संकल्पनात्मक ढाँचा :
जलमण्डल पृथ्वी पारितंत्र का अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है। जीवनदायनी होने के कारण ‘जल ही जीवन है’ उक्ति अक्षरश: सत्य है। मानव एवं अन्य जीव जंतुओं व वनस्पति के लिये जीवन का आधार होने के कारण जल सबसे प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। अत: विश्व में अभी तक जितने प्रकार के प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं उनमें से जल का सर्वप्रमुख स्थान है। प्राचीन काल में तो जल को देवतुल्य ही माना जाता था। ऋग्वेद में कहा गया है ‘‘जल ही औषधि है’’ जल रोगों का शत्रु है, यह सब व्याधियों का नाश करता है। केवल मानव विज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म पौराणिक कथाओं तथा शास्त्रों में भी जल की महत्ता का वर्णन है। मानव की विभिन्न सभ्यताओं से स्पष्ट है कि जल पर मानव जीवन का अस्तित्व निर्भर है। इतिहासकारों के अनुसार महान प्राचीन सभ्यताएँ उन क्षेत्रों में, जहाँ वनस्पति वृद्धि अधिक थी, नहीं उत्पन्न हुई बल्कि तुलनात्मक दृष्टि से शुष्क क्षेत्रों में उत्पन्न हुई, जहाँ मानव जल नियंत्रित करने तथा विभिन्न मौसमों में नदियों से इष्टतम मात्रा में जल प्राप्त करने में समर्थ था।
जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जल के अभाव में मानव या अन्य कोई जीव जीवित नहीं रह सकता। जल मानव जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। समय एवं स्थान के आधार पर जल के उपयोग भिन्न-भिन्न होते हैं।
भविष्य में ऐसी संभावनाएं हैं कि जल के अन्य उपयोग विकसित होते जायेंगे। जल के अतिशय दोहन से जलस्रोत सूख जायेंगे। अत: आवश्यकता है कि जल के प्रबंधन के लिये जल तालिकाओं में पर्याप्त जल छोड़ा जाना चाहिये। मानव समाज जितना अधिक विकसित होता है उतनी ही अधिक जल की आवश्यकता होती है जिससे सार्वजनिक जल आपूर्ति एवं उपभोग की समस्यायें जटिल हो जाती हैं। इसलिये जल को सुरक्षित करना उतना ही जरूरी हो जाता है जितना जरूरी जीवन को सुरक्षित रखना है।
मनुष्य जल संसाधन का उपयोग विभिन्न रूपों में करता आ रहा है। यदि जल संसाधन को विश्व स्तर पर देखें तो हमारी धरती पर अथाह जलराशि विद्यमान है। केलर के अनुसार हमारी धरती पर विद्यमान संपूर्ण जलराशि 1386 मिलियन किलोमीटर है। उपलब्ध जल संसाधन का उपयोग मुख्य रूप से पेयजल व पाक संबंधी उपयोग, सिंचाई, औद्योगिक प्रक्रम, हाइड्रोलिक एवं वाष्प शक्ति उत्पादन तथा अन्य अनेकों प्रयोगों यथा - लॉन, बाग तथा पार्क की सिंचाई, सड़क पर छिड़काव एवं सफाई, आग बुझाने, नौका संचालन एवं मत्स्य पालन आदि में होता है, लेकिन आधुनिक समुदाय में इसके अतिरिक्त मनोरंजन आदि अन्य उद्देश्यों में भी इसका प्रयोग होता है। यथा- तरणताल, वाटर पार्क, विषाक्त मल साफ करने, औद्योगिक अवशिष्ट, बिल्डिंग तापन व वातानुकूलन प्रक्रम आदि में भी जल का उपयोग होता है। भारत एक कृषि प्रधान देश होने के नाते सर्वाधिक पानी की खपत खेती में होती है, जो हमारे सकल पानी के उपयोग के 80 प्रतिशत के आस-पास बैठती है।
