परमाणु विकिरण संकट

इस संसार में कोई भी चीज़ अच्छी या बुरी नहीं होती है बल्कि हमारी सोच उसे अच्छा या बुरा बनाती है। जिस प्रकार किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार परमाणु उर्जा के भी अच्छे व बुरे दोनों पहलू हैं। जहॉ एक ओर परमाणु उर्जा का प्रयोग कर ये मानवता और विश्व शांति के लिए लाभकारी हो रही है, इसके उपयोग से बिजली बनाने, हानिकारक कीटों से बचाव, रेलगाड़ी, कार और बस आदि चलाने का प्रयास, प्राकृतिक स्त्रातों जैसे पेट्रोलियम तेल एवं कोयला आदि को बचाने की क़वायद हो रही है। वहीं दूसरी ओर हम आज तक हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु बम हमले को नहीं भूल पाये और अब जापान मे सुनामी व भूकम्प के बाद रिएक्टरों में विस्फोट से उत्पन्न रेडिएशन संकट मानव सभ्यता को हिलाने के लिए काफ़ी हैं।

20 दिसंबर 1951 को पहली बार एक परमाणु रिएक्टर द्वारा बिजली उत्पन्न की गई। आर्को में पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में प्रयोगात्मक स्टेशन प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व 1919 में इंग्लैंड के अर्नेस्ट रदरफोर्ड और उनके दल ने नाइट्रोजन पर रेडियोधर्मी पदार्थ से प्राकृतिक रूप से निकलने वाले अल्फा कण से बमबारी की और अल्फा कण से भी अधिक उर्जा युक्त एक प्रोटान को उत्सर्जित होते देखा और परमाणु विखण्डन को समझने का श्रेय हासिल किया। इन्हीं के विधार्थी अर्नेस्ट वाल्टर एवं कौक्रोफ्ट ने पूरी तरह से कृत्रिम तरीक़े से परमाणु नाभिक को विखंडित करने का प्रयास किया था। उन्होंने लिथियम पर प्रोटानों की बमबारी के लिए एक कण त्वरक का प्रयोग किया, जिससे दो हीलियम नाभिकीय उर्जा की उत्पत्ति हुई। जैम्स चैडविक ने 1932 में न्यूट्रान को खोजा। एनरिको फर्मी ने प्रथम बार परमाणु विखण्डन को यूरेनियम पर न्यूट्रान की बमबारी कर प्रयोगात्मक रूप से हासिल किया। आस्ट्रियाई भौतिकविद लिसे मेटनर और राबर्ट फिश के साथ जर्मन रसायनशास्त्री ओट्टोहान और स्ट्रासमन ने अपने प्रयोगों से निर्धारित किया कि अपेक्षाकृत छोटा न्यूट्रान महाकाय यूरेनियम परमाणुओं के नाभिक की लगभग दो बराबर टुकड़ो में विभाजित करता है, जो एक आश्चर्यजनक परिणाम था। वैज्ञानिकों ने पाया कि अगर विखण्डन अभिक्रियायें अतिरिक्त न्यूट्रान छोड़ती हैं तो एक स्वचालित परमाणु श्रृंखला अभिक्रिया फलित हो सकती है। इस परिणाम से अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, सोवियत संघ आदि देशों के वैज्ञानिक परमाणु विखण्डन के समर्थन में अपनी सरकारों को प्रेरित करने लगे।

