पृथ्वी पर जीवन को सतत बनाये रखने के लिये प्राण वायु के बाद जल दूसरा महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक भौतिक पदार्थ है। जल और मृदा प्रकृति के आधारभूत संसाधन हैं, जो जैव जगत के लिये पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र की गुणवत्ता के अनुसार ही मानव समाज सांस्कृतिक भू-दृश्य की रचना करता है।
जल जैविकीय मंडल के जीवन का प्रमुख आधार है। पानी के बिना कोई भी जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि पानी को प्रमुख संसाधन के रूप में स्वीकारा गया है। पानी के बिना पशु-पक्षी, पेड़-पौधों एवं मानवीय जीवन का संचार नहीं होता है। मानव शरीर का लगभग 80 प्रतिशत भाग पानी द्वारा निर्मित है। इससे पानी के महत्त्व को सहज ही समझा जा सकता है।भारत गाँवों का देश है, जिसके ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की समस्या प्रमुख है। भारत के अधिकांश क्षेत्रों में जल की समस्या बनी हुई है, जिसके कारण कई क्षेत्रों का सामाजिक-आर्थिक विकास ठीक से नहीं हो पाया है। इससे देश का विकास भी अवरुद्ध हो सकता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, जिसकी 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में संलग्न है और कृषि की सफलता जल की पर्याप्त उपलब्धि एवं उचित प्रबंधन पर निर्भर है।
जीवन और स्वास्थ्य के लिये जल एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। किसी भी देश के संपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक विकास की संभावना जल संसाधन पर निर्भर है (विश्वास, 1978, 25)। कोई भी मनुष्य पानी के बिना नहीं रह सकता है, भले ही वह भूमि के बिना रह सकता है (ब्राऊन, 1944, 275)। अनंत काल से जल का पुन: चक्रण या नवीनीकरण प्रकृति के जल चक्र के द्वारा होता आ रहा है, इसकी क्षमता असीम है, विश्व स्तर पर जल की संपूर्ण आपूर्ति को न तो बढ़ाया जा सकता है और न ही कम किया जा सकता है, किंतु किसी स्थान विशेष पर उपलब्ध जल-आपूर्ति को सही समय में खत्म किया जा सकता है, अपर्याप्त संरक्षण अथवा प्रदूषण या सुरक्षाहीन प्रबंधन से इसे अनुपयोगी बनाया जा सकता है। जल आपूर्ति के परम्परागत स्रोत जैसे- सतह पर बहता जल तथा भूमिगत जल के अनियमित बँटवारे के कारण एक स्थान पर अत्यधिक मात्रा में जल बर्बाद होता है, वहीं दूसरे स्थान पर जरूरी आवश्यकताओं के लिये जल की आपूर्ति भी कठिन है। इस प्रकार बाढ़ और सूखा दो प्राकृतिक विपदाएँ हैं, जो बहुत अधिक अथवा बहुत कम जल की आपूर्ति से जुड़ी हुई है। एक ही समय में मनुष्य के विभिन्न, क्रियाकलापों के कारण इस सीमित जल की मांग अत्यधिक बढ़ गई है (संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट, 1972, 63-64)।
जल के प्रतिस्पर्धात्मक उपयोग तथा जीवन के हर क्षेत्र में जल के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। पानी की गुणवत्ता को मनुष्य द्वारा प्रदूषित करने से पानी के महत्त्व को खतरा है (गारलेड, 1950, 226)। दूसरे, प्राकृतिक सम्पदा की कमी भी पानी के दुरुपयोग में सहायक रहती है। प्रत्येक क्षेत्र के मनुष्यों के लिये जल आवश्यक है। विकसित क्षेत्रों में जहाँ पानी बहु उपयोगी है, वहाँ उस पर विशेष ध्यान दिया जाता है (स्मिथ, 1979, 236-37)। शहरों के विकास में और उच्च कोटि के जीवन-यापन में पानी का महत्त्व बढ़ा है। पर्यावरण सम्बन्धी