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5236 घनमीटर थी जो वर्तमान समय में घटकर 1900 से 2100 घन मीटर के मध्य रह गयी है जो बहुत जल्दी घटकर मात्र 1500 घनमीटर रह जाने की संभावना है जबकि जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार प्रति व्यक्ति 1700 घनमीटर से कम उपलब्धता जल के अभाव का संकेत माना जाता है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि जो वस्तु सुलभता से मुफ्त या निम्न कीमत पर उपलब्ध हो उसका सही व पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता, ऐसा ही भूमिगत जल के संदर्भ में हो रहा है। मानव जल का उपयोग स्वतंत्र रूप से करता है। उसे इसका मूल्य लगभग न के बराबर लगता है। फलत: भूमिगत जल का अतिशय दोहन हो रहा है। जल के अतिशय दोहन के चलते न केवल धरातलीय स्वच्छ जल में कमी आ रही है बल्कि भूमिगत जल की मात्रा भी निरंतर कम होती जा रही है। प्रतिव्यक्ति जल की न्यूनतम आवश्यकता की उपलब्धता का संकट उत्पन्न हो रहा है। तब स्वच्छ पेयजल का लक्ष्य तो और भी कठिन होता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत को पानी की गुणवत्ता एवं उपलब्धता के मानकों के आधार पर 120वां स्थान दिया है। अपने देश के 38 प्रतिशत नगरों में एवं 82 प्रतिशत गाँवों में जल को शुद्ध करने की व्यवस्था नहीं है। देश के लगभग 2 लाख 30 हजार गाँव आज भी जल समस्याओं से ग्रस्त हैं। एक अनुमान के अनुसार देश के 10500 गाँवों में अशुद्ध जल से लगभग एक करोड़ 22 लाख लोग आर्थराइटिस नामक बीमारी से एवं 5 करोड़ व्यस्क तथा बच्चे अन्य जलजन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं। प्रदूषित जल के सेवन से होने वाली बीमारियों पर 500 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष से अधिक खर्च हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार स्वच्छ पेयजल उपलब्ध होने पर अतिसार में 50 प्रतिशत एवं हैजे में 90 प्रतिशत तक की कमी लायी जा सकती है। स्वच्छ जल की सुविधा गरीब एवं अमीर तथा जवान एवं वृद्ध सबकी अनिवार्य आवश्यकता है। यदि इस मौलिक आवश्यकता को स्थानीय निकाय पूरा करने में असमर्थ रहे तो उस निकाय को शासन करने का कोई अधिकार नहीं है।
भूमिगत जलस्तर की समस्या ने भी काफी गंभीर रूप धारण कर लिया है। भारत के कई राज्यों में जहाँ 150 से 200 फुट तक पानी मिल जाता था, वहीं अब नए बोरिंग 700 से 1000 फुट तक की गहराई तक किये जा रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अतिशय जल दोहन के कारण भूमिगत जल खतरे के बिंदु से नीचे पहुँच गया है। दिल्ली में 200 मीटर गहरे ट्यूबवेलों की खुदाई करनी पड़ती है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 18 राज्यों के 200 जनपदों में भूजल प्रखण्डों में पानी अत्यधिक प्रदूषित होने के कारण पीने लायक नहीं है।
स्वास्थ्य सुरक्षा में जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है, परंतु ग्रामीण भारत की 75 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का स्वास्थ्य जलाधारित बीमारियों के कारण प्रभावित होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं-कहीं यह भी देखा गया है कि एक ग्लास पीने योग्य जल पाना कठिन है। ग्रामीण समुदाय के स्वस्थ जीवन के लिये सुरक्षित एवं पर्याप्त जल आपूर्ति उनकी मौलिक आवश्यकता है। नगरों में जल की समस्या अति जटिल है। ग्रामीण क्षेत्रों की दशा नगरों से भी अधिक दयनीय है। ग्रामीण आबादी के अधिकांश लोग कूपों, नलकूपों, नदियों, नगरों एवं तालाबों से जल प्राप्त करते हैं। यदि इस जल को पूर्णत: क्लोरीनेट करके संदूषण मुक्त न किया जाये तो यह जलाधारित बीमारियों का कारण होता है। असुरक्षित एवं प्रदूषित जल के उपयोग से ग्रामीण क्षेत्रों की मृत्यु दर में सतत वृद्धि एवं स्वास्थ्य में गिरावट होती जा रही है। इसके परिणाम स्वरूप ग्रामीण श्रमिक बल की उत्पादक क्षमता अपंगता की ओर अग्रसर होती जा रही है।
