पृथ्वी पर मानव के उपयोग के लिये अत्यंत सीमित मात्रा में जल उपलब्ध है। यह एक जलीय चक्र के माध्यम से गतीय स्वरूप से वाष्पीय एवं अंतत: वर्षा के रूप में धरातल पर प्राप्त होता है जो वाष्पोत्सर्जन जलावाह आदि के माध्यम से पुन: चक्रीय स्थिति के प्रथम स्तर पर पहुँच जाता है। बेसिन में जल संसाधन की प्राप्ति का एकमात्र स्रोत वर्षा ही है। शोध प्रबंध के द्वितीय भाग के प्रथम उपभाग में वर्षा तथा जलाधिशेष, द्वितीय उपभाग में धरातलीय जल एवं तृतीय उपभाग में भौम जल का वर्णन किया गया है।
‘‘जल ही जीवन है’’ यह छोटा सा वाक्य मानव के लिये पानी के महत्त्व को पूरी तरह बता देता है। प्राचीन साहित्य और वेदों में तो जल को अमृत कहा गया है। पुराणों में जल को परमेश्वर यानी साक्षात भगवान माना गया है। इस धरती पर यदि यह जल न होता तो कुछ भी नहीं होता अर्थात सभी प्राकृतिक संसाधनों में जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिसकी बहुउद्देशीय आवश्यकता है (लाहिड़ी 1977, 141)।
जल मानव का मूलाधार है। वह मात्र पानी ही नहीं परंतु मानव की जीवन ज्योति है। समस्त जीवों की उत्पत्ति जल से हुई। जल समस्त संभावनाओं का आधार है। मानव सभ्यता के आरंभ से ही जल का प्रमुख स्थान रहा है। जल को मानव तकनीक द्वारा संग्रहित करके उपयोग में लाने से पूर्व वह बड़ी-बड़ी नदियों एवं झीलों के किनारे विकसित हुई। सिंधु घाटी की सभ्यता, नील नदी की घाटी सभ्यता, दजला फरात की सभ्यता, व्हांगहो की सभ्यता आदि इसके उदाहरण है।
जल मानव निवास के पर्यावरण के साथ ही किसी प्रदेश में संपूर्ण सामाजिक एवं आर्थिक विकास के निर्धारण के लिये महत्त्वपूर्ण तत्व है (विश्वास 1978, 25)। जल मानव के समस्त कार्य, जीवन तथा स्वास्थ्य के लिये अनिवार्य आवश्यकता है। वस्तुत: वायु के पश्चात जल ही मनुष्य के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है (वाल्टन, 1970, 7)।
जल स्वयं में एक पद्धति है जो मात्र जल ही नहीं अपितु समस्त जीव को अपने आम में समाहित किए हुए है। जल मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है, जो सहज जीवन तथा स्वास्थ्य के लिये अनिवार्य आवश्यकता है। मानव शरीर के भार का 65 प्रतिशत जल है। इसकी केवल 15 प्रतिशत कमी ही मनुष्य को मृत्यु की नींद सुला सकती है (लियोबोल्ड एवं डेविड, 1966, 72)। मनुष्य प्रतिदिन अपने शरीर में 5 प्रतिशत जल विस्थापित करता है। अत: उसके सामान्य स्वास्थ्य के लिये पर्याप्त मात्रा में शुद्ध जल की उपलब्धता अनिवार्य है।
जल को प्रकृति ने एक अद्भुत गुण दिया है कि एक सीमा तक वह स्वयं ही अपनी शुद्धता बनाये रखता है। लेकिन जब विशाल मात्रा में गंदगी का प्रवाह उसमें लगातार मिलता जाता है तो अंतत: शुद्धिकरण की प्राकृतिक प्रक्रिया ठप्प पड़ जाती है। पानी एक सर्वश्रेष्ठ विलायक होने के कारण जहरीले रसायनों, भारी धातुओं के कणों, कार्बनिक यौगिकों को वापस पारिस्थितिकीय तंत्र में लौटाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यद्यपि जल एक नव्यकरणीय प्राकृतिक संसाधन है, तथापि यह सर्वत्र सुलभ नहीं है। विश्व में जल संसाधन का वितरण असमान है। संपूर्ण विश्व के 71 प्रतिशत क्षेत्र में फैले समुद्र में कुल उपलब्ध जल का 97 प्रतिशत समाहित है। धरातल पर भी उपलब्ध शुद्ध जल का 75 प्रतिशत तो हिम के रूप में ही संग्रहित है। केवल 0.33 प्रतिशत जल ही नदियों एवं झीलों में उपलब्ध है, जो मानव के उपयोग की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है (चोर्ले 1969, 27)।