तथ्यों से मनुष्यों को जागृत करने में भी पानी को बहुत हद तक दुष्परिणाम से बचाया जा सकता है। सामाजिक परिवर्तन के कारण पानी की आवश्यकता पहले की अपेक्षा आज के युग में ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि छोटे-मोटे कार्यों में पानी का प्रयोग होते रहा है। लेकिन उसका प्रमुख महत्त्व कृषि के लिये ही है। इस लक्ष्य को पाने के लिये तकनीकी और कभी-कभी दूसरे देशों की मुद्रा को भी यहाँ लाया जाता है। लेकिन इन सभी प्रयोगों के बाद भी पानी को उचित महत्त्व नहीं मिल पाता। कई कारणों से पानी का उचित प्रयोग नहीं हो पा रहा है (शर्मा एवं जैन, 1980, 466-471)।
पृथ्वी पर जीवन को सतत बनाये रखने के लिये प्राण वायु के बाद जल दूसरा महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक भौतिक पदार्थ है। जल और मृदा प्रकृति के आधारभूत संसाधन हैं, जो जैव जगत के लिये पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र की गुणवत्ता के अनुसार ही मानव समाज सांस्कृतिक भू-दृश्य की रचना करता है। यही कारण है कि जल विहिन क्षेत्र हमेशा से मानव के लिये अनाकर्षक रहे हैं। यद्यपि जल एक अक्षय प्राकृतिक संसाधन है, लेकिन उपयोग हेतु द्रव के रूप में इसकी प्राप्ति समय एवं स्थान के परिप्रेक्ष्य में सीमित है। विश्व स्तर पर औद्योगिक, आर्थिक, तकनीकी एवं जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के साथ स्वच्छ जल की प्राप्ति हेतु नये विकल्पों की खोज जारी है तथा इस मूल्यवान संसाधन के संरक्षण हेतु तरह-तरह की तकनीकें अपनाई जा रही हैं (पाण्डेय, 1992, 34)।
पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिये सावधानीपूर्वक उपायों का प्रबंधन करके करना चाहिये। इस बढ़ती जागृति का आभास भूगोलवेत्ताओं को भी हुआ है (रमेश, 1984, 2)। अच्छे जल संसाधन प्रबंध के साथ प्रधान विवाद का विषय है कि प्राकृतिक जल संचय सामयिक तथा स्थान सम्बन्धी जल की मांग को विविधताओं के साथ पूरा नहीं कर सकता। किसी क्षेत्र विशेष की जल संसाधनों की उचित एवं सफल प्रबंधन के लिये जल संसाधनों का पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक है (कुमार स्वामी, 1991, 237)। मानव जीवन के लिये जल एक महत्त्वपूर्ण पदार्थ है। किसी विशेष क्षेत्र एवं समय में इच्छित मात्रा एवं गुणवत्ता वाले जल की आपूर्ति हेतु कृषि वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री प्रबंधक तथा यंत्रकार इत्यादि एक साथ कार्य करके भूमि एवं जल संसाधनों में सुधार कर रहे हैं (स्मिता सेनगुप्ता, 1992, 55)।
किसी क्षेत्र में जल संसाधन के संदर्भ में जल की मात्रा, पर्याप्तता, सतत्ता तथा उसके गुणों का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। जनसंख्या वृद्धि एवं प्राविधिजन्य उन्नति के परिणामस्वरूप जल के विभिन्न प्रकार के उपयोगों में निरंतर वृद्धि हो रही है। जल की उपलब्धि, किसी क्षेत्र में जल प्राप्ति के स्रोत पर आधारित होती है। ये स्रोत, वर्षा तथा हिमाच्छादित पर्वतों से निकली नदियाँ हैं, जो किसी क्षेत्र के धरातलीय, सामुद्रिक एवं भू-गर्भिक जल संतुलन को निर्धारित करते हैं (पांडेय, 1989, 47)। जल संसाधन का उपयोग करने में यंत्री इसके लाभदायक पक्ष पर ही ध्यान केंद्रित कर लेते हैं, जबकि भूमि के खारेपन, अवसादीकरण, वन संपदा की कमी, जनसंख्या का स्थानांतरण, जैसे दुष्परिणाम भी सामने आते हैं। अत: जल संसाधन का संतुलित उपयोग आवश्यक है (खन्ना 1994, 27)। किसी क्षेत्र में दुर्भिक्ष एवं सूखा जल के असामान्य वितरण के परिणाम है (राममोहन एवं हसन, 1995, 46)। अंतर्भौम जल प्रारंभ में शुद्ध तो होता है, परंतु धरातल तक पहुँचते कार्बनिक तत्वों से प्रतिक्रिया और भूमि के जैव तत्व से मिलकर विभिन्न विशेषताएँ धारण कर लेता है और एक स्थान से दूसरे स्थान पर चला जाता है (बामरे एवं जोशी, 1996, 51)।