परमाणु ऊर्जा और भारत

असल में ऊर्जा-सुरक्षा का सवाल सिर्फ परमाणु और कोयले की बिजली या नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों के बीच चुनाव का सवाल नहीं है। पिछले पंद्रह सालों में बिजली-उत्पादन दोगुना करने के बाद भी बिजली के बिना रहने वाले गांवों की संख्या में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। मॉल, विज्ञापन और हाईवे केंद्रित आज के विकास में ऊर्जा का अतिशय अपव्यय होता है। साझा उत्पादन, सुचारु सरकारी परिवहन वगैरह सकारात्मक कदम और एक ही चीज के कई ब्रांडों से बाजार पाटने के पूंजीवादी अपव्यय से पिंड छुड़ाने जैसे कई आमूलचूल परिवर्तनों के बिना ऊर्जा का कोई भी स्रोत तेजी से लुप्त होते प्राकृतिक संसाधनों के बीच हमें ऊर्जा-सुरक्षा नहीं दे सकता।

फुकुशिमा दुर्घटना के बाद परमाणु ऊर्जा को लेकर दुनिया भर में पुनर्विचार का दौर चल पड़ा है। पिछले एक साल में जहां जर्मनी, जापान, इटली और अमेरिका में लाखों की तादाद में लोग अणु ऊर्जा के खिलाफ सड़क पर उतरे वहीं कई नामी बैंकों और सीमेंस जैसी अग्रणी कंपनियों ने जन-भावनाओं को समझते हुए परमाणु-व्यापार से तौबा कर ली है। जर्मनी, स्वीडन, स्विट्जरलैंड जैसे मुल्कों ने तो अपनी पूरी ऊर्जा नीति में व्यापक बदलाव किए हैं और परमाणु ऊर्जा से किनारा लिया है। इस वैश्विक लहर के बावजूद हमारे देश में फुकुशिमा के कुछ ही दिनों के अंदर यह घोषणा कर दी गई कि सारे अणुबिजली घरों की पड़ताल कर ली गई है और भारत में फुकुशिमा जैसी दुर्घटना कभी नहीं होगी। जबकि हमारे देश में परमाणु-संयंत्रों की सुरक्षा की निगरानी और नियमन के लिए अब तक कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है और परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड खुद परमाणु ऊर्जा विभाग के मातहत ही काम करता आया है। फुकुशिमा-दुर्घटना के बाद सरकार ने परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा-जांच और एक स्वायत्त सुरक्षा नियमन इकाई के गठन की घोषणा की थी, लेकिन इसके पीछे कोई ईमानदारी भरी पहल नहीं बल्कि किसी तरह लोगों को शांत रखने की कोशिश ही रही है, ताकि परमाणु-कंपनियों का भारी मुनाफे का सपना खटाई में न पड़े।

पिछले साल सितंबर में केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद ‘परमाणु सुरक्षा एवं नियमन प्राधिकरण कानून’ की आलोचना खुद नियमन बोर्ड के प्रमुख रह चुके डॉ. ए. गोपालकृष्णन ने की है और कहा है कि इस प्राधिकरण के अधिकार नियमन बोर्ड से भी कम होंगे और इस पर सरकार का सीधा अंकुश बना रहेगा। कई जनसंगठनों और जन-सरोकार वाले विशेषज्ञों ने भी इस प्रस्तावित कानून की आलोचना की है। फुकुशिमा के बाद देश के परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की हुई सरकारी समीक्षा का भी कमोबेश यही हाल है। किसी स्वतंत्र जांच के बजाय परमाणु बिजली उत्पादन के लिए जिम्मेवार सरकार कंपनी परमाणु पावर कार्पोरेशन के स्तर पर ही जांच को निपटाकर देश को भरोसा दिलाया गया है कि हमारे यहां सब ठीक है। इस संदर्भ में डॉ. ए.गोपालकृष्णन ने अपनी अध्यक्षता के समय 1995 में जारी सुरक्षा रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें विशद पड़ताल के बाद परमाणु बिजलीघरों से जुड़े कुल 134 गंभीर खतरों की पहचान की गई थी और उन पर तत्काल कार्रवाई की मांग की गई थी। लेकिन सरकार ने कुछ करने के बजाय ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के मद्देनजर उक्त रिपोर्ट को ही गोपनीय करार दे दिया।

