सिंचाई समेत सभी क्षेत्रों में जल की माँग बढ़ रही है किन्तु जल संसाधनों की आपूर्ति सीमित है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से भी खतरा है क्योंकि उनसे जल संसाधनों की उपलब्धता और भी कम हो जाएगी। जल स्रोतों, भूमिगत जल और सतही जल के दूषित होने से इस्तेमाल के लायक जल की उपलब्धता और कम हो जाती है। बढ़ती माँग पूरी करने के लिये जल का संरक्षण करने और सभी क्षेत्रों में जल को दूषित होने से बचाने की आवश्यकता है। इसके अलावा सभी क्षेत्रों में जल के प्रयोग की दक्षता बढ़ाने की भी जरूरत है।
पृथ्वी पर मौजूद कुल जल का केवल 0.4 प्रतिशत ही पूरी दुनिया में हमारी जरूरतें पूरी करने के लिये उपलब्ध है। दुनिया की 14 प्रतिशत जनसंख्या के पास कुल जल संसाधनों का 53 प्रतिशत है, जबकि 86 प्रतिशत आबादी (भारत और चीन को मिलाकर) को 47 प्रतिशत वैश्विक जल संसाधन से ही काम चलाना पड़ता है। विश्व की 17 प्रतिशत आबादी भारत में रहती है, लेकिन केवल 4 प्रतिशत जल-संसाधन उसके हिस्से में आते हैं।
जीवन, आजीविका और पारिस्थितिकी के लिये जल संसाधन हमेशा से आवश्यक हैं, आर्थिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण हैं और खाद्य सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा एवं ऊर्जा सुरक्षा के लिये भी आवश्यक हैं। हर वर्ष 4,000 अरब घनमीटर वर्षा (हिमपात समेत) के अनुमानों को देखते हुए विभिन्न उद्देश्यों के लिये केवल 1,123 अरब घन मीटर जल का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसमें से 61 प्रतिशत जल भूमि के ऊपर है और बाकी भूमिगत जल है। एक अनुमान (एनसीआईडब्ल्यूआरडी 1999)1 बताता है कि 2050 तक जल की माँग सिंचाई क्षेत्र में 73 प्रतिशत हो जाएगी और उसके बाद उद्योग तथा घरेलू क्षेत्रों की बारी आएगी। इस समय इसकी करीब 80 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
स्थान तथा काल के अनुसार जल की उपलब्धता भी अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिये भारत में लगभग 75 प्रतिशत वर्षा 4 महीनों में होती है और सबसे अधिक वर्षा पूर्वोत्तर क्षेत्र में तथा सबसे कम राजस्थान में होती है। जल संसाधनों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता वर्ष-दर-वर्ष घटती जा रही है और माना जा रहा है कि 2050 तक यह पानी की कमी वाला क्षेत्र बन जाएगा। आज भी ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्रिटेन, बांग्लादेश और चीन जैसे देशों की तुलना में भारत की प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता कम है।
1.7 अरब की आबादी (2050) की जरूरत पूरी करने के लिये भारत को 45 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी। सिंचाई विकास की स्थिति बताती है कि सिंचाई की अनुमानित क्षमता लगभग 14 करोड़ हेक्टेयर है, लेकिन वास्तव में सिंचित क्षेत्र बहुत कम है, जिससे पता चलता है कि विभिन्न उपायों का प्रयोग कर इसे सुधारने की सम्भावना है। इसके अतिरिक्त जल की प्रत्येक इकाई के प्रयोग से उत्पादकता कम होने के कारण भारत की बढ़ती आबादी को लेकर चिन्ता उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिये चावल उत्पादन के लिये 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 3.48 अरब घन मीटर जल की आवश्यकता होती है, जबकि म्यांमार में केवल 1.90 अरब घन मीटर जल की जरूरत पड़ती है। आमतौर पर फसल का उत्पादन बहुत कम है; वर्षा से सिंचित क्षेत्र में लगभग 1 टन/हेक्टेयर और सिंचित क्षेत्रों में 2.5 टन/हेक्टेयर।
