प्रस्तावित कृषि नीति और कृषि विकास


कृषि नीति प्रस्ताव के मसौदे का स्वागत करते हुए लेखक इस बात पर बल देता है कि केवल इसी अनुमान के आधार पर कि सन 2000 तक हमारी खाद्यान्नों की आवश्यकता 21 करोड़ टन होगी, हमें खाद्यान्न उत्पादन के प्रयासों में ढील नहीं आने देनी चाहिए। लेखक को महसूस होता है कि देश में होने वाले भारी सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों की वजह से भविष्य में लोगों की अपेक्षाएँ अधिक बढ़ जाएँगी, जिसके लिये हमें अधिक अनाज की जरूरत पड़ेगी।

इतनी विशाल उपजाऊ भूमि, वर्षभर धूप, प्रचुर जल संसाधनों और समर्पित वैज्ञानिकों की फौज व करोड़ों मेहनती किसानों वाला यह देश भारत सहज ही विश्व की एक कृषि शक्ति बन सकता है। यह बेकार की बात है कि क्या भारत औद्योगिक या सैनिक शक्ति बन सकता है या उसे बनना चाहिए। भारत को पहले तो जैसा कि पहले कभी अमेरिका था और अभी भी है, वैसे ही एक कृषि शक्ति बनना होगा। तब ही महाशक्ति बनने का भारत का मार्ग प्रशस्त होगा।

चाहे राजनीतिज्ञ हों या कोई अर्थशास्त्री या फिर खेती व सम्बद्ध विषयों पर लिखने वाला पत्रकार, ये सभी लोगों को यह याद दिलाना कभी भी नहीं भूलते कि भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि है और यह एक बुनियादी तथ्य है, इसीलिये जब भी कोई अपना मुँह खोलता है अथवा टाइप मशीन या अपनी निजी कम्प्यूटर का इस्तेमाल करता है, तब उसके लिये इस बात को दोहराना जरूरी हो जाता है। लेखक भी जोकि उपरोक्त में से तीसरी श्रेणी में आता है, इस बात का अपवाद नहीं है।

कुछ भी हो ‘कृषि’ शब्द की प्रतिक्रिया मिश्रित होती है। जब हम देखते हैं कि भारत के किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और नीति-नियंताओं के प्रयासों के फलस्वरूप खाद्यान्नों की हमारी पैदावार, जो 1950-51 में मात्र 5 करोड़ 8 लाख टन से कुछ ही अधिक थी। वह 1992-93 में बढ़कर अनुमानतः 18 करोड़ 3 लाख टन तक पहुँच गई है तो सबसे पहली प्रतिक्रिया उत्साह की होती है लेकिन दूसरी प्रतिक्रिया चिन्ता की होती है, क्योंकि इस शताब्दी की समाप्ति तक भारत की जनसंख्या 100 करोड़ तक पहुँच जाएगी अतः इस सन्दर्भ में परेशान कर देने वाला प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत तब तक इतना अनाज पैदा कर पाएगा कि कोई भी भारतीय भूखा न सोए।

अधिक पैदावार देने वाले बीजों के विकास की दिशा में साठ के दशक के अंतिम वर्षों की शानदार प्रौद्योगिकी सफलता, सिंचाई सुविधाओं के विस्तार और रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के व्यापक उपयोग के कारण हरितक्रांति हुई। यह कहानी कोई नई नहीं रह गई है, सब इसे जानते हैं तथा इसे सविस्तार समझाने की अब जरूरत भी नहीं। केवल एक ही बात का यहाँ उल्लेख करना है और वह यह है कि इस विकास के बावजूद, भारतीय कृषि अभी भी काफी कुछ मानसूनों पर विशेषकर दक्षिण-पश्चिमी मानसून पर निर्भर है।

हरितक्रांति से पूर्व व उसके पश्चात


ऐसा लगता है कि अस्सी के दशक के मध्य से हरितक्रांति की गति कुछ थक सी गई है तथा यह निश्चय ही चिन्ता का विषय है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक साल से दूसरे साल में खाद्यान्नों के कुल उत्पादन में उतनी तीव्र वृद्धि नहीं हो रही है, जितनी कि पिछीले डेढ़ दशक में देखने में आती थी।