भारत के ग्रामीणांचल में ही नहीं नगरों में भी स्वच्छ जल की समस्या अभी भी विकराल है, अत: इस समय इस ओर बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। जिससे यहाँ के निवासियों को स्वच्छ जल की आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। ग्रामीण भारत में जल संसाधन की समस्या के समाधान हेतु राष्ट्रव्यापी प्रयासों के साथ पर्याप्त धन निवेश करने की आवश्यकता है। लगभग 0.92 लाख ग्रामों में दो किमी दूरी तक व 15 मी. गहराई तक जल उपलब्ध नहीं है तथा लगभग 0.62 लाख ग्रामों में विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएँ - अनिवार्य, आयरन, फ्लोराइड आदि के कारण हैं। ग्रामीण भारत के लगभग एक चौथाई भाग में पेयजल की आपूर्ति के लिये कुओं एवं हैण्डपम्पों का अभाव है।
भूमिगत जल के अतिशय दोहन एवं जलस्तर के तेजी से गिरने पर पारिस्थितिकी असंतुलन का खतरा भी मँडराने लगा है। भूजल की कमी से पृथ्वी की परतों में हवा का दबाव बढ़ जाने से भूकम्प की संभावना काफी बढ़ जाती है। आजकल बढ़ते भूकम्पों की समस्या इस तथ्य को तर्क संगत सिद्ध कर रही है। इसके अतिरिक्त घटते भूजल के कारण विभिन्न राज्यों, प्रदेशों व क्षेत्र वासियों के मध्य तनाव, संघर्ष व स्वहित की संकीर्ण भावनाएँ निरंतर बढ़ती जा रही हैं। जिससे मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं में गिरावट स्वभाविक है। बढ़ते जल संकट से न केवल कृषि क्षेत्र के विकास में गिरावट आ रही है अपितु इससे हमारे देश के अन्य संसाधन भी प्रभावित होते हैं। सरकार को अन्य विकास के मदों में कटौती करके जल प्रबंधन पर करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। जिससे आर्थिक विकास की प्रक्रिया पर कुठाराघात होता है। जल संकट से विद्युत उत्पादन उद्योग एवं सेवा क्षेत्र सभी की विकास प्रक्रियाएँ ठप्प हो जाती हैं।
अध्ययन क्षेत्र में जल संसाधन के अविवेकपूर्ण दोहन एवं जल प्रबंधन संबंधी सुविधाओं के अभाव में अनेक समस्यायें उत्पन्न हो गयी हैं। जनपद के उत्तरी भाग में जलस्तर ऊँचा होने से जल जमाव की समस्या है, इसके विपरीत दक्षिणी भाग में बीहड़ क्षेत्र का अधिक विस्तार होने से जलस्तर गिरता चला जा रहा है। फलत: इसका कृषि क्षेत्र पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। जल संसाधन की समस्या भविष्य में और अधिक विकराल रूप धारण कर लेगी, इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए हमें इस समस्या के निस्तारण हेतु सतत प्रभावी प्रयास करने होंगे। मनुष्य सोना, चाँदी, पेट्रोलियम के बिना जीवन जी सकता है किंतु पानी के बिना जीवन असंभव है। इसलिये समय की मांग है कि जल का उपयोग विवेकपूर्ण संतुलित व नियमित ढंग से हो।
साहित्य समीक्षा :
जल संसाधन के अध्ययन में विभिन्न प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञान से जुड़े विद्वानों की गहरी अभिरुचि रही है। जल संसाधन के आकलन, वितरण एवं प्रबंधन के क्षेत्र में भू-वैज्ञानिकों, जल वैज्ञानिकों, मौसमविदों तथा भूगोलवेत्ताओं द्वारा अनेक शोध कार्य किये गये तथा इससे संबंधित ज्ञान एवं साहित्य को समृद्ध किया गया। प्रारंभिक अध्ययनों में जहाँ जल संसाधन के आकलन एवं वितरण को अधिक महत्त्व दिया गया है वहीं वर्तमान समय में जल संसाधन से संबंधित समस्याओं विशेषकर जल की उपलब्धता में कमी और प्रदूषण को ध्यान में रखते हुये विगत कुछ दशकों से तत्संबंधी अध्ययनों में जल संसाधन के आकलन एवं वितरण के साथ उसके संरक्षण एवं प्रबंधन से संबंधित शोध पर विशेष बल दिया जा रहा है।