भारत के लगभग 80 प्रतिशत जल संसाधनों का प्रयोग करने के बाद भी कृषि क्षेत्र में जल के उपयोग की दक्षता बहुत कम (लगभग 38 प्रतिशत) है। यह खासतौर पर इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था है और अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिये आमतौर पर खेत में होने वाले उत्पादन पर निर्भर करता है। वास्तव में खेती में सिंचाई सबसे बड़ी लागत में शामिल है और सामान में होने वाले कुल खर्च में इसकी लगभग 70 प्रतिशत हिस्सेदारी है। जल का अधिक दक्षता के साथ इस्तेमाल करने से जल बचेगा और इनपुट लागत कम हो जाएगी।
कुल मिलाकर लगभग 8 करोड़ हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र है, जो दुनिया में सबसे बड़ा सिंचित क्षेत्र है। विशेषकर गाँवों में सिंचाई के जल की अधिकाधिक आवश्यकता भूजल से ही पूरी होती है। भारत में 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गाँवों में रहती है और प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से खेती पर निर्भर है, इसीलिये मानसून की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका है। अक्सर कहा जाता है कि मानसून ही असली वित्त मंत्री है।
सिंचाई के जल को यहाँ से वहाँ पहुँचाने के दौरान अन्तिम बिन्दु तक पहुँचते-पहुँचते बहुत जल नष्ट हो जाता है क्योंकि परिवहन प्रणाली में ढेरों खामियाँ हैं। नहरों और नालियों के जरिए सिंचाई का जल इस्तेमाल करने पर 55 से 60 प्रतिशत जल ही मिल पाता है, जबकि बिन्दु एवं सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों का प्रयोग करने वाली बेहतर सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों से 90 प्रतिशत से अधिक जल का उपयोग हो जाता है। नहरों तथा नालियों में ढेर सारा जल वाष्पीकरण, रिसाव तथा मिट्टी द्वारा सोखे जाने के कारण नष्ट हो जाता है। इसके उलट बन्द पाइप के नेटवर्क से जल की बर्बादी बहुत कम हो जाती है।
परिभाषाएँ
लगाई गई सामग्री (इनपुट) और उत्पादन या परिणाम का अनुपात दक्षता या सामर्थ्य कहलाता है और उसे प्रतिशत में बताया जाता है। दक्षता के सिद्धान्त का उद्देश्य यह दिखाना है कि सुधार किये जा सकते हैं, जिनसे अधिक बेहतर सिंचाई होगी। विभिन्न प्रकार की सिंचाई दक्षता प्रयोग की जाती हैं। पहली, जल के परिवहन की दक्षता होती है, जो परिवहन तथा मार्ग में होने वाली बर्बादी से निर्धारित होती है और उसे नदी अथवा जलाशय से लाए गए जल और खेत अथवा सिंचित भूखंड तक पहुँचे जल के अनुपात के रूप में व्यक्त किया जाता है। दूसरी, जल के प्रयोग की दक्षता होती है, जिसमें यह देखा जाता है कि फसल में जल के प्रयोग का कौन-सा तरीका अनुकूल है और इसे खेत में छोड़े गए जल तथा फसल की जड़ों में जमा जल की मात्रा के अनुपात से मापा जाता है।