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने 1986 में कानून के द्वारा कुओं के जल को शुद्ध बनाये रखने का प्रयास प्रारंभ किया है (रीले एवं पोलोक, 1997, 979)।
बस्तर जिले में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों की बहुतायत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रही है। मध्य प्रदेश के इस जनजाति क्षेत्र के विकास में पर्याप्त विषमता है। अशिक्षा, भौगोलिक स्वरूप इस विषमता का प्रमुख कारण है। जल संसाधन का इस प्रदेश में अध्ययन की अभी पर्याप्त गुंजाइश है। पानी की गुणवत्ता पर अभी तक कोई खास कदम नहीं उठाया गया है। वहीं जिले के भौगोलिक स्वरूप के कारण जल संसाधन का उचित प्रबंधन नहीं हो पाया है। जिले में लाल बलुई मिट्टी का अधिकतम क्षेत्र है, जिसमें जल सोखने की क्षमता कम है। जिससे यहाँ समय-समय पर सिंचाई की आवश्यकता है। साथ ही जनसंख्या में वृद्धि के कारण खाद्य पदार्थों की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र पर दबाव बढ़ रहा है। इन सभी समस्यों का जल संसाधन के उचित उपयोग एवं बहुउद्देशीय परियोजना के माध्यम से समाधान किया जा सकता है। इन्हीं बातों ने बस्तर जिले में जल संसाधन के मूल्यांकन एवं विकास के अध्ययन के लिये लेखिका को प्रेरित किया है।
पूर्व अध्ययन : जल के स्रोत क्षेत्रों का अध्ययन भूजल वैज्ञानिकों, जल वैज्ञानिकों एवं जलवायु वेत्ताओं के द्वारा किया गया है। इस क्षेत्र में भूगोलवेत्ताओं का योगदान यद्यपि कम है, परंतु इसे महत्त्वहीन और अप्रभावशील नहीं कहा जा सकता है। जल संसाधन के क्षेत्र में गिलबर्ट एफ. व्हाइट का नाम विख्यात है। संयुक्त राष्ट्र के रिपोर्ट में ‘‘इंटीग्रेटेड रिवर बेसिन डेवलपमेंट वर्क’’ का 1956 में तथा 1963 में ‘‘कॉन्ट्रिब्यूशन ऑफ जियोग्राफिकल एनालिसिस टू रिवर बेसिन डेवलपमेंट’’ का प्रकाशन हुआ। 1970 में व्हाइट की अध्यक्षता में इसी तरह के कार्यों को दोहराया गया और ‘‘स्ट्रैटेजीज ऑफ अमेरिकन वाटर मैनेजमेंट’’ का प्रकाशन हुआ। जलस्रोत की तरफ भौगोलिक रूचि बढ़ने के साथ-साथ वर्तमान कार्य, जैसे - ‘‘जियोग्राफिकल हाईड्रोलॉजी’’ का प्रवेश हुआ। इस संदर्भ में चोर्ले ने 1969 में ‘‘वाटर मैन एंड अर्थ’’ का प्रकाशन किया, जिसमें अलग-अलग रूपों में जल के अधिकारिक वस्तुओं को सम्मिलित किया गया। चोर्ले की दूसरी पुस्तक ‘‘इंट्रोडक्शन टू जियोग्राफिकल हाइड्रोलॉजी’’ 1971 में प्रकाशित हुई। ब्रिटेन के व्यावहारिक जल विज्ञान पर ‘‘वाटर इन ब्रिटेन - ए स्टडी ऑफ अप्लाइड हाइड्रोलॉजी एंड रिसोर्स जियोग्राफी’’ का प्रकाशन 1971 में हुआ। ब्रिटिश द्वीप के जल संसाधन का अध्ययन केथ स्मिथ ने भी किया। इनके ‘‘जल विज्ञान का भौगोलिक स्वरूप’’ नामक पुस्तक का प्रकाशन 1978 में हुआ, केथ स्मिथ ने आर. सी. वार्ड के साथ मिलकर जल प्रबंधन पर भी कार्य किया। इस संदर्भ में इनका ग्रंथ ‘‘ट्रेंड्स इन वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट’’ का प्रकाशन 1979 में हुआ और चर्चित भी हुआ।