जल संसाधन के अंतर्गत प्रमुख जल राशियों, नदी, जलाशय, सागर, अधोभौमिक जल की स्थिति स्वरूप और उनमें होने वाली प्रमुख गतिविधियों का अध्ययन किया जाता है। जनसंख्या वृद्धि एवं प्रविधिजन्य उन्नति के परिणामस्वरूप जल के विभिन्न प्रकार के उपयोगों में निरंतर वृद्धि हो रही है। मनुष्य पीने के लिये तथा सिंचाई के लिये जल का प्राथमिक रूप से उपयोग करता है। परंतु अब मत्स्यपालन औद्योगिक उत्पादन, नौपरिवहन तथा मनोरंजन इत्यादि के लिये भी जल का उपयोग करने लगा है। जल प्रकृति प्रदत्त असीमित भंडार है परंतु स्थानीय रूप से उपलब्ध जल या तो शीघ्र समाप्त होने लगता है या संरक्षण, प्रदूषण अथवा प्रबंधन के अभाव में अनुपयोगी हो जाता है। कृषक आवश्यकता से अधिक जल का प्रयोग सिंचाई हेतु करते हैं जिनका कुप्रभाव मत्स्योत्पादन तथा कृषि उत्पादकता पर पड़ता है। नगरों या अन्य केंद्रों में गृह उपयोग में आने वाले पेयजल का उपयोग रख-रखाव एवं साग सब्जी के उत्पादन में किया जाता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों को पेयजल की उपलब्धि नहीं हो पाती। कुछ पेयजल, नल के बिना आवश्यकता के निरंतर खुले रहते हैं, इससे जल का दुरुपयोग एवं आस-पास का क्षेत्र स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो जाता है। जल को संरक्षित कर नौपरिवहन तथा मत्स्य पालन का विकास किया जा सकता है।
जलस्रोतों के असमान वितरण के कारण बाढ़ एवं सूखे से जलाधिक्य और जलाभाव की स्थिति निर्मित हो जाती है। साथ ही मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताएँ जल के सीमित वितरण से ऊपर रहती है (संयुक्त राष्ट्र 1962, 63, 64)। जल का प्रतियोगात्मक उपयोग तथा विश्वव्यापी महत्त्व इसके उपयोग एवं संरक्षण की समस्या को कठिन बनाता है (आरलैण्ड 1952, 226)। धरातलीय जल संसाधन के भविष्य के लिये राज्य सरकार द्वारा तीन वर्गीय योजनाएँ बनाई गयी, जिसमें सिंचाई योजनाएँ, सर्वेक्षणाधीन योजनाएँ एवं पूर्व योजनाएँ सम्मिलित हैं। तुलनात्मक रूप से विकसित एवं विकासशील देशों में पर्याप्त संभावनाओं का निर्माण हुआ है। परंतु जल उपयोग आशा से बहुत कम है (शर्मा एवं जैन 1980, 466)। इन देशों में जल के निम्न उपयोग के अनेक कारण जैसे - भौतिक, तकनीकी समस्याएँ, सामाजिक संगठन, आर्थिक नियम एवं राजनैतिक दृष्टिकोण इत्यादि जल के उपयोग को बहुत प्रभावित करते हैं (डगलस 1973, 54)। जल संसाधन का विकास धीरे-धीरे विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में, सिंचाई मंडल द्वारा किया गया है और भविष्य के लिये किया जा रहा है। इस मण्डल द्वारा विभिन्न बड़ी योजनाओं का सर्वेक्षण किया जाता है।
भारत में जल प्राप्ति का मुख्य स्रोत वर्षा है जहाँ 118 से.मी. औसत वार्षिक वर्षा है। जिससे 367 लाख हेक्टेयर मीटर जल प्रति वर्ष सुलभ होता है। (चतुर्वेदी, 1976, 11, 12)। इसमें से 48 प्रतिशत जल सामान्य वाष्पोत्सर्जन के द्वारा समाप्त प्राय: हो जाता है, शेष 52 प्रतिशत वर्षा का जल वार्षिक जलावाह के रूप में (190 लाख हेक्टेयर मी.) प्राप्त होता है। इसी जल का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिये होता है। यहाँ की मुख्य नदियाँ 26 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि को जल प्रदाय करती है। इस भूक्षेत्र