परमाणु ऊर्जा का स्वप्न भंग

रिएक्टरों की तीस किलोमीटर की परिधि में दस लाख से ज्यादा की सघन आबादी है, जो कि खुद परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड के मानकों से कई गुना ज़्यादा है। कुडनकुलम में प्रस्तावित रिएक्टर बिना किसी दुर्घटना के भी, सामान्य तौर पर आयोडीन-134, 132, 133, सीजियम-134, स्ट्रांशियम, ट्रीशियम, टेलीरियम जैसे भयावह जहर उगलते रहते हैं जिससे इलाके की हवा, फसलों, मवेशियों, समुद्र और भूजल पर भारी खतरा मंडरा रहा है।

अमेरिका के साथ परमाणु-करार के दौरान जहां देश के सत्तावर्ग ने इसकी चौतरफा हुई आलोचनाओं को दरकिनार किया वहीं उस पर सांसदों की सरेआम खरीद-फरोख्त के आरोप लगे। मगर अब इस करार से उपजे दंभी और विनाशकारी परमाणु सपने को जबर्दस्त चुनौती मिल रही है। पिछले दिनों तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता को प्रधानमंत्री से कुडनकुलम परमाणु बिजलीघर का निर्माण-कार्य ‘लोगों की आशंकाओं के निवारण तक’ रोकने की मांग करनी पड़ी है। मुख्यमंत्री की यह पहल सूबे में चले जुझारू जनांदोलन के दबाव में आई है, जिसमें सवा सौ लोग कुल बारह दिनों तक भूख-हड़ताल पर बैठे रहे और पंद्रह हजार से ज्यादा लोगों ने उनके समर्थन में शिरकत की। आंदोलन की शुरुआत में जयललिता परमाणु-विरोधियों को दिग्भ्रमित और परमाणु-परियोजना को पूर्णत: सुरक्षित बताती रहीं।

लेकिन कुडनकुलम के आम लोगों को परमाणु-बिजली और इस पर केंद्रित ‘विकास’ की सरकारी परिभाषा को लेकर कोई भ्रम नहीं है। अस्सी के दशक में इस परियोजना की शुरुआत से ही तमिलनाडु के किसानों, मछुआरा समुदाय और आम लोगों ने इसका विरोध किया है। 1989 में इस इलाके के दस हजार मछुआरों ने कन्याकुमारी में प्रदर्शन किया था, जिस पर पुलिस ने गोलियां चलाई थीं और बर्बर दमन किया था। सोवियत संघ के विघटन के बाद ऐसा लगा कि यह परियोजना अपनी मौत मर जाएगी, लेकिन जब 1998 में इसे पुन: शुरू किया गया तो स्थानीय जनता का विरोध फिर उठ खड़ा हुआ।

इस बार आंदोलन के उभार में तकनीकी दृष्टि से उन्नत माने जाने वाले जापान की फुकुशिमा त्रासदी में दिखे विनाश और असहायता के अनुभव का भी योगदान रहा है। लेकिन देश के परमाणु-अधिष्ठान से लेकर केंद्र और राज्य सरकार और मीडिया की तरफ से जिस तरह कुडनकुलम आंदोलन को फुकुशिमा से अचानक उपजी अतिशय प्रतिक्रिया बताया जा रहा है, वह सही नहीं है। कुडनकुलम के लोगों ने 1989 में ही, जबकि उस जमाने में ऐसी पर्यावरणीय मंजूरियों की कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं थी, न सिर्फ सरकार को इस परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करवाने पर मजबूर किया, बल्कि सरकार द्वारा आधे मन से तैयार उक्त रिपोर्ट का विधिवत अध्ययन और खंडन भी किया था।