अच्छी संरचना वाली सतह सिंचाई प्रणाली में जल के प्रयोग की दक्षता कम-से-कम 60 प्रतिशत होती है और फव्वारा सिंचाई प्रणाली में लगभग 75 प्रतिशत होती है। जल के प्रयोग की दक्षता कम होने के कारणों में जमीन की अनियमित सतह, सिंचाई के गलत तरीके, ढलवाँ जमीन आदि शामिल हैं। चौथी, जल के प्रयोग की दक्षता आपूर्ति किए गए जल की मात्रा एवं खपत किए गए जल की मात्रा के अनुपात से मापी जाती है। पाँचवीं, जल भण्डारण की दक्षता बताती है कि सिंचाई के दौरान आवश्यक जल कितनी जड़ों में कितना अधिक समा गया है। यह सिंचाई से पहले जड़ों में आवश्यक जल तथा सिंचाई के दौरान जड़ों में एकत्र हुए जल का अनुपात होता है। अन्त में जल वितरण की दक्षता बताती है कि जड़ों में जल का एक समान वितरण कितनी अच्छी तरह से हुआ है। जल का जितना एक समान वितरण होगा, फसल उतनी ही अच्छी होगी।
जल संरक्षण के उपाय
सिंचाई समेत सभी क्षेत्रों में जल की माँग बढ़ रही है किन्तु जल संसाधनों की आपूर्ति सीमित है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से भी खतरा है क्योंकि उनसे जल संसाधनों की उपलब्धता और भी कम हो जाएगी। जल स्रोतों, भूमिगत जल और सतही जल के दूषित होने से इस्तेमाल के लायक जल की उपलब्धता और कम हो जाती है। बढ़ती माँग पूरी करने के लिये जल का संरक्षण करने और सभी क्षेत्रों में जल को दूषित होने से बचाने की आवश्यकता है। इसके अलावा सभी क्षेत्रों में जल के प्रयोग की दक्षता बढ़ाने की भी जरूरत है। सिंचाई के क्षेत्र में जल संरक्षण के लिये कई तरीके आजमाए जा सकते हैं। इनमें से कुछ हैं :
1. प्रणाली का उचित एवं समय से रख-रखाव।
2. क्षतिग्रस्त एवं गाद भरी नहरों का पुनर्वास एवं नवीनीकरण ताकि जल सही तरीके से जा सके।
3. सतह पर उपलब्ध जल तथा भूमिगत जल का मिला-जुला प्रयोग, विशेषकर उन क्षेत्रों में, जहाँ जल जमाव का खतरा हो।
4. जहाँ उचित हो, वहाँ फसल की सिंचाई के लिये ‘बिन्दु’ एवं ‘फव्वारा’ प्रणाली अपनाना।
5. जल की उपलब्धता में परिवर्तन होने पर फसल का पैटर्न बदलना।
6. जल उपयोगकर्ता संघ बनाना और प्रबन्धन उनके हाथ में सौंप देना।
7. जल के विविध प्रयोगों को बढ़ावा देना।
8. रात में सिंचाई आरम्भ करना ताकि वाष्पीकरण के कारण कम-से-कम जल व्यर्थ हो।
9. समय से एवं अभीष्टतम सिंचाई सुनिश्चित करना ताकि जल की बर्बादी और भराव कम-से-कम हो।
10. नदियों में मानसून के बहाव का संरक्षण करना क्योंकि उसका अधिकतर हिस्सा बेकार जल के रूप में समुद्र में चला जाता है।
वैश्विक कार्यक्रम
विश्व जल परिषद (2000) का अनुमान है कि 2025 तक बढ़ी हुई कृषि माँग का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा जल की उत्पादकता बढ़ाकर पूरा किया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र जल मूल्यांकन कार्यक्रम भी आपूर्ति के नए स्रोतों अथवा कृषि के लिये बढ़ते जल आवंटन की माँग कम करने के लिये फसल जल की उत्पादकता बढ़ाने की अपील करता है। भारत सरकार के राष्ट्रीय जल मिशन ने जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के तहत जल के प्रयोग की दक्षता 20 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत सरकार ने जल की बर्बादी घटाने, सटीक सिंचाई (‘मोर क्रॉप पर ड्रॉप’) अपनाने को बढ़ावा देने तथा भूमिगत जलीय परतों में जल के एकत्रीकरण एवं जल संरक्षण के टिकाऊ तरीकों को बढ़ावा देने के लिये कृषि जल के प्रयोग की दक्षता बढ़ाने के लक्ष्य के साथ प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना भी आरम्भ की है।
