परम्परा, ज्ञान और धरोहर का व्यापार

मानव जिंदगी के लिए जिस तरह जमीन, हवा, पानी जरूरी है, उसी तरह वनस्पति और प्राणी भी जरूरी हैं। किन्हीं कारणों से यदि पौधे या प्राणी को क्षति पहुंचती है तो इसका दुष्परिणाम प्रकृति के सारे क्रिया-कलापों में अनुभव किया जाता है। जीवन निर्वाह के लिए धन दौलत से हवा, पानी ज्यादा जरूरी है। शुद्ध हवा, पानी व प्राकृतिक संतुलन तभी बना रह सकता है, जब हम सही मायने में वसुंधरा को माता समझें और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें।

विश्व भर में जैव विविधता को व्यापार बनाकर उसके माध्यम से अधिकाधिक आर्थिक दोहन का चलन हमारी सभ्यता को संकट में डाल रहा है। घटते वन और बढ़ता प्रदूषण हमारे सामने एक तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें कि विनाश के अलावा और कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। आवश्यकता है जैव विविधता की महत्ता को समझा जाए और इसे बचाने के प्रयासों को सम्मेलनों से बाहर निकालकर आम जनता के बीच लाया जाए। परम्परागत ज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर से सरोकार रखने वाली हमारी प्राकृतिक सम्पदा उपभोक्ता संस्कृति के बाजार में अब मूल्यवान हो गई है। जैव विविधता की दृष्टि से सम्पन्न भारत के उन क्षेत्र में घुसपैठ हो चुकी है, जहां दुर्लभ जड़ी-बूटियां और मूल्यवान जीवाश्म मौजूद हैं। भौगोलिक विभिन्नताओं से परिपूर्ण हर इलाके में पेड़-पौधों के साथ वन्य पशु-पक्षियों का बसेरा अब छिनता जा रहा है। दुर्भाग्य है कि जैव विविधता की कीमत जो समझते हैं, उसी समुदाय के कुछ लोग इसे बेचने में लगे हैं। भौतिक विकास की लिप्सा में प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग हो रहा है लेकिन जैव विविधता को संजोने का प्रयास आज भी शैशवावस्था में है।

वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर 16 लाख जीव जंतुओं की प्रजातियों की जानकारी है, जिसकी संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। मगर इसके ठीक विपरीत हजारों प्रजातियां विलुप्त होती जा रही है। पशु-पक्षी या किसी जंतु की प्रजाति विलुप्त होने के बाद ही उसकी अहमियत का पता हमें चलता है। पृथ्वी के आनुवांशिक संसाधन साझा विरासत हैं, जिन्हें सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा उपयोग में लाया जाना चाहिए। जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के इन महत्वपूर्ण स्रोतों से भारी भरकम व्यापारिक लाभ हैं। विकसित राष्ट्र जैव विविधता से सम्पन्न राष्ट्रों से इन्हें लेने के लिए अपना दबाव बना रहे हैं। जबकि जैविक संसाधन उस राष्ट्र की सम्पत्ति हैं, जहां पर ये आनुवांशिक मूल रूप से पाए जाते हैं। जैव विविधता के संरक्षण का प्रश्न तभी से उठ खड़ा हुआ, जबसे इसके अनुचित दोहन के विरोधी स्वर उठे। जैव विविधता के संरक्षण का अर्थ है, किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं में पाए जाने वाले पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जातियों को विलुप्त होने से बचाना। इन जातियों के लगभग पांच प्रतिशत को ही मानव खेतों व बागों में बोता है एवं उगाता और पालता है, शेष 95 प्रतिशत जातियां प्राकृतिक रूप से वन क्षेत्रों, नदी-नालों एवं समुद्री तटों में स्वमेव उगती एवं पलती हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के आह्वान पर ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में उपस्थित राष्ट्रों ने सामूहिक रूप से धरती की जैव विविधता के संरक्षण का निर्णय लिया था। भारत ने भी इस समझौते को स्वीकृति दी है। जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के समृद्धतम राष्ट्रों में है। भारत की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति होने के कारण पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जितनी अधिक प्रजातियां यहां पाई जाती हैं, उतनी विश्व के गिने-चुने राष्ट्रों में ही मिलती हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध चार जैव भौगोलिक परिमंडलों में तीन पराध्रुव तटीय, अफ्रीकी तथा इण्डोमलायन के प्रतिनिधि क्षेत्र भारत में पाए जाते हैं। विश्व के किसी भी देश में दो से अधिक परिमंडलों के क्षेत्र नहीं मिलते हैं। यही कारण है कि यूरोप और अमेरिका की तरह भारत में हिरणों की आठ प्रजातियां पाई जाती हैं। विश्व का सबसे दुर्लभ छोटा चूहा हिरण (माउस डियर) भारत में ही पाया जाता है। अफ्रीकी राष्ट्रों की तरह बब्बर शेर और एण्टीलोप की जातियां भी भारत में पाई जाती हैं।