1960-61 में पैदावार 8 करोड़ 20 लाख टन से कुछ ही अधिक थी, जो 1970-71 में छलांग मारकर 10 करोड़ 84 लाख टन से कुछ अधिक हो गई। स्पष्टतया यह हरितक्रांति का सुफल था। आंकड़ों के अनुसार पैदावार1963-64 तक कमोबेश इसी स्तर पर बनी रही लेकिन दरअसल तब पैदावार घटकर 8 करोड़ 7 लाख टन पर आ गई। 1964-65 में स्थिति सुधरी और पैदावार 8 करोड़ 94 लाख टन पहुँच गई। तत्पश्चात 1965 और 1966 में लगातार दो वर्ष तक मानसून की विफलता का जोरदार झटका लगा और 1965-66 में पैदावार घटकर मात्र 7 करोड़ 23 लाख टन रह गई और 1966-67 में 7 करोड़ 42 लाख टन।

ये वे वर्ष थे, जब हमें भारी मात्रा में अनाज का आयात करना पड़ा। वर्ष 1966 में ही लगभग 1 करोड़ टन अनाज का आयात हमने किया, लेकिन उसके बाद हरितक्रांति आई और 1967-68 में पैदावार में भारी वृद्धि हुई और यह बढ़कर 9 करोड़ 51 लाख टन पहुँच गई। अर्थात एक वर्ष में 2 करोड़ तीस लाख टन की वृद्धि। वर्ष 1969-70 में यह बढ़कर 9 करोड़ 95 लाख टन तक पहुँच गई जबकि इससे पिछले वर्ष यह 9 करोड़ 40 लाख टन थी। 1970-71 के जो आंकड़े ऊपर दिए गए हैं, उनसे पता चलता है कि एक वर्ष में ही एक बार फिर 90 लाख टन की पैदावार वृद्धि हुई।

लेकिन बाद के पाँच वर्षों में पैदावार में वास्तव में, कमी आई। 1974-75 में यह केवल 9 करोड़ 98 लाख टन रही। कारण था, खराब मानसून। वर्ष 1972 का मानसून तो विशेषकर अत्यंत ही प्रतिकूल सिद्ध हुआ। इन बुरे वर्षों में भी पैदावार हरितक्रांति के आरम्भिक वर्षों में भी पैदावार के स्तर से कम नहीं रही, इसका कारण था कि प्रतिकूल वर्षा स्थितियों में भी हरितक्रांति के बूते पर ही पैदावार बनी रही। 1975 की प्रचुर वर्षा ने एक बार फिर भारतीय कृषि को सही मार्ग पर ला दिया तथा अगले चार वर्षों में अधिकतम पैदावार 1975-76 के 12 करोड़ 10 लाख टन से बढ़ते-बढ़ते 1978-79 में 13 करोड़ 14 लाख टन तक आ गई।

इसके बाद आया 1979 का विनाशकारी सूखा, जिसने पैदावार को घटाकर लगभग 10 करोड़ 90 लाख टन पर ला पटका, यानी एक वर्ष में ही उत्पादन में 2 करोड़ 20 लाख टन की कमी आ गई। फिर भी पैदावार में इस तीव्र गिरावट के कारण आयात करने की नौबत नहीं आई। यह भारत की एक अद्वितीय सफलता थी। इसका कारण था केन्द्रीय पूल में अनाज का पर्याप्त भण्डार। भारतीय खाद्य निगम तथा अन्य वसूली एजेंसियों की मेहरबानी से केन्द्र में 1 जुलाई 1979 को 2 करोड़ 10 लाख टन से अधिक अनाज का भण्डार था। इस प्रकार एक ओर तो उचित क्रांति ने तथा दूसरी ओर सरकारी नीतियों ने, जिनके परिणामस्वरूप 14 जनवरी 1965 को भारतीय खाद्य निगम स्थापित हुआ और जिसके कारण सरकार द्वारा प्रति वर्ष अनाज के आकर्षक वसूली मूल्यों की घोषणा होती रही, मिलकर भुखमरी को दूर कर दिया और वर्तमान शताब्दी के सातवें दशक के अंत तक भारत को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया।

