साफ पानी की कम होती उपलब्धता के बारे में संयुक्त राष्ट्र की यह पहली चेतावनी नहीं है। बढ़ते पेयजल संकट के बारे में वह हर साल दो बार अपनी रिपोर्ट जारी करता है। आंकड़ो के जरिए स्थिति की गम्भीरता को दिखाता है, उन तौर-तरीकों के बारे में चेताता है जिनसे साफ पानी की किल्लत बढ़ रही है। चेतावनी पर दुनिया ने कितना ध्यान दिया है, इस बारे में कोई क्या बताये संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में बहुत कुछ कह देती है। अपनी वार्षिक विश्व जल विकास रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने आगाह किया है कि यदि पानी को लेकर तौर-तरीकों, आदतों और प्रबन्धन में सुधार नहीं लाया गया तो अगले 15 साल में यानी 2030 तक साफ पानी की उपलब्धता 40 फीसदी तक कम हो सकती है।
ऐसा नहीं है कि साफ और स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास नहीं हुए हैं, लेकिन जनसंख्या का बढ़ता दबाव, जल स्रोतों के अन्धाधुन्ध दोहन और नदियों को गन्दा करने का नतीजा है कि तमाम प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। आज दुनिया की आबादी के एक बड़े हिस्से को पीने के लिए साफ पानी मय्यसर नहीं है। विकासशील देशों में स्थिति खासी विकट है और अब भी नहीं चेते तो आने वाले वर्षों में हालात और बदतर हो सकते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब का आंकड़ा पार कर जायेगी। यानी मौजूदा आबादी में दो अरब से कुछ कम लोग इसमें और जुड़ जायेंगे इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए 60 फीसदी अधिक खाद्यान्न का उत्पादन करना होगा। विकासशील देशों को तो आज के मुकाबले अपना खाद्यान्न उत्पादन दोगुना करना होगा। जाहिर है ऐसे में खेती के लिए ही बेहद मात्रा में पानी की जरूरत पड़ेगी। जिस गति से पूरी दुनिया में ग्रामीण इलाकों से लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, उससे शहरों में भी पानी मुहैया कराना बड़ी चुनौती होगी। मोटे तौर पर माना जा रहा है कि 2050 तक पहुँचते-पहुँचते पानी की माँग 55 फीसदी बढ़ जायेगी। विनिर्माण, बिजली और उद्योगों को उनकी माँग के मुताबिक पानी मुहैया कराना बेहद कठिन हो जायेगा।
ऐसा नहीं है कि प्रकृति ने पानी मुहैया कराने में कोई कोताही या कंजूसी की है। पर्याप्त पानी की बात तो संयुक्त राष्ट्र भी मानता है, लेकिन हमारी खराब आदतों ने पानी को प्रदूषित कर दिया है। कुछ दशक पहले तक मनुष्य की पानी की जरूरतें सतह के पानी यानी नदियों से पूरी होती थीं, लेकिन उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक कचरे और शहरों से हर रोज निकलने वाले सीवर के पानी को नदियों, झीलों और तालाबों में बहाकर हमने उन्हें इस कदर प्रदूषित कर दिया है कि पीने की बात तो दूर, उसे किसी अन्य काम के लिए भी सीधे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यह हालत सिर्फ भारत ही नहीं कई देशों की है। अपने देश में नदियों को साफ करने की बड़ी-बड़ी योजनाओं का अब तक सफल न होना बताता है कि मर्ज पकड़ने में हम नाकाम रहे हैं।