उल्लेखनीय तथ्य है कि सारे महाद्वीप में हिरणों की प्रजातियां नहीं पाई जाती। मानव जाति के निकटस्थ चार प्राकृतिक संबंधियों में गुरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरंग उटान और गिब्बन में अंतिम जाति गिब्बन भारत के अरूणांचल प्रदेश के वनों में पाई जाती है। यह सभी जीव विषुवत रेखा के सदाबहार वनों के हैं। जलवायु की विविधता के साथ-साथ धरातल की विविधता, लम्बा सागरतट एवं अनेक समुद्री द्वीपों के कारण पशुपक्षियों एवं वनस्पतियों की विभिन्न जातियों का विकास भारत में संभव हो सका है। हमारे देश में अभी तक पशुपक्षियों की 65 हजार प्रजातियां (मछलियां 2 हजार, रेंगने वाले जीव 420, जल स्थर चर जीव 150, पक्षियों की 120, स्तनपायी पशुओं की 240 तथा शेष कीट पतंगों की जतियां) एवं पुष्पधारी वनस्पतियों की 13 हजार जातियां पहचानी जा चुकी हैं। तीव्रतर औद्योगिक विकास व कुप्रबंधन से जैव विविधता के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। पशुपक्षियों की अनेक प्रजातियां तेजी से विलुप्त हो रही हैं।

मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के अनुसार लगभग 1186 पक्षियों की प्रजातियां सम्पूर्ण विश्व में अब समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। सोयायटी के अनुसार इनमें से 78 पक्षियों की प्रजातियां केवल भारत में विलुप्ति के कगार पर हैं तथा 182 प्रजातियां आने वाले दस वर्षों के भीतर खत्म हो जाएंगी। संस्था के अनुसार प्रजातियों के विलुप्त होने की दर 640 करोड़ वर्ष पूर्व डायनासोर के विलुप्त होने की दर से भी अधिक है। इनमें 99 प्रतिशत विलुप्त हो रही प्रजातियां मूलत: मनुष्यजन्य कारकों के कारण हैं, जिसमें शिकार, आधुनिक कृषि व औद्योगिक विकास मुख्य हैं। देश में औषधीय पौधों की लगभग 9500 प्रजातियां हैं, जिनमें से 7500 प्रजातियों का उपयोग दवाओं के रूप में किया जाता है। 3900 औषधीय पौधों का संबंध वनवासियों की खाद्य संबंधी जरूरतों से है। 250 पौधों के बारे में तो इतना तक कहा जाता है कि भोजन के विकल्प के रूप में भविष्य में ये ही मनुष्य की जरूरतों को पूरा करेंगे। मुंडारिका एनसाइक्लोपीडिया के कॉदर जॉन हॉफमैन ने लिखा है कि 35 पौधे ऐसे हैं, जिनसे आदिवासी शराब बनाते हैं। 26 कंद मूल सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं। 44 पौधों को जहरीला बताया गया है और 25 पेड़ों के फुलों को भी हमारे वनवासी सब्जी की तरह खाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अमेरिका में 33 फीसदी और एशिया में 65 प्रतिशत लोग आयुर्वेद चिकित्सा पर विश्वास करते हैं। मारीशस, नेपाल और श्रीलंका में तो इस चिकित्सा प्रणाली को सरकारी मान्यता प्राप्त है। भारत, चीन, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में तो प्राचीनकाल से ही जड़ी-बूटियों से इलाज की परम्परा रही है। आज इन वनौषधियों को लूटा जा रहा है। भारी पैमाने पर इनकी तस्करी हो रही है। परिणामस्वरूप हमारे वनवासी प्रकृति की इस अमूल्य धरोहर से वंचित होते जा रहे हैं। भारतीय जड़ी-बूटियों की धड़ल्ले से हो रही तस्करी के पीछे हमारे अपने ही लोग भी काफी हद तक जुड़े हुए हैं। सभी महाद्वीपों में ऐसे अनेक देश हैं जहां काफी बड़ी कीमत देकर इन वनौषधियों को खरीदा जा रहा है। इनसे मिलने वाली भारी कीमत ने ही इनकी तस्करी को बढ़ाया है। दो वर्ष पूर्व हुए एक अध्ययन के मुताबिक हर वर्ष 80 हजार टन वनस्पति, जिसमें दुर्लभ जड़ी-बूटियां भी शामिल हैं, वैध और अवैध तरीके से भारत से बाहर लाई गई हैं।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा आंके गए एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष 5.4 अरब डॉलर मूल्य के जैव संसाधन तीसरी दुनिया के देशों से चुराए जाते हैं। इसका 60 प्रतिशत भाग सिर्फ अमेरिका हड़पता है। जर्मनी की एक दवा कंपनी हॉकिस्ट (हेक्सट्) पिछले कुछ वर्षों से भारतीय उपक्रम हाकिस्ट इंडिया के नाम पर केरल के वनों से लेकर हिमालय के पर्वतों तक समूचे भारत के पौधों, पादपों और मिट्टी के नमूने इकठ्ठा कर रही है। दो वर्ष पूर्व यह कंपनी लगभग 90 हजार नमूनों की जांच कर चुकी थी। पिछले कुछ वर्षों से छत्तीसगढ़ राज्य से बड़े पैमाने पर जड़ी-बूटियां खरीदने वाले दलाल पैदा हो गए हैं, जो इन जड़ीबूटियों को अंधाधुंध बाहर भेज रहे हैं। मानव जिंदगी के लिए जिस तरह जमीन, हवा, पानी जरूरी है, उसी तरह वनस्पति और प्राणी भी जरूरी हैं। किन्हीं कारणों से यदि पौधे या प्राणी को क्षति पहुंचती है तो इसका दुष्परिणाम प्रकृति के सारे क्रिया-कलापों में अनुभव किया जाता है। जीवन निर्वाह के लिए धन दौलत से हवा, पानी ज्यादा जरूरी है। शुद्ध हवा, पानी व प्राकृतिक संतुलन तभी बना रह सकता है, जब हम सही मायने में वसुंधरा को माता समझें और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें।

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