भूजल वैज्ञानिकों ने भूमिगत जल के अध्ययन में विशेष योगदान दिया है। इन अध्ययनों के फलस्वरूप भूजल की गुणवत्ता का सरलतापूर्वक अध्ययन किया जा सकता है। डेविस एवं डी. विस्ट्स ने ‘‘हाइड्रोजियोलॉजी’’ (1966) में एक प्रमुख लेख लिखा, जो जल संसाधन सम्बन्धी सामान्य ज्ञान के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।
भूगर्भिक जल प्रदूषण एवं प्रबंधन पर हेमिल एवं बेल का ‘‘ग्राउंड वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट’’ (1968) उल्लेखनीय है। लघु प्रादेशिक स्तर पर माथुर ने मेरठ जिले के भूगर्भिक जल पर शोध कार्य किया। यह कार्य ‘‘ए स्टडी इन द ग्राउंड वाटर हाइड्रोलॉजी’’ (1969) के रूप में उपलब्ध हुआ।
भारतीय साहित्य में भूजल संसाधन का विस्तृत अध्ययन ‘‘इंडिया टू वाटर वेल्थ’’ (1975) नामक पुस्तक से उपलब्ध हुयी। जल संसाधन की सामान्य जानकारी चतुर्वेदी की ‘‘वाटर’’ (1976) नामक पुस्तक से उपलब्ध हुई। जल संसाधन नियोजन एवं प्रबंधन के लिये शर्मा की ‘‘वाटर रिसोर्स प्लानिंग एण्ड मैनेजमेंट’’ (1985) का उल्लेख किया जा सकता है। ‘‘कुपर्स की वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट एंड प्लानिंग’’ एवं ‘‘इंजीनियरिंग एंड इकोनॉमिक्स’’ (1965) में, और जेम्स एवं ली की ‘‘इकोनॉमिक्स आॅफ वाटर रिसोर्स प्लानिंग’’ (1971)। जल संसाधन के नियोजन के लिये सफल कृषि के रूप में उल्लेखनीय है।
वर्षा और जल संतुलन के अध्ययन के क्षेत्र में थार्नथ्वेट का नाम सबसे ऊपर है। इनकी पुस्तक और लेखों में जलवायु एवं जल संतुलन के विकास के सम्बन्ध में प्रतिपादित विधि का विस्तृत वर्णन मिलता है। थार्नथ्वेट की विधि का वीपी सुब्रह्मण्यम ने भारतीय वातावरण के अनुकूल नवीनता प्रदान किया। सुब्रह्मण्यम का ‘‘वाटर बैलेंस एंड इट्स एप्लीकेशन’’ (1982) जल संतुलन पर एक उपयोगी निर्देश है। प्रस्तुत अध्ययन में इनके कार्यों का अनुसरण किया गया है। शास्त्री का ‘‘एग्रो क्लाइमटोलॉजिकल रिपोर्ट ऑफ छत्तीसगढ़ रीजन’’ (1984) शोध कार्य के लिये लाभदायक सिद्ध हुई है। ग्रेगरी (1973) एवं हुमोण्ड एवं मैकुलॉह (1974) ने वर्षा की संभाव्यता की गणना में सामान्य तीव्रता वितरण का उपयोग किया है। गुप्ता (1979) ने चल माध्य और सीधी प्रतीपगमन रेखा, वर्षा के व्यवहार और मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ प्रदेश में सामान्य तीव्रता वितरण का वर्णन किया है।
भारत में जल संसाधन का अध्ययन मुख्यत: आठवें दशक में प्रारंभ हुआ। प्रारंभिक अध्ययन मुख्यत: वर्षा के वितरण से सम्बन्धित रहे। इनमें राव (1975) का जल संसाधन का मूल्यांकन, पटनायक, रामानंदम, (1977) का भारतीय मानसून की विशेषताएँ, पाठक (1978) का अंतर्भोम जल की पुन: पूर्ति विश्वनाथ (1979) का विशाखापट्टनम में वर्षा प्रणाली, दक्षिण भारत में जल संतुलन एवं कृषि नियोजन, राममोहन एवं सुब्रह्मण्यम (1983) का जल संसाधन का भौतिक आधार, माथुर एवं यादव (1984) का ‘‘पश्चिमी राजस्थान के अंतर्भोम जल एवं भूमि उपयोग’’, चंद्रशेखर एवं बलिराम (1985) का जल उपलब्धि और फसलों की अनुकूलता, पाण्डे (1989) का सरयूपार मैदान में जल संसाधन उपयोग एवं संरक्षण, प्रकाश सिंह एवं दीनानाथ सिंह (1990) का सिंचाई एवं कृषि विकास में जल की भूमिका, ‘‘आर जया कुमार’’ (1992) का तमिलनाडु की उत्तरी