प्रस्तावित परमाणु सुरक्षा प्राधिकरण बिल के तहत भी सरकार अपनी मर्जी से किसी भी संयंत्र को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर इस कानून की जद से बाहर कर सकती है, जबकि भारत-अमेरिका परमाणु करार के बाद देश की सैन्य और नागरिक परमाणु इकाइयों का साफ बंटवारा किया जा चुका है। साफ है कि परमाणु प्रतिष्ठान अब तक राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बजट से लेकर पर्यावरण और जन-स्वास्थ्य तक हर मामले में जिस तरह जवाबदेही से ऊपर होने की हैसियत का मजा उठाता आया है, अब भी उससे अलग नहीं होना चाहता। चीन, भारत और अमेरिका फुकुशिमा की भयावह त्रासदी के बाद भी अपने परमाणु-दंभ पर कायम रहने वाले गिने-चुने देशों में हैं। जाहिर है, 2005 में हुए दुनिया के ‘सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतंत्रों’ के मिलन को फुकुशिमा की मानवीय त्रासदी अब तक पिघला नहीं पा रही है और न ही दुनिया में लोकतंत्रों के समर्थन के लिए हुई इस ‘ग्लोबल पार्टनरशिप’ को इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि जैतापुर से लेकर हरियाणा के फतेहाबाद और आंध्र के कोवाडा तक, पंचायतों और जन-सुनवाइयों जैसी लोकतंत्र की जमीनी इकाइयों ने परमाणु परियोजनाओं को ठुकरा दिया है।

हर जगह भारी पुलिसिया दमन के बीच लोकतंत्रों के इस मिलन का खेल जारी है। पिछले साल परमाणु उपादेयता विधेयक को लेकर भारत सरकार ने अपने ही स्वास्थ्य, जल-संसाधन, वन एवं पर्यावरण वगैरह कई मंत्रालयों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए इस खतरनाक कानून को मंजूरी दे दी। जैतापुर को दी गई मंजूरी के समय भी तब के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि उन पर पर्यावरणीय चिंताओं से ऊपर परमाणु-करार के अंतर्राष्ट्रीय संदर्भों को तरजीह देने का दबाव था। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 1990 के दशक में बतौर वित्तमंत्री परमाणु उद्योग के खराब प्रदर्शन को लेकर टिप्णियां करने और उसका बजट कम करने के लिए जाने जाते हैं। हाल में हुए विकीलीक्स के खुलासों ने यह भी जाहिर कर दिया है कि परमाणु-करार को लेकर संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान के लिए जमकर धांधली हुई, लोकतांत्रिक और स्वच्छ सार्वजनिक जीवन के उन सिद्धांतों की धज्जियां सरेआम उड़ाई गईं जिनकी दुहाई देते मनमोहन सिंह और यूपीए की नेता सोनिया गांधी नहीं थकतीं।

परमाणु तकनीक के अपने अनिवार्य खतरे हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। फुकुशिमा के बाद के महीनों में दुनिया भर में कई अन्य परमाणु दुर्घटनाएं हुई हैं। फ्रांस के मारकोल में इसी महीने हुए विस्फोट में एक व्यक्ति की मौत हुई और ढेरों विकिरण फैलने की खबर है। जून में अमेरिका में एक तरफ जहां नेब्रास्का में फोर्ट कॉल्होन रिएक्टर बाढ़ की चपेट में था वहीं न्यू मेक्सिको प्रांत के जंगल में लगी भीषण आग लॉस अलामॉस परमाणु अनुसंधान केंद्र को घेर चुकी थी जहां सैकड़ों टन परमाणु कचरा सालों से प्लास्टिक की टेंटों में पड़ा था। परमाणु ऊर्जा बिजली का सबसे महंगा और खतरनाक स्रोत है। बिना भारी सरकारी मदद और सब्सिडी के यह उद्योग दुनिया में कहीं भी नहीं चल पा रहा है। आतंकवादी हमले, प्राकृतिक दुर्घटनाएं, तकनीकी लापरवाही इन परमाणु-भट्ठियों को पलभर में जलजला बना सकते हैं। आजकल परमाणु ऊर्जा के समर्थन में जलवायु परिवर्तन का तर्क दिया जाता है और अणु-ऊर्जा को कार्बन मुक्त बताया जाता है।