कुडनकुलम बिजलीघर रूस की मदद से बनाया जा रहा है। फुकुशिमा के बाद रूस के एटमी विभागों ने अपने देश के रिएक्टरों की सुरक्षा पर जो साझा रिपोर्ट रूसी राष्ट्रपति को दी है, उसमें यह साफ कहा गया है कि रूस के परमाणु-उद्योग और उसके रिएक्टर डिजाइनों में फुकुशिमा के स्तर की किसी दुर्घटना से निबटने की तैयारी का भारी अभाव है। इस रिपोर्ट में राष्ट्रपति को कुल इकतीस गंभीर कमियों की जानकारी दी गई है और डब्ल्यूईआर-डिजाइन, जो कुडनकुलम में लगाई जा रही है, के भी खतरों को चिह्नित किया गया है। इसके बावजूद हमारी सरकार और उसके विभागीय वैज्ञानिक कुडनकुलम सहित देश के तमाम परमाणु-संयंत्रों को सुरक्षित बताते फिर रहे हैं।

हमारे देश में परमाणु-संयंत्रों की सुरक्षा की निगरानी और नियमन के लिए अब तक कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है और परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड (एईआरबी) खुद परमाणु ऊर्जा विभाग के मातहत ही काम करता आया है। फुकुशिमा-दुर्घटना के बाद सरकार ने परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा-जांच और एक स्वायत्त सुरक्षा नियमन इकाई के गठन की घोषणा की, लेकिन इसके पीछे वस्तुत: कोई ईमानदारी नहीं बल्कि किसी तरह लोगों को शांत रखने की कोशिश ही रही है, ताकि परमाणु-कंपनियों का भारी मुनाफे का सपना खटाई में न पड़े।

इस महीने मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद लोकसभा में पेश किए गए ‘परमाणु सुरक्षा और नियमन प्राधिकरण कानून’ की आलोचना खुद एईआरबी के प्रमुख रह चुके डॉ ए गोपालकृष्णन ने की है। उन्होंने कहा है कि इस प्राधिकरण के अधिकार एईआरबी से भी कम होंगे और इस पर सरकार का सीधा अंकुश बना रहेगा। कई जनसंगठनों और विशेषज्ञों ने भी इस प्रस्तावित कानून की आलोचना की है। फुकुशिमा के बाद देश के परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की हुई सरकारी समीक्षा का भी कमोवेश यही हाल है।

किसी स्वतंत्र जांच के बजाय परमाणु बिजली उत्पादन के लिए जिम्मेवार सरकारी कंपनी परमाणु ऊर्जा निगम के स्तर पर ही जांच को निपटा कर देश को भरोसा दिलाया गया है कि हमारे यहां सब ठीक है। इस संदर्भ में डॉ ए गोपालकृष्णन ने अपनी अध्यक्षता के समय 1995 में जारी सुरक्षा रिपोर्ट का हवाला दिया है, जिसमें विशद पड़ताल के बाद परमाणु बिजलीघरों से जुड़े कुल एक सौ चौंतीस गंभीर खतरों की पहचान की गई थी और उन पर तत्काल कार्रवाई की मांग की गई थी। लेकिन सरकार ने कुछ करने के बजाय ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के मद्देनजर उक्त रिपोर्ट को ही गोपनीय करार दे दिया।

प्रस्तावित परमाणु सुरक्षा प्राधिकरण विधेयक के तहत भी सरकार अपनी मर्जी से किसी भी संयंत्र को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर इस कानून की जद से बाहर कर सकती है, जबकि भारत-अमेरिका परमाणु करार के बाद देश की सैन्य और नागरिक परमाणु इकाइयों का साफ बंटवारा किया जा चुका है। साफ है कि परमाणु प्रतिष्ठान अब तक राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बजट से लेकर पर्यावरण और जन-स्वास्थ्य तक हर मामले में जिस तरह जवाबदेही से ऊपर होने की हैसियत का मजा उठाता आया है, अब भी उससे अलग नहीं होना चाहता।