घाटी में अंतर्भोम जल की स्थिरता एवं कृषि को सम्मिलित किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के जल संसाधन के अध्ययन में बाघमार (1988) का ‘‘रायपुर जिले में जल संसाधन का घरेलू उपयोग एवं विकास - एक भौगोलिक अध्ययन’’ तथा दाभड़कर (1990) का ‘‘बिलासपुर जिले में जल संसाधन विकास एक भौगोलिक अध्ययन’’ उल्लेखनीय प्रयास है। नायर एवं राममोहन (1993) का ‘‘वाटर रिसोर्स मैनेजमेंट इन केरल ए वाटर बैलेंस एप्रोच’’, राव एवं नागेश्वर राव (1994) ‘‘डेलिनियेशन ऑफ ग्राउंड वाटर पोटेन्सियेल जोंस इन दा पेन्ना डेल्टा थ्रू ज्योमाफोलजिकल टेक्नीशियन’’, जॉन हैनंसी (1995) ‘‘वाटर मैनेजमेंट इन द ट्वेंटी वन सेंचुरी’’, बामरे एवं जोशी (1996) का ‘‘केमिकल कैरेक्टर सीट्स ऑफ ग्राउंड वाटर इन बुरला बेसिन’’, रीले एण्ड पोलोक (1997) का ‘‘ग्राउंड वाटर’’, जल संसाधन के उल्लेखनीय अध्ययन हैं।
आंकड़ों का संकलन :
प्रस्तुत शोध प्रबंध मुख्यत: द्वितीयक आंकड़ों पर आधारित है। अत: आंकड़ों का संकलन विभिन्न राजस्व कार्यालयों से प्राप्त दस्तावेजों, प्रलेखों, पुस्तकों तथा अन्य प्रकाशनों से किया गया है।
बस्तर जिले के भौतिक स्वरूप, भूमि उपयोग एवं कृषि सम्बन्धी आंकड़ों का संकलन जिला गजेटियर एवं भू-अभिलेख पुस्तिका, भू-अभिलेख कार्यालय जगदलपुर, मिट्टी सर्वेक्षण एवं संरक्षण (वाष्पण क्षमता) इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर कृषि एटलस भारत, एवं आयुक्त कृषि कार्यालय जगदलपुर से किया गया है। जनसंख्या सम्बन्धी आंकड़े भारतीय जनगणना विभाग के प्रकाशनों से लिया गया है तथा खनिज, पशुपालन जिला सांख्यिकी पुस्तिका, जिला सांख्यिकी कार्यालय जगदलपुर से लिया गया है।
जलाधिशेष या जल संसाधन सम्बन्धी अध्ययन हेतु मासिक एवं वार्षिक वर्षा, वाष्पोत्सर्जन इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय (कृषि मौसम विज्ञान विभाग) रायपुर एवं मौसम विभाग जगदलपुर से प्राप्त किया गया है। जिले में सतही जल संसाधन हेतु नदियों के मासिक एवं वार्षिक जल प्रवाह हाइड्रोमेट्रोलॉजी कार्यालय रायपुर से प्राप्त किया गया है। भू-गर्भिक जल की मात्रा इसमें मासिक एवं वार्षिक उतार-चढ़ाव, भू-गर्भ जल संभरण, 120 निरीक्षण कूपों के मानसून के पूर्व एवं मानसून के पश्चात भू-गर्भ जल की मात्रा के आंकड़े भू-गर्भ जल सर्वेक्षण कार्यालय जगदलपुर से लिया गया है।
जल संसाधन के उपयोग हेतु जिले की लघु, मध्यम, वृहत सिंचाई परियोजनाओं एवं उनके विकास के मूल्यांकन हेतु नहरों का विस्तार, जलाशयों की संग्रहण क्षमता एवं विकासात्मक सिंचित क्षेत्र, विभिन्न साधनों से सिंचित क्षेत्र एवं फसलों आदि के आंकड़ों का संकलन मुख्य अभियंता सिंचाई कार्यालय जगदलपुर से किया गया है।
जिले के ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्र में पेयजल से सम्बन्धित आंकड़ों का संकलन लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी कार्यालय जगदलपुर एवं जल की गुणवत्ता सम्बन्धी आंकड़े स्वयं लेखिका के द्वारा अध्ययन क्षेत्र से प्राप्त किया गया है। जल जनित रोगों की सूचनाएँ मुख्य चिकित्सा अधिकारी जगदलपुर से प्राप्त किया गया है।
मत्स्य उद्योग से सम्बन्धित आंकड़े सहायक संचालक मत्स्य विकास निगम, जगदलपुर से प्राप्त किए गए हैं।
विधि तंत्र एवं मान चित्रण :