अनाज के उत्पादन की दृष्टि से अस्सी के दशक को विशेष रूप से उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता, हालाँकि पहले ही वर्ष 1980-81 में अच्छे मानसून के कारण पैदावार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। पैदावार बढ़कर 12 करोड़ 96 लाख टन के लगभग हो गई, अर्थात पिछले वर्ष की तुलना में एक ही वर्ष में 2 करोड़ टन की वृद्धि। 1983-84 को छोड़कर जब पैदावार बढ़कर 15 करोड़ 23 लाख 70 हजार टन पहुँच गई थी, बाद के वर्षों में पैदावार में स्थिरता ही दिखाई पड़ी। तत्पश्चात देखा जाए तो हर वर्ष पैदावार में गिरावट ही आई। ‘शताब्दी के भीषणतम सूखे के वर्ष’ 1987-88 में पैदावार 14 करोड़ 3 लाख 50 हजार टन तक पहुँच गई।

इसी समय के आस-पास, हरितक्रांति के दौरान जिस प्रौद्योगिक उन्नति के दर्शन हुए तथा जो इन सभी वर्षों में जारी रही, उसे भारतीय मौसम विभाग से एक ओर प्रोत्साहन मिला। इस विभाग और इसके जनक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने एक गणितीय प्रतिरूप विकसित किया, जिससे दक्षिण-पश्चिमी मानसून के रुख का पूर्वानुमान सम्भव हुआ। अद्वितीय मौसम मानसून आया और फलस्वरूप अनाज की पैदावार में भारी वृद्धि हुई तथा यह बढ़कर 16 करोड़ 99 लाख 20 हजार टन पर जा पहुँची। पिछले वर्ष की तुलना में 2 करोड़ 90 लाख टन से भी अधिक की वृद्धि हुई।

फिर भी यह पैदावार 1983-84 की पैदावार से केवल 1 करोड़ 75 लाख 50 हजार टन अधिक थी, जिसका मतलब हुआ कि सर्वोच्च पैदावार के इन दो वर्षों के बीच पैदावार में प्रतिवर्ष 35 लाख टन से कुछ अधिक की वृद्धि ही हुई। आने वाले वर्ष भी कोई खास संतोषजनक नहीं थे। 1989-90 में 17 करोड़ 10 लाख 30 हजार टन, 1990-91 में 17 करोड़ 63 लाख 90 हजार टन और 1991-92 में 16 करोड़ 17 लाख 60 हजार टन पैदावार हुई। इन वर्षों में मानसून सामान्य परंतु अनियमित और प्रारम्भ में ढीला-ढाला रहा तथा 1992 की कमोबेश सामान्य मानसून के कारण 1992-93 में पैदावार के 18 करोड़ 3 लाख टन होने का का अनुमान है, जो लक्ष्य दर से 30 लाख टन कम है।

इससे पता चलता है कि 1980-81 से 1990-91 के बीच के दशक में अनाज की पैदावार में वार्षिक वृद्धि की दर 46 लाख 80 हजार टन रही। यदि पैदावार में वृद्धि की यही दर बनी रहे तो शताब्दी के अंत तक पैदावार 22 करोड़ 32 लाख टन (17 करोड़ 63 लाख 90 हजार टन में 46 करोड़ 80 लाख के दस गुने का योग) हो जाएगी। लेकिन जून 1993 को प्राप्त हुए पिछले तीन वर्षों के रुख से संकेत मिलता है कि वार्षिक वृद्धि केवल 39 लाख टन रही है। इस दर से शताब्दी के अंतिम वर्ष में पैदावार केवल 20 करोड़ 64 लाख टन ही होगी। (17 करोड़ 63 लाख 90 हजार टन में 39 लाख के दस गुने का योग)।

