सारांश
मानव भोजन का मुख्य अवयव प्रोटीन है। 24 अमीनो अम्ल कई तरह के प्रोटीन का निर्माण करते हैं। वनस्पति तथा जन्तु प्रोटीन के स्रोत हैं। सभी एन्जाइम (विकर) प्रोटीन हैं तथा विकर जैव-उत्प्रेरक हैं। प्रोटीन शारीरिक सौष्ठव में तथा मानव में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का कार्य करता है। आवश्यकता से अधिक प्रोटीन उच्च रक्तचाप, मोटापा, गठिया रोग, वृक्क रोग उत्पन्न करता है। शरीर में प्रोटीन की कमी से बौनापन, बाल का झड़ना, वजन में कमी, मासपेशियाँ कमजोर हो जाती हैं। प्रोटीन धागे वाली, गोलाकार, साधारण तथा मिश्रित होती है।
Abstract : Protein is the constituent of human food. There are 24 amino acid which form different proteins. Source of protein is vegetables and animal. All enzymes are proteins and enzymes are bio-catalyst. Protein builds up body and increases immune power in human beings. Excess protein causes high blood pressure, obesity, arthritis, kidney disease. Lack of protein causes dwarfness, hair fall, weight loss, muscles weakness etc. proteins are fibrous, globular, simple, mixed.
प्रोटीन शब्द ग्रीक भाषा के शब्द प्रोटियस से लिया गया है। इसका अर्थ सर्वप्रथम या आवश्यक होता है। प्रोटीन शरीर का आधार है जो शरीर की कोशिकाओं, ऊतक, हड्डियों, रक्त, हार्मोन आदि में पाया जाता है। शरीर की रचना तथा विकास के लिये प्रोटीन अति आवश्यक है। प्रोटीन में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन तत्व पाये जाते हैं। कुछ प्रोटीन में इनके साथ सल्फर, फॉस्फोरस, आयोडीन, लौह, तांबा आदि भी पाया जाता है। प्रोटीन की इकाई एमीनो अम्ल है। शरीर में विभिन्न प्रकार की प्रोटीन उपस्थित होती है जोकि एमीनो अम्ल से बनती है। एमीनो अम्ल संख्या में 24 होते हैं। आठ एमीनो अम्ल का निर्माण शरीर में नहीं होता है, जिनको अनिवार्य एमीनो अम्ल का जाता है तथा यह भोजन से प्राप्त किये जाते हैं। कुछ एमीनो अम्ल का निर्माण शरीर में होता रहता है और इन्हें अनावश्यक एमीनो अम्ल कहा जाता है।
भोजन में अपेक्षित मात्रा में प्रोटीन की उपस्थित आवश्यक है। यदि किसी प्रोटीन में सभी आवश्यक एमीनो अम्ल उपस्थित हों तो इस प्रोटीन को आदर्श या सम्पूर्ण प्रोटीन कहते हैं। जानवरों से प्राप्त प्रोटीन जैसे मांस, मछली, मुर्गा, अण्डा, दूध आदि इस श्रेणी में आते हैं। यदि प्रोटीन में आवश्यक एमीनो अम्ल नहीं पाये जायें, तो इस प्रोटीन को असम्पूर्ण प्रोटीन कहते हैं। वनस्पतियों से प्राप्त प्रोटीन जैसे अनाज, दालें, फल, सब्जियाँ आदि इस श्रेणी में आते हैं। वनस्पति स्रोतों से प्राप्त प्रोटीन, जानवरों से प्राप्त प्रोटीन की तुलना में सस्ती और सरलता से उपलब्ध होती हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि 3 कि.ग्रा. वनस्पति प्रोटीन के सेवन करने से 500 ग्राम प्रोटीन का निर्माण होता है। अनाजों में लाइसिन और थ्रियोनिन एमीनो अम्ली कम होते हैं, जबकि दालों में मिथियोनिन की कमी होती है। मिश्रित भोजन के सेवन करने से अनुपस्थित एमीनो अमलों की पूर्ति हो जाती है। दाल, चावल, रोटी, खिचड़ी, इडली, डोसा के सेवन करने से सम्पूर्ण प्रोटीन प्राप्त होती है। शाकाहारी मनुष्य प्रोटीन की आवश्यकता को भोजन, दूध आदि से प्राप्त करता है। भोजन में दाल, चावल, रोटी, सब्जियाँ आदि होते हैं जिससे शरीर को पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन प्राप्त हो जाता है। विभिन्न पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा भिन्न होती है, जिसका विवरण प्रतिशत में निम्नवत है-
