परमाणु ऊर्जा- आवश्यकता या राजनीति

फुकुशिमा के परमाणु विध्वंस से ये साफ हो गया है कि चाहे परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा का कितना भी दावा किया जाए, वो पूरी तरह सुरक्षित नहीं कहे जा सकते। फुकुशिमा में चारों रिएक्टरों में हुए विस्फोट से परमाणु विकिरण कितने बड़े इलाके में पहुँचा है और इसके कितने दूरगामी असर होंगे, इन सवालों का ठीक-ठीक जवाब देने की स्थिति में न तो राजनीतिज्ञ हैं और न ही वैज्ञानिक। ऐसे में भारत में दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र स्थापित करने के पीछे भारत सरकार की ओर से दिये जा रहे तर्क हास्यास्पद हैं और उनमें से जनता के प्रति धोखे को साफ पहचाना जा सकता है।

भारत में परमाणु ऊर्जा के पक्ष में तीन बातें कही जाती हैं कि ये सस्ती है, सुरक्षित है और स्वच्छ यानि पर्यावरण हितैषी है। जबकि सच्चाई ये है कि इनमें से कोई एक भी बात सच नहीं है बल्कि तीनों झूठ हैं। देश की जनता को धोखे में रखकर भारत में परमाणु कार्यक्रम बरास्ता जैतापुर जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है, वहाँ अगर कोई दुर्घटना नहीं भी होती है तो भी आर्थिक रूप से देश की जनता को एनरॉन जैसे और उससे भी बड़े आर्थिक धोखे का शिकार बनाया जा रहा है। और अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो आबादी के घनत्व को देखते हुए ये सोचना ही भयावह है लेकिन निराधार नहीं, कि भारत में किसी भी परमाणु दुर्घटना से हो सकने वाली जनहानि का परिमाण कहीं ज्यादा होगा।

फुकुशिमा में परमाणु रिएक्टरों के भीतर हुए विस्फोटों को ये कहकर संदर्भ से अलगाने की कोशिश की जा रही है कि वहाँ तो सुनामी की वजह से ये तबाही मची। और भारत में तो सुनामी कभी आ नहीं सकती। ये सच है कि फुकुशिमा में एक प्राकृतिक आपदा के नतीजे के तौर पर परमाणु रिसाव हुआ लेकिन जादूगुड़ा या तारापुर या रावतभाटा या कलपक्कम आदि जो भारत के मौजूदा परमाणु ऊर्जा संयंत्र हैं, जहाँ कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई है, वहाँ के नजदीकी गाँवों और बस्तियों में रहने वाले लोगों में अनेक रेडियोधर्मिता से जुड़ी बीमारियों का फैलना साबित करता है कि परमाणु विकिरण के असर उससे कहीं ज्यादा हैं जितने सरकार या सरकारी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं।

लोग आमतौर पर सोचते हैं कि परमाणु ऊर्जा सिर्फ बम के रूप में ही हानिकारक होती है अन्यथा नहीं। लेकिन सच ये है कि परमाणु बम में रेडियोएक्टिव पदार्थ कुछ किलो ही होता है और विस्फोट की वजह से उसका नुकसान एकबार में ही काफी ज्यादा होता है, जबकि एक रिएक्टर में रेडियाधर्मी परमाणु ईंधन टनों की मात्रा में होता है। अगर वह किसी भी कारण से बाहरी वातावरण के संपर्क में आ जाता है तो उससे रेडियोधर्मिता का खतरा बम से भी कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है।

परमाणु ईंधन को ठंडा रखने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पानी उस पर लगातार छोड़ा जाता है। ये पानी परमाणु प्रदूषित हो जाता है और इसके असर जानलेवा भी होते हैं। फुकुशिमा में ऐसा ही साठ हजार टन पानी रोक कर के रखा हुआ था जिसमें से 11 हजार टन पानी समंदर में छोड़ा गया और बाकी अभी भी वहीं रोक कर के रखा गया हैं। जो पानी छोड़ा गया है, वो भी काफी रेडियोएक्टिव है और उसके खतरे भी मौजूद हैं।

जहाँ तक परमाणु ऊर्जा की लागत का सवाल है तो इसके लिए आवश्यक रिएक्टर तो बहुत महँगे हैं ही और भारत-अमेरिकी परमाणु करार की वजह से हम पूरी तरह तकनीकी मामले में विदेशों पर आश्रित हैं। साथ ही किसी भी परमाणु संयंत्र की लागत का अनुमान करते समय न तो उससे निकलने वाले परमाणु कचरे के निपटान की लागत को शामिल किया जाता है और न ही परमाणु संयंत्र की डीकमीशनिंग (ध्वंस) को। कोई दुर्घटना न भी हो तो भी एक अवस्था के बाद परमाणु संयंत्रों को बंद करना होता है और वैसी स्थिति में परमाणु संयंत्र का ध्वंस तथा उसके रेडिएशन कचरे को दफन करना बहुत बड़े खर्च का मामला होता है। और अगर परमाणु दुर्घटना हो जाए तो उसके खर्च का तो अनुमान ही मुमकिन नहीं। चेर्नोबिल की दुर्घटना से 1986 में 4000 वर्ग किमी का क्षेत्रफल हजारों वर्षों के लिए रहने योग्य नहीं रह गया। वहाँ हुए परमाणु ईंधन के रिसाव से करीब सवा लाख वर्ग किमी जमीन परमाणु विकिरण के भीषण असर से ग्रस्त है। कोई कहता है कि वहाँ सिर्फ 6 लोगों की मौत हुई जबकि कुछ के आँकड़े 9 लाख भी बताये जाते हैं। क्या इसकी कीमत का आकलन किया जा सकता है? विकिरण के असर को खत्म होने में 24500 वर्ष लगने का अनुमान है, तब तक ये जमीन किसी भी तरह के उपयोग के लिए न केवल बेकार रहेगी बल्कि इसे लोगों की पहुँच से दूर रखने के लिए इसकी सुरक्षा पर भी हजारों वर्षों तक खर्च करते रहना पड़ेगा।