सम्प्रति जल संसाधन से संबंधित साहित्य का विपुल भंडार है, डीके टोड ‘‘Ground Water Hydrology’’ (1959), इ.इ. फास्टर ‘‘Rainfall and Runoff’’ के. एल. राव की ‘‘India’s Water wealth, its assessment used and projection’’ तथा सी. एफ टोलमैन की ‘‘Ground Water’’ (1973) जल संसाधन के क्षेत्र में मील के पत्थर हैं। जो शोधकार्य के लिये विधितंत्रीय आधार प्रदान करते हैं। जल संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में अन्य विद्वानों का भी सराहनीय योगदान रहा है। जिनमें Stampe William (1936), Horton, R.F. (1931), Bennison, E.W. (1947),Diettrich, S. Dar, (1948), Gregory, S (1955), Aclerman, E.A. and Lof G.O.G. (1959), Chow V.T. (E.d.) (1964), Blaney H.F. and Guiddle, W.D. (1962), Bhowmick A. H. (1965), NACE. R.L. (1969), Waltom W.C. (1970), Kazman, R.G. (1972), Ayers, R.S. (1975), Critchfield, H.J. (1975), Linsley, R.K. and Franzini, J.B. (1979), Huisman, L., Oksthorn, T.N. (1983), Helmar, R. (1981), महत्त्वपूर्ण है।
जल संसाधन की उपलब्धता आकलन, वितरण एवं प्रबंधन विषय पर कई भारतीय विद्वानों ने शोध कार्य किया है, इनमें आर. सी. श्रीवास्तव का सरयूपार मैदान (यूपी) के जल और उसकी उपयोगिता का अध्ययन, आर. एन. माथुर द्वारा मेरठ जनपद के भूमिगत जल का अध्ययन, बी. के. राय द्वारा पूर्वी उत्तर प्रदेश के भूमिगत जल का अध्ययन, बीडी पाठक द्वारा आजमगढ़ एवं बलिया क्षेत्र के भूमिगत जल पर किया गया शोध कार्य महत्त्वपूर्ण है। जेपी गुप्ता का शोध प्रबंध बांदा जनपद में पेयजल आपूर्ति समस्याएँ एवं नियोजन में भी भूमिगत एवं सतही जल आकलन एवं वितरण पर सम्यक प्रकाश डाला गया है।
शोध कार्य एवं पुस्तकों के अलावा कई प्रकाशित/अप्रकाशित रिपोर्टों का भी जल संसाधन विषयक अध्ययन के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान है। इनमें जेवी आदेन (1935) की Report on the possible lowering of the water table in the united provice U.P., एमएल श्रीवास्तव की अप्रकाशित रिपोर्ट (1974) Hydrological condition in Banda District, U.P., तथा बीएन सक्सेना एवं एसके गर्ग की ‘Ground water studies in Bundelkhand Region, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा कई अन्तरराष्ट्रीय संगठन जो जल विज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं, उनमें U.S.A. Department of Agriculture (1955), U.S.A. Department of health, Education and welfare (1969 ab), U.S. Agency for International Development (1969), National Academy of Sciences U.S.A. (1966), H.M.S.O. (1973), W.M.O. (1982), W.H.O. (1958, 1969, A, B, 1970, 1971, 1977, 1978, 1980), और वर्ल्ड बैंक (1975-76), U.S. Geological Survey (1851), American water resource Association E.S.C.A.P. (1982), विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।
इसके अतिरिक्त कृषि मंत्रालय द्वारा प्रकाशित ‘हैंडबुक ऑफ हाइड्रोलॉजी’, योजना आयोग द्वारा ‘टास्क फोर्स ऑन ग्राउंड वाटर रिर्सोसेस’ केंद्रीय जल बोर्ड तथा विभिन्न स्वयं सेवी संगठनों द्वारा किये गये अध्ययन एवं विश्लेषण महत्त्वपूर्ण हैं।
शोध कार्य के उद्देश्य :
“Any contribution that relates to an understanding of water in complex Natural Environment in which water Runs serves as a dynamic unifyling Entity, will be of special Interest when the Entire nation in searching for ways and means to increase the efficiency of water utilization in agriculture production.”