1. सोयाबीन- 43.3, 2. पनीर- 40.3, 3. अंकुरित गेहूँ- 29.2, 4. मूंगफली- 25.2, 5. उड़द दाल- 24, 6. राजमा-22.9, 7. अरहर दाल 22.9, 8. काजू 21.2, 9. बादाम 20.8, 10. चने की दाल 17.1, 11. मक्का 11.9, 12. गेहूँ 11.8 13. चावल- 6.8, 14. दूध (भैंस)- 6.5, दूध (गाय)- 4.1, 15. चिकेन- 25.9, 16. बकरे का गोस्त- 20, 17. मछली-19.5, 18. अण्डा- 13.3।
प्रोटीन कई प्रकार की होती है, जिसका वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जा सकता है। एक वर्गीकरण आकृति के आधार पर भी किया जाता है। इसके अनुसार प्रोटीन दो प्रकार की होती है-
1. धागे वाली प्रोटीन (फायब्रस प्रोटीन) - जब प्रोटीन की आकृति धागे के समान लम्बी तथा पतली हो। यह पानी में अघुलनशील होती है। इस प्रकार की प्रोटीन में पोलीपेप्टाइड शृंखला स्प्रिंग (कॉयल) के रूप में नहीं होती है। जैसे- केराटिन यह बालों, नाखूनों, त्वचा में उपस्थित होती है। मायोसिन यह मांसपेशियों में, कोलाजन कार्टीलेज, हड्डियों में उपस्थित होती है।
2. ग्लोब्यूलर प्रोटीन - इस प्रकार की प्रोटीन गोलाकार आकार में होती है। इस प्रकार की प्रोटीन में पोलीपेपटाइड चेन (कॉयल) गोलाकार रूप में होती है। कॉयल में आपस में अणु हाइड्रोजन बन्ध से जुड़े रहते हैं। यह प्रोटीन जल में घुलनशील होती है। जैसे-
1. एन्जाइम- पेप्सिन- अमाशय में पाचन क्रिया में सहायक है।
2. हार्मोन- इन्सुलिन- पेनक्रियाज से निकलती है तथा रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित रखती है।
3. हीमोग्लोबिन- रक्त में उपस्थित ऑक्सीजन को फेफड़ों से ऊतकों तक पहुँचाती है।
4. एन्टीबॉडीज- गामा ग्लोब्यूलिन- रक्त में उपस्थित- प्रतिरक्षा को बढ़ाती है तथा बाहरी संक्रमण से रक्षा करती है।
दूसरा वर्गीकरण संरचना के आधार पर किया जाता है। इस आधार पर प्रोटीन दो प्रकार की होती है-
1. साधारण प्रोटीन - वह प्रोटीन जो जल अपघटन पर केवल एमीनो अम्ली देती है, साधारण प्रोटीन कहलाती है। जैसे- एलब्यूमिन, सीरम एलब्यूमिन, ग्लोब्यूलिन-ऊतक ग्लोब्यूलिन।
2. मिश्रित प्रोटीन (कॉन्जूगेटेड प्रोटीन) - जो प्रोटीन जल अपघटन पर एमीनो अम्ल और नॉन पेप्टाइड भाग देते हैं, वह मिश्रित प्रोटीन कहलाते हैं। नॉन पेप्टाइड भाग को प्रोस्थेटिक समूह कहते हैं। जैसे-
ग्लाइको प्रोटीन- थूक में म्यूसिन- प्रोस्थेटिक समूह- कार्बोहाइड्रेट
फॉस्फो प्रोटीन दूध में केसीन प्रोस्थेटिक समूह फॉस्फोरिक अम्ल
प्रोटीन शरीर में ऊतकों व कोशिकाओं का निर्माण करती है। प्रोटीन शरीर की वृद्धि व विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऊतकों व कोशिकाओं के निर्माण और मरम्मत के लिये प्रोटीन आवश्यक है। प्रोटीन शरीर में होने वाली उपापचय क्रिया को नियंत्रित करती है। यह नियंत्रण एन्जाइम और हार्मोन के द्वारा किया जाता है। प्रोटीन रक्त के द्वारा ऑक्सीजन तथा आवश्यक तत्वों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाती है। रक्त में उपस्थित प्रोटीन के कारण रक्त ऊतकों के मध्य द्रवों का आवागमन होता है। प्रोटीन प्रतिरक्षी के रूप में शरीर को रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करता है। शरीर के विकास और नये शरीर को बनने के लिये नई कोशिकाओं और ऊतकों की आवश्यकता पड़ती है जिसकी पूर्ति प्रोटीन के द्वारा की जाती है। कोशिकाओं और ऊतकों के टूटने से रोग ग्रस्त होने, ऑपरेशन होने पर भी कोशिकाओं और ऊतकों में टूटन होती है जिसको भरने हेतु प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है। प्रोटीन की आवश्यकता विभिन्न अवस्थाओं, परिस्थितियों में भिन्न होती है। यह लिंग, मानसिक व शारीरिक व शारीरिक रोग, संक्रमण, तनाव, शरीर के भार पर निर्भर करती है।