बस्तर जिले के विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण हेतु उपयुक्त सांख्यिकीय एवं मानचित्रीय विधियों का प्रयोग किया गया है। आंकड़ों का विश्लेषण एवं मानचित्रण विकासखंड के स्तर पर किया गया है।
जिले की भौतिक पृष्ठभूमि को स्थिति के अनुसार दर्शाया गया है। बस्तर जिले की जलवायु को समझने के लिये क्लाइमोग्राफ, हीदरग्राफ, पवन आरेख का सहारा लिया गया है। जनसंख्या वितरण, बिंदु विधि द्वारा, भूमि उपयोग चक्रीय ग्राफ द्वारा मानचित्र में प्रदर्शित किया गया है।
जल संसाधन का मूल्यांकन तथा वर्षा की मासिक एवं वार्षिक विचलनशीलता को सममान रेखा द्वारा प्रदर्शित किया गया है। जिले के 12 वर्षामापी केंद्रों से वर्षा की प्रवृत्ति ज्ञात करने के लिये प्रतिगमन रेखा एवं त्रिवर्षीय चल माध्य द्वारा वर्षा के मासिक वितरण को दंड आरेख द्वारा मानचित्र पर सममान रेखा द्वारा प्रदर्शित किया गया है। जिले के विभिन्न स्थानों के जल संतुलन हेतु वार्षिक जल बजट, संभाव्य, संचित आर्द्रता निर्देशांक एवं आर्द्रता प्रदेश के निर्धारण हेतु थार्नथ्वेट एवं माथर द्वारा प्रतिपादित जल संतुलन एवं जल बजट विधि का प्रयोग किया गया है। इन निष्कर्षों के आधार पर जिले के विभिन्न केंद्रों हेतु जलाधिशेष आरेख का निर्माण किया गया है। जलवायु की विचलनशीलता एवं शुष्कता सूचकांक ज्ञात करने हेतु सुब्रह्मण्यम के द्वारा प्रतिपादित विधि का प्रयोग किया गया है।
जिले में सतही जल, मासिक वार्षिक जलप्रवाह को जल बजट विधि से गणना करके, जलावाह, आरेख द्वारा प्रदर्शित किया गया है। यह प्रदर्शन सुब्रह्मण्यम की विधि पर आधारित है।
बस्तर जिले में भू-गर्भिक जल संभरण की गणना, मानसून के पूर्व एवं मानसून के पश्चात जल की उतार-चढ़ाव विधि के आधार पर की गई है। जल के वर्तमान उपयोग के विश्लेषण हेतु ग्रामीण एवं नगरीय जल उपयोग के औसत घनत्व से प्रतिशत के आधार पर उपयोगिता सूचकांक ज्ञात किया गया है। जल निकासी की गणना मुख्यत: अखिल भारतीय ग्रामीण विकास संगठन द्वारा प्रतिपादित प्रसन मूल्यों के मान के आधार पर की गई है। इससे प्राप्त निष्कर्षों को वृत्तीय आरेख के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है।
जिले में सिंचाई कृषि एवं भूमि उपयोग सम्बन्धी आंकड़ों का विश्लेषण प्रतिशत विधि, वर्गमूल विधि, घनत्व विधि के आधार पर किया गया है। जल की गुणवत्ता ज्ञात करने के लिये रासायनिक एवं जीवाणु विश्लेषण विधि का प्रयोग किया गया है। जल जनित रोगों के अध्ययन हेतु प्रतिशत विधि अपनाई गई है।
समस्त आंकड़ों को आवश्यकतानुसार प्रतिशत उत्पादन अनुपातों एवं दरों में परिवर्तित करके मुख्यत: छायारेखा मानचित्र, सममान रेखा मानचित्र, वितरण बिंदु मानचित्र, वृत्तीय आरेख एवं दंड आरेख आदि के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है, जिससे क्षेत्रीय विभिन्नता का स्वरूप स्पष्ट हो सका है। मानचित्र पर केंद्रों का चुनाव तुलनात्मक दृष्टि से क्षेत्रीय विभिन्नता को स्पष्ट करने के लिये किया गया है। साथ ही विकास दर एवं प्रवृत्ति के प्रदर्शन हेतु प्रतीपगमन रेखा ग्राफ एवं आरेखों की सहायता से मानचित्रण किया गया है।
अध्ययन का उद्देश्य :