का मात्र 5 प्रतिशत ही शहरीकरण का हिस्सा है किंतु उसने ही इन नदियों को इतना प्रदूषित कर दिया है कि शेष 95 प्रतिशत भूभाग जल प्रदान नहीं कर पाता उससे वहाँ बसे गाँवों को बहुत कष्ट सहना पड़ता है (योजना 1916, 3)। देश के 2600 शहरों में से 2000 एवं 76000 गाँवों में से केवल 64000 गाँवों में शुद्ध जल प्रदाय की व्यवस्था की गई है (रघुवंशी 1989, 125 एवं योजना 1990)। इस प्रकार देशों में आज भी कृषि विकास एवं शुद्ध पेयजल आपूर्ति हेतु बड़ी मात्रा में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास आवश्यक है। इसके लिये सिंचाई, पेयजल, जल प्रदूषण संबंधी समस्याओं को दूर कर व्यवस्थित विस्तार की आवश्यकता है।
पूर्व अध्ययन की समीक्षा :
किसी भी प्रदेश की संसाधन संरचना पर आधारित विकास की गति व संभावनाओं को जानने के लिये समस्त संसाधनों का समग्र रूप से संबंध क्रम में अध्ययन अपेक्षित है। भूगोल में भी जल संसाधन का अध्ययन विशेष स्थान रखता है। प्रारंभ में जल संसाधन का अध्ययन भौगोलिक जल विज्ञान के रूप में किया जाता है (वार्ड 1978, 392, 472)। इन अध्ययनों में जल संसाधन के भौतिक अध्ययन के अतिरिक्त सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण का सर्वथा अभाव था, जल संसाधन के अध्ययन को दिशा देने में शोध प्रलेखों तथा शोध प्रबंधों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जल संसाधन के प्रारंभिक अध्ययन मुख्यत: वर्षा, जल संतुलन आदि विषयों पर केंद्रित है। वर्षा संबंधी अध्ययनों में बुक्स एवं हैट (1958), लांस (1959), थार्नथ्वेट एवं (1955, 59), लोमोविच (1961), सुब्रह्मण्यम एवं शास्त्री (1954), नाकी एवं हावर्ड (1960) आदि का अध्ययन उल्लेखनीय है।
ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास, शोध-प्रबंध 1999 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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11 | सारांश एवं निष्कर्ष : ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास |
जल का संसाधन के रूप में अध्ययन का श्रेय सर्वप्रथम गिलवर्ट एफ. व्हाइट को है जिन्होंने जल संसाधन के विकास के सभी तथ्यों का समाकलित अध्ययन किया है, साथ ही जल प्रबंधन तकनीक एवं आर्थिक क्षमता के मध्य विभिन्नता का अध्ययन किया है। वर्ष 1956 में ‘‘इंटीग्रेटेड रिवर बेसिन डेवलपमेंट’’ पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट का प्रकाशन किया एवं व्हाइट की अध्यक्षता में ही जल संसाधन विकास पर जल प्रबंधन की समस्या पर विभिन्न समितियों का गठन कर महत्त्वपूर्ण शोध प्रकाशित किये गये। 1965-76 की अवधि ‘‘अन्तरराष्ट्रीय जल दशक’’ के रूप में घोषित किया। जिससे अनेक सेमीनार एवं गोष्ठियों के आयोजन से जल संसाधन के अध्ययन को बहुआयामी स्वरूप प्राप्त हुआ।
चोर्ले के संपादन में (1969) ‘‘वाटर-मैन एंड अर्थ’’ का प्रकाशन हुआ जिसमें जल उपयोग, जलीय चक्र, सिंचाई, भूगर्भजल आदि अनेक पहलुओं पर विभिन्न लेखकों के लेख संग्रहित किये गये हैं। सन 1971 में पुन: चोर्ले की पुस्तक ‘‘ऐन इंट्रोडक्शन ऑफ जियोग्राफिकल हाइड्रोलॉजी’’ का प्रकाशन हुआ। 1971 में आर. सी. वार्ड की पुस्तक ‘‘स्मॉल वाटरशेड एक्सपेरिमेंट, एंड एप्राईजल ऑफ कानसेप्टस एंड रिसर्च डेवलपमेंट’’ प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने जलीय समस्याओं का विस्तृत विवेचन, प्रतीकात्मक नियोजन एवं क्षेत्र निरीक्षण के आधार पर जल संसाधन विकास की महत्ता दी है। 1971 में बॉलमेन वेथेनियल बोनन एवं गिलवर्ट के भी योगदान उल्लेखनीय है। इनके द्वारा प्रकाशित ग्रंथ ‘‘लूक ऑफ वाटर’’ एक उत्कृष्ट रचना है। अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान में 1971 में प्रकाशित स्मिथ की पुस्तक ‘‘वाटर इन ब्रिट्रेन’’ है जिसमें लेखक द्वारा सर्वप्रथम ब्रिटेन एवं वेल्स के जल संसाधनों का प्रादेशिक स्तर पर वर्णन किया है।