सन 2000 तक आवश्यकताएँ


मजेदार बात तो यह है कि ऊपर बताई गई दोनों ही स्थितियों में पैदावार 24 करोड़ टन के स्तर से नीचे ही है। कई वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने वर्ष 2000 में 24 करोड़ टन अनाज की खपत का अनुमान लगाया है। कुछ और भी अनुमान है जिसके अनुसार देश में अनाज की आवश्यकता 21-22 करोड़ टन के बीच होगी। इसका मतलब यह हुआ कि भारतीय किसान व कृषि वैज्ञानिक यह सुनिश्चित करेंगे कि वर्तमान वार्षिक वृद्धि दर के अनुसार सन 2000 तक अनाज की पैदावार 21 करोड़ टन तक पहुँच जाएगी।

अस्सी के दशक के मध्य तक भारत भारी मात्रा में लगभग 10 लाख टन प्रतिवर्ष खाद्य तेल मुख्य रूप से अमेरिका, ब्राजील और मलेशिया से आयात किया करता था, लेकिन 1991-92 तक ऐसा लगने लगा कि भारत आत्मनिर्भर होने लगा है तथा जब 1992-93 में लगभग 2 करोड़ 10 लाख टन तिलहनों का उत्पादन हुआ तब यह बात और उभर कर सामने आई।

लेकिन क्या इसका यह मतलब नहीं हुआ कि यह कम अनुमान, उस वर्ष तक अनाज की प्रति व्यक्ति अत्यंत ही कम आवश्यकता के आधार पर लगाया गया है। हालाँकि, यह सही है कि 1990 तक देश में अनाज की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 475 ग्राम दैनिक तक पहुँच गई है, लेकिन क्या इस अपर्याप्त प्रति व्यक्ति उपलब्धता से संतुष्ट हैं? क्या इसका यह अर्थ नहीं होगा कि इस शताब्दी के अंत तक भी इस देश के निर्धन वर्ग को प्रति व्यक्ति आधे किलोग्राम से भी कम अनाज मिलता रहेगा? यदि वर्ष 2000 तक प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता बढ़कर 1 किलोग्राम हो जाए, तो एक अरब लोगों के लिये 36 करोड़ 50 लाख टन अनाज की जरूरत पड़ेगी। जैसा कि हम आगे देखेंगे यदि हमने सत्तर और अस्सी के दशकों में कुछेक सार्थक कदम उठाए होते तो हम इतनी पैदावार कर भी सकते थे। लेकिन सन 2000 तक के लिये मात्र 21 करोड़ टन वार्षिक लक्ष्य रखने की सोच जो सरकारी हलकों में है उससे यही अर्थ निकलता है कि देश कम से कम अपने अधिकांश लोगों को 600 ग्राम प्रति व्यक्ति दैनिक से भी कम का अनाज प्रदान कर सकेगा, जो पौष्टिकता का कामचलाऊ स्तर मात्र ही है।

राष्ट्रीय कृषि आयोग ने अनुमान लगाया था कि वर्ष 2000 तक अनाज की ‘आपूर्ति सम्भावनाएँ’ कम से कम 23 करोड़ टन होंगी लेकिन तब तक घरेलू माँग 20 करोड़ 50 लाख टन से बढ़कर 22 करोड़ 50 लाख टन हो चुकी होगी। इसका मतलब यह हुआ कि आयोग ने 20 करोड़ 50 लाख टन को कम से कम और 23 करोड़ टन को अधिकाधिक माना। लेकिन 1993 में इन अनुमानों में परिवर्तन आ जाएँगे, क्योंकि देश में हुए तथा हो रहे भारी सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों से निश्चय ही अपेक्षाएँ वर्तमान की तुलना में अधिक ही हो जाएँगी। यही कारण है, जिसकी वजह से 21 करोड़ का लक्ष्य रखने के, इस लेखक के अनुसार गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।