अर्थात प्राकृतिक परिवेश में जल को समझने संबंधी कोई भी योगदान जल सतत समवेत तत्व के रूप में कार्य करता हो, हमारे लिये विशेष महत्त्व का विषय हो सकता है। विशेषकर ऐसी स्थिति में जब पूरा देश कृषि उत्पादकता के लिये जल के उपयोग की क्षमता बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। प्रस्तुत शोध प्रबंध इटावा जनपद में उपलब्ध जल संबंधी जानकारी को एकत्रित करके उसके वृहत्तम उपयोग की संभावनाओं को प्रकाश में लाने का एक प्रयास है। ‘‘जनपद इटावा में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन’’ शोध शीर्षक के अंतर्गत शोधार्थी के उद्देश्य यहाँ संक्षेप में निम्न प्रकार से हैं –
1. जनपद में उन्नत कृषि हेतु विभिन्न जलस्रोतों से सिंचाई के लिये वृहद एवं लघु सिंचाई योजनाओं एवं जलाशयों जलधाराओं से सीधे सिंचाई के लिये जल उठाने के साथ कुओं एवं नलकूपों के द्वारा भौम-जल के अधिकाधिक उपयोग की संभावनाओं की खोज करना।
2. इस अध्ययन का उद्देश्य इटावा जनपद में धरातलीय एवं भौम-जल के विभिन्न साधनों से प्राप्ति एवं उसके उपयोग हेतु उपयुक्त कटिबंधों का निर्धारण करना और इस हेतु तुलनात्मक रूप से अधिक और कम जल वाले उपयुक्त व अनुपयुक्त स्थलों की जानकारी प्राप्त करना है, जिससे इस प्रकार के क्षेत्रों में इन साधनों के चयन पर होने वाले व्यर्थ व्यय को रोका जा सके।
3. जनपद में घरेलू कार्यों, उद्योगों और सिंचाई के रूप में हो रहे जल के अविवेकपूर्ण दोहन के बारे में सुझाव देना एवं जल प्रदत्त मनोरंजन एवं मत्स्य पालन आदि की संभावनाओं की खोज करना एवं उनके विकास की योजना बनाना है।
4. जल संसाधन संबंधित पर्यावरणीय समस्याओं का अध्ययन करना।
5. देश के अन्य भागों में अपनाये गये जल संसाधन संरक्षण एवं प्रबंधन के उपागमों की उपादेयता का आकलन अध्ययन क्षेत्र के संदर्भ में करना।
इसके साथ यह भी प्रयास किया गया है कि इस शोध प्रबंध से कृषकों एवं अन्य व्यक्तियों को अधिक से अधिक जल के व्यवहारिक उपयोगी तरीकों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।
विधितंत्र :
संपूर्ण शोध-प्रबंध में आदि से अंत तक जल की भौतिक प्राप्ति और प्राकृतिक परिवर्तनशीलता का सामाजिक वातावरण तथा संसाधन की बढ़ती हुई मांग से संबंध एवं अति आधुनिक समय में की गयी खोजों के परिणामों को साथ-साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। आधारभूत सिद्धांतों के संक्षिप्त विवेचन के आधार पर जल संसाधन की वर्तमान स्थिति के उद्भव और विकास के सूत्र समय के साथ खोजे गये हैं।
शोध अध्ययन चार स्तरों में संचालित किया गया है। प्रथम जनसंख्या प्रतिरूप का अध्ययन, अधिवासों का आकार माप एवं अंतरण, आर्थिक सुस्थिति व्यवसायिक संरचना तथा भूमि उपयोग प्रतिरूप का अध्ययन किया गया है। जनपद में संपूर्ण क्षेत्र की भौतिक विशेषताएँ यथा शैलीय एवं जलीय भू-भाग, जलवायु मिट्टियों आदि का विश्लेषण किया गया है। द्वितीय में सतही एवं भूमिगत जल संसाधन की उपलब्धता का आकलन तथा कृषि एवं कृष्येत्तर क्षेत्र में विभिन्न रूपों में होने वाले उसके उपयोग को दिखाया गया है। तृतीय में जल संसाधन की समस्याओं को विभिन्न क्षेत्रों में दृष्टिगत किया गया है। चतुर्थ में जल संसाधन के उचित प्रबंधन पर बल दिया गया है, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में अपनाये गये जल संसाधन के उपागमों की उपादेयता का आकलन अध्ययन क्षेत्र के संबंध में किया गया है।