कुडनकुलम परियोजना पर लोगों ने सुरक्षा के अलावा दूसरे सवाल भी उठाए हैं। इलाके के लोगों में विस्थापन का भय बना हुआ है। 1991 के एक आदेश के मुताबिक संयंत्र के ढाई से लेकर पांच किलोमीटर तक के क्षेत्र को ‘स्टरलाइजेशन जोन’ के बतौर चिह्नित किया गया है, जबकि राज्य सरकार लोगों को मौखिक आश्वासन देती रही है कि उनका विस्थापन नहीं किया जाएगा। रिएक्टरों की तीस किलोमीटर की परिधि में दस लाख से ज्यादा की सघन आबादी है, जो कि खुद परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड के मानकों से कई गुना ज़्यादा है। कुडनकुलम में प्रस्तावित रिएक्टर बिना किसी दुर्घटना के भी, सामान्य तौर पर आयोडीन-134, 132, 133, सीजियम-134, स्ट्रांशियम, ट्रीशियम, टेलीरियम जैसे भयावह जहर उगलते रहते हैं जिससे इलाके की हवा, फसलों, मवेशियों, समुद्र और भूजल पर भारी खतरा मंडरा रहा है।

परमाणु-तकनीक से जुड़ी संवेदनशीलता अपने आसपास आमजन से कटे, निहायत गोपनीय और अलोकतांत्रिक नीति-तंत्र को जन्म देती है। आज जब उत्तर कोरिया और ईरान जैसे घोर अलोकतांत्रिक देश भी परमाणु-तकनीक पर दावा कर चुके हैं, हमें तकनीक और व्यापक समाज के संबंधों की कोरी आधुनिकतावादी समझ पर पुनर्विचार करना चाहिए।

संयंत्र में काम कर रहे मजदूरों, ठेकेदारों और इंजीनियरों ने खुद पिछले सालों में निर्माण सामग्री की गुणवत्ता और डिजाइन को लेकर सवाल उठाए हैं। कुडनकुलम में कुल छह रिएक्टर लगाने की योजना है और कुछ महीने पहले तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने रिएक्टर नंबर 3-6, जो अभी योजनाधीन हैं, को तटवर्तीय नियमन क्षेत्र के तहत आने और उनको मंजूरी न देने की बात की थी। आंदोलनकारियों ने सवाल उठाया है कि उक्त आपत्ति रिएक्टर संख्या 1 और 2 पर भी तो लागू होती है। इन रिएक्टरों को लेकर ‘परमाणु दायित्व’ के दावे का मामला भी अभी तक सुलझा नहीं है।

सरकार परमाणु दायित्व विधेयक संसद में पास कर चुकी है, लेकिन रूसी सरकार का कहना है कि 2008 में हुए एक गुप्त समझौते के तहत भारत ने रूस को कुडनकुलम के मामले में दायित्व से मुक्त रखा है और वही समझौता वैध होगा, भारत का परमाणु दायित्व कानून नहीं।

कुडनकुलम परमाणु परियोजना के आर्थिक पक्ष को लेकर भी गंभीर सवाल उठाए गए हैं। 1988 में जब परियोजना की शुरुआत हुई थी तो इसका खर्च कुल छह हजार करोड़ आंका गया था। 1998 में यह आकलन बढ़ कर साढ़े 15, 500 हजार करोड़ हो गया और 2001 में 13,171 करोड़, जिसमें 6,775 करोड़ भारत सरकार को देना था और बाकी रूस से चार प्रतिशत की ब्याज पर कर्ज। अब दस साल के बाद इस परियोजना का वास्तविक खर्च कितना है, इसकी जानकारी लोगों को देने की कोई जरूरत सरकार ने नहीं समझी है।

भारत उन गिने-चुने मुल्कों में है जिन्होंने फुकुशिमा के बाद भी अपने परमाणु कार्यक्रम यथावत जारी रखे हैं। जर्मनी, स्वीडन, इटली, स्विट्जरलैंड जैसे कई देशों ने अपने परमाणु उद्योग बंद करने की घोषणा कर दी है। जर्मनी की एक बड़ी ऊर्जा कंपनी सीमेंस ने इसी महीने परमाणु-व्यवसाय से अपनी सारी पूंजी खींच ली है। इस फैसले का असर रूस के रोजैटम से लेकर फ्रांस की अरेवा कंपनी पर भी पड़ेगा, जो जैतापुर में दुनिया के सबसे बड़े रिएक्टर लगाने के आर्डर के बूते अपनी खोई आर्थिक रीढ़ वापस पाने का सपना देख रही है।