इस संदर्भ में डॉ. सी.एच. शाह का हवाला दिया जा सकता है। इसके अनुसार शताब्दी के अंत तक तृतीय अनुमान के अंतर्गत भारत की कुल अनाज पैदावार 35 करोड़ 94 लाख टन होगी, द्वितीय अनुमान में 23 करोड़ 32 लाख टन और प्रथम अनुमान में 18 करोड़ 66 लाख टन। प्रथम अनुमान भारतीय कृषि की देखी गई प्रवृत्तियों पर आधारित था, द्वितीय अनुमान में उन्होंने यह माना था कि सिंचाई की अधिकतम क्षमता का विकास हो चुका है तथा तृतीय अनुमान में डा. शाह ने माना कि प्रौद्योगिक सुधारों को द्वितीय अनुमान पर अध्यारोपित किया गया है।

जैसा कि आज हम जानते हैं कि सुनिश्चित सिंचित क्षेत्र में भारी वृद्धि हुई है तथा जैव-प्रौद्योगिकी और आनुवंशिक इंजीनियरी जैसे क्षेत्रों में सुधार हुए तथा हो रहे हैं, जिनकी हमने सत्तर के दशक में कल्पना भी नहीं की थी। वास्तव में इन बातों के आधार पर देश की अनाज पैदावार क्षमता 35 करोड़ टन की बनिस्बत 40 करोड़ मानी जानी चाहिए।

यहाँ पर एक बात कही जा सकती है और वह कुछ हद तक सही भी है, कि अब तक जो आंकड़े दिए गए हैं, वे पहले की ‘पुरानी’ अवधियों के हैं तथा आज की स्थिति में उनकी प्रासंगिकता उतनी अधिक नहीं है। ठीक है, ‘पुराने’ आंकड़े देने के पीछे कारण यह है कि इस बात को सामने लाया जाए कि इस बहाने से कि सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में लगाए गए अनुमान अधिक थे तथा वर्ष 2000 तक के लिये 21 करोड़ टन के कम आंकड़ों से काम चल जाएगा, हम अपने अनाज की पैदावार बढ़ाने के प्रयासों में किसी प्रकार की ढील न आने दें। यहाँ इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि यह एक जोखिमपूर्ण काम है। अब से सात वर्ष बाद अमेरिका को छोड़कर कुछ ही देश ऐसे होंगे जो वर्षा की विफलता के कारण भारत में होने वाली अनाज की कमी को पूरा कर सकने की स्थिति में हों और फिर तब हो सकता है हमारे पास भारी मात्रा में अनाज मँगाने के लिये पर्याप्त विदेशी मुद्रा ही न हो।

मसौदा कृषि नीति


केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदित कृषि नीति प्रस्तावों के संशोधित मसौदे में किन्हीं लक्ष्यों की चर्चा ही नहीं की गई है, सम्भवतया, इसलिये कि वे नीति के ढाँचे में आते ही नहीं हैं। फिर भी, इस नीति के बारे में सबसे सुखद बात यह है कि इसमें इस बात को दोहराया गया है कि ‘‘भारत के नियोजित सामाजिक-आर्थिक विकास की सभी कार्य-नीतियों का केन्द्र अपनी सम्पूर्णता में कृषि विकास ही है।’’ यह देखकर राहत मिलती है कि सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप देने के वर्तमान परिवेश और उद्योगों के निजीकरण की इस अवस्था में भी कृषि को इतनी प्राथमिकता प्रदान कर रही है।

मसौदे में देश में कृषि क्षेत्र के समक्ष प्रस्तुत कम-से-कम 17 चुनौतियों को स्वीकारा गया है। इनमें से मेरे हिसाब से पहली दो चुनौतियाँ तो इस क्षेत्र के और विकास की किसी भी चर्चा के लिये सर्व प्रमुख है। ये हैं: ‘‘बढ़ती जनसंख्या के लिये सुरक्षित अन्न भण्डार सुनिश्चित करने की दृष्टि से खेती की पैदावार व पैदावार क्षमता बढ़ाना’’ और ‘‘उन क्षेत्रों का विकास करना, जिनकी क्षमता का अभी उपयोग ही नहीं किया जा सका है, ताकि पूर्वी पर्वतीय वर्षा-सिंचित और सूखा-सम्भावित क्षेत्रों के विकास के असंतुलनों को दूर किया जा सके।’’