सर्वश्रेष्ठ तरीकों के उदाहरण
भारत में जैन इरिगेशन सिस्टम लिमिटेड 1990 से ही ‘बिन्दु एवं फव्वारा’ सिंचाई तकनीक के क्षेत्र में काम कर रही है। बिन्दु सिंचाई के साथ चावल उत्पादन में उनके प्रयोग से कई आर्थिक लाभ दिखे हैं, जैसे चावल की उपज में 40 प्रतिशत तक की वृद्धि, 70 प्रतिशत तक जल की बचत, 50 प्रतिशत तक ऊर्जा संरक्षण, जल एवं उर्वरक के प्रयोग में 80 प्रतिशत तक दक्षता, मृदा स्वास्थ्य संरक्षण आदि। इसके अलावा त्वचा, श्वसन एवं मच्छर काटने जैसी बीमारियाँ घटने से कृषि भूमि का स्वास्थ्य भी सुधरा है। साथ ही, मीथेन के कम उत्सर्जन के कारण पर्यावरण प्रदूषण में कमी आई है, ग्लोबल वार्मिंग कम हुई है। सूक्ष्म सिंचाई के साथ गेहूँ की फसल, सटीक कृषि के साथ गन्ने, बिन्दु सिंचाई के साथ कपास के उत्पादन में भी वृद्धि के साथ ऐसे ही परिणाम आए हैं। वर्ष-दर-वर्ष जैन इरिगेशन ‘मोर क्रॉप पर ड्रॉप’ को बढ़ावा देने के लिये कई उपाय किए हैं।
निष्कर्ष
भारत में कृषि क्षेत्र में जल का दक्षतापूर्ण प्रयोग चुनौती भरा काम है क्योंकि इससे कई लोग जुड़े हैं। इस प्रयास में ऐसे लोगों की सहभागिता के लिये सरकारों, नागरिक समाजों, कम्पनियों, वित्तीय संस्थाओं तथा अन्य के गठबन्धन की आवश्यकता होगी। हितधारकों की मानसिकता बदलने की भी आवश्यकता है। सिंचाई प्रणाली के लिये एकीकृत समाधान भी होना चाहिए, जैसे सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियाँ (उदाहरण के लिये ‘बिन्दु एवं फव्वारा’) आरम्भ करना, सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल, जल परिवहन एवं खेतों में प्रयोग के लिये सेंसर का प्रयोग, सौर-पम्प की तकनीकें अपनाना तथा जल संरक्षण के अन्य तरीके (जैसे भूमिगत जल रिचार्ज) अपनाना। शून्य जुताई की तकनीक2 प्रयोग करने की भी जरूरत है, जिससे मिट्टी में नमी बनी रहेगी। इसके अलावा लेसर3 के जरिए मिट्टी समतल करने की तकनीक का प्रयोग होना चाहिए क्योंकि इससे सिंचाई का जल बच सकता है। इस विषय पर भारत में कई अच्छे तरीके हैं, लेकिन उन्हें व्यापक बनाया जाना चाहिए। सरकारों के वर्तमान प्रयास सही दिशाओं में हैं।
सन्दर्भ
1. एनसीआईडब्ल्यूआरडी राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधन विकास आयोग है।
2. शून्य जुताई तकनीक से किसान खेत में मिट्टी की संरचना को कम-से-कम छेड़कर जरूरी गहराई पर बीज बो पाता है। विशेष संरचना वाली कृषि मशीनरी के कारण जुताई की आवश्यकता ही नहीं रहती और पौध लगाने के लिये जुताई की आवश्यकता भी कम-से-कम हो जाती है।
3. खेती में लेसर से कामगारों को पौधरोपण के लिये जमीन की रेखा ठीक से खींचने अथवा प्रमुख फसलों की सिंचाई के लिये उसे ठीक से तैयार करने में मदद मिल सकती है। इस प्रणाली से बड़ी जमीन में मिट्टी तैयार करने में पारम्परिक तरीकों की तुलना में कम समय लगता है।
लेखक परिचय
लेखक जल संसाधन मंत्रालय में सचिव रह चुके हैं और एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी), नई दिल्ली में प्राकृतिक संसाधन एवं जलवायु कार्यक्रम के वरिष्ठ निदेशक हैं। ई-मेल : sk.sarkar@teri.res.in
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