बस्तर जिला दक्षिणी मध्य प्रदेश में स्थित है। इस जिले की औसत वार्षिक वर्षा 1,371 मिमी एवं औसत वार्षिक जलावाह 991 मिमी है। जिले में 316 लाख घन मीटर सतही जल एवं 84.08 लाख घन मीटर भू-गर्भिक जल सिंचाई के लिये उपलब्ध है। तथापि जिले में जल संसाधन का विकास बहुत कम हुआ है। जिले के सम्पूर्ण बोये गये क्षेत्र का मात्र 4.30 प्रतिशत सिंचित है। लगभग 572.22 लाख घन मीटर जल घरेलू उपयोग में लाया जाता है। बस्तर जिले के कुल 3,715 ग्रामों में 3,563 ग्रामों में पेयजल आपूर्ति की समस्या है। पर्याप्त सिंचाई के अभाव में कृषि मुख्यत: खरीफ फसलों तक ही सीमित है। दूषित पेयजल स्रोतों के कारण अनेक गाँव में जलजनित रोगों का प्रकोप बना रहता है। जिले की बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ जल की मांग में भी वृद्धि हो रही है। जिसके लिये जिले में जल संसाधनों का पर्याप्त विकास आवश्यक है।
उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रस्तुत अध्ययन एक प्रयास है : -
1. बस्तर जिले में जल संसाधन की संभाव्यता एवं उपयोग का भौगोलिक अध्ययन करना।
2. जिले की जल संसाधन क्षमता की गणना करना।
3. जिले में सतही तथा भू-गर्भिक जल की उपलब्धता के स्थानिक प्रतिरूप एवं उनमें ऋतु सम्बन्धी परिवर्तनों का अध्ययन करना।
4. जिले में जल संसाधन का विकास एवं वर्तमान उपयोग का विश्लेषण करना तथा भावी आवश्यकताओं का आकलन करना।
5. जिले में जल संसाधन की विकास योजना के लिये वर्तमान योजनाओं के आधार पर सुझाव प्रस्तुत करना।
6. जिले में वर्षा की अस्थिरता और विचलनता का विश्लेषण करना एवं
7. जिले की मासिक और वार्षिक जल संतुलन की गणना और विश्लेषण करना।
शोध प्रस्तुतीकरण :
प्रस्तुत शोध प्रबंध को मुख्य रूप से पाँच खंडों के अंतर्गत ग्यारह अध्यायों में बाँटा गया है।
किसी भौगोलिक अध्ययन में प्रदेश की भौगोलिक विशेषताओं का अध्ययन प्रारंभिक आवश्यकता है। प्रथम भाग में बस्तर जिले की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने का प्रयास किया गया है, जिस पर जल संसाधन की क्षमता निर्भर करता है। इस भाग के अंतर्गत प्रथम अध्याय में जिले का भौतिक स्वरूप, मिट्टी, अपवाह, जलवायु, वनस्पति, जनसंख्या का वितरण, घनत्व एवं विकास, भूमि उपयोग, कृषि, पशुपालन, खनिज, परिवहन तथा व्यापार आदि का विश्लेषण किया गया है।
किसी प्रदेश की संसाधन संपन्नता को जानने के लिये उस प्रदेश के संसाधनों का मूल्यांकन प्राथमिक आवश्यकता है। प्रस्तुत अध्ययन का द्वितीय भाग जल संसाधन के मूल्यांकन से सम्बन्धित है। जिसमें वर्षा, धरातली जल एवं अंतर्भौम जल का विश्लेषण तथा मूल्यांकन करते हुए जल संसाधन की क्षमता बतायी गयी है। धरातल पर मनुष्य के उपयोग हेतु अत्यंत सीमित मात्रा में जल उपलब्ध है। इस भाग के अंतर्गत द्वितीय अध्याय में वर्षा का वार्षिक एवं मासिक वितरण, वर्षा की विचलनशीलता, वर्षा की प्रवृत्ति, वर्षा की संभाव्यता, जल संतुलन, जलाभाव, जलाधिक्य, वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन, आर्द्रता सूचकांक (जलवायु विस्थापन) एवं शुष्कता सूचकांक का विश्लेषण किया गया है।
तृतीय अध्याय में धरातलीय जल प्रवाह, वाष्पोत्सर्जन जलाशयों, तालाबों की संग्रहण क्षमता एवं गुणवत्ता के स्थानिक प्रतिरूपों का विश्लेषण किया गया है। चतुर्थ अध्याय में अंतर्भौम जल की सार्थकता, मानसून के पूर्व एवं मानसून के पश्चात अंतर्भौम जल के उतार चढ़ाव का विश्लेषण तथा निस्सरण एवं संभरण का विश्लेषण किया गया है।