प्रोटीन की सर्वाधिक आवश्यकता शिशुओं, बच्चों व किशोरों, महिलाओं को गर्भावस्था एवं स्तनपान कराते समय होती है। भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान परिषद ने पुरुषों के लिये 60 ग्राम और महिलाओं के लिये 50 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन सेवन की संस्तुति की है। गर्भावस्था में महिलाओं को प्रोटीन की अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि नये ऊतक तथा केशिकाओं का निर्माण होता है। अतः गर्भवती महिलाओं को 75 ग्राम प्रोटीन के सेवन की संस्तुति की गई है। प्रोटीन दूध निर्माण के लिये आवश्यक है। बच्चों, किशोरों को प्रोटीन की अधिक आवश्यकता होती है। किसी भी रोग के होने पर, ऑपरेशन के बाद, फ्रैक्चर होने पर प्रोटीन की आवश्यकता होती है। वृद्धावस्था में भी ऊतकों को प्रोटीन की आवश्यकता होती है। गुर्दे के रोग होने पर मूत्र के साथ प्रोटीन शरीर के बाहर चली जाती है जिससे प्रोटीन की आवश्यकता शरीर में बढ़ जाती है। शरीर को प्रोटीन की आपूर्ति मिश्रित प्रोटीन से करनी चाहिए, जिससे आवश्यक एमीनो अम्ल की कमी न होने पाये। शाकाहारियों को प्रतिदिन 200-300 मिली दूध का सेवन अवश्य ही करना चाहिए। रक्त में एल्ब्यूमिन, ट्रांसफेरिन प्रोटीन के स्तर को मापकर, शरीर में कुल नाइट्रोजन की मात्रा के माप से भी प्रोटीन की कमी का पता लगाया जाता है। रक्त में एल्ब्यूमिन का स्तर 3.5 ग्राम प्रति 100 मि.ली. से कम हो तो प्रोटीन की कमी होगी। प्रोटीन की आवश्यक मात्रा उम्र, लिंग, काम करने की स्थिति पर निर्भर करती है। भिन्न परिस्थितियों में प्रोटीन की आवश्यकता भिन्न होगी।
परिस्थिति | प्रोटीन की मात्रा/किला | परिस्थिति | प्रोटीन की मात्रा/किला |
शिशु | किशोर | ||
1 दिन से 3 माह | 2.3 ग्राम | 9-12 वर्ष, लड़का | 54 ग्राम |
3-6 माह | 1.8 ग्राम | लड़की | 50 ग्राम |
6-9 माह | 1.65 ग्राम | 12-15 वर्ष, लड़का | 70 ग्राम |
9-12 माह | 1.5 ग्राम | लड़की | 65 ग्राम |
1-3 वर्ष | 22 ग्राम | 15-18 वर्ष, युवक | 78 ग्राम |
3-6 वर्ष | 30 ग्राम | युवती | 68 ग्राम |
6-9 वर्ष | 41 ग्राम |
शरीर में प्रोटीन की कमी कई कारणों से होती है, सामान्यतया जब भोजन में प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में उपस्थित न हो। भोजन में कैलोरी की मात्रा कम होने पर भी प्रोटीन की कमी होती है। यदि आंतों में प्रोटीन का पाचन और अवशोषण कम हो या न हो तो प्रोटीन की मात्रा कम हो जाती है। दस्त, पेचिश और आँतों में संक्रमण होने से प्रोटीन की कमी हो जाती है। यकृत के रोगों के कारण प्रोटीन का निर्माण नहीं हो पाता है। गुर्दे के रोगों के कारण शरीर से प्रोटीन का निष्कासन होता है। दोनों ही स्थिति में प्रोटीन की कमी हो जाती है। प्रोटीन की कमी विशेषकर बच्चों में दृष्टिगोचर होती है। कभी-कभी प्रोटीन की कमी गम्भीर समस्या बन जाती है। प्रोटीन की कमी के स्पष्ट लक्षण होते हैं जो बच्चों में