इस अवधि में जल की गुणवत्ता पर भी कई अध्ययन किये गये। इस दिशा में मोरक्का (1974), मिकाइथल (1974) के अध्ययन उल्लेखनीय हैं। इन्होंने भौगोलिक पर्यावरण एवं जल संसाधन से संबंधित पहलुओं का अध्ययन करते हुए नदी क्षेत्रों में जल की गुणवत्ता पर मानव के प्रभावों का अध्ययन किया है। इस अवधि के अन्य प्रमुख भौगोलिक योगदान में स्मिथ की (1979-80) ‘‘ए ट्रेण्ड ऑफ वाटर रिसोर्स मेनेजमेंट’’ वालिग की ‘‘फिजिकल जियोहाइड्रोलॉजी’’ वार्ड की (1960), ‘‘चैजिंग स्कोप ऑफ जियोग्राफिकल हाइड्रोलॉजी इन ब्रिटेन’’ है। जल संसाधन के वर्तमान अध्ययनों में पी. के. गाडविक (1985), इनग्राम की प्रकाशित पुस्तक (1985), ‘‘वाटर रिसोर्स एण्ड पब्लिक पॉलिसी’’ प्रमुख है। जिसमें जल संसाधन के विकास पर जन सामान्य नीति के सामान्य प्रवृत्ति के प्रभाव का अध्ययन है।
भूगोल में गणितीय विधि के बढ़ते महत्त्व में जल संसाधन के अध्ययन को भी नयी दिशा दी है। इस संदर्भ में एग्रो का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण है जिनकी प्रस्तुक ‘‘इंटरनेशनल वाटर स्टेटिस्टिक्स ए क्न्यूलूजन’’ (1986) में विश्व के जल समाधन संबंधी सभी सांख्यिकी का विश्लेषण एवं संग्रहण है। जल संसाधन के एक अन्य पहलू भूगर्भजल संसाधनों पर कई भूगर्भ जलवेत्ताओं ने अध्ययन किया है। इनमें टांड (1959) टॉलमेन (1913), डेविस एवं ड्यूइक्ट (1966) हेमिल एण्ड वेल (1986) में नाम उल्लेखनीय है। जिन्होंने भूगर्भ का विशद अध्ययन किया है, तथापि इस संदर्भ में डॉ. आर. एन. माथुर का योगदान भूगोलवेत्ताओं के लिये विशेष उल्लेखनीय है। इनकी पुस्तक ‘‘ए स्टडी ऑफ ग्राउण्डवाटर हाइड्रोलॉजी ऑफ द मेरठ डिस्ट्रिक्ट’’ (1969) में भूगर्भजल का प्रादेशिक स्तर पर विस्तृत विवेचन कर प्रथम बार भौगोलिक अध्ययन किया है।
अनेक भारतीय भूगोलवेत्ताओं ने भी जल संसाधन का अध्ययन किया है। प्रारंभिक जल संसाधन अध्ययन में बाढ़ एवं नदी घाटी परियोजनाएँ ही केंद्र बिंदु रहे। चौथे दशक में अनेक लेख इस विषय पर प्रकाशित हुए। (कृष्णमूर्ति, 1943) ने पापनाशम जल विद्युत परियोजना के महत्त्व पर विवेचन किया है। इसके साथ ही पश्चिमी घाट के जल विद्युत विकास पर प्रभाव का अध्ययन किया है। इसी में कुरीयन एवं नायर (1946) ने दक्षिण भारत में जल विद्युत शक्ति के विकास का विश्लेषण किया है। सन 1949 में सिद्विकी का प्रकाशन ‘‘पोटेंशियलिटिस ऑफ ट्यूबवेल इरीगेशन इन द बदायुं डिस्ट्रिक्ट’’ भी एक महत्त्वपूर्ण लेख है। जिसमें विशेष फसलों के संदर्भ में नलकूपों द्वारा सिंचाई का प्रदेशिक स्तर पर विश्लेषण किया गया है। पांचवें दशक में जल संसाधन का अध्ययन करने वाले भूगोलवेत्ताओं में (1955) एवं मोइराला (1959) का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। इसी अवधि में जौहरी, रैनर (1956) द्वारा निश्चित जम्मू एवं कश्मीर में जलविद्युत विकास पर एक लेख प्रकाशित हुआ। अन्य अध्ययनकर्ताओं में चक्रवर्ती (1959) जौहरी (1956) आदि के नाम उल्लेखनीय है। इस अवधि में जल संतुलन एवं जल बजट पर शोध किये गये हैं। डॉ. सुब्रम्हण्यम का योगदान (1956) ‘‘वाटर बैलेंस ऑफ इंडिया एकार्डिंग टू थार्नथ्वेट कानसेप्टम इन जियोग्राफिकल पोटेंशियल इवापोट्रान्सपायरेशन’’ अविस्मरणीय है, जिन्होंने थार्नथ्वेट एवं माथुर द्वारा प्रतिपादित जल संतुलन संकल्पना पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया है।
