपूर्ति की फसलों की आवश्यकता पूरी की जा सकती है। कितना दूर है यह सच्चाई से! केवल जैविक खाद के उपयोग से हम दुनिया के लिए जरूरी आहार की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकते। यह बात विशेषकर सहारा के दक्षिण में स्थित अफ्रीकी देशों के लिए एकदम सही है क्योंकि वहाँ बहुत ही कम जैविक सामग्री उपलब्ध है। इस सिफारिश की वकालत करना इन अफ्रीकी देशों को बर्बाद करना ही है। समय आ गया है जब दुनिया इस चुनौती के प्रति चेते।”
(लेखक आर्थिक विषयों के अनुभवी लेखक हैं।)
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