परमाणु ऊर्जा की असलियत

परमाणु बम और ऊर्जा-संयंत्र वस्तुतः समाज और प्रकृति की हिंसक घेरेबंदी पर आधारित आधुनिक सभ्यता और राष्ट्र-राज्य की अंधी दौड़ का नतीजा है। वैज्ञानिकों के आभामंडल की परतें उतार कर देखें तो अर्थशास्त्र की तरह ही परमाणु नीति भी कई ऐसी अवधारणाओं पर आधारित है जिनका रिश्ता किसी वस्तुनिष्ठ विज्ञान से नहीं बल्कि हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक बुनावट से है। परमाणु बम के बिना दुनिया ज्यादा सुरक्षित होगी और अणु-ऊर्जा के टिकाऊ, पर्यावरण हितैषी एवं जनकेंद्रीत विकल्प संभव हैं।इस साल पोखरण अणु-विस्फोट के पंद्रह साल पूरे हुए। पोखरण से लेकर 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु-करार और उसके बाद देश के विभिन्न कोनों में परमाणु संयंत्र परियोजनाओं के खिलाफ जनांदोलनों तक, भारत की राजनीति, विदेश नीति, ऊर्जा नीति और विकास नीति काफी हद तक परमाणु मसलों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लेकिन इस विषय पर हिंदी में कोई गंभीर स्वतंत्र लेखन नहीं हुआ है। समाजकर्मी संदीप पांडेय ने हिंदी में परमाणु विषय पर लिख कर अपने सरोकारों और इंजीनियरी के अपने मूल पेशे दोनों के प्रति ईमानदारी बरती है।

‘नाभिकीय मुक्त दुनिया की ओर’ नामक यह किताब परमाणु मुद्दे की वैज्ञानिक-तकनीकी जानकारी, भारत में इसकी स्थिति और वांछनीयता तथा इस विभीषिका के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों के बारे में तीन स्वतंत्र अध्यायों का संकलन है। पहले अध्याय में यूरेनियम खनन से लेकर नाभिकीय ईंधन निर्माण, परमाणु बिजलीघरों की कार्यप्रणाली, नाभिकीय कचरे के पुनर्संसाधन और शस्त्र-निर्माण तक समूचे परमाणु ईंधन-चक्र की जानकारी सरल भाषा में दी गई है। भारत में ये संयंत्र कब, कैसे, कहां बने और इनके सरकारी दावों की हकीक़त क्या है, इसका जिक्र भी इस अध्याय में है। रावतभाटा के मौजूदा रिएक्टरों और जादूगोड़ा की यूरेनियम खदान के समीप डॉ. सुरेंद्र गाडेकर तथा डॉ. संघमित्रा गाडेकर द्वारा किए गए स्वास्थ्य सर्वेक्षणों में कैंसर और जन्मजात अपंगता जैसे रोगों की बहुतायत का भी विश्लेषण है।

दूसरा अध्याय प्रश्नोत्तरी शैली में है जिसमें परमाणु से जुड़ी आम भ्रांतियों का जवाब मिलता है। नाभिकीय विकिरण सुरक्षित है और परमाणु बम से देश की सुरक्षा होती है जैसे सवालों के साथ-साथ देश में विकास और राष्ट्र निर्माण के उस ढांचे का भी खुलासा है जिसके तहत अणु-ऊर्जा से केंद्रीकृत बिजली-उत्पादन और अणु बमों की होड़ स्वाभाविक हो जाती है। फुकुशिमा के बाद पूरी दुनिया में परमाणु ऊर्जा के कारखाने बंद किए जा रहे जबकि भारत में विदेशी आपूर्तिकर्ताओं को दिए वादे पूरे करने के लिए इन कारख़ानों को किसानों, मछुआरों और स्थानीय समुदायों पर थोपा जा रहा है और इसके लिए परमाणु ऊर्जा से जुड़े खतरे इसकी कीमत और स्वास्थ्य तथा पर्यावरणीय प्रभावों को अनदेखा किया जा रहा है।

किताब के तीसरे अध्याय में कुडनकुलम, जैतापुर, मीठी विर्दी, चुटका, गोरखपुर, कोवाडा और मेघालय जैसी प्रस्तावित परियोजनाओं एवं जादूगोड़ा, रावतभाटा, काकरापार, कैगा और कलपक्कम जैसी मौजूदा परियोजनाओं के खिलाफ स्थानीय जनांदोलनों का विश्लेषण है। स्थानीय मुद्दे और संघर्ष का इतिहास तथा उनमें शामिल जनसंगठनों की चर्चा है।

पुस्तक में 14 परिशिष्ट और तालिकाएं भी शामिल हैं जिनमें खास बिंदुओं पर जानकारी और विश्लेषण दिए गए हैं। हर अध्याय में लंबी संदर्भ सूची है जिसका लाभ इच्छुक पाठक आगे की जानकारी के लिए उठा सकते हैं। भारत के नौसेनाध्यक्ष रहे एडमिरल रामदास और पाकिस्तान के प्रख्यात शांतिवादी वैज्ञानिक परवेज हूडभॉय ने इस पुस्तिका के लिए प्रस्तावना और आमुख लिखे हैं।

परमाणु बम और ऊर्जा-संयंत्र वस्तुतः समाज और प्रकृति की हिंसक घेरेबंदी पर आधारित आधुनिक सभ्यता और राष्ट्र-राज्य की अंधी दौड़ का नतीजा है। वैज्ञानिकों के आभामंडल की परतें उतार कर देखें तो अर्थशास्त्र की तरह ही परमाणु नीति भी कई ऐसी अवधारणाओं पर आधारित है जिनका रिश्ता किसी वस्तुनिष्ठ विज्ञान से नहीं बल्कि हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक बुनावट से है। परमाणु बम के बिना दुनिया ज्यादा सुरक्षित होगी और अणु-ऊर्जा के टिकाऊ, पर्यावरण हितैषी एवं जनकेंद्रीत विकल्प संभव हैं। लेकिन सामाजिक सत्ता की सीढ़ियों के ऊपर खड़े नीति-विशेषज्ञ इस बात को देख-समझ नहीं पाते।

इस किताब के तीनों अध्याय बिलकुल अलग हैं और उन्हें स्वतंत्र रूप से पढ़ा जा सकता है। लेकिन अच्छा होता अगर लेखक ने इन तीनों अध्यायों के बीच अंतःसूत्रता बनाई होती। पुस्तिका की भाषा वैज्ञानिक शब्दावली के सटीक अनुवाद की कोशिश में कई जगह बहुत यांत्रिक सी हो गई है।

जो भी हो, यह छोटी सी किताब परमाणु मसले पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं और सामान्य पाठकवर्ग दोनों के लिए बुहत उपयोगी है और हिंदी में साहित्येतर विषयों पर गंभीर लेकिन सरल लेखन की कमी भी कुछ पूरी करती है। परमाणु मुद्दे, खासकर अणु बिजली से जुड़ी दिक्कतों को देश में ऊर्जा और विकास के व्यापक सवालों से काटकर नहीं समझा जा सकता है जिसके लिए इसी तरह के और गंभीर लेकिन सहज लेखन की जरूरत हिंदी समाज को है।

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