परमाणु तकनीक के अपने अनिवार्य खतरे हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। फुकुशिमा के बाद के महीनों में कई अन्य दुर्घटनाएं दुनिया भर में हुई हैं- फ्रांस के मारकोल में इसी महीने हुए विस्फोट में एक व्यक्ति की मौत हुई और ढेरों विकिरण फैलने की खबर है। जून में अमेरिका में एक तरफ जहां नेब्रास्का में फोर्ट कॉल्होन रिएक्टर बाढ़ की चपेट में था, वहीं न्यू मेक्सिको प्रांत के जंगल में लगी भीषण आग लॉस अलामॉस परमाणु अनुसंधान केंद्र को घेर चुकी थी, जहां सैकड़ों टन परमाणु कचरा सालों से प्लास्टिक के टेंटों में पड़ा था।

कुडनकुलम में दो दशक से अधिक समय से चल रहे आंदोलन ने दिखाया है कि विशेषज्ञों की बपौती समझे जाने वाले विषयों पर आम लोगों ने कैसे दखल दिया है और विकास, ऊर्जा, और पर्यावरण के वैकल्पिक प्रतिमानों को अपने जीवनानुभवों के बरक्स गढ़ा है। यह आंदोलन हजारों लोगों की सक्रिय भागीदारी के बावजूद पूरी तरह अहिंसक रहा है, जबकि सरकार झूठ और दमन का सहारा लेती रही है। देश के अन्य हिस्सों में अणुबिजली प्रकल्पों के विरुद्ध चल रहे आंदोलनों में भी यही बात देखने को मिल रही है। जैतापुर में झूठे मुकदमों में गिरफ्तारियां, पुलिस फायरिंग, कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत धमकी और प्रलोभन ही सरकार को सुहाते हैं।

हरियाणा के फतेहाबाद जिले में प्रस्तावित गोरखपुर परमाणु ऊर्जा परियोजना का तीस गांवों की पंचायतों ने आमराय से विरोध किया है और वहां के किसान पिछले चौदह महीनों से जिला-मुख्यालय के सामने धरने पर बैठे हैं। बिना सुनवाई लगातार जारी इस संघर्ष ने तीन किसानों की जान ले ली है, लेकिन लोगों के हौसले बुलंद हैं। फतेहाबाद में उस भाखड़ा नहर के आसरे परमाणु रिएक्टर लगाए जा रहे हैं, जो इस इलाके के किसानों की खुशहाली का स्रोत है। किसी दुर्घटना की हालत में एक नहर का पानी रिएक्टरों को बुझा पाएगा, यह बात भी लोगों के गले नहीं उतरती। ऐसे ही जुझारू आंदोलन मध्यप्रदेश के चुटका, गुजरात के भावनगर स्थित मीठीविर्डी और आंध्र के कोवाडा में भी चल रहे हैं।

कुडनकुलम की जीत तो पूरी तरह से जन-दबाव की जीत है। पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने से पहले ही ममता बनर्जी ने हरिपुर परमाणु बिजली परियोजना को निरस्त करने का वादा किया था और इस बीच परमाणु मुद्दे को लेकर माकपा के रुख में भी बदलाव आया है।

जैतापुर से लेकर हरियाणा के फतेहाबाद तक माकपा परमाणु-विरोधी आंदोलन में शरीक है। लेकिन यह कांग्रेस के परमाणु-करार को गलत साबित करने के तर्क से निकला हुआ विरोध है या माकपा ने परमाणु-बिजली, उद्योगीकरण और विकास पर वैकल्पिक सोच की जरूरत को सही में समझा है, इसकी ताकीद होना अभी बाकी है। परमाणु-तकनीक से जुड़ी संवेदनशीलता अपने आसपास आमजन से कटे, निहायत गोपनीय और अलोकतांत्रिक नीति-तंत्र को जन्म देती है। आज जब उत्तर कोरिया और ईरान जैसे घोर अलोकतांत्रिक देश भी परमाणु-तकनीक पर दावा कर चुके हैं, हमें तकनीक और व्यापक समाज के संबंधों की कोरी आधुनिकतावादी समझ पर पुनर्विचार करना चाहिए।

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