एक तो अणु-ऊर्जा के उत्पादन में यूरेनियम खनन, उसके परिवहन से लेकर रिएक्टर के निर्माण तक काफी कार्बन खर्च होता है जिसकी गिनती नहीं की जाती, साथ ही फुकुशिमा ने यह भी साबित कर दिया है कि जलवायु संकट का समाधान होने के बजाय अणु-ऊर्जा केंद्र दरअसल बदलती जलवायु और भौगोलिक स्थितियों को झेल नहीं पाएंगे, क्योंकि इन्हें बनाते समय वे सारी स्थितियां सोच पाना मुमकिन नहीं है जो जलवायु-परिवर्तन भविष्य में अपने साथ लेकर आ सकता है। चालीस साल पहले फुकुशिमा के निर्माण के समय जापान में इतनी तेज सुनामी की दूर-दूर तक संभावना नहीं थी, वैसे ही जैसे भारत में कलपक्कम अणु-ऊर्जा केंद्र को बनाते समय सुनामी के बारे में नहीं सोचा गया था। अधिकतम साठ साल तक काम करने वाले इन अणु-बिजलीघरों में उसके बाद भी हजारों सालों तक रेडियोधर्मिता और परमाणु-कचरा रहता है, ऐसे में इतने लंबे भविष्य की सभी भावी मुसीबतों का ध्यान रिएक्टर-डिजाइन में रखा गया है, यह दावा आधुनिकता और तकनीक के अंध-व्यामोह के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है।

परमाणु बिजली भारत की ऊर्जा-सुरक्षा का हल नहीं है। रिएक्टर निर्माण के अनियंत्रित खर्च और देश के ऊर्जा-विषयक वैज्ञानिक शोध के बजट का बड़ा हिस्सा हड़प लेने के बाद भी देश की कुल बिजली में परमाणु बिजली का हिस्सा तीन फीसद से भी कम है। बीसों अणु-बिजलीघरों से 2030 तक इसे 7-8 फीसद करने की योजना है। जबकि केंद्रीकृत बिजली-उत्पादन और फिर इसे शहरों तक पहुंचाने में तीस प्रतिशत के करीब बिजली बर्बाद होती है। यूरेनियम खनन, रिएक्टर-निर्माण की लागत वगैरह बड़े खर्चों को छुपाने के बाद भी परमाणु बिजली अन्य स्रोतों की बजाय बहुत महंगी होगी। परमाणु बिजली के समर्थन में इसके कार्बन-मुक्त होने और जलवायु-परिवर्तन के संकट का हल होने का दावा किया जाता है। लेकिन फुकुशिमा की घटना का एक जरूरी सबक यह भी है कि भविष्य के अकल्पनीय पर्यावरणीय बदलावों के समक्ष आज के बनाए रिएक्टर-डिजाइन कारगर होंगे, इसका शुतुर्मुर्गी दंभ परमाणु-अधिष्ठान को छोड़ देना चाहिए।

बिजली-उत्पादन के लिए नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों का उपयोग केवल संभव है बल्कि यह सुरक्षित, कम खर्चीला और विकेंद्रीकृत होने की वजह से ज्यादा लोकतांत्रिक भी है। पिछले 5 सालों में अक्षय ऊर्जा के विभिन्न स्वरूप असल में यूरोप से लेकर भारत में सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों में से एक है, लेकिन असल में ऊर्जा-सुरक्षा का सवाल सिर्फ परमाणु और कोयले की बिजली या नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों के बीच चुनाव का सवाल नहीं है। यह ऊर्जा उत्पादन और उपभोग से जुड़ी पूरी राजनीतिक-अर्थव्यवस्था का सवाल है। पिछले पंद्रह सालों में बिजली-उत्पादन दोगुना करने के बाद भी बिजली के बिना रहने वाले गांवों की संख्या में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। मॉल, विज्ञापन और हाईवे केंद्रित आज के विकास में ऊर्जा का अतिशय अपव्यय होता है। साझा उत्पादन, सुचारु सरकारी परिवहन वगैरह सकारात्मक कदम और एक ही चीज के कई ब्रांडों से बाजार पाटने के पूंजीवादी अपव्यय से पिंड छुड़ाने जैसे कई आमूलचूल परिवर्तनों के बिना ऊर्जा का कोई भी स्रोत तेजी से लुप्त होते प्राकृतिक संसाधनों के बीच हमें ऊर्जा-सुरक्षा नहीं दे सकता। फुकुशिमा दरअसल सिर्फ एक औद्योगिक दुर्घटना नहीं है बल्कि हम सबके लिए एक खतरे की घंटी है। दुनिया भर के रिएक्टरों से रिसता विकिरण वास्तव में सड़ी हुई पूंजीवादी सभ्यता का मवाद है। मुनाफे की होड़ में प्रकृति और आने वाली नस्लों की इसी अनदेखी को कभी गांधीजी ने हिंद स्वराज में शैतानी सभ्यता कहा था।

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