सातवाँ और आठवाँ दशक जल संसाधन के अध्ययन का स्वर्णिम युग रहा। इन अवधि में जल संसाधन के सभी पहलुओं, जल संसाधन संभाव्यता, जल संतुलन, वर्षा, जल उपयोग, जल प्रबंधन, जल की गुणवत्ता, आयोजन आदि अनेक अध्ययन किये गये। के. एल. राव का ‘‘इंडियाज वाटर वेल्थ’’ (1975) जल संसाधन अध्ययन की दृष्टि से एक आधारभूत ग्रंथ है। इसी संदर्भ में एम. सी. चतुर्वेदी की ‘‘वाटर - ए सेकण्ड इंडिया स्टडीज सीरिज’’ (1976) उल्लेखनीय है। डॉ. वी. पी. सुब्रम्हण्यम की प्रकाशित पुस्तक ‘‘वाटर बैलेंस एण्ड इट्स एप्लीकेशन’’ (1985) जल संतुलन के अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है। जल संसाधन विकास में शर्मा की पुस्तक वाटर रिसोर्स प्लानिंग एण्ड मैनेजमेंट (1985) वाटर रिसोर्स जियोग्राफी एण्ड लॉ (1987) तथा ‘‘वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट’’ (1986) उल्लेखनीय है।
छत्तीसगढ़ प्रदेश में अग्रवाल (1976), गुप्ता (1979), बाघमार (1988), दामड़कर (1992), शर्मा (1992) चन्द्राकर (1997) आदि के प्रयासों का उल्लेख किया जा सकता है। ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन सामग्री अत्यंत कम है, फिर भी विभिन्न दृष्टिकोणों से जल क्षेत्रों, प्रवाह स्वरूप का प्रभाव, लघु सिंचाई क्षेत्रों में जल प्रबंध पर एक रिपोर्ट ‘‘रिसर्च इन वाटर मैनेजमेंट’’ (1984) का प्रकाशन जवाहर लाल नेहरू कृषि अनुसंधान केंद्र द्वारा किया गया है। मध्य प्रदेश शासन का सिंचाई विभाग जिले के जल संसाधन विकास संबंधी सांख्यिकी विवरण का प्रकाशन करता है, तथापि बेसिन के जल संसाधन के विशद अध्ययन के सर्वथा अभाव में यह एक प्रयास है।
अध्ययन क्षेत्र एवं अध्ययन का उद्देश्य :
ऊपरी महानदी बेसिन म.प्र. राज्य के दक्षिणी पूर्वी भाग में स्थित है। इसका विस्तार 19047’ से 23007’ उत्तरी अक्षांश और 80017’ से 83052’ पूर्वी देशांतर के मध्य 73,951 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। इसके अंतर्गत रायपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, बिलासपुर जिले तथा रायगढ़ जिले के जशपुर तहसील को छोड़कर शेष भाग एवं बस्तर जिले के कांकेर तहसील का क्षेत्र आता है।
जल, जीवन का अभिन्न अंग है इस कारण इसका उपयोग विकास के प्रत्येक आयामों में है। अत: एक भूगोलवेत्ता की दृष्टि से जल संसाधन उपलब्धि, क्षेत्रीय वितरण प्रतिरूप, उपयोग का मूल्यांकन एवं विकास की संभावनाओं का अध्ययन मुख्य उद्देश्य है।