बारिश का पानी बेकार न जाये, इसके लिए प्रयास शुरू हुये हैं। कई शहरों में मकानों के नक़्शे तभी पास किये जाते हैं जब उसमें बारिश का पानी जमीन में जाने का इन्तजाम किया गया हो। ये अच्छी बात है, लेकिन शहरों में फुटपाथ के मामलों में इसकी अनदेखी की जाती है। पहले शहरों में फुटपाथ इस तरह बनाये जाते थे कि पानी रिसकर सीधे जमीन में जाये, लेकिन पिछले कई सालों से पक्के फुटपाथ बनाये जा रहे हैं। कपड़ा मिलों और फैक्ट्रियों-कारखानों का काफी बड़ा हिस्सा कच्चा रहता था। बारिश का पानी जमीन में चला जाता था और प्रांगण में लगे पेड़-पौधे प्रदूषण कम करते थे। आज शहरों के नाम पर चारों तरफ कंक्रीट ही कंक्रीट है। यही वजह है कि थोड़ी सी बारिश से ही ऐसा लगता है मानो शहर में बाढ़ आ गई हो। बारिश का जलस्तर पानी बेकार चला जाता है।
बारिश का पानी बर्बाद न हो ऐसी व्यवस्था करनी होगी। तालाबों का निर्माण कर जल प्रबंधन को मजबूत बनाया जा सकता है। जोहड़ों और झीलों से लेकर नदियों को साफ करना होगा। सिंचाई के लिए आधुनिकतम तकनीक के साथ-साथ पानी बचाने व सहेजने की परम्परागत विरासत को अपनाना होगा। गन्दे पानी को साफ करने की क्षमता बढ़ानी होगी। और सबसे बड़ी बात पानी की बूंद-बूंद अनमोल है, इस बात को समझना होगा।
ऐसा नहीं है कि साफ और स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास नहीं हुए हैं, लेकिन जनसंख्या का बढ़ता दबाव, जल स्रोतों के अन्धाधुन्ध दोहन और नदियों को गन्दा करने का नतीजा है कि तमाम प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। आज दुनिया की आबादी के एक बड़े हिस्से को पीने के लिए साफ पानी मय्यसर नहीं है। विकासशील देशों में स्थिति खासी विकट है और अब भी नहीं चेते तो आने वाले वर्षों में हालात और बदतर हो सकते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब का आंकड़ा पार कर जायेगी। यानी मौजूदा आबादी में दो अरब से कुछ कम लोग इसमें और जुड़ जायेंगे इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए 60 फीसदी अधिक खाद्यान्न का उत्पादन करना होगा। विकासशील देशों को तो आज के मुकाबले अपना खाद्यान्न उत्पादन दोगुना करना होगा। जाहिर है ऐसे में खेती के लिए ही बेहद मात्रा में पानी की जरूरत पड़ेगी। जिस गति से पूरी दुनिया में ग्रामीण इलाकों से लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, उससे शहरों में भी पानी मुहैया कराना बड़ी चुनौती होगी। मोटे तौर पर माना जा रहा है कि 2050 तक पहुँचते-पहुँचते पानी की माँग 55 फीसदी बढ़ जायेगी। विनिर्माण, बिजली और उद्योगों को उनकी माँग के मुताबिक पानी मुहैया कराना बेहद कठिन हो जायेगा।
ऐसा नहीं है कि प्रकृति ने पानी मुहैया कराने में कोई कोताही या कंजूसी की है। पर्याप्त पानी की बात तो संयुक्त राष्ट्र भी मानता है, लेकिन हमारी खराब आदतों ने पानी को प्रदूषित कर दिया है। कुछ दशक पहले तक मनुष्य की पानी की जरूरतें सतह के पानी यानी नदियों से पूरी होती थीं, लेकिन उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक कचरे और शहरों से हर रोज निकलने वाले सीवर के पानी को नदियों, झीलों और तालाबों में बहाकर हमने उन्हें इस कदर प्रदूषित कर दिया है कि पीने की बात तो दूर, उसे किसी अन्य काम के लिए भी सीधे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यह हालत सिर्फ भारत ही नहीं कई देशों की है। अपने देश में नदियों को साफ करने की बड़ी-बड़ी योजनाओं का अब तक सफल न होना बताता है कि मर्ज पकड़ने में हम नाकाम रहे हैं।