भू-स्वामित्व, जोतों, जन संसाधनों, कुपोषण की समस्या से जूझना, खेतिहर उत्पादों का प्रसंस्करण, सहकारी संस्थाओं को पुनर्जीवित करना, कृषि अनुसंधान, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, उन्नत बीज, कृषि मशीनरी व यंत्र तथा व्यापार की शर्तों को कृषि के अनुरूप बनाना और कुछ चुनौतियाँ हैं, जिनकी चर्चा मसौदे में की गई है।

उपज बढ़ाना


पैदावार व पैदावार क्षमता बढ़ाने की पहली चुनौती से वैज्ञानिक और किसान साठ के दशक के मध्य से जूझने का काम करते ही चले आ रहे हैं। हम इन दो उद्देश्यों की तत्काल पूर्ति की आवश्यकता से परिचित हैं ही। फिर भी, ऐसा लगता है कि जब तक हम देश में या विदेशों में अनुसंधानों के जरिए गेहूँ व चावल के साढ़े सात टन प्रति हेक्टेयर की वर्तमान उपज की सीमा को पार नहीं कर पाते तब तक शताब्दी के अंत तक 24 करोड़ टन तो क्या 23 करोड़ टन के पैदावार के स्तर तक हमारा पहुँचना असम्भव ही होगा।

इसलिये, इस क्षेत्र में, विशेषकर संकर चावल के क्षेत्र में अनुसंधान करना अत्यावश्यक है, जिससे चावल की उपज 10 टन प्रति हेक्टेयर से बढ़ सके। किसी भी दशा में चावल की उपज को प्रति हेक्टेयर 1.74 टन और गेहूँ की उपज को 2.40 टन प्रति हेक्टेयर से तो बढ़ाना ही होगा। यही स्थिति ज्वार, बाजरा और मक्का के साथ है।

दूसरा पहलू क्षेत्रीय असंतुलनों का है हालाँकि हरितक्रांति उत्तर-पश्चिमी भारत में आई और जिसके फलस्वरूप यह क्षेत्र देश का धान्यागार बन गया, लेकिन भविष्य में अन्य क्षेत्रों को विशेषकर पूर्व और उत्तर पूर्व क्षेत्र में भी बेहतर पैदावार होनी चाहिए। एक लम्बे अरसे से ऐसा चला आ रहा है, परन्तु अब समय आ गया है कि पूर्व और उत्तर-पूर्व क्षेत्र की ओर ध्यान दिया जाए। इन इलाकों के किसानों ने कुछ विशेष कार्यक्रमों के अंतर्गत अपनी क्षमताओं का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। इन उत्कृष्ट प्रदर्शनों का साक्षी यह लेेखक भी रहा है। फिर भी, अब पूर्वी भारत की कृषि की ओर या सही कहें तो लखनऊ के पूर्व की ओर अधिक ध्यान दिया जाना ही चाहिए।

प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक कृषि में अपर्याप्त पूँजीगत निवेश का हल्ला मचाते रहे हैं। शुष्क भूमि कृषि तथा बागवानी, पुष्प-कृषि, मात्स्यिकी, दुग्ध व पशुपालन के साथ-साथ कुक्कुट पालन जैसी सम्बद्ध शाखाओं में निवेश की कमी की चर्चा तो और अधिक रही है। हालाँकि इन सभी क्षेत्रों ने उल्लेखनीय प्रगति की है। फिर भी इन क्षेत्रों की सम्पूर्ण क्षमता का उपयोग किया जाना बाकी है विशेषकर खेतिहर पैदावार के निर्यात के क्षेत्र में। मसौदा नीति में इस बात पर ध्यान दिया गया है।

मसौदे में ऋण, आदान और विस्तार सहायता प्रदान करने के साथ-साथ विपणन व प्रसंस्करण सुविधाओं में सुधार की दृष्टि से सहकारी संस्थाओं को फिर से सक्षम बनाना और उन्हें लोकतांत्रिक स्वरूप देने की भी चर्चा की गई है। इस प्रावधान को शामिल करना हालाँकि वांछित है, परंतु यह मात्र औपचारिकता ही प्रतीत होता है। यदि यह काम गम्भीरता से और पक्षपात के बिना किया जाता है तो इसमें सरकार की सफलता की कामना करनी ही चाहिए।