फुकुशिमा के हादसे के बाद से दुनिया के तमाम देशों ने अपने परमाणु कार्यक्रमों को स्थगित कर उन पर पुनर्विचार करना शुरू किया है। जर्मनी में तो वहाँ की सरकार ने परमाणु ऊर्जा को शून्य पर लाने की योजना बनाने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। खुद अमेरिका में 1976 के बाद से कोई भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया है। वे सिर्फ दूसरे कमजोर देशों को बेचने के लिए रिएक्टर बना रहे हैं। इसके बावजूद भारत सरकार ऊर्जा की जरूरत का बहाना लेकर जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए आमादा है।

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और रूस के साथ ये करार किया है कि भारत इन चारों देशों से 10-10 हजार मेगावाट क्षमता के रिएक्टर खरीद कर अपने देश में स्थापित करेगा। ये हमारे देश की नयी विदेश नीति का नतीजा है जो हमारे सत्ताधीशों ने साम्राज्यवादी ताकतों के सामने गिरवी रख दी है। महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जैतापुर में लगाया जाने वाला परमाणु संयंत्र खुद फ्रांस में ही अभी सवालों के घेरे में है और हम भारत में उसे लगाने के लिए तैयार हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की पिछले दिनों हुई भारत यात्रा के पीछे भी ये व्यापारिक समझौता ही प्रमुख था। उन्होंने विभिन्न स्रोतों का हवाला देकर बताया कि परमाणु संसाधनों से बनने वाली ऊर्जा न केवल अन्य स्त्रोतों से प्राप्त हो सकने वाली ऊर्जा से महँगी होगी बल्कि वो देश की ऊर्जा की जरूरत को कहीं से भी पूरी कर सकने में सक्षम नहीं होगी।

खुद सरकार मानती है कि परमाणु ऊर्जा हमारे मौजूदा कुल ऊर्जा उत्पादन का मात्र 3 से साढ़े तीन प्रतिशत है जो अगले 40 वर्षों के बाद अधिका अधिक 10 प्रतिशत तक पहुँच सकेगी, वो भी तब जब कोई विरोध या दुर्घटना न हो। एक मीटिंग में मौजूदा पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बिलकुल साफ कहा था कि महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाला परमाणु संयंत्र किसी भी कीमत पर बनकर रहेगा और इसकी वजह ऊर्जा की कमी नहीं बल्कि हमारी विदेश नीति और अन्य देशों के साथ हमारे रणनीतिक संबंध हैं।

जहाँ तक ऊर्जा की कमी का सवाल है, ये ऊर्जा की उपलब्धता से कम और उसके असमान वितरण से अधिक जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिये एक पंचतारा सुविधाओ से संपन्न एक बंगला ले लें। बंगले में एक परिवार रहता है और इसमें हैलीपैड, स्वीमिंग पूल आदि तरह-तरह की सुविधाएँ मौजूद हैं। इस बंगले में प्रति माह 6 लाख यूनिट बिजली की खपत होती है। ये बंगला अंबानी परिवार का है। दूसरी स्लाइड देखें शोलापुर में रहने वाले दस हजार परिवारों की कुल मासिक खपत भी 6 लाख यूनिट की है। अगर देश में बिजली की कमी है तो दस हजार परिवारों जितनी बिजली खर्च करने वाले अंबानी परिवार को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन उल्टे अंबानी को इतनी ज्यादा बिजली खर्च करने पर सरकार की ओर से कुल बिल पर 10 प्रतिशत की छूट भी मिलती है।

पवन, सौर तथा बायोमास जैसे विकल्पों का संक्षेप में ब्यौरा देकर अपनी बात समाप्त करते हुए इतना ही कहना है कि अगर परमाणु ऊर्जा इतनी महँगी, खतरनाक और नाकाफी है तो फिर उसे किस लिए देश की जनता पर थोपा जा रहा है, यह देश के लोगों को देश की सत्ता संभालने वाले लोगों से पूछना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के सामने और उनके मुनाफे की खातिर देश की राजनीति और देश के लोगों की सुरक्षा को दाँव पर लगाया जा रहा है। ये मसला ऊर्जा की जरूरत का नहीं बल्कि राजनीति के पतन का है और पतित राजनीति का मुकाबला राजनीति से अलग रहकर नहीं बल्कि सही राजनीति के जरिये ही किया जा सकता है।
 

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