प्रस्तुत अध्ययन क्षेत्र ऊपरी महानदी बेसिन, दक्षिणी पूर्वी मध्य प्रदेश में स्थित है। बेसिन की औसत वार्षिक वर्षा 135 सेंटीमीटर है। बेसिन का औसत वार्षिक जलवाह 77.2 सेंटीमीटर में है। बेसिन में 15,536 लाख घन मीटर सतही जल एवं 8920 लाख घन मीटर भूगर्भिक जल उपलब्ध है। फिर भी जल संसाधन का विकास कम हुआ है। बेसिन के 28.99 प्रतिशत क्षेत्रों में सिंचाई की जाती है। जो संपूर्ण बोये गये क्षेत्र का 23.8 प्रतिशत है।संपूर्ण जिले की उपलब्ध जल की 12.5 प्रतिशत जल सिंचाई हेतु, 2.25 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति एवं 1.5 प्रतिशत औद्योगिक कार्यों हेतु उपयोग में लाये जाते हैं। विकास के अभाव में बेसिन के 13322 ग्राम में पेयजल आपूर्ति की दृष्टि से समस्यामूलक है। पर्याप्त सिंचाई के अभाव में कृषि स्वरूप मुख्यत: खरीफ फसलों तक ही सीमित है। दूषित पेयजल स्रोतों के कारण अनेक ग्रामों में जलजनित रोगों का प्रकोप बना रहता है। बेसिन के जल संसाधनों का पर्याप्त विकास आवश्यक है। बेसिन में दुर्ग जिले के भिलाई, बिलासपुर जिले के कोरबा में विशाल औद्योगिक प्रक्षेत्र स्थापित है। जहाँ बड़ी मात्रा में जल आपूर्ति एक समस्या है। वहीं जल प्रदूषण एक अलग समस्या है। अत: जल संरक्षण एवं जल प्रबंधन की तकनीक अपनाना आवश्यक हो गया है।
अत: निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रस्तुत अध्ययन एक प्रयास है :
1. ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन की आपूर्ति एवं भावी आवश्यकता का विश्लेषण तथा आकलन करना।
2. जल संसाधन क्षमता की गणना करना, वर्षा की कमी एवं बाढ़ तथा सूखाग्रस्त क्षेत्र का आकलन करना।
3. जल संसाधन के क्षेत्रीय वितरण प्रतिरूप एवं उपयोग का विश्लेषण करना।
4. सिंचाई के वितरण में पर्याप्त विषमताओं तथा वर्तमान योजनाओं का मूल्यांकन करना।
5. जलीय समस्याओं जल प्रदूषण एवं जल संरक्षण का अध्ययन करना।
6. जल संतुलन एवं जल प्रबंधन के लिये वर्तमान योजनाओं का मूल्यांकन कर सुझाव प्रस्तुत करना।
7. जल संसाधन विकास के पर्यावरणीय संभावनाओं का आकलन करना जैसे - पीने के लिये, सिंचाई, औद्योगिक एवं निर्माण कार्यों के लिये जल के उपयोग को सुव्यवस्थित करना, जलजनित रोगों को दूर करने के उपाय, जल प्रदूषण आदि को दूर करना।
आंकड़ों का संकलन :
प्रस्तुत शोध प्रबंध मुख्यत: द्वितीयक आंकड़ों पर आधारित है। अत: आंकड़ों का संकलन विभिन्न कार्यालयों से प्राप्त दस्तावेजों, प्रलेखों, पुस्तकों एवं अन्य प्रकाशनों से किया गया है।
ऊपरी महानदी बेसिन के भौतिक स्वरूप, भूमि उच्चावच, आदि से संबंधित आंकड़े जिलागजेटियर (1991) भूमि उपयोग एवं कृषि संबंधी आंकड़े जिला भू-अभिलेख कार्यालय यथा बिलासपुर, रायगढ़, रायपुर, राजनांदगाँव, दुर्ग एवं बस्तर जिले से प्राप्त किये गये है। जनसंख्या संबंधी आंकड़े जनगणना पुस्तिका एवं आर्थिक एवं सांख्यिकीय संचालनालय भोपाल से (1991) प्राप्त किये गये है। मिट्टी सर्वेक्षण संबंधी आंकड़े इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर से प्राप्त किये गये है।
मासिक एवं वार्षिक वर्षा से संबंधित आंकड़ों का संकलन भारतीय मौसम विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय नागपुर एवं स्थानीय कार्यालय रायपुर से प्राप्त किया गया है। जल संतुलन की गणना के लिये आवश्यक वाष्पीय वाष्पोसर्जन के आंकड़े भारतीय मौसम विभाग पूना से प्राप्त किये गए हैं। सतही जल संसाधन के अध्ययन हेतु आंकड़े बेसिन के नदियों से प्राप्त किये गए हैं। जल प्रवाह संबंधित आंकड़े केंद्रीय जल संसाधन कार्यालय रायपुर से प्राप्त किये गये हैं।
महानदी बेसिन के भूगर्भ जल का आंकलन मुख्यत: भूगर्भ जल सर्वेक्षण कार्यालय रायपुर (म. प्र.) से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर किया गया है। भूगर्भ जल के मासिक एवं वार्षिक उतार-चढ़ाव, स्थानिक प्रतिरूप, भूगर्भ जल की संभाव्यता पूर्व मानसून काल एवं मानसूनोत्तर भूगर्भ जल के आंकड़ों के आधार पर की गई।