नीति के मसौदे में फसल बीमा, भूमि सुधारों, भूमि के निम्नीकरण को रोकने आदि के बारे में भी प्रावधान शामिल हैं, लेकिन इस नीति का सर्वाधिक दूरगामी पहलू सरकार की यह घोषणा है कि वह कृषि के लिये व्यापार व निवेश का उद्योग के समान वातावरण तैयार करने क प्रयास करेगी। इसमें आगे कहा गया है कि ‘‘सरकार की नीति का उद्देश्य प्रभावशाली प्रणालियाँ विकसित करना और कृषि के लिये भी वही सुविधाएँ उपलब्ध कराना है, जो उद्योग को प्राप्त है।’’ लेकिन प्रावधानों में एक चेतावनी भी है कि यह सुनिश्चित करने की सावधानी बरती जानी चाहिए। कि कृषकों को सरकार के नियंत्रकों व कर उगाहने वाली मशीनरी से दूर रखा जाए।

इसके अतिरिक्त, एक सकारात्मक घोषणा भी है कि ‘‘निर्धारित नगरपालिका सीमाओं के भीतर खेती की भूमि के अनिवार्य अधिग्रहण पर होने वाले पूँजीगत लाभों पर कर देने से किसानों को मुक्त रखा जाएगा।’’ यह अत्यंत ही स्वागत योग्य निर्णय है तथा आशा की जाती है कि जब संसद नीति के इस मसौदे पर विचार करेगी तो इस प्रावधान को पूर्ण समर्थन मिलेगा।

पूँजी निवेश


अभी हमने कहा था कि कृषि वैज्ञानिकों व प्रशासकों ने पिछले वर्षों में कृषि में पूँजी निवेश की कमी पर चिन्ता प्रकट की है। यहाँ यह भी कह दिया जाए कि इससे आगे जाकर खेती से जुड़े समुदाय द्वारा अतिरिक्त पूँजी निर्माण में कमी आएगी और जब तक इस देश के कई करोड़ वाले खेतिहर समुदाय के पास फालतू नकदी नहीं हो वे औद्योगिक वस्तुओं के लिये बाजार उपलब्ध कराने में असमर्थ रहेंगे, परिणामतः उद्योगों में रोजगार के अवसर नहीं पनपेंगे। यह बात हम शहरी पत्रकारों को कुछ वर्ष पूर्व बड़े ही स्पष्ट तरीके से समझाई गई।

खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग हमें मार्च 1980 में राजस्थान के दूरस्थ सीमावर्ती इलाकों में ले गया। वहाँ के लोग मवेशियों के पालन व दूध के धंधे के अलावा आयोग द्वारा दी जाने वाली कच्ची ऊन कातने से होने वाली आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे थे। इससे उन्हें अच्छी आमदनी हो जाती थी। आयोग वहाँ से ऊन को एक केन्द्रीय स्थान पर ले जाता था, वहाँ उनके सस्ते स्वेटर बनाए जाते थे।

होता क्या था कि इन सस्ते स्वेटरों को अधिकांशतया पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गरीब व सीमांत किसान खरीदते थे। हुआ यों कि 1979 के खराब मानसून के कारण देश में भयंकर सूखा पड़ा और इन दो इलाकों के किसानों के पास बेचने को अनाज ही नहीं था, परिणामस्वरूप उनके पास खरीदारी के लिये फालतू धन ही नहीं था। उस साल कुछ ही किसानों ने राजस्थानी स्वेटर खरीदे। परिणाम यह हुआ कि खादी आयोग के राजस्थान के गोदामों में करोड़ों रुपये के स्वेटर एकत्र हो गए और इस स्थिति से निपटना उनके लिये समस्या बन गई, इसलिये लोगों में जागरुकता पैदा करने के लिये पत्रकारों का एक दल वहाँ ले जाया गया।