शोध प्रबंध में शोधार्थी ने जो विवेचना, स्पष्टीकरण निष्कर्ष और प्रत्याशाएँ दी हैं, वे पुस्तकों शोध पत्रों, प्रतिवेदनों, आंकड़ों, मानचित्रों एवं स्वयं के निरीक्षण पर आधारित है। वर्तमान की अतीत से तुलना करते हुए भावी विकास की कल्पना की गयी है। जिसके लिये विभिन्न सरकारी आंकड़ों का सहारा लेना पड़ा है। दर, अनुपात, प्रतिशत, घनत्व, हेक्टेयर का प्रयोग सामान्यत: शोध प्रबंध के सभी भागों में किया गया है।
वर्षा, तापक्रम, सापेक्षित आर्द्रता के आंकड़े मौसम विज्ञान विभाग मैनपुरी, भूमि-अभिलेख कार्यालय इटावा एवं सिंचाई विभाग के विभिन्न कार्यालयों से प्राप्त किये गये हैं। जनपद में विभिन्न जल संसाधनों के वितरण और उसकी मात्रा संबंधी आंकड़ों सिंचाई विभाग के विभिन्न कार्यालयों से, नदियों द्वारा जल विसर्जन के आंकड़े (Discharge Data) केंद्रीय जल बोर्ड इटावा एवं संभागीय कार्यालय ‘आगरा’ द्वारा स्थापित विभिन्न नदी जल मापन केंद्रों से प्राप्त किये गये हैं। नहर, नलकूप, तालाब एवं कुओं द्वारा सिंचित क्षेत्र के आंकड़े भू-अभिलेख कार्यालय उत्तर प्रदेश से प्राप्त किये गये हैं।
जल संसाधन और उनके उपयोग से संबंधित विभिन्न तथ्यों की जानकारी कृषि विभाग, मत्स्य विभाग, लोक स्वास्थ्य, यांत्रिकी विभाग, वन विभाग, उद्योग विभाग एवं आर्थिक आंकड़े सांख्यकीय कार्यालय से प्राप्त किये गये हैं।
विभिन्न प्रकार के आंकड़ों की प्रकृति और उपलब्धता में भिन्नता होने के कारण उनको एक निश्चित क्रम में रखने में कठिनाई रही है। फिर भी समय का एक क्रम रखने का पूरा प्रयास किया है। वर्षा के आंकड़े सन 1990 से 2005 तक जनसंख्या के आंकड़े 1901 से 2001 तक एवं सिंचित क्षेत्र संबंधी आंकड़े 1970 से 2005 तक के प्रयोग किये हैं।
विभिन्न नदियों के जल विसर्जन संबंधी आंकड़े एक ही क्रम में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। परंतु यह क्रम भी कहीं-कहीं आंकड़ों के उपलब्ध न होने से विछिन्न हो गया है। विभिन्न तथ्यों को स्पष्ट करने के लिये नवीनतम आंकड़ों, सूचनाओं एवं अन्य उपलब्ध जानकारी का समावेश करने की पूर्ण कोशिश की गयी है।
भू-गर्भिक अध्ययन के लिये स्टेटाचार्ट का अध्ययन किया गया है। उच्चावच का अध्ययन भारतीय सर्वेक्षण विभाग देहरादून के 1 इंच बराबर 2 मील दर्शाने वाले धरातल पत्रकों से तथा विभिन्न प्रकार की क्षेत्रीय जानकारी के लिये भू-अभिलेख कार्यालय द्वारा प्रकाशित मानचित्रों का प्रयोग किया गया है।जनसंख्या के विकास का जल संसाधन की उपलब्धता से संबंध, सिंचित क्षेत्र, कुओं की संख्या आदि के आधार पर स्थापित किया गया है। जनपद में कुओं एवं नलकूपों के आंकड़े स्टेटाचार्ट एवं भू-गर्भ जल रिचार्ज योजना से 1990 से 2004 तक मानसून पूर्व का एवं मानसून पश्चात की समयाविधि में जल-तल के आंकड़े एकत्रित किये गये हैं। इस जानकारी के आधार पर मानसून पूर्व एवं मानसून पश्चात की समयाविधि की भौम-जल रेखायें एवं भौम-जल गहराई के मानचित्र तैयार किये गये हैं।
शस्य संयोजन प्रदेशों के निर्धारण हेतु प्रो. दोई की मानक विचलन तकनीकि एवं कृषि उत्पादकता ज्ञात करने हेतु डॉ. एसएस भाटिया के कृषि क्षमता विधि सूचकांक का प्रयोग किया गया है। प्रो. एम. सफी के इनेडी के सूत्र के सुधार के अनुसार कृषि क्षमता का मापन किया गया है।