महानदी बेसिन के लघु, मध्यम, वृहत सिंचाई परियोजनाओं एवं उनके विकास की योजना, नहरों का विस्तार, जलाशयों की संग्रहण क्षमता विभिन्न साधनों से सिंचित क्षेत्र संबंधी आंकड़ों का संकलन संयुक्त संचालक, कृषि एवं मुख्य अभियंता कार्यालयों से प्राप्त किये गये हैं। साथ ही पेयजल संबंधी आंकड़े लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग, मत्स्य संबंधी आंकड़े सहायक संचालक, रायपुर एवं संचालनालय भोपाल एवं जल जनित रोगों के अध्ययन हेतु स्वास्थ्य विभाग से प्राप्त किये गए हैं।
इसके अतिरिक्त विषय संबंधी अन्य आंकड़े संबंधित विभाग, पत्र पत्रिकाओं आदि से प्राप्त किये गये हैं।
विधितंत्र एवं मानचित्रण :
ऊपरी महानदी बेसिन में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण के लिये विभिन्न सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग किया गया है। आंकड़ों का विश्लेषण एवं मानचित्रण कुछ को विकासखंड की इकाई मानकर एवं कुछ को जिलेवार इकाई निर्धारित कर किया गया है। वर्षा की मासिक एवं वार्षिक विचलनशीलता की गणना हेतु विचलनशीलता गुणांक विधि का प्रयोग किया गया है। बेसिन के विभिन्न स्थानों के जल संतुलन, वार्षिक जल बजट, संभाव्य संचित आर्द्रता निर्देशांक एवं आर्द्रता प्रदेश के निर्धारण हेतु थाईथ्वेट एवं माथुर द्वारा प्रतिपादित जल संतुलन एवं जल बजट विधि का प्रयोग किया गया है। प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर वर्षा के विभिन्न केंद्रों हेतु जलाभिशेष आरेख का निर्माण किया गया है। बेसिन के सभी वर्षा का आंकलन वर्षामापी केंद्रों के लिये वर्ष 1950-1995 की अवधि के लिये की गई है।
बेसिन में जल के वर्तमान उपयोग के विश्लेषण हेतु प्रति वर्ग किलोमीटर जल उपयोग के आधार पर प्रत्येक विकास खंड के लिये घनत्व निकाला गया है एवं बेसिन के औसत घनत्व से प्रतिशत के आधार पर उपयोगिता सूचकांक ज्ञात किया गया है। बेसिन में सिंचाई, कृषि एवं भूमि उपयोग एवं जनसंख्या संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण मुख्यत: प्रतिशत विधि, सिंचाई घनत्व विधि आदि के आधार पर की गई है। समस्त आंकड़ों को आवश्यकतानुसार प्रतिशत, उत्पादन अनुपातों एवं दरों में परिवर्तित कर मुख्यत: छाया विधि, बिंदु विधि आदि के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। जिससे क्षेत्रीय विभिन्नता का स्वरूप स्पष्ट हो सके। मानचित्र पर वर्ग अंतराल का चुनाव तुलानात्मक दृष्टि से क्षेत्रीय विभिन्नता को स्पष्ट करने के लिये किया गया है। मानचित्रों का क्रमबद्ध प्रदर्शन किया गया है। साथ ही विकास दर एवं प्रवृत्ति के प्रदर्शन हेतु आरेखों की सहायता ली गई है।
शोध प्रबंध की रूपरेखा :
ऊपरी महानदी बेसिन में ‘‘जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास’’ शोध प्रबंध तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में ऊपरी महानदी बेसिन की भौतिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय भाग में जल संसाधन संभाव्यता एवं तृतीय तथा अंतिम भाग में जल संसाधन उपयोग के विभिन्न प्रतिरूपों का वर्णन एवं विश्लेषण किया गया है। इसके साथ ही बेसिन के जल संसाधन विकास की समस्याओं एवं निराकरण, भविष्य की आवश्यकता आदि बातों पर भी जोर