फुकुशिमा संयंत्र में छः रिएक्टर हैं। जापान को बिजली की आपूर्ति करने वाला यह प्रमुख संयंत्र है। प्रत्येक रिएक्टर में परमाणु ईधन, नियंत्रक राड, भाप और पानी होता है। जब बिजली बनना बंद हो जाती है तो नियंत्रक रॉड हरकत में आती है यदि कूलिंग ख़राब हो जाती है तो भाप ज़्यादा बनती है। गर्मी के कारण जर्कोनियम का कवर पिघल जाता है। और अंदर रखा हुआ रेडियो एक्टिव पदार्थ वातावरण में फैल जाता है। फुकुशिमा संयंत्र के रिएक्टरों में विस्फोट से प्रतिघंटा रेडिएशन की मात्रा 882 माइक्रो सीवर्ट पहुँच गई है जबकि इसे 500 माइक्रो सीवर्ट तक ही होना था। रिएक्टरों में यह ख़राबी कूलिंग सिस्टम के ख़राब होने के कारण आ रही है, रेडियो एक्टिव भाप निकल रही है। कंटेनर वेसेल से उत्पन्न दबाव को कम करने और गंभीर क्षति को रोकने के लिए रिएक्टर से हवा निकालनी शुरू कर दी है। हालाँकि जापान की परमाणु एजेंसी ने स्पष्ट किया है कि ख़तरे की बात नहीं है क्योंकि मुख्य भट्टी या कंटेनर में विस्फोट नहीं हुआ है विस्फोट संयंत्र की इमारत मे हुआ है। दूसरी ओर विएना में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी ने भी अपने अधिकारियों के माध्यम से इस बात की पुष्टि की है कि अभी तक बड़ा ख़तरा नहीं है कुलिंग का काम जारी है। विशेषज्ञों के अनुसार विस्फोट से संयंत्र के पिघलने या नष्ट हो जाने का ख़तरा बढ गया है। यदि ऐसा होता है तो परमाणु विकिरण को फैलने से नहीं रोका जा सकता। प्लांट चलाने वाली कम्पनी टेपको के अनुसार फुकुशिमा स्थित क्षतिग्रस्त परमाणु विद्युत संयंत्र के तीन रिएक्टरों में अब तक विस्फोट हो चुका है और चौथे रिएक्टर में आग लग गई है बाक़ी बचे रिएक्टर पॉच और छः पर नज़र रखी जा रही है क्योंकि ये भी धीरे-धीरे गर्म हो रहे हैं। हालाँकि ख़तरा टला नहीं है। प्लांट पिघल सकते हैं। भीषण परमाणु आपदा कि स्थिति में ईधन की छड़े पिघल जाती हैं और प्लांट नष्ट हो जाता है। जिससे बड़े पैमाने पर रेडियो एक्टिव पदार्थ वातावरण में फैल जाता है। इस प्लांट से निकलने वाली भाप से रेडिएशन का प्रकोप आनेवाले कुछ सप्ताह यहॉ तक की महीनों तक जारी रह सकता है। पेंटागन अधिकारियों के हवाले से सीजियम 137 और आयोडीन 121 की मौज़ूदगी से बड़े पैमाने पर पर्यावरण का प्रदूषण हो सकता है। सबसे बड़ी समस्या प्लांट को बंद करने की है। प्लांट में अगर चेन रिएक्शन को रोक भी दिया जाता है तो बहॉ मौजूद ईधन से प्लांट के चलने की स्थिति में उत्पन्न होने वाली उष्मा का क़रीब 6 प्रतिशत फिर भी निकलता रहेगा और सबएटामिक कणों एवं गामा किरणों के निकलने से रेडिएशन का ख़तरा फिर भी बना रहेगा। साधारणतया जब प्लांट को बंद किया जाता है तो बिजली से चलने वाले पंपो के जरिए गर्म पानी को वहॉ से निकालकर हीट एक्चेंजर में भेजा जाता है और वहॉ से उष्मा को कम करने के लिए नदी या समुद्र का पानी अंदर भेजा जाता है।

हमें याद रखना चाहिए की 1986 में चेरनोबिल में रेडिएशन लेवल सात था। अब यह इससे कहीं ज़्यादा है। तबाही का मंजर हम देख ही रहे है। दुनिया भर के लोग इन घटनाओं को घटित होते यही सोच रहे हैं कि इससे कैसे पार पायें। बहुत कुछ हवा के रूख पर भी निर्भर करता है। ख़तरा कई देशों यहॉ तक की अमेरिका तक भी पहुँच सकता है। अभी इसके दुष्प्रभावों का आकलन शेष है। भारत सरकार ने भी एतियातन कुछ क़दम उठाए हैं- जापान से आयात होने वाली खाद्य सामग्री की रेडिएशन जॉच होगी। बंदरगाह व हवाई अड्डो पर यात्रियों की रेडिएशन जाँच। भारत की कई कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों को भारत बुला लिया है। भारत की सभी परमाणु बिजलीघरों की सुरक्षा प्रणालियों की फौरन समीक्षा तथा अपने संयंत्रों के रखरखाव पर भी ध्यान केंद्रित किया है। भारत में दो परमाणु संयंत्र ही जापान के परमाणु संयंत्र जैसे हैं जहॉ वाष्पित जल रिएक्टरों का इस्तेमाल हो रहा है। बाक़ी 18 रिएक्टर स्वदेशी दाबित गुरूजल रिएक्टर हैं। जापान जैसे तारापुर के दोनों रिएक्टर की जॉच पूरी कर ली गई है। रेडिएशन स्क्रींनिंग पर भी विचार किया जा रहा है। लोगों को अनावश्यक अफ़वाहों से बचने के लिए भी कहा जा रहा है। इस भीषणतम त्रासदी से समझदारी, आपसी सूझबूझ व सही जानकारी से ही पार पाया जा सकता है। ईश्वर पूरे विश्व को इससे सामना करने की शक्ति प्रदान करे।

डॉ. बी. डी. श्रीवास्तव प्रोफ़ेसर, भौतिकी विभाग शासकीय पी जी महाविद्यालय, धार, मध्यप्रदेश- 454001, bdshrivastava@gmail com
 

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