प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण


हरितक्रांति से लेकर अब तक कि भारतीय कृषि की कहानी अधूरी रह जाएगी, यदि हम देश द्वारा अचानक खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की चर्चा न करें। अस्सी के दशक के मध्य तक भारत भारी मात्रा में लगभग 10 लाख टन प्रतिवर्ष खाद्य तेल मुख्य रूप से अमेरिका, ब्राजील और मलेशिया से आयात किया करता था, लेकिन 1991-92 तक ऐसा लगने लगा कि भारत आत्मनिर्भर होने लगा है तथा जब 1992-93 में लगभग 2 करोड़ 10 लाख टन तिलहनों का उत्पादन हुआ तब यह बात और उभर कर सामने आई।

तिलहनों में एक बात जो स्पष्ट दिखी वह थी कि रेपसीड और सरसों के उत्पादन में तीव्र वृद्धि दृष्टिगोचर हुई। 1986-87 में इनका उत्पादन जो केवल 26 लाख टन था, 1991-92 में 58 लाख 40 हजार टन पहुँच गया। 1992-93 में इनका उत्पादन 60 लाख टन से भी अधिक होने की आशा है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि ऐसा हुआ कैसे। यह लेखक नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के एक प्रयास का साक्षी रहा है, जिसके फलस्वरूप मैं समझता हूँ कि 5 से 6 वर्ष की अवधि में ही रेपसीड सरसों के उत्पादन में दोगुनी से भी अधिक वृद्धि हुई।

प्रौद्योगिकी हस्तांतरण सेल के सहयोग से भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में सरसों की पूसा बोल्ड किस्म को लोकप्रिय बनाने का काम हाथ में लिया। पहला काम तो किसानों को यह समझाना था कि यमुना के बाढ़ वाले मैदानों में गेहूँ के स्थान पर सरसों की खेती की जानी चाहिए। इन मैदानों में सितम्बर की मानसूनी बाढ़ का पानी उतरने पर कुछ नमी बची रहती है। संस्थान के निदेशक डा. ए.एम. माइकल व अन्य वैज्ञानिकों की किसानों के साथ हुई वार्ता में यह लेखक भी उपस्थित था।

बाढ़ मैदान की कोरा कनक पट्टी के किसान सरसों की खेती के लिये सहमत हो गए। परिणाम यह हुआ कि 1988-89 में कोरा कनक में सरसों की शानदार फसल हुई। सभी जगहों पर चर्चाएँ फैलीं और जब अगले सीजन में दिसम्बर 1989 में मैं फतेहपुर जिले गया तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि समूचा जिला सरसों के फूलों से पीतवर्णी हो गया था। दिल्ली में अपने घर छोड़कर फतेहपुर के गाँवों में मौजूद रहने वाले वैज्ञानिकों के लिये भी यह एक आश्चर्य ही था। हम कुछ पत्रकारों द्वारा जब इस कारनामें के समाचार प्रकाशित कराए गए तो उसका एक अकल्पनीय प्रभाव हुआ और समूचे देश में सरसों की खेती होने लगी दुर्भाग्य से देश में इन वैज्ञानिकों ने रेपसीड/सरसों की पैदावार बढ़ाने में जो योगदान दिया उसे अभी भी सरकार व जनता ने स्वीकारा नहीं है।

तो निष्कर्ष यह निकलता है कि इतनी विशाल उपजाऊ भूमि, वर्षभर धूप, प्रचुर जल संसाधनों और समर्पित वैज्ञानिकों की फौज व करोड़ों मेहनती किसानों वाला यह देश भारत सहज ही विश्व की एक कृषि शक्ति बन सकता है। यह बेकार की बात है कि क्या भारत औद्योगिक या सैनिक शक्ति बन सकता है या उसे बनना चाहिए। भारत को पहले तो जैसा कि पहले कभी अमेरिका था और अभी भी है, वैसे ही एक कृषि शक्ति बनना होगा। तब ही महाशक्ति बनने का भारत का मार्ग प्रशस्त होगा। जैसा कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘प्रत्येक चीज प्रतीक्षा कर सकती है, कृषि नहीं।’

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