दृष्टिगोचर होते हैं। प्रोटीन की कमी से रोग प्रतिरोध क्षमता कम हो जाती है। इस कारण संक्रामक रोग सरलता से हो जाते हैं। बच्चों में प्रोटीन की कमी से उनके विकास की गति मन्द हो जाती है तथा उनकी लम्बाई बढ़ना रुक जाती है। इतना ही नहीं बच्चों की सक्रियता भी कम हो जाती है और वह हमेशा सुस्त-सुस्त सा रहता है। बच्चों में प्रोटीन की कमी से सूखा रोग हो जाता है तथा वजन भी कम होने लगता है। प्रोटीन की अधिक कमी से क्वाशियोकोर रोग हो जाता है। इस कारण त्वचा पर धब्बे पड़ जाते हैं तथा संक्रमण भी सरलता और शीघ्र हो जाता है।
गर्भावस्था में प्रोटीन की कमी से अपरिपक्व, कम वजन, समय से पूर्व शिशु का जन्म होता है। जिसके चलते माँ के प्रसव के बाद शिशु के लिये पर्याप्त दूध नहीं बन पाता। महिला और शिशु में अल्प रक्तता हो जाती है तथा वह कमजोरी के चलते उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। वयस्कों में प्रोटीन की कमी होने पर मांसपेशियां पतली हो जाती हैं, बाल झड़ने लगते हैं, थकान महसूस होती है, नाखून, त्वचा कांतिहीन हो जाती हैं तथा कार्य करने की क्षमता भी कम हो जाती है। कुछ लोगों की श्वांस भी फूलने लगती है। प्रोटीन की कमी होने पर बुद्धि विकास की गति मन्द पड़ जाती है।
सामान्यतया आवश्यकता से अधिक मात्रा में प्रोटीन का सेवन करना लाभकारी नहीं होता। आवश्यकता से अधिक प्रोटीन शरीर में संचित नहीं होती है तथा शरीर से बाहर निकल जाती है। इस क्रिया में गुर्दों को अधिक कार्य करना पड़ता है। इससे गुर्दे के खराब होने की सम्भावना बढ़ जाती है। अधिक प्रोटीन के शरीर में उपस्थित होने पर वह वसा में परिवर्तित होकर चर्बी के रूप में जमा हो जाती है। जिससे मोटापा बढ़ जाता है जो अत्यन्त कष्टकारी होता है। अधिक प्रोटीन के सेवन से उच्च रक्तचाप, जोड़ों के रोग, गठिया रोग हो जाते हैं। जो बढ़ती उम्र के साथ-साथ परेशानी का कारण बन जाते हैं। प्रोटीन का समुचित मात्रा में नियमित रूप से सेवन करने से ही लाभ मिलता है। संतुलित भोजन करने से प्रोटीन की आवश्यकता पूर्ण होती है। शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है तथा स्वास्थ्य भी अच्छा बना रहता है। अच्छे स्वास्थ्य से शारीरिक, मानसिक विकास और वृद्धि होती है एवं आकर्षण बना रहता है। अच्छा स्वास्थ्य ही जीवन में उल्लास, उत्साह, उमंग बढ़ाता है। प्रोटीन की कमी होने पर शरीर रोगी हो जाता है। जीवन नीरस एवं अभिशाप बन जाता है।
अवलोकित सन्दर्भ
1. धवन, एस.एन. (2000) कार्बनिक रसायन, प्रदीप प्रकाशन, जालन्धर, पंजाब।
2. मॉरीसन, आर.टी. एण्ड बॉयड, आर.एन. (2010) कार्बनिक रसायन, पियरसन एजुकेशन, संस्करण-7, नई दिल्ली।
3. चटवल, गुरदीप आर. (2009) प्राकृतिक प्रोडक्ट्स का कार्बनिक रसायन, भाग-1, हिमालया पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली।
4. अग्रवाल, ओ.पी. (2013) प्राकृतिक प्रोडक्ट्स का कार्बनिक रसायन, भाग-1, संस्करण-4, कृष्णा पब्लिशिंग हाउस, मेरठ।
5. फिनार, आई.एल. (2002) कार्बनिक रसायन, पियरसन एजुकेशन, संस्करण-6, नई दिल्ली।
लेखक परिचय
ए.के. चतुर्वेदी
भूतपूर्व उपाचार्य, रसायन विज्ञान विभाग, डी.एस. डिग्री कॉलेज, अलीगढ़-202001
पता- 26, कावेरी एन्क्लेव फेज-दो, निकट स्वर्ण जयन्ती नगर, रामघाट रोड, अलीगढ़, उ.प्र.-202001 उ.प्र., भारत
प्राप्त तिथि-01.05.2016 स्वीकृत तिथि-17.08.2016
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