बारिश का पानी बर्बाद न हो, ऐसी व्यवस्था करनी होगी। सिंचाई के लिए आधुनिकतम तकनीक के साथ-साथ पानी बचाने व सहेजने की परम्परागत विरासत को अपनाना होगा। गन्दे पानी को साफ करने की क्षमता बढ़ानी होगी और सबसे बड़ी बात पानी की बूंद-बूंद अनमोल है, इस बात को समझना होगा।
सिंचाई और उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए भूमिगत जल के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल ने भी स्थिति को विकट किया है। पीने के पानी के लिए दुनिया की लगभग आधी आबादी भू-जल पर निर्भर है, लेकिन कीटनाशकों और औद्योगिक क्षेत्रों में निकलने वाले तरल कचरे ने कई इलाकों में भूमिगत जल भी दूषित कर दिया है। पिछले कुछ दशकों में ट्यूबवेल लगाने की गति ने रफ़्तार क्या पकरी भारत के ज्यादातर हिस्सों में पानी का स्तर तेजी से नीचे गया है और जा रहा है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान महाराष्ट्र आदि कई राज्यों में पानी सैकड़ों फीट नीचे चला गया है। गाँवों में जोहड़ों-तालाबों की संख्या सिमटने का भी यह नतीजा है। तालाब-पोखर-जोहड़ पानी की जरूरतें ही पूरी नहीं करते थे बल्कि गाँव की अर्थव्यवस्था भी इन पर टिकी रहती थी। किन्तु आज स्थिति यह है कि सफाई न होने की वजह से गाँवों में अधिकांश तालाबों अौर जोहड़ों का पानी इतना दूषित हो गया है कि जानवर भी उसमें मूँह डालने से हिचकते हैं। जोहड़ों-तालाबों की जमीन पर अवैध निर्माणों की वजह से बहुत से गाँवों में ये गायब ही हो गये हैं। राजस्थान व कई अन्य राज्यों में लोगों ने जोहड़ और तालाब खोद कर यह दिखा दिया है कि पानी की जरूरतें पूरी करने के लिए आज भी परम्परागत तरीके ज्यादा कारगर और किफायती हैं।बारिश का पानी बेकार न जाये, इसके लिए प्रयास शुरू हुये हैं। कई शहरों में मकानों के नक़्शे तभी पास किये जाते हैं जब उसमें बारिश का पानी जमीन में जाने का इन्तजाम किया गया हो। ये अच्छी बात है, लेकिन शहरों में फुटपाथ के मामलों में इसकी अनदेखी की जाती है। पहले शहरों में फुटपाथ इस तरह बनाये जाते थे कि पानी रिसकर सीधे जमीन में जाये, लेकिन पिछले कई सालों से पक्के फुटपाथ बनाये जा रहे हैं। कपड़ा मिलों और फैक्ट्रियों-कारखानों का काफी बड़ा हिस्सा कच्चा रहता था। बारिश का पानी जमीन में चला जाता था और प्रांगण में लगे पेड़-पौधे प्रदूषण कम करते थे। आज शहरों के नाम पर चारों तरफ कंक्रीट ही कंक्रीट है। यही वजह है कि थोड़ी सी बारिश से ही ऐसा लगता है मानो शहर में बाढ़ आ गई हो। बारिश का जलस्तर पानी बेकार चला जाता है।
बारिश का पानी बर्बाद न हो ऐसी व्यवस्था करनी होगी। तालाबों का निर्माण कर जल प्रबंधन को मजबूत बनाया जा सकता है। जोहड़ों और झीलों से लेकर नदियों को साफ करना होगा। सिंचाई के लिए आधुनिकतम तकनीक के साथ-साथ पानी बचाने व सहेजने की परम्परागत विरासत को अपनाना होगा। गन्दे पानी को साफ करने की क्षमता बढ़ानी होगी। और सबसे बड़ी बात पानी की बूंद-बूंद अनमोल है, इस बात को समझना होगा।
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