नदियों, जलाशयों, तालाबों एवं नहरों आदि जल संसाधनों का जनपद के विभिन्न भागों में वितरण एवं उसमें जल की संयुक्त मात्रा के आधार पर धरातलीय जल संसाधन कटिबंधों का निर्धारण किया गया है।
जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में भौम-जल प्राप्ति की जानकारी कूपों एवं नलकूपों के निरीक्षण एवं भू-भौतिक सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त कर विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के सहयोग से पूर्ण की गयी है। इस जानकारी एवं क्षेत्र में कुओं, नलकूपों, स्रोतों और उत्स्रुत कूपों की सघनता, जल प्राप्ति की मात्रा, जल तल की गहराई, जल तल के उतार-चढ़ाव एवं विभिन्न तथ्यों के आधार पर धरातलीय जल संसाधन कटिबंधों का निर्धारण किया गया है।
जनपद में विभिन्न लघु, मध्यम एवं वृहत सिंचाई परियोजनाओं की संभावनाओं की खोज उन क्षेत्रों के धरातल पत्रकों के गहन अध्ययन, स्थल सर्वेक्षण एवं उपर्युक्त वर्णित विधियों के आधार पर की गई है।
जल संसाधन के अनुकूलतम उपयोग के लिये नियोजन प्रतिरूप के लिये अनेक नवीनतम तकनीकों का प्रयोग किया गया है। इस क्षेत्र में जल संसाधनों के सूक्ष्म एवं सर्वांगीण नियोजन के लिये क्षेत्र के गहन सर्वेक्षण को अधिक प्राथमिकता दी गयी है। इसके साथ ही धरातलीय पत्रकों एवं लेखपाल मानचित्रों के गहन अध्ययन की विधि को अपनाया गया है।
तथ्यों को सरल रूप से प्रस्तुत करने एवं समानता व असमानता के स्पष्टीकरण के उद्देश्य से आंकड़ों को वर्गीकृत कर तालिकाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न जलीय तथ्यों को बोधगम्य बनाने एवं योजनाओं को साकार स्वरूप प्रदान करने के लिये मानचित्रों एवं रेखाचित्रों का प्रयोग किया गया है। जलप्राप्ति के स्रोतों, विभिन्न कार्यों में इनके उपयोग, दुरुपयोग एवं जल संसाधनों से संबंधित समस्याओं से ग्रस्त क्षेत्रों के छायाचित्र अध्ययन को सार्थकता प्रदान करने के लिये यथा स्थान प्रस्तुत किये गये हैं।
कार्य योजना :
प्रस्तुत शोध प्रबंध जनपद इटावा के ‘जल संसाधन एवं उनका उपयोग एवं प्रबंधन’ को सुनियोजित अध्ययन की दृष्टि से 11 अध्यायों में बाँटा गया है। प्रथम अध्याय में समस्या का प्रकथन, साहित्य का पुनर्निरीक्षण, उद्देश्य, अनुसंधान विधितंत्र में अंतराल एवं अध्ययन योजना को सम्मिलित किया गया है। समस्या का प्रकथन तथा जल संसाधन की सार्थकता को राष्ट्र राज्य तथा जनपद स्तर पर विस्तारित कर वास्तविक समस्या को अंकित किया गया है। साहित्य के पुनर्निरीक्षण के अंतर्गत भारतीय एवं विदेशी अभियंताओं एवं सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा किये गये कार्यों के संदर्भों को सम्मिलित करते हुए अनुसंधान के अंतराल को कम किया गया है।
द्वितीय अध्याय में जल संसाधन को प्रभावित करने वाले भौतिक वातावरण के तत्वों जैसे भू-गर्भिक संरचना, भौतिक विभाग, अपवाह तंत्र, मिट्टी, वनस्पति, जलवायु सांस्कृतिक वातावरण के कारकों जैसे जनसंख्या अधिवास और आर्थिक सुस्थिति तथा सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था का प्रभाव जल संसाधन की उपलब्धता पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया है, क्योंकि इनका प्रभाव ग्रामीण व नगरीय क्षेत्रों की आपूर्ति प्रणाली पर पड़ता है। अस्तु उपरोक्त कारकों को भी अपने अध्ययन में सम्मिलित किया गया है।तृतीय अध्याय में जल संसाधन के स्रोत एवं उनमें जल संसाधन की उपलब्धता का वर्णन किया गया है। धरातलीय जल संसाधन के प्रमुख स्रोत - नदियाँ, नहरें एवं तालाब हैं। जल संसाधन का प्रमुख स्रोत भूमिगत जल है। जलोढ़ क्षेत्र के जलभृतों का निरूपण नलकूपों के संस्तर चार्ट की सहायता से किया गया है। जल संसाधन की विशेषताओं के साथ भौमिक जल के पुनर्भरण एवं विसर्जन संबंधी विस्तृत विवेचना की गयी है।