दिया गया है। किसी भी प्रदेश में जल संसाधन संभाव्यता उसके भौतिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। शोध प्रबंध के प्रथम अध्याय में ऊपरी महानदी बेसिन के भौतिक स्वरूप - स्थिति एवं विसतार, भूवैज्ञानिक संरचना, उच्चावच, उपवाह, जलवायु, तापमान, वर्षा, ऋतुएँ, मिट्टी एवं वनस्पति जैसे प्राथमिक भौगोलिक तथ्यों का विश्लेषण किया गया है। जल संसाधन उपयोग एवं मानव के कार्यकलाप का अन्योन्याश्रित संबंध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के रूप में तथा - जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व, जनसंख्या की वृद्धि, लिंगानुपात, ग्रामीण जनसंख्या एवं नगरीय जनसंख्या, साक्षरता, सामाजिक वर्ग, कार्यशील जनसंख्या एवं मानव अधिवास, कृषि, भूमि उपयोग, फसल प्रतिरूप, उद्योग, परिवहन एवं व्यापार आदि संबंधी विषयों पर संक्षिप्त जानकारी दी गई है।
पृथ्वी पर मानव के उपयोग के लिये अत्यंत सीमित मात्रा में जल उपलब्ध है। यह एक जलीय चक्र के माध्यम से गतीय स्वरूप से वाष्पीय एवं अंतत: वर्षा के रूप में धरातल पर प्राप्त होता है जो वाष्पोत्सर्जन जलावाह आदि के माध्यम से पुन: चक्रीय स्थिति के प्रथम स्तर पर पहुँच जाता है। बेसिन में जल संसाधन की प्राप्ति का एकमात्र स्रोत वर्षा ही है। शोध प्रबंध के द्वितीय भाग के प्रथम उपभाग में वर्षा तथा जलाधिशेष, द्वितीय उपभाग में धरातलीय जल एवं तृतीय उपभाग में भौम जल का वर्णन किया गया है। इस प्रकार द्वितीय भाग में क्रमश: वार्षिक वर्षा का वितरण, वर्षा का मासिक एवं वार्षिक विचलन, जल संतुलन, सूखे एवं बाढ़ की प्रायिकता। धरातलीय जल संग्रहण प्रणाली, अपवाह तंत्र का विश्लेषण, नदियों का वार्षिक एवं मासिक जलावाह, जलाशयों का स्थानिक वितरण एवं जल की गुणवत्ता एवं भौमजल के अंतर्गत भौमजल का स्थानिक प्रतिरूप, भौमजल का ऋतुवार उतार चढ़ाव तथा भौमजल की संभाव्यता आदि प्रतिरूपों की व्याख्या है।
तृतीय भाग में संसाधन उपयोग के अंतर्गत सिंचाई, जल का घरेलू, औद्योगिक एवं अन्य उपयोग ग्रामीण एवं नगण्य जलप्रदाय, मत्स्य उत्पादन, जल का अन्य उपयोग एवं जल संसाधन संरक्षण एवं विकास का विश्लेषण किया गया है। इस भाग में क्रमश: सिंचाई के साधन, सिंचाई का वितरण, सिंचाई परियोजनाएँ, सिंचित फसलें, सिंचाई का उत्पादन पर प्रभाव एवं समस्याएँ, पेयजल प्रदाय योजना का विकास, पेय तथा औद्योगिक कार्यों के लिये जलापूर्ति, जलापूर्ति के स्रोत, जल की गुणवत्ता की समस्याएँ, जलजनित रोग एवं दूषित जल का शुद्धिकरण, मत्स्य उत्पादन जल क्षेत्र मत्स्यपालन - एक उद्योग, मत्स्य उत्पादन के प्रकार एवं समस्याएँ, जल का अन्य उपयोग के अंतर्गत सिंचाई, जलप्रवाह, बाढ़ नियंत्रण, शक्ति के उत्पादन में, गंदे पानी को बहाने में या सफाई हेतु, घोंघा, मछली आदि उत्पादन करने में मनोरंजन एवं नौपरिवहन आदि उद्योगों में वितरण प्रतिरूप एवं समस्याएँ। जल संसाधान की वर्तमान संरक्षण एवं समस्याएँ, विकास की संभावनाएँ, शासकीय विकास योजनाएँ, विकास के लक्ष्य एवं सुझाव, सिंचाई में सुधार, पेयजल आपूर्ति, मत्स्य पालन, जल नियंत्रण, जल प्रदूषण एवं जल प्रबंधन आदि का विश्लेषण किया गया है। शोध प्रबंध के अंत में सारांश एवं निष्कर्ष दिया गया है। इसके साथ ही परिशिष्ट, संदर्भ ग्रंथ सूची, परिभाषिक शब्दावली आदि के साथ समापन किया गया है।
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