बस्तर जिला जनजाति बहुल जिला है। जहाँ संसाधनों का दोहन एवं उपयोग निम्न स्तर पर है। तृतीय भाग में जल संसाधन का उपयोग, सिंचाई, घरेलू और औद्योगिक उपयोग, मत्स्य पालन तथा अन्य उपयोग का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इसके अंतर्गत अध्याय पाँच में सिंचाई का विकास, सिंचित फसलों का उत्पादन, सिंचाई के विभिन्न साधन, घनत्व, सिंचाई की समस्याओं का विश्लेषण किया गया है।
छठे अध्याय में जल संसाधन के उपयोग : घरेलू एवं औद्योगिक जल आपूर्ति तथा जल की गुणवत्ता (रासायनिक एवं जीवाणु) का विश्लेषण किया गया है।
सातवें अध्याय में जल के अन्य उपयोग यथा मत्स्य उत्पादन, मनोरंजन एवं परिवहन हेतु उपयोग का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
चतुर्थ भाग में जल संसाधन से सम्बन्धित समस्याएँ एवं उनका समाधान, जलजनित रोग, जल प्रदूषण एवं निराकरण के उपाय तथा घरेलू एवं औद्योकि जल के पुन: चक्रण का विश्लेषण किया गया है। इस भाग के अंतर्गत अध्याय आठ में जल जनित रोगों के स्रोत एवं उनके बचाव के उपाय, जल प्रदूषण का स्थानिक स्वरूप एवं समस्या के निराकरण के उपाय का विश्लेषण किया गया है।
औद्योगिक एवं घरेलू जल के उपयोग के पश्चात नि:सृत जल का प्रदूषित होना संभावित है। जल का अनियंत्रित एवं अनियोजित उपयोग भविष्य में जल की कमी जैसी समस्या को जन्म दे सकता है। अत: जल का संरक्षण आवश्यक है। इस हेतु नि:सृत जल का पुन:चक्रण किया जाना उचित होगा। इन बातों का विश्लेषण अध्याय नौ में किया गया है।
पंचम एवं अंतिम भाग में जल संसाधन का विकास एवं नियोजन के लक्ष्य एवं सुझाव प्रस्तुत किया गया है। इस भाग के अंतर्गत अतिरिक्त संसाधन का नियोजित विकास एवं उपयोग प्रदेश के विकास का आधार है। प्रस्तुत अध्ययन का पाँचवा भाग इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। इसके अंतर्गत अध्याय दस में जल संसाधन विकास एवं नियोजन हेतु धरातलीय जल, अंतर्भौम जल, नगरीय एवं ग्रामीण जल आपूर्ति, मत्स्य पालन, मनोरंजन एवं परिवहन के विकास के लक्ष्य का अध्ययन किया गया है। बस्तर जिले में जल संसाधन के विकास हेतु सुझावों का समीक्षात्मक विवरण इस अध्याय में दिया गया है।
ग्यारहवां अध्याय प्रस्तुत अध्ययन का अंतिम अध्याय है। इसमें जिले के जल संसाधन से सम्बन्धित सम्पूर्ण अध्ययन का सारांश प्रस्तुत किया गया है। अध्ययन का उपसंहार बस्तर जिले के जल संसाधन से सम्बन्धित सभी पक्षों को समझने में सहायक होगा, इसी आशा के साथ लेखिका द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
बस्तर जिले में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास एक भौगोलिक विश्लेषण, शोध-प्रबंध 1997 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | |
2 | बस्तर जिले की भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geography of Bastar district) |
3 | बस्तर जिले की जल संसाधन का मूल्यांकन (Water resources evaluation of Bastar) |
4 | |
5 | बस्तर जिले का अंतर्भौम जल (Subsurface Water of Bastar District) |
6 | बस्तर जिले का जल संसाधन उपयोग (Water Resources Utilization of Bastar District) |
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8 | बस्तर जिले के जल का अन्य उपयोग (Other uses of water in Bastar District) |
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11 | बस्तर जिले के जल संसाधन विकास एवं नियोजन (Water Resources Development & Planning of Bastar District) |
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