चतुर्थ अध्याय में जल संसाधन को मुख्य रूप से प्रभावित करने वाले कारक भूमि उपयोग प्रारूप का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके अंतर्गत भूमि उपयोग प्रतिरूप, शस्य संयोजन, कृषि गहनता, भूमि उपयोग दक्षता, शस्य प्रतिरूप, कृषि उत्पादकता, सिंचाई गहनता एवं सिंचाई प्रारूप का वर्णन किया गया है।
पंचम अध्याय में जनपद की नहरों की स्थिति का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। इसमें नहरों का वितरण एवं उसमें जल की उपलब्धता, नहर सिंचित क्षेत्रफल का वितरण नहर सिंचाई का कृषि विकास में योगदान एवं सिंचाई समस्याओं का उल्लेख किया गया है।
षष्ठम अध्याय में कूप एवं नलकूपों का वितरण दिखलाया गया है। इसमें कूप सिंचित क्षेत्र का वितरण नलकूप सिंचित क्षेत्र का वितरण कूप एवं नलकूप सिंचाई का कृषि विकास में योगदान दर्शाया गया है। अंत में कूप एवं नलकूप सिंचाई की समस्याओं को दृष्टिगत करने का प्रयास किया गया है।
सप्तम अध्याय में जनपद में लघुबांध सिंचाई का वर्णन किया गया है। इन बाँधों के निर्माण की भौगोलिक परिस्थितियों, बाँधों की जनपद में अवस्थिति, कृषि विकास में योगदान का वर्णन एवं लघुबांध सिंचाई की समस्याओं को स्पष्ट किया गया है।
अष्ठम अध्याय में, कृष्येत्तर क्षेत्रों में जल संसाधन के उपयोग का वर्णन किया गया है। इसके अंतर्गत शोधार्थी ने पेयजल के क्षेत्र में जल के उपयोग के साथ उद्योगों के क्षेत्र में, पशुपालन के क्षेत्र में, मत्स्य पालन के क्षेत्र में जल के उपयोग का विस्तृत वर्णन है।
नवम अध्याय में जल संसाधन से उत्पन्न समस्याओं का वर्णन जनपद के संदर्भ में किया गया है और उसके समाधान के उपायों को बताया गया है। इनमें बाढ़ एवं जल जमाव, मृदा अपरदन, मृदा लवणता, क्षारीयता की समस्या, भूमिगत जल का अतिशय दोहन एवं जल संसाधन की गुणवत्ता की समस्या को स्पष्ट किया गया है।
दशम अध्याय में जल संसाधन प्रबंधन के अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों में अपनाये गये जल संसाधन प्रबंधन संबंधी तकनीकों को अपने क्षेत्र के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। इसमें विभिन्न समस्याओं एवं उपयोग को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न प्रकार की लघु सिंचाई योजनाओं की संभावनाओं को प्रस्तुत किया गया है। कमाण्ड क्षेत्र विकास कार्यक्रम, जल विभाजक प्रबंधन, कुआँ एवं नलकूप प्रबंधन, मेड़बंदी, वाटर हार्वेस्टिंग एवं जल संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में अभिनव प्रयास को दिखाया गया है। जिससे जल संसाधन के उचित प्रबंधन के साथ कृषि एवं अन्य सेक्टर में जलापूर्ति सुनिश्चित की जा सके।
इटावा जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन, शोध-प्रबंध 2008-09 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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